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श्रद्धा-सुमन
भारत से महत्वपूर्ण व्यक्तियों
के श्रद्धा-सुमन कमलेश्वर के नाम
हमारी दोस्ती महाभारत जैसी -
राजेंद्र यादव (संपादक, हंस)
हिंदी साहित्य के
१००-१५० साल के इतिहास में इतना ज़बर्दस्त आंदोलन किसी ने
नहीं चलाया जितना कमलेश्वर ने। कहानी को हिंदी साहित्य की
केंद्रीय विधा बनाने में उनका योगदान सबसे अधिक है। उनके
व्यक्तित्व में एक स्टारडम भी था और वे इसके शिकार भी थे।
'नई कहानी' आंदोलन के प्रारंभिक पैरोकारों में सबसे अधिक
जुझारु व्यक्तित्व कमलेश्वर का था। हालाँकि मुझे, मोहन राकेश
और कमलेश्वर - तीनों को नई कहानी आंदोलन के नेतृत्व करने
वालों के रूप में
देखा-जाना जाता है, पर नई कहानी आंदोलन को हिंदी साहित्य में
स्थापित करने में कमलेश्वर की भूमिका अहम थी। स्थापित
साहित्यकारों की ओर से सबसे अधिक हमले उन पर ही हुए और आगे
बढ़कर हमले का जवाब भी उन्होंने ही दिया। उनमें एक ज़बर्दस्त
जुझारुपन, एक ज़बर्दस्त जिजीविषा थी। वे बहुमुखी प्रतिभा के
धनी थे। इस प्रतिभा का संघर्ष व उसकी छाप साहित्य,
पत्रकारिता, फ़िल्म और टी.वी. सीरियल - हर क्षेत्र में देखने
को मिलती है। उनकी ज़बान ऐसी थी जिसने हिंदी-उर्दू के बीच के
भेद को मिटा दिया था। वे उर्दू वालों को भी उतने ही
स्वीकार्य थे जितने हिंदी वालों को। हमारी दोस्ती महाभारत की
दोस्ती की तरह थी। साथ में हँसना, बोलना, बैठना था लेकिन
हममें इस बात को लेकर सहमति थी कि युद्ध के समय कोई किसी को
बख़्शेगा नहीं, हमले में किसी तरह की कोताही नहीं होगी। उनसे
मेरे मतभेद भी थे, ख़ासकर सत्ता के प्रति उनके रवैये को
लेकर। जितने संसाधन कमलेश्वर के पास थे और उसे जिस
सत्ता-विरोधी संघर्ष में इस्तेमाल किया जाना चाहिए था, उसे
कमलेश्वर ने नहीं किया। अंत में एक
शेर
कहना चाहूँगा- खुदा बख़्शे बहुत-सी खूबियाँ तू मरने वाले को.
. . '
बड़े संपादक भी -
कामतानाथ (वरिष्ठ कथाकार)
प्रेमचंद और यशपाल के बाद नई कहानीकारों
की जो पीढ़ी आई उनमें रचना के स्तर पर कमलेश्वर का नाम
महत्वपूर्ण रहा। समानांतर कहानी आंदोलन की देशव्यापी भूमिका
कमलेश्वर ने ही तैयार की। जब-जब कहानी की दिशा में भटकाव
आया, उन्होंने कलम उठाई और एक समीक्षक की तरह मार्गदर्शन
करते हुए उसे रास्ते पर ले आए।
नई पीढ़ी को नई दिशा दी -
गुलज़ार (गीतकार)
मैं और कमलेश्वर फ़िल्मों के माध्यम से
नहीं मिले थे। उनसे मेरी मुलाक़ात उनके फ़िल्मों में आने से
पहले हुई थी।
हम
दोनों साहित्य के माध्यम से ही मिले थे। हम साहित्य पर ही
बातें करते थे। उन दिनों कमलेश्वर, मोहन राकेश और दुष्यंत
कुमार- ये तीनों युवा रचनाकार की तरह मिले थे और उनकी रचनाओं
में अलग तरह का जोश था। उनकी कहानी ने नई पीढ़ी को नई दिशा
दी है। उनके साथ बिताए पल-पल की यादें ताज़ा हैं और वह कभी
मुर्झाने वाली नहीं हैं। मैं उन यादों को अपने हिसाब से जी
रहा हूँ। मुंबई के बाद जब वह दिल्ली चले गए तब भी हम एक
दूसरे से ही नहीं बल्कि परिवार के साथ मिलते थे। उनके बारे
में कई यादें हैं लेकिन अभी इस स्थिति में नहीं हूँ कि यादों
के पन्नों को पलट सकूँ।
उनका साथ
जीवंत - केदारनाथ सिंह (वरिष्ठ कवि)
वे कई बड़ी योजनाओं पर वह काम कर रहे थे
जिसमें ज्ञानोदय द्वारा प्रकाशित 'कथा संस्कृति कोष' एक बड़ा
काम है। वह हिंदी-उर्दू लेखन को एक साथ रखकर नए साहित्य
इतिहास लिख रहे थे। उनके साथ होना एक जीवंत दुनिया में होना
था। वह दिल्ली जैसे कटे हुए लोगों के शहर में इस 'कटे हुए
पन' को तोड़नेवाले कल्पनाशील व्यक्तित्व थे।
बांग्ला पाठक भी चकित - महाश्वेता देवी (लेखिका)
शिमला के इंदिरा गाँधी मेडिकल कॉलेज में
दिल का दौरा पड़ने के बाद दाख़िल हुई
महाश्वेता देवी के लिए कमलेश्वर के देहांत का समाचार
किसी दूसरे सदमे से कम न था। ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित
प्रख्यात लेखिका और समाजसेवी महाश्वेता
देवी ने बताया कि कमलेश्वर एक ऐसी जमीन के लेखक थे, जहाँ
कहानी की पौध नए आकार में पैदा हुई, फलीभूत हुई। इस
कारण उनके स्वर्गवास से साहित्य जगत को
बहुत बड़ी क्षति हुई है। शायद ही अब इसकी भरपाई हो सके।
उन्होंने कहा कि कमलेश्वर भारतीय साहित्य की अमूल्य निधि थे।
उनकी साहित्य और मीडिया दोनों में
विलक्षण दक्षता थी। उन्होंने दोनों विधाओं को साधिकार साधा
था। बांग्ला में भी उनकी किताब 'कोतो पाकिस्तान' छपी थी और
उसने बांग्ला पाठकों को विस्मित-चकित किया था।
हर दौर में खुद का सृजन - सुधीर
तैलंग (कार्टूनिस्ट)
कमलेश्वर बहुआयामी व्यक्तित्व के लेखक
थे। हर वक्त और हर दौर में उन्होंने अपने आपको नए सिरे से
सृजित किया। यही वजह है कि वे 6० के दौर में जितने
महत्वपूर्ण थे, उतने ही महत्वपूर्ण 2१ वीं सदी में भी थे।
ग़ैर हिंदी पाठकों को भी जोड़ा - अशोक बाजपेयी (वरिष्ठ
कवि)
वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी ने कहा कि
कमलेश्वर एक महत्वपूर्ण साहित्यकार ही नहीं बल्कि एक
सार्वजनिक बुद्धिजीवी भी थे। उन्होंने भारतीय समाज, राजनीति
और कूटनीति, इन तीनों पर अपनी चिंताओं को कहानियों से इतर
जाकर सार्वजनिक इज़हार करते थे। वे सामयिक विषयों पर मानवीय
दृष्टिकोण अपनाते थे। शनिवार को ही मैं नया ज्ञानोदय का
नवीनतम अंक में छपे उनके साक्षात्कार को पढ़ रहा था। उसमें
उन्होंने हिंदू और मुसलमानों का साझा इतिहास लिखने की बात
कही है। वे इस काम को जल्दी करना चाहते थे। यह एक बड़ा काम
था जो अधूरा रह गया। देश में कट्टरता के खिलाफ संघर्ष कर रहे
तमाम शक्तियों के लिये उनका जाना झटका है। साझा धर्मों के
तहज़ीब के लिये बड़ा झटका है। कहानीकार के रूप में वे
सर्वश्रेष्ठ हैं। उनकी पहली कहानी संग्रह 'राजा निरबंसिया'
ने उन्हें मार्कण्डेय के साथ ला खड़ा किया था उनकी कहानियों
में कस्बाई गंध थी। जब वे मध्यवर्ग, कस्बाई और ग्रामीण
परिवेश को लेकर कहानियाँ रचते थे तब उनकी कहानी बिल्कुल अलग
होती थी। कमलेश्वर हिंदी के कुछ
प्रमुख सार्वजनिक चेहरों में थे। जिनकी बात लोग ग़ौर से
सुनते पढ़ते थे। उनके नहीं रहने सार्वजनिक स्पेस में हिंदी
के सिकुड़ते दायरे की गति संभवतः और बढ़ेगी। उनमें युवाओं को
अपने साथ जोड़ने का बड़ा कौशल था उन्होंने बड़ी संख्या में
युवा कथाकारों को प्रोत्साहित किया और अपने साथ जोड़ा हिंदी
में भी और हिंदी के बाहर के साहित्यकारों को भी। उनके जाने
से भारतीय समाज में बढ़ती धार्मिक
कट्टरता व असहिष्णुता से लड़ने वाली शक्तियाँ कमज़ोर होगी।
कृतियाँ उन्हें रखेंगी ज़िंदा -अमरकांत (वरिष्ठ कथाकार)
एक साहित्यकार अपने संघर्षों से किस
बुलंदी तक पहुँच सकता है, कमलेश्वर इसकी मिसाल थे। बुलंदियों
तक पहुँचने वाले कमलेश्वर के विचारों में समय के परिवर्तन के
बावजूद कभी कोई बदलाव नहीं आया। कमलेश्वर ने हिंदी साहित्य
जगत में जो कृतियाँ दी हैं, वे उन्हें हमेशा ज़िंदा रखेंगी।
(हिंदुस्तान
कानपुर से साभार) |