जन्मतिथि
के अवसर पर
१
ऐ
मेरे दिल कहीं और चल
—शारदा पाठक
तलत
महमूद को पार्श्व गायन के क्षेत्र में लाने वाले संगीतकार
अनिल विश्वास मानते हैं कि तलत जैसी आवाज़ दूसरी नहीं हुई।
वे कहते हैं कि रफी के डुप्लीकेट हर गली में मिलते हैं,
मुकेश के डुप्लीकेट भी कम नहीं हैं और किशोर कुमार के
डुप्लीकेट भी यत्र–तत्र मिल ही जाते हैं, पर तलत का
डुप्लीकेट मिल पाना मुश्किल है। रफी, किशोर और मुकेश के
मुकाबले तलत के फ़िल्मी नग़मों की तादाद काफ़ी कम है पर तासीर
ऐसी पुरअसर कि बार–बार सुनने पर भी मन नहीं भरता।
गायन
प्रारंभिक दौर
तीन
बहनों और दो भाइयों के बाद माता–पिता की छठी संतान के रूप
में लखनऊ में २४ फरवरी १९२४ को जन्मे तलत महमूद के पिता
अच्छे गायक होने के बावजूद बस नातें गाते थे, यह मानकर कि
खुदा के दिये गले का इस्तेमाल उसी की इबादत में ही हो। तलत
ने बचपन में उनकी नकल करने की कोशिश की तो एक बुआ को छोड़कर
सभी से झिड़कियाँ मिलीं, बुआ न केवल उसका गाना सुनती और
हौसला देती रहीं वरन, किशोर होने पर संगीत की शिक्षा के
लिए लखनऊ के मारिस कॉलेज में तलत का दाखिला भी उनकी ज़िद के
कारण ही कराया गया। सोलह साल के तलत एक बार रेडियो स्टेशन
पहुँचे तो कमल दासगुप्ता के निर्देशन में उन्हें 'सब दिन
एक समान नहीं' गाने का मौका मिला। गाना प्रसारित हुआ तो
लखनऊ में उसकी धूम मच गई। कोई सालभर बाद एच.एम.वी. की टीम
कलकत्ता से लखनऊ आई। पहले तलत के दो गानों का रेकॉर्ड बना।
वह चल गया, तो चार गानों का एक बड़ा रेकॉर्ड बना। इस
रेकॉर्ड में उनकी गाई ग़ज़ल 'तसवीर तेरी दिल मेरा बहला न
सकेगी' सुनकर श्रोता मंत्रमुग्ध रह गए। बाद में ग़ज़ल की यही
रेकॉर्डिंग एक फ़िल्म में शामिल की गई। दूसरे महायुद्ध के
उन दिनों में पार्श्व गायन का शुरुआती दौर था। अधिकतर
अभिनेता अपने गाने खुद गाते थे। कुंदनलाल सहगल लोकप्रियता
की चोटी पर थे। उनकी ख्याति से प्रेरित होकर तलत
भी गायक–अभिनेता बनने के लिए
सन १९४४ में कलकत्ता जा पहुँचे।
कलकत्ता से मुंबई
लगभग उसी समय जब सहगल कलकत्ता छोड़कर मुंबई गए थे। कलकत्ता
में संघर्ष के बीच तलत की शुरुआत बंगला गीत गाने से हुई।
रिकार्डिंग कंपनी ने गायक के रूप में उनका इस्तेमाल तपन
कुमार नाम से किया। तपन कुमार के गाए सौ से ऊपर गीत
रेकॉर्डों में आए। न्यू थियेटर्स ने १९४५ में बनी
'राजलक्ष्मी' में तलत को नायक–गायक बनाया। संगीतकार राबिन
चटर्जी के निर्देशन में इस फ़िल्म में उनके गाए 'जागो
मुसाफ़िर जागो' ने भरपूर सराहना बटोरी। उत्साहित होकर वे
मुंबई जाकर अनिल विश्वास से मिले। अनिल दा ने यह कहकर लौटा
दिया कि अभिनेता बनने के लिए वे बहुत दुबले हैं। बदन पर
चरबी चढ़ाकर आए बगैर कोई गुंजाइश नहीं निकलेगी। तलत वापस
कलकत्ता चले गए, जहाँ उन्हें १९४९ तक कुल दो फ़िल्में ही और
मिली, 'तुम और वो' और 'समाप्ति'। कलकत्ता में काम ढीला
देखकर वे पुनः मुंबई पहुँच गए। अब अनिल विश्वास ने उन्हें
पार्श्व गायन का मौका दिया – फ़िल्मिस्तान की 'आरजू' में।
लोग अनिल विश्वास के काम के कड़े मापदंडों के बारे में पहले
बता चुके थे, इसलिए ट्रायल में तलत ने बहुत संभलकर गाया,
जिसमें उनकी आवाज़ की कुदरती कंपन गायब हो गई। अनिल दा ने
डपटा, यह कहकर कि उन्हें उसी पुरानी कंपकंपाती–सी आवाज़ की
ज़रूरत है। कंपकंपाती आवाज़ में दिलीप कुमार के लिए गाया 'अय
दिल मुझे ऐसी जगह ले चल' हिट हो गया और मुंबई के
संगीतकारों की निगाहें इस
लरजती आवाज़ की ओर घूमने लगीं।
सफलता की
सीढ़ियाँ
तलत तेजी
से सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ रहे थे। वाडिया की 'मेला' से
महबूब की 'अंदाज़' तक दिलीप कुमार के लिए मुकेश का गला उधार
लेनेवाले नौशाद अब मुकेश से गवाना नहीं चाहते थे क्योंकि,
राजकपूर की 'बरसात' की कामयाबी के साथ वे नयी संगीतकार
जोड़ी शंकर–जयकिशन को अपना प्रतिद्वंदी मानने लगे थे और
मुकेश को उनके खेमे का आदमी। रफी उनकी नज़रों में तब तक
ऊँचे नहीं चढ़े थे। लिहाज़ा सन १९५० में प्रदर्शित हुई एस
.यू .सन्नी की 'बाबुल' में उन्होंने दिलीप कुमार के होठों
के लिए तलत का गला इस्तेमाल किया। फ़िल्मी धंधे के पुराने
पंडित बताते हैं कि 'बाबुल' की कामयाबी दिलीप कुमार,
नरगिस, सन्नी और नौशाद जैसे बड़े नाम जुड़े होने के बावजूद
तलत और शमशाद बेगम की आवाज़ों के कंधों पर चढ़कर आई थी।
'मिलते ही आँखें दिल हुआ दीवाना किसी का' आज भी चाव से
सुना जाता है। हर लाइन पहले तलत गाते हैं और उसी को शमशाद
जैसा का तैसा दुहराती है। फ़िल्म संगीत के पूरे इतिहास में
अपनी तरह का अलग है यह दोगाना – 'हुस्नवालों को न दिल दो'
में कव्वाली की धुन थी, तो 'मेरा जीवन साथी बिछुड़ गया, लो
खतम कहानी हो गई' दर्द का ऐसा गाना था, जिसका असर आज तक कम
नहीं हुआ। सन १९५० का वर्ष पूरा होते तक तलत विभिन्न
संगीतकारों की फ़िल्मों में सोलह गाने गा चुके थे। उनके
प्रशंसकों का एक बड़ा वर्ग बन चुका था।
पचास का दशक
पचास के
दशक का लगभग समूचा पूर्वार्ध तलत की आवाज़ से गूँजता रहा
है। तलत से पहले आए मुकेश और रफी बहुत पीछे छूट गए थे।
'बाबुल' के बाद फ़िल्मकार की 'दीदार' से नौशाद भले ही
जी–जान से रफी को बढ़ाने में जुटकर मुकेश के साथ तलत को भी
नज़रअंदाज़ करने लगे हों, पर दूसरे बहुतेरे संगीतकार तलत को
प्राथमिकता दे रहे थे। 'अनमोल रतन' के विनोद, 'जोगन' के
बुलो सी. रानी से एस. डी. बर्मन, सी. रामचंद्र और
शंकर–जयकिशन जैसे अगली कतार के संगीतकारों तक, हर कोई उनसे
गवा रहा था। अशोक कुमार, दिलीप कुमार, राजकपूर, देवानंद,
करन दीवान, भारत भूषण – जैसे नायकों से लेकर आगा जैसे
चरित्र अभिनेता तक कितने ही होठों के लिए उनका गला काम आ
रहा था। 'आराम', 'कामिनी', 'तराना', 'संगदिल', 'दाग',
'पतिता', 'टैक्सी ड्राइवर', 'शबिस्तान', 'अंबर', 'अनहोनी',
'आशियाना', 'भाई बहन', 'राखी', 'बेवफ़ा', 'दोराहा', 'मिर्ज़ा
ग़ालिब', 'अदा', 'एक साल', 'देख कबीरा रोया', 'ठोकर', 'लैला
मजनू', 'छाया', 'देवदास', 'एक गाँव की कहानी', 'फुटपाथ',
'नाज़नीन' जैसी इस दौर की सौ से ज़्यादा फ़िल्मों में तलत
महमूद के कोई दो सौ से ऊपर ऐसे गीत हैं, जिनकी गिनती अपनी
तरह के बेमिसाल सदाबहार गीतों में होती है। इनमें से कई
ऐसे भी हैं जो अपने समय में लोकप्रियता के शिखर पार करते
रहे। जैसे, 'दाग' का 'अय मेरे दिल कहीं और चल' या 'टैक्सी
ड्राइवर' का 'जाएँ तो जाएँ कहाँ'।
अभिनय की ओर
गाने की यह रफ़्तार
तलत लंबे समय तक इसलिए कायम नहीं रख पाए क्योंकि, गायक के
रूप में ख्याति से उन्हें तसल्ली नहीं थी और वे स्वयं को
एक सफल और स्थापित अभिनेता के रूप में देखना चाहते थे,
बावजूद इस हकीकत के कि वे जितने अच्छे गायक थे, उतने अच्छे
अभिनेता नहीं। पर उनकी आवाज़ की लालसा में उन्हें अभिनय का
मौका भी दिया जाने लगा। 'आराम' में वे एक ग़ज़ल 'शुक्रिया अय
प्यार तेरा' गाते परदे पर नज़र आए। फिर सोहराब मोदी ने
मिनर्वा की 'वारिस' में उन्हें सुरैया जैसी चोटी की नायिका
के साथ नायक बनाया तो कारदार ने 'दिले नादान' में नयी
तारिका चाँद उस्मानी के साथ। 'डाक बाबू', 'एक गांव की
कहानी' वगैरह को मिलाकर तलत तेरह फ़िल्मों में नायक तो बन
गए, पर गायन पर समुचित ध्यान न देने से पिछड़ने लगे। हाशिये
पर चले गए, रफी फिर केंद्र में आने लगे।
अभिनय से हासिल कुछ ख़ास न होने और बदले में गायन में बहुत
कुछ गँवाने का एहसास तलत को सन १९५८ में बनी 'सोने की
चिड़िया' से हुआ। कथाकार इस्मत चुगताई की कहानी पर
अभिनेत्री नरगिस के जीवन की छाप थी। चुगताई के शौहर शहीद
लतीफ निर्माता–निर्देशक थे, नायिका नूतन और उसके सामने दो
नायकों में एक बलराज साहनी और दूसरे तलत महमूद। संगीतकार
ओ.पी. नैयर ने ज़िद पकड़ ली थी कि तलत पर फ़िल्माए जानेवाले
गाने 'प्यार पर बस तो नहीं' के लिए रफी का गला उधार लेंगे।
अंत में वह गाना तलत स्वयं तभी गा पाए, जब उन्होंने फ़िल्म
का काम बीच में ही छोड़ देने की धमकी दी। उसी समय बिमल राय
की 'मधुमति' बन रही थी, जिसमें संगीतकार सलिल चौधरी दिलीप
कुमार के लिए तलत की आवाज़ लेना चाहते थे। पर उस समय मुकेश
गर्दिश के दौर में थे। तलत ने सलिल चौधरी से कहा कि वे
उनकी बजाय मुकेश को काम दें और 'मधुमति' में दिलीप कुमार
के लिए आख़िरी बार मुकेश ने गाया। फ़िल्म संगीत के जानकार
मानते हैं कि उनमें संगीत रचना की अदभुत प्रतिभा थी। 'ग़मे
आशिकी से कह दो' की धुन उन्होंने पलक झपकते तैयार कर दी
थी। अभिनय के चक्कर में पड़ने की बजाय संगीत कार बनने की ओर
कदम बढ़ाते, तो न जाने कितने आगे जाते।
गैर फ़िल्मी
लोकप्रियता
साठ का
दशक शुरू होते तक फ़िल्मों में उनके गाने बहुत कम होने लगे।
'सुजाता' का 'जलते हैं जिसके लिए' इस वक्त का उनका यादगार
गीत है। फ़िल्मों के लिए आख़िरी बार उन्होंने सन १९६६ में
'जहाँआरा' में गाया, जिसके संगीतकार मदनमोहन थे। इसके बाद
फ़िल्म संगीत का स्वरूप कुछ इस तरह बदलने लगा था कि उसमें
तलत जैसी आवाज़ के लिए कोई गुंजाइश नहीं बची थी। लेकिन तलत
के गैर–फ़िल्मी गायन का सिलसिला बराबर चलता रहा और उनके
अलबम निकलते रहे। ग़ज़ल गायकी के तो वे पर्याय ही बन गए थे।
उनकी आवाज़ जैसे कुदरत ने ग़ज़ल के लिए ही रची थी। तलत महमूद
को सन १९५६ में मंच पर कार्यक्रम के लिए दक्षिण अफ्रीका
बुलाया गया। इस प्रकार के कार्यक्रम के लिए भारत से किसी
फ़िल्मी कलाकार के जाने का यह पहला अवसर था। तलत महमूद का
कार्यक्रम इतना सफल रहा कि दक्षिण अफ्रीका के अनेक नगरों
में उनके कुल मिलाकर बाइस कार्यक्रम हुए, फिर विदेशों में
भारतीय फ़िल्मी कलाकारों के मंच कार्यक्रमों का सिलसिला चल
पड़ा। तलत महमूद इन कार्यक्रमों में लगातार व्यस्त रहे।
फ़िल्मी दुनिया से अवकाश मिलने के बाद तो देश–विदेश में आए
दिन 'तलत महमूद नाइट' होने लगी। उनकी आमदनी के कारण तलत
महमूद को आर्थिक परेशानियों का सामना नहीं करना पड़ा तथापि
फ़िल्मों में गाने से दूर हो जाने का मलाल उन्हें बराबर
सालता रहा, उस समय तक कि जब तक पक्षाघात के कारण वे गाने
में असमर्थ नहीं हो गए। तथापि, उनके फ़िल्मी और ग़ैर–फ़िल्मी
गानों के सुननेवालों की तादाद या उत्साह में कमी नहीं हुई।
दो सौ फ़िल्मों में उनके लगभग
पांच सौ और कोई ढाई सौ
ग़ैर–फ़िल्मी गाने हैं, लेकिन उनका एक–एक गाना आज के फ़िल्मी
गायकों के हज़ार गानों पर भारी पड़ता है। ९ मई १९९८ को स्वयं
तलत महमूद अपनी नश्वर काया छोड़कर चले गए, लेकिन उनका अमर
संगीत सदा हमारे बीच रहेगा। |