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लोकतांत्रिक चेतना से संपन्न कथाकार
—मैनेजर
पांडेय
इंद्र कुमार
गुजराल के साथ कमलेश्वर
(लेखक जे.एन.यू के पूर्व प्रोफ़ेसर और हिंदी के वरिष्ठ समालोचक
हैं)कमलेश्वर जितने बड़े कथाकार
थे, उतने ही बड़े इंसान भी थे। आज के ज़माने में लेखकों और
साहित्यकारों में भी बड़े इंसान का मिलना बेहद मुश्किल होता
जा रहा है। ऐसे समय में कमलेश्वर पूरी तरह से लोकतांत्रिक
चेतना से संपन्न एक व्यक्ति और कथाकार के रूप में हमारे समय
और समाज के रू-ब-रू थे। उनके भीतर विरोधी विचारों और
व्यक्तियों से भी संवाद करने की तत्परता और क्षमता थी, जो
उन्हें विशिष्टता प्रदान करती हैं। कमलेश्वर प्राय: ऐसे
प्रसंगों में भी अपना धैर्य और संयम नहीं खोते थे, जहाँ उनकी
आलोचना होती थी, या जहाँ उन पर आक्रमण होते थे। उनकी
लोकतांत्रिक चेतना उनके व्यक्तित्व का हिस्सा भी थी और उनकी
कहानियों का भी अनिवार्य हिस्सा थी।
उनकी लेखन यात्रा पर अगर नज़र
डालें तो स्पष्ट होता है कि उनकी रचनाओं में अत्यंत विविधता
थी और उनका विस्तार भी काफ़ी व्यापक था। कमलेश्वर नई कहानी
के दौरान चर्चा में आए। इस दौर के दो कहानीकारों राजेंद्र
यादव और मोहन राकेश के साथ उनकी तुलनात्मक चर्चा अक्सर होती
रही है। लेकिन इन दोनों और इस दौर के दूसरे अन्य कहानीकारों
के मुकाबले कमलेश्वर में सामाजिक चेतना सबसे अधिक थी। उनके
भीतर समाज के उत्पीड़ित और पराधीन लोगों की यातना की
अभिव्यक्ति की चिंता सर्वाधिक थी। इसलिए उनकी कहानियों में
उस दौर में भी स्त्रियों की पराधीनता को अभिव्यक्त करने की
चिंता दिखती है, जिस दौर में स्त्रियाँ हाशिए पर थीं और
साहित्य में भी उनकी चिंता कम ही की जाती थी।
दरअसल सामाजिक संवेदनशीलता
कमलेश्वर में आरंभिक दिनों से ही थी। बाद के दिनों में उनके
बौद्धिक कर्म का विस्तार हुआ और वे एक साहित्यकार के अलावा
पत्रकार व मीडियाकर्मी के रूप में हमारे सामने आए। एक
बौद्धिक पत्रकार के रूप में वे सबसे सारिका के संपादक के रूप
में हमारे सामने आते हैं। उस समय पत्रकारिता और साहित्य के
सरोकार दूसरे किस्म के होते थे। लेकिन कमलेश्वर ने इनका
विस्तार किया। सारिका के संपादक के रूप में उन्होंने उस
पत्रिका के ऐसे विशेषांक निकाले, जो आज भी मील का पत्थर माने
जाते हैं। उदाहरण के रूप में दलित विमर्श पर निकाले गए उनके
विशेषांक याद किए जाते हैं। हिंदी साहित्य में दलित चर्चा
शुरू होने से काफ़ी पहले उन्होंने इस पत्रिका की कहानियों के
माध्यम से और कहानियों से इतर विमर्श आयोजित करके भी दलित
विमर्श को चर्चा का विषय बनाया। संभवत: बंबई में रहने और
मराठी साहित्यकारों के लंबे सान्निध्य ने उन्हें इसके लिए
प्रेरित किया, लेकिन हाशिए पर के समूहों के प्रति उनकी अपनी
दृष्टि भी काफ़ी प्रखर थी, इसलिए उन्होंने इन विमर्शों को
आगे बढ़ाया। कहानी का एक नया आंदोलन भी उन्होंने चलाया था,
जिसे उन्होंने समानांतर कहानी आंदोलन का नाम दिया। हालाँकि
यह आंदोलन चला नहीं क्यों कि इसका कोई स्पष्ट वैचारिक व
रचनात्मक आधार नहीं था। लेकिन यह ज़रूर था कि उन्होंने कहानी
को चर्चा के केंद्र में ला दिया।
एक तरह से यह कहा जा सकता
है कि राजेंद्र यादव से बहुत पहले कमलेश्वर ने सारिका और
समानांतर कहानी आंदोलन के ज़रिए हिंदी कहानियों को साहित्यिक
चर्चा का केंद्र बिंदु बनाया। पत्रकार और मीडियाकर्मी के रूप
में उनका दूसरा दौर काफ़ी देर से शुरू हुआ। जब उन्होंने कई
अख़बारों के संपादक के रूप में काम किया। संपादनकर्म के बाद
वे अख़बारों के लिए निरंतर लेखन भी करते रहे। अपने स्तंभों
के ज़रिए उन्होंने लगातार समाज विरोध किया और लोकतांत्रिक
मूल्यों का समर्थन किया। दरअसल इसी जगह पर उनका धर्म
निरपेक्ष और लोकतांत्रिक चरित्र खूब उभर कर आता है।
साहित्यकारों के बीच वे ऐसे व्यक्ति रहे, जो लगातार
सांप्रदायिकता के विरोध में किसी न किसी तरह से संघष करते
रहे। यह लंबे अरसे से बहस का विषय रहा है कि साहित्यकार के
सरोकार क्या सिर्फ़ लेखन तक सीमित हैं? कमलेश्वर ने अपने
आचरण और अपने सार्वजनिक व्यक्तित्व से इस बहस को एक नया आयाम
दिया। दूरदर्शन को दिशा देने में भी उन्होंने एक महत्वपूर्ण
भूमिका निभाई। हिंदी के दो ही लेखक हैं, जिन्हें दूरदर्शन पर
हिंदी को नई भाषा और चेतना के रूप में स्थापित करने में सबसे
अधिक योगदान किया।
एक तो स्वयं कमलेश्वर थे और
दूसरे मनोहर श्याम जोशी। इन दोनों ने फ़िल्मों के लिए
पटकथाएँ लिखीं और टीवी धारावाहिकों की कहानियाँ और पटकथाएँ
लिखीं और इस तरह से हिंदी लोकप्रियता को विस्तार दिया।
कमलेश्वर का एक और योगदान अतुलनीय है और वह है हिंदी को
साहित्य की भाषा से निकाल कर मीडिया की भाषा के रूप में
स्थापित करना। उन्होंने साबित किया हिंदी सिर्फ़ साहित्य की
भाषा नहीं है, बल्कि मीडिया की भाषा के रूप में भी उतनी ही
जीवंत और प्रभावशाली है। अगर कमलेश्वर के ढेर सारे रूपों में
से किसी एक रूप को बुनियादी मानने का सवाल आए तो मैं उनके
कथाकार रूप को सर्वश्रेष्ठ मानूँगा। उनका उपन्यास 'कितने
पाकिस्तान' एक बेहद महत्वपूर्ण रचना है और मुझे भी काफ़ी
पसंद है। यह एक व्यापक परिप्रेक्ष्य और ऐतिहासिक दृष्टिकोण
से लिखी गई रचना है और यह सिर्फ़ राजनीतिक चेतना से संपन्न
उपन्यास ही नहीं है, बल्कि मनुष्य की नियति की समस्याओं पर
लिखा गया एक वृहद उपन्यास है, जो बहुत तरह के लोगों के मन को
छूता और प्रभावित करता है।
इसका एक स्पष्ट राजनीतिक
पक्ष है क्यों कि यह भारत-पाकिस्तान के विभाजन की त्रासदी पर
लिखा गया है लेकिन इसकी अंतर्कथा में यह पड़ताल है कि विभाजन
की मनोवृत्तियाँ इंसान में कहाँ-कहाँ पाई जाती हैं और
कैसी-कैसी होती हैं। लेकिन उस उपन्यास को छोड़ दें तो भविष्य
में उन्हें एक बड़े कथाकार के रूप में ही याद किया जाएगा। पर
यहाँ मैं स्पष्ट कर दूँ कि कथाकार के रूप में भी उनका
सर्वश्रेष्ठ समय नई कहानी के दौर का ही है, जब उन्होंने
'राजा निरबंसिया' और 'साँस का दरिया' जैसी अदभुत कहानियाँ
लिखीं। कहानी की कला और संवेदना के स्तर पर यह दौर सबसे
महत्वपूर्ण है। उत्तर प्रदेश के मैनपुरी से लेकर दुनिया के
हर हिस्से में गए, दिल्ली और बंबई में रहे, लेकिन स्थानीयता
का बोध उनके भीतर से कभी कम नहीं हुआ। वे हमेशा अपनी जड़ों
से जुड़े रहे और वहीं से अपनी रचनाओं का संसार तलाशते व
उन्हें समृद्ध करते रहे। उनका हमारे बीच नहीं होना आशंकित
करता है, कौन आम लोगों के सरोकारों को इतने मुखर ढंग से और
इतने मंचों पर प्रस्तुत करेगा? पर उनकी रचनाएँ हमें आश्वस्ति
भी देती हैं।
१ फरवरी
२००७
(दैनिक भास्कर से साभार) |