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संस्मरण

स्मृतियों का राग मद्धम
--सिद्धेश्वर सिंह


श्रीकृष्ण जन्माष्टमी .किसी समय यह हमारे लिए 'अट्टमी' या 'डोल धरना' नामक उत्सव  हुआ करता था और एक दिन, दो दिन का नहीं बल्कि पूरे सप्ताह भर का उत्सव हुआ करता था। भादों के महीने में जब बारिश की टिपिर - टिपिर झड़ी लगी होती थी तब आनंद का एक साप्ताहिक उत्सव हमारे लिए बहुत बड़ा आयोजन  हुआ करता था। पूरे टोले के घर - घर से रंग बिरंगी साड़ियाँ और चादरें मांगकर तथा अपने गाँव-गिराँव व निकटवर्ती कस्बे में उपलब्ध सामग्री से 'झुलना' सजाकर हम लोग अट्टमी मनाते थे। हर घर से चंदा होता था और जनम की रात धनिया की पंजीरी के साथ आटे का चाँड़ा हुआ हलुआ और 'खीरे का 'फूट प्रसादके रूप में वितरित होता था। तब तक गाँव में बिजली नहीं आई थी इसलिए 'गेस' या पेट्रोमैक्स के प्रकाश में यह सब संपन्न होता था।

आजकल नून-  तेल - लकड़ी के जुगाड़ में अब उस भूगोल से दूर हूँ जहाँ का किस्सा ऊपर बयान किया गया है ।अब तो बिजली है ( न हो तो छोटे - मोटे काम के लिए इनवर्टर बाबा की जय !), बिजली से चलने वाले उपकरण हैं, बिजली न हो तो लगता है कि ऊपर वाले का दिया हुआ - साँसों की गति पर चलायमान यह देह रूपी उपकरण भी मिस्त्री - मैकेनिक की माँग -सा  कर रहा है। अब कीचड़ - कादों से  भरी गलियों की जगह अपने आशियाने के सामने खुली पक्की सड़क है जिसका सिरा राष्ट्रीय राजमार्ग से जुड़ता है गोया मुख्यधारा में शामिल हिने की कहानी कहता हुआ । हाट - बाजार में में किसिम - किसिम का सामान अँटा -भरा पड़ा है।  आज के दिन अपनी कालोनी  के पास वाले मंदिर में खूब सजावट है,बिजली के लट्टुओं और राडों की रोशनी में रात नहाई हुई है। दिन भर के फलाहारादि-सेवननुमा उपवास  के बाद अभी शाम को रसोई में तरह-तरह के 'व्रती' पकवानादि की तैयारी युद्धस्तर पर चल रही है जिनकी सोंधी सुवास नथुनों के रास्ते हृदय में प्रविष्ट हो रही है किन्तु मन का मृगछौना है कि वह वहीं उसी जगह व उसी कालखंड में लौट जाना चाहता है जहाँ धनिये की पंजीरी की गमक और एक बड़े से कड़ाहे में बन रहे चाँड़े हुए आटे के हलुए की सुगंध है।

अपने तईं पहले त्योहार व उत्सव सार्वजनिक उपक्रम हुआ करते  थे।  अब लगभग सब व्यक्तिगत हैं - निजी, पाईवेट लिमिटेड । क्या इसीलिए बार - बार स्मृतियों के गलियारे में डोलना पड़ता है? क्या इसीलिए अतीत की उज्जवलता को वर्तमान के तमस - पट पर सिनेमाई करतब की तरह अवतरित होते हुए देखना - निरखना पड़ता है ? कहीं पढ़ा था कि स्मृति इसीलिए स्मृति होती है कि वह वर्तमान से दूर होती है। आज दिन भर कुछ न कुछ पढ़ता रहा। घर में पत्रिकाओं - किताबों का ढेर लगा है फिर भी बहुत कुछ अनपढ़ा - अनदेखा रह रह जाता है। फिर भी कहीं बाहर से लौटने पर बैग की जिप खोलते ही किताबें - पत्रिकाएँ क्यों झाँकने लगती हैं ? लिखे - छपे हुए शब्द के प्रति ऐसा मोह ! दुनिया कहाँ से कहाँ पहुँच गई किन्तु आपन हैं कि 'दिल ढूँढता है फिर वही।'  ऐसा मुमकिन नहीं है कि समय की रील को रिवाइंड करके एक टाइम मशीन बना ली जाय और जब जी करे व्यतीत में विचरण का निर्बाध आनंद लिया जाय, अगर ऐसा संभव है तो एक अदद टाइम मशीन भविष्य के भान के लिए भी होनी चाहिए। सही कहा जाता है कि विकास और प्रगति  के लिए कुछ न कुछ की बलि देनी ही पड़ती है, मूल्य चुकाना पड़ता है। खैर, अब भी अगर मन प्रान्तर में कहीं न कहीं  रागात्मकता की गूँज - अनूगूँज, नाद - अनुनाद  शेष है और देह व दिमाग अपनी काया व कलेवर में काठ के नहीं हो गए हैं, आज के कठिन समय में यह कुछ कम तो नहीं !

आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी है और पिछले कुछ दिनों से रमजान का महीना चल रहा है। अभी शाम को बाजार से लौटते समय देखा कि मस्जिद पर  खूब सजावट है - तरह - तरह की बिजली की झालरें। अब जल्द ही ईद आएगी - मीठी ईद, सिवइयों  वाली। सहसा प्रेमचंद की कहानी 'ईदगाह' की याद हो आई। थोड़ी देर के लिए  मोटर मैकेनिक  के गैराज / वर्कशाप पर रुका तो वहाँ काम में लगे बालकों को देखकर  हामिद का चिमटा याद आ गया। एक चीज में कितनी चीजें  गड्ड - मड्ड होती जा रही हैं। अभी - अभी प्रेमचंद याद आए थे और अब 'कन्हैया का बालपन गाते हुए ' नज़ीर अकबरादी याद आ रहे हैं। हिन्दी - उर्दू - संस्कृत के साझे साहित्य से बहुत - सी रचनाएँ कृष्ण और उनकी अष्टमी के बहाने याद आ रही हैं। जयदेव, विद्यापति, सूर, मीरां, रहीम, रसखान से लेकर रत्नाकर, भारतेन्दु, हरिऔध, धर्मवीर भारती। तक जाने क्या - क्या घुमड़ रहा है और मैं चकित हूँ कि त्योहार किस तरह हमें साहित्य और किताबों की ओर मोड़ देता है!

अब तो अपने आसपास सबकुछ लगभग घर में बंद है- स्मृति भी। पर्व - त्योहार छुट्टी या अवकाश के पर्यायवाची - से हो गए हैं। त्योहारों का एक अर्थ शायद यह भी रह / हो गया है कि यादों की जुगाली कर ली जाय और इस तरह दैनिक जीवन के जुगाड़ में जुते हुए देह और दिमाग को थोड़ी-सी  छुट्टी दी जाय, भीतर-बाहर की कलुषता व गर्द-गुबार को स्मृतियों के रूईदार फाहे से पोंछ दिया जाय, अपने आसपास की धुँधुआती हुई आग के बीच से राग की ऊष्मा को उलीचकर अंतस तक उतार लिया जाय कुल मिलाकर यह कि सबकुछ भला-भला लगे!

रात अब गहरा रही है, बाहर बारिश है । सावन, अरे नहीं, सावन तो लगभग सूखा ही बीत गया। अब तो भादों है, कल रात से झड़ी लगी हुई है। बारिश के गिरने की आवाज अंदर कमरे तक आ रही है और मैं त्योहारों के बहाने बह आई तरावट को महसूस करते हुए, रत्ना बसु की सुरीली आवाज में 'सावन झरी लागेला धिरे - धीरे ' सुनते हुए, कल की डाक में आई एक पत्रिका के पन्ने पलटते हुए सोने का उपक्रम करने जा रहा हूँ क्योंकि कल सुबह जल्दी जागना है

तो, मित्रों ! आज श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की बधाई!
अभी
, इस क्षण एक कविता की पंक्ति याद आ रही है- ' अब सही जाती नहीं यह निर्दयी बरसात / खिड़की बन्द कर दो ' ! लेकिन क्या ईंट, गारे, सीमेंट, लोहा - लक्कड़ से बने मकान मे लगी काठ की शीशेदार खिड़कियों के बन्द कर देने से स्मृतियों की यह 'बरसात' थम जाएगी ? बाहर अब भी बारिश हो रही है - मद्धम, बाहर रोशनी कम है - मद्धम, मन में स्मृतियों का राग बज रहा है मद्धम - मद्धम !

 

३० अगस्त २०१०

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