पुण्यतिथि
९ दिसंबर के अवसर पर
नवगीतकार
कैलाश गौतम
(टीम
अभिव्यक्ति द्वारा संकलित)
कैलाश गौतम स्वभाव से जितने मिलनसार,
हँसमुख और सहज थे, उतनी ही सहज उनकी लेखनी भी थी। कहीं कोई
क्लिष्टता नहीं, बनावट नही। वे पारदर्शी कविताएँ रचते रहे।
जिस तरह स्वच्छ जल को अँजुरी में लेकर उसमें झाँकने पर
स्वयं की हथेली और उसकी रेखाएँ नजर आती हैं, कुछ इसी तरह
जिसने भी कैलाश गौतम को पढ़ा या मंच पर कविता पढ़ते हुए सुना
है, उसे अनुभव हुआ होगा। उनकी कविताओं में समकालीन भारतीय
समाज खासकर ग्राम्य जीवन की भाग्य रेखाएँ साफ दिखाई पड़ती
हैं।
आई नदी गाँव में अब की डटी रही पखवारे भर
दुनिया भर से अपनी बस्ती कटी रही पखवारे भर
घड़ी–पहर भी झड़ी न टूटी, लगी रही पखवारे भर
सूरज के संग धूप भी जैसे भगी रही पखवारे भर
वे आंचलिक बिंबों के प्रयोगधर्मा कवि के रूप मे याद किए
जाएँगे। कैलाश गौतम अपनी रचनाओं में इतना सरल, सपाट और सहज
दीखते हैं कि एक बारगी लगता है कि उनकी कविताओं पर किसी
अतिरिक्त टिप्पणी की आवश्यकता नहीं है। कविता की व्याख्या
के लिए कोई व्यास नहीं चाहिए। इन्हें पढ़िए या सुनिए, कैलाश
गौतम सरल रेखा में संप्रेषित होते जाएँगे। ग्रामीण
शब्दावलि को वे इतनी सुन्दरता से कविता में पिरोते हैं कि
वह खड़ी बोली का शृंगार बन कर पाठक के मन में उतरती है।
हिरना आखें झील–झील गलियारे पिया असाढ़ में,
गलियारे की नीम, निमौली मारे पिया असाढ़ में।।
मेहंदी पहन रही पुरवाई उतरी नदी पहाड़ों से
देख रहे हैं उड़ते बादल हम अधखुले किवाड़ों से
आग लगाकर भाग रहे आवारे पिया असाढ़ में।।
दूर कहीं बरसा है पानी सोंधी गंध हवाओं में
सिर धुनती लोटेंगी लहरें कल से इन्हीं दिशाओं में
रेत की मछली छू जाती अनियारे पिया असाढ़ में।।
इस सबके बावजूद कभी–कभी उनकी रचनाधर्मिता सरल होते हुए भी
ऋजुमयी है। तभी तो इन्हें सुनते समय अतिरिक्त चौकन्ना होना
पड़ता है। कबीर को जिसने भी पढ़ा है वह जानता है कि वह
सपाटबयानी करते चलते है। लेकिन कबीर को गुनते समय वक्रता
और जटिलता की जितनी परतें खुलती हैं, कैलाश गौतम में वही
परम्परा दीखती है। कैलाश गौतम की कविताओं में अक्खड़पन भी
है, गहराई भी, आज के समाज पर करारा व्यंग्य भी और सरल जीवन
के सच्चे उपदेश भी।
ममता से करुणा से नेह से दुलार से
घाव जहाँ भी देखो सहलाओ प्यार से
नारों से भरो नहीं भरो नहीं वादों से
अंतराल भरो सदा गीतों संवादों से
हो जाएँगे पठार शर्तिया कछार से
यह भी संयोग रहा कि कबीर की तरह कैलाश गौतम की कविता ने भी
बनारस में ही जन्म लिया था। वे बनारसी बोली के श्रेष्ठतम
कवियों में से एक थे। 'अमावस का मेला' जैसी लोक संस्कारों
को व्याख्यायित करने वाली कविता अद्भुत है और अप्रतिम भी।
कैलाश गौतम की सृजन प्रतिभा को किसी विधा विशेष में नहीं
बाँधा जा सकता। वे गीत भी रचते रहे नवगीत और दोहे भी।
उन्होंने गद्य में भी लेखनी चलाई। बनारस की कविता परम्परा
से व्यंग्य विनोद को आलंबन के रूप में ग्रहण करते रहे। छंद
को तोड़ा नहीं लेकिन शिष्टता और विशिष्टता का परिधान पहनाकर
अपने रचनाओं को भदेसपन से बचाते रहे। लोक मुहावरों का
आधुनिक संदर्भों में प्रयोग करने में उन्हें महारत हासिल
थी। वे अक्सर अपनी बात कहने के लिए रस्सी का दूसरा सिरा
पकड़ते थे। उनकी 'कुर्सी' और 'कचहरी' कविताओं में इसे महसूस
किया जा सकता है-
कोई नहीं छोड़ता कुर्सी जान से प्यारी है
जान से प्यारी है कुर्सी ईमान से प्यारी है
यूँ तो है वह काठ की कुर्सी माने रखती है,
बड़े–बड़ों को ये अपने पैताने रखती है।
अथवा
कचहरी हमारी तुम्हारी नहीं है
कहीं से कोई रिश्तेदारी नहीं है
कचहरी की महिमा निराली है बेटे
कचहरी वकीलों की थाली है बेटे
खुले आम कतिल यहाँ घूमते हैं
सिपाही दरोगा चरण चूमते हैं
यहाँ झूठ की ही कमाई है बेटे
यहाँ झूठ का रेट हाई है बेटे
कविता में चरित्र की सृष्टि करने वाले वे अद्भुत जादूगर
हैं। कविता में यह चरित्र सृष्टि मुक्तिबोध, निराला और
अज्ञेय के बाद कैलाश गौतम की कविता में मिलती है। उपरोक्त
कवियों की चरित्र सृष्टियाँ पौराणिक या काल्पनिक हैं (जैसे
ब्रह्मराक्षस, राम की शक्तिपूजा या असाध्य वीणा) जब कि
कैलाश गौतम की चरित्र सृष्टियाँ प्रेमचंद की तरह गाँव के
जीते जागते लोग हैं। जैसे रामनगीना, बच्चूबाबू, नौरंगिया,
सियाराम या गुपतेसरा। दूधनाथ सिंह के शब्दों र्में "एक तरह
आज़ादी के बाद प्रेमचंद की चरित्र सृष्टियाँ किधर को जातीं?
कैलाश गौतम की कविताएँ उस बदलते हुए नक्शे का मौलिक, खरा
और सच्चा मूल्यांकन करती हैं। गद्य के इस विस्तृत फलक को
आज़ादी के बाद कविता में चित्रित करने वाला यह पहला कवि
सच्चे मायनों में प्रेमचंद का उत्तराधिकारी है।"
रामनगीना का एक चित्र देखें–
रामनगीना सोच रहे कल क्या क्या करना है
मीटिंग रक्खी है बिजलीघर देना धरना है
बालू की सप्लाई वाला टेंडर भरना है
तड़के उठना तेल भराना थाने जाना है
जैसे भी हो केस न उभरे केस दबाना है
चंदा लेना मंच बनाना गेट बनाना है
माइक वाले से कहना है जल्दी आना है
चीनी का परमिट लेना है पैड छपाना है
स्कूली लड़कों से मिलना उन्हें पटाना है
बम बजवाना है घंटाघर बस फुकवानी है
हर हालत में अपने माफ़िक हवा बनानी है
'मेरा समय मेरा आइना' लेख में वे स्वयं कहते हैं– "मूलतः
गाँव का होने के नाते और आकाशवाणी के लोक जीवन लोक
संस्कृति के पूरक जैसे प्रसारण विभाग में नौकरी के चलते न
मुझसे देश समाज छूटा न देश समाज की भाषा बोली छूटी। वे
मुहावरे वे लोकोक्तियाँ जो लोकमानस को रसवंत और जीवंत
बनाते हैं उनको जीने और आत्मसात करने के अवसर मुझे मिलते
गए और पिछले सैंतीस अड़तीस वर्षों की नौकरी के दौरान भोजपुर
अवधी ब्रज बुंदेली बकेरनी छत्तीसगढ़ी मैथिली राजस्थानी और
पहाड़ी बोलियों के इलाकों के लगभग दसियों हज़ार गाँवों को
देखने सुनने का मौका मिला। उनके तीज त्यौहार मेलो ठेलों
किस्सों कहानियों से जुड़ना पड़ा उनके दर्द को जानना समझना
पड़ा। ऐसे तमाम पड़ावों से होकर जब मुझे गुज़रना पड़ा वहाँ के
चरित्रों को जब मुझे जीना पड़ा तब मुझे बहुत कुछ प्राप्त
हुआ। देश समाज के जो चरित्र तेवर कलेवर आज मेरी रचनाओं में
दिखाई पड़ते हैं वे सब मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुके हैं।"
अपने जीवन के अंतिम काल में आकाशवाणी से अवकाश प्राप्ति के
बाद कैलाश गौतम इलाहाबाद में हिंदुस्तानी एकेडमी के
अध्यक्ष पद पर कार्यरत थे। आकाशवाणी इलाहाबाद केंन्द्र के
ग्रामीण कार्यक्रमों से जुड़ाव ने कैलाश गौतम के ग्राम्य मन
को सदैव टटका रखा। समकालीन रचनाकारों में लोकसंवेदना का
ऐसा कवि मिलना विरल है। अंधाधुंध शहरीकरण और आबादी के
गाँवों से शहरों की तरफ पलायन का कारण मात्र शहरों की
चकाचौंध और सुविधा–सम्पन्नता का आकर्षण ही नहीं है। उनका
मानना है कि आज गाँवों की स्थितियाँ ऐसी नहीं रह गयीं हैं
कि वहाँ सुकून से रहा जा सके। अपने कविता गाँव गया था गाँव
से भागा में वे लिखते हैं-
गाँव गया था गाँव से भागा
सरकारी स्कीम देखकर
बालू में से क्रीम देखकर
देह बनाती टीम देखकर
हवा में उड़ता भीम देखकर
सौ–सौ नीम हकीम देखकर
गिरवी राम–रहीम देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।
कैलाश गौतम लोक मानस के यथार्थ संबंधों के चितेरे थे।
यथार्थ का बयान ही उनकी कविता की शक्ति है। मानवीय संबंधों
की टूटन और रिश्तों–नातों के विघटन को लेकर उन्होंने कई
कविताएँ लिखी। भौजी उनका एक प्रिय प्रतीक है जो बारम्बार
उनकी रचनाओं में आता रहा है। भौजी हमेशा घर–परिवार के लिए
चिंतित दीखती है। कभी वह अपने देवर को पाती लिखकर 'नदी
किनारे सुरसतिया की लाश' मिलने की सूचना प,ढाती हैं तो कभी
'बड़की भौजी' बनकर सबके दुख दर्द का ख्याल रख रही होती हैं-
इधर भागती उधर भागती नाचा करती हैं,
बड़की भौजी, सबका चेहरा बाँचा करती है।
साठ के दशक में वाराणसी अधिवास के दौरान वे 'आज' और
'गाँडीव' दैनिक पत्रों से जुड़े रहे। उन्होंने 'सन्मार्ग'
के लिए भी नियमित स्तंभ लेखन किया। कैलाश गौतम लोकप्रिय
कवि और सफल संचालक थे। मंच पर कविता की स्थिति देखकर अपने
साथी और युवा कवियों से कहा करते थे- 'आज मंचों पर न हास्य
है, न व्यंग्य। रह गया है तो सिर्फ चुटकुला। अब इसे ही
झेलना पड़ेगा और मंचों पर कुछ नए प्रयोग करने पड़ेंगे।'
अपने निधन से दो दिन पूर्व उन्होंने इलाहाबाद के
सांस्कृतिक मंच से उन्होंने हँसी–ठहाकों के बीच कवि
सम्मेलन का सफलतापूर्वक संचालन किया। तब यह किसी ने यह
सोचा भी न होगा कि वे दो दिन बाद इस दुनिया को अलविदा कह
देंगे। ९ दिसंबर को सबेरे उनका दिल का दौरा पड़ने से
इलाहाबाद में निधन हो गया।
कविता को बंद कमरों से बाहर निकालकर जन–जन तक पहुँचाने
वाले जनकवि कैलाश गौतम का जाना साहित्य का वह सन्नाटा है
जिसकी पूर्ति सम्भव नही है। उन्होंने कविता के भूगोल को
ऐसा विस्तार दिया कि वह समृद्ध मंचों से लेकर गाँव की
चौपाल और खेत, खलिहानों तक भी पहुंचा। जनकवि कैलाश गौतम को
अभिव्यक्ति परिवार की भावभीनी श्रद्धांजलि।
१६ दिसंबर २००६ |