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मेरी पहली फ़िल्म- तूफ़ान मेल
महावीर शर्मा
“एंग्लो-इस्टाईल से ऐसे डाइलाग मारती है कि विलन की तो बोलती
बंद हो जाती है। जब तर्राटे का
हाथ मारती है तो साला विलन सीधी तीसरी मंजिल की बुर्जी पर
अटका हुआ ही नजर आता है। अबे
महावीरा, १५ पुलिसियों की पकड़ में नहीं आती, ऐसी जम्प
मारती है कि पुलिसिए साले भौंदुओं की तरै देखते ही रह जाते
हैं। सीधी कोतवाली की छत पर पहुंच कर सीटी बजा कर ऐसे अंदाज से ‘हाय’ कहती है –
क्या अदा है! और जान काउस के साथ तो ऐसी जोड़ी जमती है कि बस कयामत हो जाती है।
अगर ये फिरंगी मुलक को छोड़ जाएं तो सच कह रिया हूं कि हिंदुस्तान का पहला
पिराइम मिनिस्टर या तो जान काउस बनेगा या फिर नाडिया। इनके मुकालबे में और है
ही कौन? अबे, आजकल नाडिया की ‘हंटर वाली’ फिलिम राबिन टाकिज के मंडुए में
चल रही है, देखियो जरूर! और हाँ……….” हेमू बक्काल ज्यों ज्यों नाडिया के जलवे
दिखाता, हम दोनों भाइयों की
उत्सुकता तड़पाहट में बदलने लगी।
हेमू बक्काल का असली नाम तो हमीद था। एक दिन गिल्ली डंडा
खेलते हुए फकीरा ने पिल्लू में से ऐसे ज़ोर से गिल्ली उचकाई कि निकल कर सीधी
हमीद की दाईं आंख में फ़िट हो गई। एक बाजार बंद होने से उसका नाम हेमू बक्काल पड़
गया था। मैं उस समय १० वर्ष का था,
मुरली भाई दो साल बड़े थे। मुरली
भाई मिडिल स्कूल की छटी क्लास में, मैं और हेमू बक्काल प्राइमरी स्कूल की चौथी
क्लास में थे। हेमू की उम्र १४ वर्ष की थी।
४ साल से चौथी क्लास की
लक्ष्मण रेखा को उलांघ
नहीं सका।
रोशनारा बाग में औरंगजेब की बहन की कब्र पर बैठे हुए हेमू
बक्काल के प्रवचन से
हम तो इतने प्रभावित हो गए कि स्कूल की परीक्षा नाडिया के
दीदार के सामने ऐसी गौण
हो गई जैसे तलाकशुदा अमेरिकन मिसेज़ वालिस सिंपसन के इश्क
में प्रिंस एडवर्ड अष्टम
को सारी दुनिया का राज तुच्छ लगा था।
वैसे मुरली भाई का नाम
शिव प्रसाद था पर उन्हें मुरली क्यों कहते हैं, इसका राज़ तो हमीदी-फरीदी जासूस भी
नहीं मालूम कर सके। मुरली
और मेरा रिश्ता ‘भाई’ का कम था, दोस्ती का नाता ज्यादा था।
इसीलिए एक दूसरे के
सब राज़ दोनों को पता होते थे। दोनों में इतना नज़दीकीपन था
कि उसने मुझे अपनी
खुफ़िया एस.पी. (सिगरेट पियो) सोसाइटी की अपनी मेम्बरशिप की
बात भी बता दी।
दीना के तालाब के पास बरगद के पेड़ के खोखले में इस
एस.पी.सोसाइटी की सिग्रेटों के
पैकेट रखे जाते थे। मैं मुरली भाई ना कह कर केवल मुरली
शब्द से ही संबोधन करता था जो
वह बहुत पसंद करता था। कहता था कि यार जो प्यार ‘तू’शब्द कहने
में है वो ‘आप’ शनाप
में नहीं।
जीजी (हमारी माँ) कृष्ण भगवान की अनन्य भक्त थीं। पिताजी के
देहांत के बाद तो
उनका अधिक समय पूजा-पाठ में ही लगता था। सूखा पड़ जाए, चाहे दीना के तालाब में
झुलसती हुई धूप के मारे मेंढकों का टर्राना बंद हो जाए, सावन
में झूले पड़ें ना पड़ें, पर हर
एकादशी के दिन दालान में कीर्तन का आयोजन नहीं रुक सकता था।
मकान के सारे
किरायेदार और मोहल्ले की औरतों का जमघट और फिर प्रसाद तो
अवश्य बटेगा ही।
मकान के किराया, कुछ पिता जी का छोड़ा हुआ पैसा और बड़े भैया
की क्लर्की की नौकरी
से हम दोनों की पढ़ाई सहित गुजारा हो ही जाता था। बड़े भैया
ने दसवीं के बाद स्कूल को
अलविदा कर दिया था। कहते थे कि ये दोनों भाई इंजीनियर और
डाक्टर बन जायेंगे तो
पिता जी वाले दिन फिर से वापस आजायेंगे।
मैं रोशनारा बाग में बैठा था कि मुरली भाई हांफता हुआ आया
और बोला, ” अबे, मैं ने..मैं..मैंने झल्ला कर कहा, ” कुछ बोलेगा भी या बकरी की तरह ‘मैं
मैं’ मिमियाता रहेगा।” मुरली
भाई ने साथ के पत्थर पर बैठ कर सांस ली और कहने लगा, ” मैंने
तरकीब ढूंढ ली है।
” मैंने उसे पैनी निगाह से देखा और कहा, “क्या मुझे भी
‘एस.पी. सोसाइटी का मेम्बर
बनाने के चक्कर में है। बड़े भाई से कह दिया तो तेरी हड्डी
पसली निकाल कर हाथ में
पकड़ा देंगे” मुरली भाई झल्ला कर बोला, ” मैंने फिलम देखने
की तरकीब ढूंढ ली है…” मैं
उछल कर वापस पत्थर पर जो बैठा तो कूल्हे की हड्डी ने ‘हाय
राम’ की चीख निकलवा दी। मुरली ने जारी रखा, “एकादशी के दिन फिलम
देखा करेंगे।” मैंने मुँह बिचका कर कहा,
“क्यों मंडुए के मैनेजर छगन लाल की लड़की पटा ली है?” मुरली
भाई ने अपना माथा पीट
लिया,” उसकी बात मत कर। वो छगनिया नाक काट कर मुँह में ठूंस
देगा” मैंने कहा,”
तो क्या बहराम की गुफा में सुल्ताना डाकू का खुफिया खजाना
मिल गया? सिनेमा
दिखाएगा! तेरा दिमाग धुरे से हट गया है जभी तो गलबलाए जा रहा
है।”
मेरे गाल पर जो तर्राटे का थप्पड़ पड़ा तो मेरी आंखों के आगे
सारे देवता घूमने लगे। मुरली
भाई झल्ला कर बोला,” हड़काए हुए कुत्ते की तरह भौंके जा रहा
है, कुछ कहने भी देगा या
नहीं? सुन। एकादशी के दिन जीजी के कीर्तन के प्रसाद का सामान
हम दोनों ही तो लाते
हैं। मैंने हिसाब किताब बैठा लिया है कि पांच आने का घपला
किया जा सकता है।” मैंनै
जरा दूर पत्थर पर बैठ कर कहा, “और तू सिनेमा देख ले और आकर
मुझे कहानी सुना
दे। यह नहीं चलेगा।”
” ये बात नहीं है। पहले दिन मैं टिकट लेकर इन्टरवैल तक
देखूँगा और हाफ टाइम पर
बाहर आकर ‘वापसी’ टिकट तुझे दे दूँगा। अगली हाफ तू देख लियो।
आकर फिर रोशनारा
की कबर पर बैठ कर एक दूसरे को अपनी अपनी आधी कहानी सुनाएँगे,
ऐसा लगेगा कि
पूरी फिलम देख ली। अगली एकादशी पर पारी बदल लेंगे।”
मेरी आंखों में ऐसी दिव्य-ज्योति आ गई जैसे नाडिया मेरे सामने
खड़ी हो। लेकिन एकदम
मायूसी के साथ नाडिया गुम हो गई। मैंने कहा, “देख मुरली,
पहले तो चोरी करना पाप है
और फिर वह भी भगवान कृष्ण जी की चोरी!” मुरली असमंजस में पड़
गया। फिर संभल
कर बोला, “तू तो बस निरा किताबी कीड़ा है। मुझे तो लगता है
कि धरम-करम में तो तुझे
बिस्वास ही नहीं है। तेरी अक्कल पर तो ‘तूर’ पहाड़ का पत्थर
पड़ गया है जिस को ‘मूसा’
ने मूत कर जला दिया था। बड़े ज्ञान की बात बताता हूं। देख
कृष्ण भगवान भी तो मक्खन
चुराने के लिए लोगों की मटकियाँ फोड़ डालते थे। तू ही बता कि
कृष्ण भगवान जी कभी
पाप कर सकते थे? – नहीं ना! अगर पाप होता तो जीजी उनकी पूजा
करती कहीं?”
मैंने काटा,” मगर वह तो मक्खन चुराते थे, सिनेमा के लिए पैसे
थोड़े ही चुराते थे!”
मुरली भाई ने तुरुप फेंकी, “तू बड़ा होकर एम.इया भी पास कर ले
पर बुद्धू का बुद्धू ही रहेगा।
चोरी चाहे केलों की हो या कलाकंद की या फिर मक्खन की चोरी ही
कहलाएगी। दूसरे,
उस जमाने में इकन्नी दुअन्नी के सिक्के या सिनेमा नहीं होते
थे। उनका पैसा गाय, दूध,
मक्खन कपड़ा वगैरह होते थे। आपस में अदल बदला कर काम चलाते
थे। तू जब छठी
क्लास में पहुँचेगा, तुझे पता लग जाएगा कि ‘बार्टर सिस्टम’
क्या होता है।”
ऐसा लगा जैसे मेरे ज्ञान-चक्षु खुल गए हों, दिव्य-ज्योति के
प्रकाश में ऐसा लग रहा था
कि नाडिया ने बड़े प्यार से कह रही हो कि विरह के दिन बीत गए
हैं।
भगवान कृष्ण जी की कृपा से प्लान फलीभूत हो गई। मुरली की
जेब में 5 आने उथल-पुथल कर रहे थे। जैसे जैसे मंडुए की तरफ कदम बढ़ते जा रहे
थे, दिल की धौंकनी ऐसे
चल रही थी जैसे किसी फुर्तीले चोर के पीछे किसी मोटी तोंद
वाले हाँफते हुए हवालदार के
दिल की धौंकनी चल रही हो।
मुरली भाई सिनेमा हाल में पहुंच गया। मेरे दिल में बड़ी
तिलमिलाहट हो रही थी। इंटरवैल
तक इधर उधर घूमता रहा। मुरली भाई बाहर निकला तो वायदे के
मुताबिक ‘वापसी’ का
टिकट देना चाह रहा था कि टिकट हाथ से छुट ही नहीं रहा था,
कुछ कहते हुए घिग्घी बन
रही थी, आंखें ऊपर को स्थिर! मैंने कहा, “अच्छा, दिल में
बेइमानी आ गई ना। पूरी
फिलम देखने के लिए सारे वादे इरादे बदल गए, देख फजीता कर
दूँगा ….”
पीछे से जो कड़क आवाज़ आई, ” टिकट इसे नहीं मुझे दे।” बड़े
भाई साहब की आवाज़
सुन कर मेरा नीचे का दम नीचे और ऊपर का दम ऊपर जैसे सांप
सूँघ गया हो। पीछे को
मुड़ कर देखा तो गर्दन मुड़ी की मुड़ी रह गई। बड़े भाई ने
वापसी टिकट फाड़ कर फेंक
दिया। घर चलने का इशारा दे कर आगे आगे चल दिए। मैं दिल ही
दिल में संकटमोचन
हानुमानाष्टक को दोहराए जा रहा था, “कौन सो संकट मोर गरीब को
जो तुम से नहीं जात
है टारो?” तो कभी प्रार्थना करता “हरि बिन तेरो कौन सहाई….”
या रटता ‘जल तू जलाल
तू आई बला को टाल तू।’ दिल ही दिल में संकल्प कर लिया कि हर
एकादशी में आधे
दिन का उपवास करूँगा पर प्रभु आज यह संकट टाल दो, कभी सिनेमा
के लिए आपके
प्रसाद में से चोरी नहीं करूँगा! फिर उसी समय आधे उपवास का
विचार बदल कर उपवास
डबल कर दिया कि पूरे दिन का उपवास किया करूँगा। नाडिया की
फिल्म भी नहीं देखूँगा
पर हे दीनदयाल आज इस बला से नजात दिला दे।
इसी गुनताड़े में घर पहुंच गए। अंदर जाकर घुसे ही थे तो
तड़ातड़ एक मेरे और एक मुरली
भाई के गाल पर भरपूर तमाचा पड़ा तो दोनों बिलबिला गए - मुँह
से चीख के साथ ऐसी
आवाज़ निकली जैसे किसी बड़े पतीले में दाल में छौंक लग गया
हो। वह तो जीजी सामने
आ गईं नहीं तो बत्तीसी बाहर आ जाती। ये दूध के दांत भी नहीं
थे कि चलो फिर से आजाएँगे।
खैर, बात यहीं तक ही रही। बड़े भाई कुछ कहे बिना सीधे ऊपर के
कमर में चले गए। वहां से
शोर आ रहा था जैसे दीवार पर कोई हथौड़ा मार रहा हो। जीजी ऊपर
पहुंची तो जोर से कहा,
“दोनों यहां आओ।” ऊपर जा
कर देखा तो बड़े भाई ने जोर जोर से दोनों हाथों को दीवार पर
पटक पटक कर लहूलुहान
कर लिए थे। हम दोनों को गले से लिपटा लिया। रोते रोते कह रहे
थे, “नालायकों, आइंदा
कभी भी चोरी ना करना। मुझे तुम्हारे दोस्त राकेश ने सब कुछ
बता दिया था। वह बाग
में तुम्हारे पीछे ही बैठा सुन रहा था।” हम सब ही रो रहे थे।
जीजी साड़ी के पल्ले से मुँह
को ढकते हुए तेजी से नीचे जा कर घर के मंदिर में फूट फूट कर
रो रही थी। बड़े भाई की हथेलियाँ दो तीन दिन में काम चलाऊ हो गईं।
एक महीना बीत गया। फिल्म का भूत भी उतर सा गया था। इस बार
एकादशी रविवार के
दिन थी। हम दोनों प्रसाद का सामान खरीद कर ले आए थे। गर्मी
के मारे दोनों ने ही क़मीज़ उतार दिये और नीचे भी बस घुटन्ना पहने हुए थे। लगभग साढ़े
ग्यारह बज
रहे थे। बड़े भाई की कड़कती हुई आवाज ने चौंका दिया, “दोनों
क्या बनियान और घुटन्ने
में ही चलोगे? ढंग के कपड़े तो पहन लो।”
घबरा के दोनों एक ही सुर में बोले, "कहां जाना है बड़े भइया?”
बड़े भाई मुस्करा रहे थे,” रोज स्कूल जाते हुए रॉबिन टॉकीज
के जंबो साइज़ का बोर्ड
नहीं दिखाई देता। नाडिया और जान कावस की फिल्म ‘तूफ़ान मेल’
लगी है।”
मुस्कराते हुए सवा रुपए वाली तीन टिकटें हवा में हिला रहे
थे!
मेरी पहली फिल्म - तूफान मेल
१
दिसंबर २००७ |