साहित्य सहवास में चारों ओऱ
बड़े करीने से हरियाली उग आई थी। अपनी मेहनत की सफलता पर खुश
भी थे भारती जी कि सहसा उनका वही मूल भागवत-प्रेम उनके मन
में हिलोरें लेने लगा और जाने कहाँ भटक-भटककर ले आए कदंब
वृक्ष का पौधा, खुद उसकी देखरेख की। बालकनी में खड़े होकर
उसकी बढ़त देखते और प्रसन्न होते रहते। कुछ वर्ष बाद जब उस
वृक्ष में पहली बार फूल आए तो उनके आह्लाद का कोई छोर नहीं
था। लरजती आवाज़ में दसियों मित्रों को फोन किए गए, निमंत्रण
दिए गए- कदंब के फूल खिले देखने के लिए। मित्र ही नहीं,
रास्ता चलते अपरिचित लोग भी ठिठककर फूल देखते थे उन दिनों।
उन्हीं दिनों भारती जी ने लिखी थी 'कदंब-पोखऱ' नाम की कविता।
और याद है मुझे कदंब से जुड़ा एक मीठा-मीठा झगड़ा भी।
खैर, झगड़े, मान मनौवल की
बात यहीं छोड़कर मैं आपको बताऊँ कि कदंब का वृक्ष धीरे-धीरे
बहुत विशाल वृक्ष बन गया था। खूब ढेर सारे बड़े-बड़े फूलों
की शोभा देखते ही बनती थी। उसे खूब सराहना मिली तो भारती जी
को कृष्ण से संबंधित 'छितवन' वृक्ष की याद आती- छितवन की
छाँह में नटवर नागर कृष्ण कन्हैया जब तमाम गोपियों के साथ
शरत पूर्णिमा की रात में रास रचाते थे उसे महारास कहा जाता
था, क्यों कि उस रात भगवान के नृत्य की गति इतनी तेज़ होती थी
कि हर गोपी यही समझती थी कि कृष्ण केवल उसी के साथ नाच रहे
हैं। जाने कहाँ-कहाँ भटका था इस पौधे की खोज में। दसियों जगह
की खाक छानने के बाद पता चला कि 'सप्तपर्णी' नाम से जाना
जानेवाला यह वृक्ष दिल्ली की एक नर्सरी में उपलब्ध है।
अविलंब लाया गया और अपनी स्टडी के पिछवाड़े से सटी ज़मीन पर
उसे रोप दिया गया। जैसी सँवार की गई, उससे वह भी शीघ्र ही
पौधे से वृक्ष बन गया। शाख-दर-शाख दनादन फूटने लगी और एक
गझिन छायादार वृक्ष खड़ा हो गया। हर शाख पर सैंकड़ों
पत्तियाँ ऐसे निकलतीं कि सात-सात पत्तियों का एक संपुट-सा बन
जाता और शरद ऋतु आते-आते उन पत्तियों के बीच में सैंकड़ों
कलियाँ फूट आती थीं और शरत पूनो पर तो आलम यह होता था कि
पत्तियाँ नज़र ही नहीं आती थीं। पूरा-का-पूरा वृक्ष
नन्हे-नन्हे फूलों के गुच्छों से भर जाता था। महक ऐसी तेज़
और नशीली कि सारे वातावरण को मदहोश बना दे। उस नशीली सुगंध
का भरपूर आनंद लेने के लिए 'शाकुंतल' में रहनेवाले हमें
सातों परिवार शरत पूर्णिमा की चाँदनी में इमारत की छत पर
इकट्ठा होते थे, बच्चियाँ नृत्य करती थीं, कोई गाना गाता,
कोई कविता सुनाता और सब मिलकर मेरी बनाई खीर खाते। बड़ी
सुहानी यादें हैं छितवन की।
कदंब और छितवन के अतिरिक्त
कृष्ण कथा से जुड़े फरद के वृक्ष की बात भी सुनिए। सन १९५६
की बात है। हम लोग पहले कोणार्क में सूर्य मंदिर के दर्शन
करने गए, फिर वहाँ से सड़क के रास्ते जगन्नाथ पुरी की ओर
चले। रास्ते में हमने एक गाँव में देखा, सड़क के दोनों ओर
फरद के पेड़ लगे थे, जिन पर डहडह लाल रंग के कटोरीनुमा फूल
खिले थे। फूल तोड़ नहीं सकते थे, क्यों कि पेड़ खासे ऊँचे थे।
लेकिन नीचे ज़मीन फूलों से पटी पड़ी थी। मैंने ताज़े-ताज़े
फूल चुनकर-बटोरकर अपने आँचल में भर लिए। पुरी पहुँचकर सीधे
मंदिर गए और जब जगन्नाथ जी के दर्शन किए तो आँचल के दोनों
छोर पकड़कर ढेर-के-ढेर फूल मैंने विग्रह पर बरबस बरसा दिए।
पुजारी भी विहँस उठा था। भारती जी को मेरी वह भंगिमा इतनी भी
गई थी कि उसकी याद में फरद का वृक्ष भी लगाया गया। साहित्य
सहवास में बड़ा वृक्ष लगाने की उपयुक्त जगह नहीं बची थी-
भारती जी का कुछ लालच यह भी था कि वृक्ष ऐसी जगह लगे जहाँ
अपने घर में बैठे-बैठे हमें वह दीख सके। सो घर के सामने वाली
बिल्डिंग के पीछे की ज़मीन पर उसे रोप दिया। पेड़ बड़ा हुआ।
मौसम आने पर वही दहकते लाल-लाल फूल खिलने लगे। थोड़ी-सी ही
दूरी पर यहाँ एक बर्ड सैंक्चुअरी हैं, जहाँ से ढेरों तोते
हमारी कॉलोनी के वृक्षों की फुनगियों पर आकर बैठते हैं। एक
बार हमने देखा कि कुछ तोते फरद के फूलों में अपनी चोंच डालकर
रस पी रहे हैं। लाल-लाल फूल हरे-हरे तोते! ऐसा मनभावन दृश्य
था कि भारती जी ने सड़क की ओर खुलनेवाली खिड़की को तुड़वाकर
वहाँ बड़े-बड़े काँच की पारदर्शी दीवार जैसी खिड़की बनवा दी,
सुबह वहीं बैठकर चाय पीते और अख़बार पढ़ते थे।
गुलमोहर, अमलतास, शेषनाग,
रक्त-अशोक, बाँस, आम, बादाम, शिरीष, चंपा, चमेली, रातरानी,
मधुमालती, गंधराज, हरसिंगार, कचनार वगैरह-वगैरह सैंकड़ों
जातियों के फल-पत्तों से सजे साहित्य सहवास की बाकी सब
हरियाली की बात छोड़कर अब कृष्ण से संबंधित इन्हीं तीन
वृक्षों की वह बात बताती हूँ जो सिर्फ़ मैं जानती हूँ। ४
सितंबर, १९९७ की रात को भारती जी सोए तो हमेशा के लिए सो गए।
सुबह केवल शरीर था, आत्मा विलग हो चुकी थी। उन्होंने अपने
हाथों से, बड़े प्यार से इन तीनों वृक्षों को रोपा था, अपनी
पूरी ममता देकर सींचा और सँवारा था। उन कदंब, फरद और छितवन
ने उनके जाने का सोग जिस तरह अपने ऊपर झेला कि मैं खुद पर
शर्मिंदा होती हूँ कि मैं ज़िंदा कैसे हूँ।
बंबई में जून के महीने में
बरसात आती है। बरसात के एक पखवारे पहले से कदंब में गोल-गोल
गुठलियों की शक्ल की कलियाँ दिखाई देने लगती थीं और बारिश के
तीन-चार दिन पहले उन गुठलियों पर वासंती आभा लिए सैंकड़ों
रेशे निकल आते थे और पूरा पेड़ इतना सज जाता था कि अगर
संवेदनाएँ गहरी हैं तो कल्पना में कृष्ण की बाँसुरी भी सुनाई
दे जाए। पर क्या भारती जी के देहावसान के बाद जो जून आई तो
बरसात आ गई, पर पूरे विशाल वृक्ष पर आठ-दस ही फूल खिले, बाकी
कलियाँ यों ही गुठलियों की शक्ल में नीचे गिर गईं। धीरे-धीरे
तो वे गुठलियाँ निकलनी भी कम हो गईं। फूल भी इक्का-दुक्का ही
दिखाई देते थे। अब दस बरस बाद तो लोग भूलने ही लगे हैं कि इस
पेड़ पर कभी फूल आते थे- कोई कहता है, हमारे कदंब को नज़र लग
गई, कोई कहता है, पता नहीं क्या बीमारी लग गई है, पर किससे
बताऊँ कि... यह घर है, पर भारती जी नहीं- कदंब का वृक्ष है,
पर फूल नहीं।
जगन्नाथ जी पर हुलसकर फूल
बरसाने का साक्षी वह फरद भी अगले बरस आई एक दिन तेज़ आँधी और
बरसात में पूरा-का-पूरा वृक्ष अरअराकर सड़क पर गिरा। तोतों
को क्या मालूम कि जिन हाथों ने उसे इतने प्यार से लगाया था,
उन उँगलियों का और अपनी ओर निहारती आँखों का वियोग नहीं सहन
कर पाया और अपना वह रस और लाल दहकते फूल लिए-लिए चला गया,
शायद उनकी खोज में कहीं...।
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१८ जुलाई, १९८९ को भारती जी
को बहुत भयंकर दौरा पड़ा दिल का। क्लीनिकल डैथ भी हो गई थी,
पर बड़े चमत्कारिक ढंग से डॉक्टर बोर्जेस ने उन्हें बचा लिया
और वे लगभग तीन महीने अस्पताल में रहे- ठीक होकर जब घर आए तब
भी डॉक्टर ने पूर्ण आराम की सलाह दी थी। ज़िद की कि मेरा
बिस्तर स्टडी में ही लगा दो- यहाँ से गदराया हुआ छितवन दिखाई
देता है। उसकी खुशबू बहुत सुकून देती है। वही किया गया-
छितवन की छाँह में उन्होंने आराम किया और धीरे-धीरे पूरी तरह
स्वस्थ हो गए।
फिर उस बरस यानी १९९७ में
भी छितवन के पेड़ पर वैसे ही गुच्छे-गुच्छे फूल खिल आए थे-
वैसी ही सुहानी खुशबू बगरी हुई थी, पर सबकुछ यों ही छोड़कर ४
सितंबर को भारती जी ने हमेशा के लिए विदा ले ली थी। हम
इनसानों का रोना-कलपना और आँसू तो सबने देखे, पर कोई नहीं
देख पाया कि छितवन अपनी हज़ार-हज़ार आँखों से कितना रोया,
कितना रोया कि उसकी आँखों के आँसू भी सूख गए होंगे, तभी न
आठ-दस दिन बाद जब शरत पूर्णिमा आई तब हमारी इमारतवाले लोगों
ने देखा कि अरे, इस बार फूल खिलने की बजाय मुरझाने क्यों लगे
हैं? खुशबू में कसैलापन क्यों आ गया है? लोगों को फिर वही
अफसोस लगा कि इस पेड़ को भी लगता है, जड़ में कहीं कीड़े लग
गए हैं। मैं किसी को क्या बताती? केवल श्रीमती लीला
बांदिवडेकर को बताया कि कदंब की ही तरह यह भी विरह-विगलित
है। अगले वर्षों में कदंब की तरह ही इसमें भी धीरे-धीरे फूल
आने बंद हो गए। कदंब तो फिर भी दो कमरे दूर था, पर यह तो
स्टडी में एकदम करीब बैठे उनको देखता रहा होगा, इसलिए और भी
ज़्यादा तड़प उठा होगा। कदंब में कम-से-कम पत्तियाँ तो
निकलती हैं, पर यह तो धीरे-धीरे सूखने लगा और देखते-देखते
एकदम ठूँठ हो गया। पिछले दो सालों से छत से भी ऊँचा उठा वह
विशाल वृक्ष अपनी नंगी शाखाओं की बाँहें पसारे ठूँठ बनकर
खड़ा था, एकदम सूख गया था। बारिश आनेवाली है। कभी यह ठूँठ
टूटकर गिरा तो बड़ा नुकसान हो सकता है, इसलिए कल ५ जून को
उसे कटवा दिया गया है।
जब वह काटा जा रहा था, उस
समय अचानक बड़ी तेज़ हवा चलने लगी थी। खिड़की-दरवाज़े
खड़खड़ा रहे थे और धूल-मिट्टी के गुबार घरों में प्रवेश कर
रहे थे। अचानक भारती जी की स्टडी पर लगी जाली टूटकर गिरी और
बाहर जाकर जो मैंने देखा तो ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की नीचे
और मैं जड़वत हो गई। हवा तेज़ थी ज़रूर, पर पेड़ तो बालकनी
की तरफ़ लगा था, यह टूटी शाखा वर्तुलाकार उड़कर इस खिड़की पर
दस्तक देने कैसे आ गई? यह सच है कि कल न उसके पहले चली थीं
वैसी हवाएँ, न बाद में चली हैं। क्या तेज़ हवाएँ इसीलिए चली
थीं कि इस शाख को उड़ाकर लाना था? उसने खिड़की पर दस्तक दी,
जाली से टकराई और खिड़की की मुँड़ेर पर जाकर गिर गई है। अभी
भी वहीं पड़ी है। उसकी ओर आँसू से लबालब आँखों से देख रही
हूँ। जानती हूँ कि भारती जी की आत्मा तो अब भी इसी स्टडी में
बसती है, क्या शाख की बाँहें बढ़ाकर छितवन का वह वृक्ष उनसे
अंतिम विदा लेने आया था- या शायद शिकायत करने आई थी यह शाख
कि तुमने हमें लगाया था, ये आज काटे ते रहे हैं। या शायद यह
मेरे साथ अपनी पीड़ा बाँटने आई थी, उनका स्पर्श प्रतिपल अपने
साथ महसूस करती जीती रही हूँ, सो जाते-जाते वह वृक्ष इस टहनी
की बाँह बढ़ाकर उन्हें छूने आया था, दुलराने आया था, बतियाने
आया था भारती जी से। बार-बार पूछ रही हूँ मुँड़ेर पर लेटी इस
शाखा से- मिले वह? छू सकीं उन्हें तुम? देख सकीं? बोल- बतिया
सकीं?
मेरी पहुँच से दूर पड़ी है
वह। वहाँ तक मेरा हाथ नहीं पहुँच सकता, पर जी हो रहा है, उस
शाख को एक बार छू लूँ और महसूस कर लूँ उसे, जिसकी तलाश में
वह आई है- प्राणपण से भागी आई है। साझे का दुःख भोगा है
हमने। वह तो जड़ से कटकर मुक्त होकर मिलन के लिए आई थी। मैं
हूँ कि अभी भी जड़ों से जुड़ी जी रही हूँ। कल से बिना
खाए-पिए गुमसुम रो-रोकर जीती रही हूँ- पता नहीं कितना और
जीना है उनके बिना। |