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संस्मरण

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अमरीका में कविता का चस्का
लगाया काका ने

डा अशोक चक्रधर


(पाठक डा चक्रधर के मंच मचान को अभी भूले नहीं होंगे। मंच के अनुभवों के बाद वे अभिव्यक्ति पर लेकर आए हैं अपनी विदेश यात्राओं के अनुभव धारावाहिक रूप में)


सन चौरासी, मार्च महीने में मेरे घर के जीने पर रेलिंग पकड़ कर चढ़ते हुए काका बोले, 'लल्ला हमारे साथ चलो अमरीका। अशोक गर्ग ने वहाँ कुछ अच्छी पारिवारिक गोष्ठियों का जुगाड़ जमाया है। महीने भर मज़े करेंगे!' मेरे एक हाथ में उनका बैग और दूसरे में होल्डॉल था। दोनों सामानों को सीढ़ी पर टिकाते हुए और प्रसन्नता में आँखें चौड़ाते हुए मैंने कहा, 'वैरी गुड!'

उनके इस प्रस्ताव से उत्पन्न प्रसन्नता खुलकर अंगड़ाई भी न ले पाई थी कि एक विचार ने मुझे सन्न कर दिया। विचार यह था कि अगर मैं काका जी के साथ जाता हूँ तो बेचारे वीरेंद्र तरुण जी का क्या होगा? डॉ. वीरेंद्र तरुण देश भर के कविसम्मेलनों में उनके साथ जाया करते थे। मैंने काका से पूछा, 'और तरुण जी?' वे तुक मिलाते हुए बोले, 'हम तुम अमरीका में कमाएँगे नाम, तरुण का वहाँ क्या काम!' मैंने आधा-सा मन बना लिया। आधा-सा इसलिए कि पारिवारिक गोष्ठियाँ मुझे भाती नहीं थीं। उसी दिन शाम को तरुण जी का फ़ोन आया तो सच बताऊँ, मुझे अच्छा ही लगा। वे बोले, 'भैया! काका को अमरीका से इन्विटेशन मिला है। साथ चलने के लिए तुम्हारा नाम ले रहे थे। देखो, हाँ मत कर देना। तुम्हारे लिए तो अमरीका जाने के सौ मौके आएँगे, अपना जाना कभी नहीं हो पाएगा। सो प्यारे भतीजे, कोई भाँजी मत मारना, प्लीज़।' रही-सही इच्छा तरुण जी के फ़ोन के बाद जाती रही।

काका जी को मेरा अस्वीकार अच्छा नहीं लगा, पर मैं तरुण जी की बद्दुआएँ नहीं लेना चाहता था। न जाने के पीछे एक बात और थी, जो बताने की तो नहीं है, पर चलिए बता देता हूँ। बुज़ुर्ग काका जी जब हमारे घर आते थे तो रात्रिकालीन भोजन के बाद उनके पैर दबाने में मुझे बहुत अच्छा लगा करता था। पैर दबाते-दबाते एक बार मैंने उनसे पूछा, 'काकू! पैर दबवाते हुए आपके मन में ये विचार तो नहीं आता कि दामाद पैर दबा रहा है?' वे मायूस से स्वर में बोले, 'झूठ नहीं बोलूँगा बेटा, आता तो है!' मैंने तत्काल उनके पैरों से हाथ हटा लिए, 'अब से यह मानसिक कष्ट मैं आपको नहीं दूँगा काकू।' मैं पलंग से उठ कर खड़ा हो गया और अपने सात वर्षीय पुत्र को आवाज़ लगाई, 'अन्नू बेटा! चलो काकू के पैर दबाओ।' बोलिए, अमरीका में किसे बुलाता।

काका जी मुझे अपार स्नेह करते थे। खूब चाहते थे कि उनके साथ मैं ही जाऊँ, पर मेरे अड़ियल-सड़ियल स्वभाव से भी परिचित थे। बहरहाल, १६ अगस्त १९८४ को पैनऐम विमान से प्रात: ४.२५ पर काका तरुण जी के साथ अमरीका उड़ गए। जाते-जाते दूरदर्शन की एक काव्य-गोष्ठी की रिकॉर्डिंग में शरीक हुए, जिसका संचालन मैंने किया था और अध्यक्षता पं. गोपाल प्रसाद व्यास ने। कुबेर दत्त के निर्देशन में बनी वह काव्य-गोष्ठी जब टैलीकास्ट हुई तो दर्शकों को बताया गया कि काका इस समय पाताल-लोक (अमरीका) से बोल रहे हैं।

दोनों ने दो-तीन महीने तक अमरीका में मौज की। वहाँ के लगभग हर बड़े शहर में प्रवासी भारतीयों को उन्होंने कविता का चस्का लगा दिया। एक अच्छा काम ये किया कि वहाँ के हिंदी-प्रेमियों को संस्थाएँ बनाने को प्रेरित किया। एक संस्था 'अंतर्राष्ट्रीय हिंदी समिति' वहाँ पहले से थी। और भी कुछ संस्थाएँ रही होंगी, काका जी ने सभी को सक्रिय सकर्मक बनाने के लिए उत्प्रेरक का काम किया।

उनका पहला कार्यक्रम १८ अगस्त, १९८४ को न्यूयार्क में डॉ. महेश गोयल के निवास पर हुआ, दूसरा वाशिंग्टन में श्री ओम बंसल के घर के बेसमैंट में। श्री रमेश व्यास (राले), हरि बाबू बिंदल (डैटराइट), अभ्यंकर और अश्वनी गर्ग (अटलांटा), के. डी. उपाध्याय (ह्यूस्टन), किरण चतुर्वेदी और दयाल शरण (शिकागो), विपिन गोयल (मैडीसन), पी. सी. मांगलिक (मिनिआपोलिस), परिमल और सुमेर अग्रवाल (पेन्मा), योगेंद्र गुप्ता (पिट्सबर्ग), शरद हेडा और हिमांशु पाठक (न्यू जर्सी) कुछ उल्लेखनीय नाम हैं जिन्होंने, अपने-अपने घरों में, मंदिर या किसी स्कूल के हॉल में काका जी और तरुण जी के कार्यक्रम कराए। हिमांशु पाठक स्वयं एक कवि हैं। काका ने इन्हें अपनी रचनावली भेंट करनी चाही, पर पाठक जी ने फोकट में स्वीकार नहीं की, बाकायदा पचास डॉलर दिए। डॉ. ललित सरन अग्रवाल ने अपनी मोटरबोट से नदी में सैर कराई। एक श्री ज्ञान राजहंस स्कारबोरो में रेडियो पर भजनावली कार्यक्रम चलाते थे, उस रेडियो से काका की फुलझड़ियाँ भी फूटीं।

लोगों ने रेडियो पर सुना तो ऑडियो कैसेट्स की माँग आई। न्यूयॉर्क के दिलीप और आस्था ने आनन-फानन में कैसेट्स बनवा दिए। अमरीका के हर शहर में खिलखिलाती हुई ख्याति फैल रही थी। सबसे बड़ा कार्यक्रम बाल्टीमोर में हुआ। यहाँ डॉ. रवि प्रकाश ने बाल्टीमोर के मेयर द्वारा 'ऑनरेरी सिटीज़नशिप' दिलवा कर काका को सम्मानित किया। मगन मन काका ने डॉ. रवि प्रकाश के घर से ही एक पत्र लिखा।

वाशिंग्टन २३-९-८४
प्रिय चक्रधर - बागेश्री बेटी रामराम।
पाताल लोक से बोल रहे हैं, आज हमको अमरीका की धरती पर ३७ दिन हो गए हैं, अब तक २१ प्रोग्राम विभिन्न शहरों में हो चुके हैं। कल रात्रि को यहाँ जो प्रोग्राम हुआ, उसमें ४०० श्रोता थे। मुझे सिटीज़नशिप की मानद मान्यता देकर सम्मानित, यहाँ के मेयर महोदय ने किया। ह: ह: ह: ह:
अभी हमारे ७ अक्तूबर तक के प्रोग्राम बुक हो चुके हैं। २५ अक्तूबर के आस पास लंदन में अभिनंदन होगा।
१०-१२ यात्रा हवाई जहाज़ों में कर चुके हैं। सभी जगह रिसीव करने वाले मिल जाते हैं।

प्रोग्रामों में ऐसे-ऐसे श्रोता मिलते हैं जो अब डाक्टर या इंजीनियर हैं, वे कहते हैं हमने आपको इंडिया में तब सुना था जब हम कालेज में पढ़ रहे थे। यहाँ के मकानों में चप्पे-चप्पे पर कालीन बिछे मिलते हैं। सफ़ाई, चमक-दमक और ईमानदारी के साथ लोगों में कर्तव्यनिष्ठा भरपूर है, इसी कारण यह देश उन्नति कर रहा है। हमारे प्रोग्राम ३-३ घंटे तक चलते हैं। खूब खिलखिलाहट और वाहवाही मिल रही है। तरुण जी की ब्रज भाषा सुनकर लोग मुग्ध हो जाते हैं क्यों कि आगरा-मथुरा-दिल्ली-मुज़फ्फर नगर-अलीगढ़ के काफ़ी व्यक्ति मिलते हैं।

तरुण जी के चेहरे पर चमक आ गई है। यहाँ के कुछ काव्य-प्रेमी मिलकर ५ लाख रुपए स्टेट बैंक इंडिया में जमा करके उसकी ब्याज से प्रतिवर्ष भारत से २-३ कवि बुलाया करेंगे। तुम्हारा नाम पता नोट करा दिया है। यह सुझाव वीरेंद्र तरुण ने एक बड़े धनी व्यक्ति को दिया था जो कि करोड़पति है। हमको जगह-जगह से कपड़े, काकी को साड़ियाँ मिली हैं। १८ सितंबर को मेरा जन्मदिवस नौरिस्टान में ७८ मोमबत्तियाँ जलवा कर तथा केक कटवाकर मनाया गया। लोगों को पार्टी दी गई। जीवन में पहली बार मेरा जन्म-दिवस मना है, यहाँ। यह पत्र मुकेश तथा अशोक को भी सुना देना, बच्चों को आशीष। तरुण जी की राम राम बँचना।

काकू के पत्र आते रहे। सारी बातें वे विस्तार से बताते रहे। मेरा नाम वे प्रस्तावित कर ही चुके थे। अब जिज्ञासा हो सकती है कि मेरा अमरीका जाना कब हुआ। चलिए, अभी नहीं बताता, अगली बार बताऊँगा।

१ सितंबर २००७

 
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