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संस्मरण

मातृ दिवस के अवसर पर विशेष

देखना जानना और होना
चंद्रकांता
 


मैंने माँ को जितना देखा, उसमें देखना ही बहुत कम है, जानना तो और भी कम। लेकिन आज उम्र की गहमागहमी के दौर को पार कर, जब मैं पीछे मुड़ कर अपने किए–धरे के जमा हासिल को, तीसरे की नज़र से देखना चाहती हूँ, कि अपने जिए–भोगे के बीच, मेरे होने की अर्थवत्ता क्या है, तो मेरे सामने अचानक मेरी माँ खड़ी हो जाती है।

माँ–बेटी के बीच जो जन्म देने–लेने का नाता होता है, उसके अलावा, हमारी कोई तुक–तान नहीं मिलती। समय, सोच और स्थितियों के भिन्न रास्तों पर चलती हम दो स्त्रियाँ, भिन्न पगडंडियाँ पर खड़ी है। माँ का वजूद कुहरे में लिपटा है, फिर भी वहाँ से एक चुनौती का भाव मुझ तक पहुँच रहा है कि, "मुझे समझे बिना, तुम खुद को जान नहीं पाओगी।" वहीं से, मेरी माँ को समझने की, मेरी कोशिश और पूरी प्रक्रिया शुरू होती है। धुंध लिपटी छोटी–बड़ी सच्चाइयों को टटोलती मैं अपने भीतर के गलियारों में भटकती, माँ को जानने और उसके होने तक पहुँचना चाहती हूँ।

माँ यादों में-

मात्र आठ वर्षों की मेरी उम्र और माँ अपनी यात्रा पूरी कर चली गई। यात्रा भी कितनी, मात्र तीस वर्ष की। मेरे जेहन में सुरक्षित कुछ छोटी–बड़ी रीलें हैं, कुछ स्थिर, खामोश और बोलते–बतियाते चित्र हैं, संदर्भों से कटे दृश्य, पर अर्थ छवियों से गझिन।

कच्चे मस्तिष्क में पारे से फिसलते कुछ दृश्य–बिंबों को छोड़ दूँ, तो माँ से जुड़ी यादों में जो पहली तस्वीर जेहन में उभरती है, वह चौके में, जलते चूल्हे के पास बैठी, चावल के आटे से दुहरे फुल्के बनाती, एक खूबसूरत औरत की है, जिसके आँच से तपे चेहरे पर, पसीने की कुछ बूँदें चमक रही है और माथे पर झूल आई है, एक नन्ही सी घुँघराली लट,
जिसे वह माथे से हटा, बालों में खोंस नहीं पाती, क्योंकि उसके हाथ आटे से सने हैं।

नामालूम ढंग से यादगार इस कैनवस पर न अमृता शेरगिल की "बैठी हुई स्त्री है, न जोगेन चौधरी की प्रकाश और अंधकार का रहस्य जाल बुनती, "हंस के साथ स्त्री" जैसी कोई कलाकृति। यहाँ खामोश सिनेमा की कोई जीवंत अभिनेत्री है। कोई बोल नहीं, बस। हथेलियों पर आटे की लोइयों की कुशल थपकन और तवे से उतरते शाहजीरे–नमक की सोंधी खुशबू वाले, भापीले, बारीक फूल्के।

यों हमारे सम्मिलित परिवार वाले घर में रसोइया ही खाना बनाता था। गृहणियाँ चावल–साग चुनतीं, सब्ज़ियाँ काटती–छिालतीं, स्वेटरें, दस्तानें बुनती होतीं। साथ में घर–परिवार, नाते–रिश्तेदारों की खुशी–ग़मीं को विचार–विमर्श के मुद्दे बनातीं। कभी–कभार महिलाएँ कहवे के भापीले समावार लिए मेहमानों की खातिरदारी करती नज़र आतीं। किसी दिन घर की महिला, चौके में पटले पर विराजमान हुई तो इसलिए कि कोई ऐसा विरल पकवान बनाना है, जो रसोइए के पाकशास्त्र में शामिल नहीं है। माँ का चौके में पकवान बनाने का अर्थ तो साफ़ था कि शहरी अभिजात्य में, जहाँ सुबह के नाश्ते के लिए, नानवाई से टोकरे भर लवासे, नान–खटाइयाँ, बाकरखानिया वगैरह आती थीं और कभी–कभार पराठे सिंकते थे। वहाँ घर वालों को, जीभ का स्वाद बदलने के लिए चावल के आटे की फुलकियाँ, याजि, मक्की के ढोढे या किसी ऐसे ही ठेठ गंवई पकवान खाने की ललक उठी है। ऐसे में माँ की ढुँढवाई ज़रूरी थी क्योंकि माँ गाँव से आई थी, और कई पकवान बनाने में माहिर थी।

मेरी माँ का गाँव


कश्मीर में, बांडीपुरा कस्बे के एक छोटे से खूबसूरत गाँव कुलूसा में, माँ जन्मी–पली थी। कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार, कुलूसा गाँव "कलश" शब्द से जुड़ा है। मधुमती नदी के किनारे, शारदा मंदिर के आस–पास बसा यह छोटा–सा गाँव, शायद कभी मंदिर के चमचमाते कलश के कारण जाना जाता हो। लंबे समय के दौर ने कलश को कलस और कलस को कुलुस बना दिया होगा। माँ शारदा, मात्र कुलूसा गाँव के लिए ही नहीं, पूरे कश्मीर के लिए पूजनीय है क्योंकि उसका प्यान कश्मीर भूमि है। उन्हीं के कारण कश्मीर को "शारदापीठ" नाम मिला है। नमस्ते शारदा देवी, कश्मीरपुर वासिनी, श्लोक इस विश्वास का गवाह है।

इसी तीर्थ के इर्द–गिर्द बसे गाँव में, करावल खानदान के लोगों के घर माँ का जन्म हुआ। इनके पूर्वज किसी ज़माने में 'ठुलर झील' के एक हिस्से के मालिक रहे थे। मीठे पानी की इस झील में सिंघाड़े की खेती और 'महासीर' मछलियाँ उनकी रोज़ी–रोटी का साधन रही होंगी। बहरहाल, समय के साथ अधिकार छिन गए और उन लोगों ने धान की खेती शुरू क
र दी, और करावल से "भट्ट" कहलाए।

माँ का बचपन सोनरवोन्य की पहाड़ियों से छलक आती आवेग भरी मधुमती और नज़र के आखिरी छोर तक फैले, पानी से टह–टह धान के खेतों को देखते, मेड़ें फलाँगते बीता होगा। पहाड़ियों के दामन में, हरियाली पर मजे–मजे मुँह मारती भेड़–बकरियों को उसने कई बार हाँका–दौड़ाया होगा। सखियों के संग, जब जी हुआ, अखरोट के पेड़ों से हरे अखरोट और अंगूर की छतों से लटके, खट्टे–मीठे अंगूर तोड़े–गिराए होंगे।

सुना है उस ज़माने में कुलूसा सौ–डेढ़ सौ घरों का छोटा–सा गाँव था। पंद्रहेक घर हिंदुओं के जो शारदा मंदिर के आस–पास बसे थे, शेष सौ–सवा सौ घर मुसलमानों के। अखरोट, शहतूत, खुबानी और कीकर के पेड़ों के बीच दुबके, लिपे–पुते भुर्ज पत्तों और फूल के छप्परों वाले, इकमंज़िला, दुमंज़िला छोटे–छोटे ढलुवाँ छतों वाले घर। यहाँ छोटे किसान, हलवाहे, आरीकश, कुम्हार, लोहार, कांगड़ियाँ, टोकरियाँ बुनने वाले, धोबी, नाई और छोटे दुकानदार रहते थे। खोखेनुमा दुकानों पर सुई डोरे, तेल–मसाले से लेकर छींट–कपड़ा सब मिलता था। रोज़मर्रा की ज़रूरतों का सामान ख़रीदते, बदले में सेर भर
चावल, दाल आदि दुकानदार को दिया जाता। इस बार्टर सिस्टम में कलदार रुपये अक्सर नदारद रहते।

मेरी स्मृतियों में जो बचपन का गाँव है, वहाँ दीनेश्वर–सोनरवोन्य पहाड़ियों की सरसब्ज़ तराइयों पर उतरते–चढ़ते, ढोर–डंगर हाँकते, घास के जूते (पुलहोर) पहनते छोटे–बड़े गड़रिए हैं, जिनके फिरन के नीचे, घुटनो तक टाँगें नंगी रहती थीं। वहाँ नाँदों में भूसा–खली खाती गायें हैं, उनके थनों पर मुँह मारते बछड़े हैं, जिनके सुनहरे रोयें मुलायम धूप में चमकते हैं। दूध दुहने जाती मामी, उन्हें पुचकार कर एक तरफ़ हटाती, चालाकी से, गाय के थनों के नीचे बाल्टी, मटकी लगा, दूध दुहने लगती हैं। मामी कहती, बछड़े को थनों से लगाए बिना, गाय दूध नहीं देती। बच्चा थनों से मुंह लगाता है, तो माँ का अंतःकरण उमड़ आता है। यह अंतःकरण उमड़ आने की बात मेरी समझ में तब आई, तब मैं पहली बार माँ बनी। जब पहली बार बिटिया ने अनभ्यस्त होंठों से मुझे खोजा। मामी अपनी गायों को सुंदरी, गौरी, बटनी कहकर बुलातीं। ज़िद
करने पर डाँटती, डाँट खाकर गायें शरमिंदा होकर उनके हाथ चाटने लगतीं।

माँ के तीन तल्ले वाले घर में खूब सारी खिड़कियाँ थीं। ऊपर हवादार कमरे (कानी) की खिड़की पर बैठी हमारी नानी जब तरन्नुम से 'काव मालि कावो खेचरे कावो' पुकारती, तो ढेर सारे कौव्वे, चिड़िये, सुग्गे और पोशनूल पंख फड़फड़ाते, जाने कहाँ से आकर खिड़की के साथ लगी काकपट्टी पर इकठ्ठा हो जाते। नानी अपने हाथ से नन्हें पाँखियों को दाना–दुनका खिलातीं। हम शहरी बच्चे अवाक होकर देखते कि पशु–पक्षी भी उनकी बातें समझते हैं।

वहाँ घरों के सामने धान रखने के लिए कुठार थे, जिनमें जहाँ परिवार के लिए साल भर का अनाज इकठ्ठा होता था, वहीं गाय–बैलों के लिए घास के पूले छत तक लगे रहते। दरअसल गाय–बैल, भेड़ बकरियाँ सभी उनके परिवार का हिस्सा थीं।

ममेरे भाई बहनों को टटके छाछ और पुदीने की चटनी के साथ भात खाते देखकर मेरे मुँह में पानी आता। उस सोंधी, भूख बढ़ाने वाली महक के आगे रोगन–जोश, यखनी बेस्वाद लगते। लेकिन शहर से आए हम शहरी मेहमानों की खातिर शाही पकवानों से ही होती। पता नहीं वे ऐसा क्यों करते थे? शायद, वे हमें बताना चाहते कि तुम्हारी शहरी रिवायतों,
खान–पान वगैरह से हम अच्छी तरह परिचित हैं। तुम हमें गँवार न समझना।

वे लोग सुबह–सुबह सत्तू डली गुलाबी शीर चाय पीते, हमें दूध या इलायची–बादाम डला कहवा पिलाते। छाछ–भात की जगह हमें मीट–मछली, पनीर वगैरह खिलाते। आज उन बातों को याद करते लगता है कि हमारी खातिरदारी में अतिरिक्त मुस्तैद रहते, उनकी जन्मजात सहजता, औपरचारिकता में बदल जाती थी और एक अदृश्य दीवार हमारे बीच तनी रहती।

लेकिन शहर–गाँव के रहन सहन, खान–पान और सोच के तौर–तरीकों में ख़ासे फ़र्क के बावजूद ऐसे मौके ज़रूर आते, जब आत्मीयता की डोर से बंधे हम उस फ़र्क से कोसों दूर चले जाते। यह फ़र्क तो बच्चों में सिरे से ही गायब रहता। शहरी–गवंई, खेल जैसा भेदभाव हमारी समझ से बाहर था, तभी हम 'तुले लांगुन' भी उसी शौक से खेलते और "राजा जी राजा, क्यों राजा . . ." भी। "हिकटा–मिकटा" वाला गाना तो हमने गाँव में नूरा–ज़ेबा से ही सीखा था। हमारे पिता, जिन्हें हम ताता जी कहते थे, वे कभी–कभार ज़मीन जिरात देखने या अनाज वसूली के लिए गाँव आते, तो पंडित संसारचंद भट्ट, हमारे बड़े मामा, के यहाँ ही ठहरते, जिनसे तब उनका एक ज़मीनदार और काश्तकार का ही रिश्ता था। बाद में उनसे रिश्ता बनने के बाद, जब हम ताता जी के साथ गाँव जाते, तो ताता किसी बगीचे में चिनार के नीचे दरी–मसनद पर तकिए की टेक लगाए बैठे होते।

सामने गाँव के चंद लोग, जो उनसे किसी घरेलू झगड़े या समस्या का समाधान करवाते, उन्हें आदर और उम्मीद भरी नज़रों से देखते होते। झगड़े भी क्या रहते, एक भाई ने मकान का ज़्यादा हिस्सा हड़प लिया, दूसरे ने एक कनाल खेत कम दिया। किसी की लड़की ससुराल में दुःख पाती, किसी का पति, पत्नी की पिटाई करता। ऐसे मामले पंचायत में न जाकर, किसी दानिशमंद व्यक्ति से सुलझाए जाते और ताता जी जैसा दानिशमंद विद्वान उनके गाँव में तो क्या, पूरे शहर में इक्का–दुक्का ही था। ऐसे में खुशबूदार तंबाकू के सुट्टे लगाते ताता, फरियादी की बातें सुनते और अपने मशवरे देते। इस बीच थाली में नमक–काली मिर्च डले शहतूत, हरे अखरोट और भुने हुए कच्चे भुट्टे मजलिस में एक से दूसरे बंदे तक पहुँचते। हम बच्चों की तो चाँदी थी। कहीं से, किसी भी पकवान, फल–फूल के पहले हकदार हम ही होते। घर लौटते वक्त नानी खूब सारे अखरोट, भुट्टे, चावल–मक्की का आटा, खुबानियाँ और पता नहीं क्या–क्या पोटलियों–थैलों में बाँध–बूँध कर हमारे साथ भेज देतीं। उन कच्ची गिरियों और मुलायम मीठे भुट्टों का स्वाद याद आने पर आज भी मुँह में घुला महसूस होता है। पता नहीं वह बचपन का नैसर्गिक आस्वाद, जो अपनी पसंद की चीज़ों के होने से जुड़ा था, वह बाद में उन चीज़ों को ऊँचे भाव, गुणवत्ता, नफ़ा–नुकसान आदि से जोड़ कर देखने–सुनने में कहाँ बिला गया?

एक बार हम मामा के घर शादी में गए। शादी में वनवुन, छकरी, गाने बजाने तो हुए ही, चाँदा–तुलसी के साथ नूरा–फाता ने कंधे से कंधा मिला कर रोव भी किया – "संदूक तं कुंजु कर माजि हवालय, नेरी, कूर्य वअरिवेन हवालय। गाते–गाते महिलाओं की आँखों से आँसू झरने लगे। आखिर बेटी की विदाई में किन आँखों में गीलापन नहीं तैरता? मेंहदी रात को अहदू महदू ने खूब भाँड पत्थर किए। महदू आँखों में सुरमा डाल, होंठों पर दंदासा मल, कुरती के अंदर कपड़े की छातियाँ लगाकर लड़की बना। खूब घेरदार घाघरा पहन उसने क्या नाच दिखाया, हम लोग हँस–हँसकर लोट–पोट हो गए, खासकर तब, जब नाचते समय उसकी कुरती से कपड़े के दो गोले खिसक कर नीचे गिर पड़े। एक लड़के ने शेर की खाल पहनी। तमाशा देखती भीड़ के बीच घुसकर, कुछ ऐस दहाड़ा कि कई बच्चे माँ की गोद में दुबक गए। कइयों ने चीखें मारी और कुछेक का तो डर से पाजामा भी गीला हो गया। सचमुच का शेर जो लगता था वह।

गाँव में ज़्यादातर गरीब, परिश्रमी लोग और कुछेक मध्यम श्रेणी के ज़मींदार रहते थे। ज़ैलदार यूसुफ़ जान जो आसपास के दसेक गाँवों का मुखिया था, निहायत नेक आदमी था। गाँव में सिर्फ़ उसी का घर रंगीन ईंटों से बना था। यों तो गाँव का भाईचारा भी ग़ज़ब का था। एक दूसरे से दुआ–सलाम, हारी–बीमारी में मदद को हाज़िर, 'वारय छिवी? खैर य छा? और जू दोर कोठ।'

बड़े झगड़े, ज़मीन की गलत पैमाइश, कर्ज़ वसूली में सरकार की ज़्यादती, मौसम की मार से अनाज न होने पर किसानों की कर न दे पाने की मजबूरी आदि मामले यूसुफ़ जान ही निपटाते। आगे जब १९४७ में कश्मीर पर हुए कबाइली हमले में मामी के घर, आजर में उनके परिवार के बीस जनों को भून दिया गया, उस वक्त कुलूसा में माँ के परिवार को यूसुफ़ जान ने ही बचाया था। वह एक अलग दहशतनाक दास्तान है, जो हमें मामी ने सुनाई थी।

माँ के घर के पास ही, मधुमती की एक छोटी धारा, बट्टों के ऊपर छलछल बहा करती थी। इतनी सी गहरी कि उसमें उतरकर छाती तक भीगते हुए हम बच्चे एक छोर से दूसरे छोर तक आवाजाही कर सकते। साफ़ इतनी कि तल में बैठे वट्टों में, गिट्टों के लिए गोल बट्टे ढूंढ़ने में हमें कोई दिक्कत न होती। लेकिन छोटे–छोटे पत्थर बड़े चिकने थे। फिसलने का डर लगा रहता। एक बार इस नन्हीं नदी में हमें जनेऊ धारी अंडाकार चिकना काला वट्टा मिला, जिसे घर वालों ने शिवलिंग मानकर ठाकुर द्वारे में रख दिया।

इसी छोटी सी नदी पर फट्टों से बनी एक नन्हीं सी पुलिया थी, जिसे देख मुझे नानी की सुनाई "काव गव लेलिस" कहानी याद आती थी। कहानी का कौवा जब देग में गिर पड़ता है, तो उसके दोस्त गहरा शोक मनाते हैं। गौ माता दुख से अपनी पूँछ गिरा देती हैं और नन्हीं पुलिया अपना एक फट्टा नदी में बहा देती है। मुझे जाने क्यों यकीन सा था कि ज़रूर इसी पुलिया ने कौवे के शोक में एक फट्टा गिरा दिया होगा। वहीं पास खड़े बूढ़े शहतूत के खोखले में उलझी जड़ों के गुजलक बीच, जहाँ हम छिपम–छिपाई खेलते छुप जाना चाहते थे, हमें जाने की मनाही थी। नानी ने कहा, "वहाँ साँप अपने बच्चों के साथ रहता है" जिसकी कहानी भी उसने हमें सुना दी। नानी का गाँव कहानियों का गाँव था। वहाँ कहानियाँ जन्म लेती थीं।

पुलिया के पार शारद बल था। गुलाब, गेंदों के बगीचे से घिरा शारदा देवी का मंदिर। मामा–मामी और सभी घर वाले, नहा धोकर शारदबल ज़रूर जाते। वहाँ एक छोटा–सा शिवालय भी था, जहाँ कमल पत्तियों से बने ओंकार धारण किए, शिवलिंग विराजते थे, जिनके सिर के ठीक ऊपर छत से लटके मटके से बूँद–बूँद जल गिरता रहता और वे सदा भीगे–नहाए लगते।

माँ उस नन्हीं नदी में सखियों के संग जाने कितनी बार छप–छप नहाई होगी। किनारे झुके वेद, कीकर और शहतूत के पेड़ों पर कुरते–फिरन टाँगे होंगे। उसके रोज़ के ज़रूरी कामों में शारदबल जाना भी रहा होगा, जहाँ उसने भी गुलाब की पत्तियों से ओंकार रचा होगा, मंत्र पढ़े होंगे, मनौतियाँ माँगी होंगी। तभी तो जब पंडिता साहब के साथ उसकी शादी हो गई तो गाँव वालों, नाते–रिश्तेदारों ने कहा कि शिवनाथ और शारदा माँ ने गुणी की सुन ली।

चिल्लायकलान की कंपकंपाती रातों में, जब मैं और दीदी लिहाफ़ में घुस, माँ की नरम माँसल देह से चिपक, ठंड भगाने की कोशिश करती, तो माँ नींद आने से पहले हमें पंच कन्याओं के नाम गिनाती और शारदा मंत्र रटातीं। हम गुनगुनी गरमास में लिपटी ऊँघती, कुछ शब्द सुनती जो नींद में दूर, कहीं स्वप्न लोक से आते महसूस होते, – "शारदा वरदा देवी मोक्षदात्री सरस्वती अहिल्या, द्रौपदी, तारा, कुंती . . .मंदोदरी . . .।"
माँ ललधद के गीत गाती थीं

माँ स्कूल में पढ़ी नहीं थीं। उन दिनों गाँव में लड़कियों के स्कूल थे भी नहीं। घर में ही थोड़ी बहुत पढ़ाई हुई हो तो हो, लेकिन उसने कभी हस्ताक्षर की जगह अँगूठे की टीप नहीं दी, बल्कि सुंदरता से काग़ज़ पर अपना नाम "संपत्ति" लिखा। ज़रूर शिक्षाविद् हमारे ताता जी ने उसे अक्षर ज्ञान कराया होगा। लेकिन माँ के पास किस्सों, कहानियों और लोकगीतों के भंडार थे, जो उसने अपनी माँ, दादी–नानी से सुने होंगे। हमारी सफ़ेद झक बालों वाली झुर्रीदार नानी के छोटे से मस्तिष्क में गुणाढ्य पंडित की वृहद कथाएँ अटी पड़ी थीं जिनमें परियाँ, जादूगरनियाँ ही नहीं थीं, सोनकिसरी, अकनंद्वन, सोने का पानी, गाने वाली चिड़िया, बोलने वाला दरख्त और पता नहीं क्या–क्या था। वहाँ सौतों–जलनखोरियों की सताई, भिखारन बनी रानी की दुःख गाथाएँ थीं, जो ऊपर वाले के न्याय और अपने सद्गुणों के कारण फिर से एक दिन राजरानी बनती है, दुष्टों की दुर्गति होती है यानी कि अच्छे कामों का नतीजा अच्छा ही होता है वाला संदेश हर कहानी का सार हुआ करता। गाँव में लालटेन की मद्धम रोशनी में, अपने दाएँ बाएँ बच्चों की टोली को लिहाफ़ में लपेटे–समेटे कहानी सुनाती हुई नानी की याद आते मुझे एडवर्ड फिटजेराल्ड के कहे पर विश्वास होने लगता है, कि कोई औरत ही रही होगी, जिसने जाड़ों की लंबी रात में अपने बच्चों को चरखी से फुसलाते हुए उनके कान में गुनगुनाते हुए कथाओं और लोकगीतों को जन्म दिया होगा।

एक बात ज़रूर थी कि कहानियाँ हम बच्चों तक सेंसर होकर आती थी। हीमाल नागराय की प्रेम कथा में समुद्रतल में नागराय की पत्नियाँ हीमाल को सताती होतीं, नागराय हीमाल को जादू से कंकर बनाकर जेब में छिपाए रखता, और रानियों के सो जाने पर फिर से हीमाल बनाता, लेकिन क्यों? यह पूछना मना था। प्रेम जैसे निषिद्ध कक्ष से बच्चों को दूर रखा जाता।

माँ की कहानियों से ज़्यादा माँ के गीत मुझे याद हैं। ललधद के "वाख" और ललधद से जुड़े गीत वह करुण स्वर से गुनगुनाया करतीं। संत कवयित्री ललधद, साध्वी महिला। लेकिन क्या ससुराल वालों ने उसे समझा? सास तो उसकी थाली में सिलबट्टा रखकर, ऊपर से मुठ्ठी भर भात परोस, उसे भूखा ही रखती और वो जो बारीक सूत उसने काता, उसको मोटा–झोटा कह कर ताल के पानी में फेंक दिया। कमल नाल तोड़ कर देखो, कितने बारीक तार हैं उसमें। वैसा ही बारीक सूत काता था लल्ली ने। लेकिन सास तो सास, फेंक दिया खिड़की से बाहर ताल में। पर क्या लल्ली ने मुँह खोला? पलट कर जवाब दिया? तभी न ताल में से कमल के फूल और कमल ककड़ियाँ उग आई। माँ उच्छवास की तरह, "यिथ पअठ्य टोठचोख पोंपुरुच लल्ले . . ." गाया करती, उस अदृश्य से प्रार्थना करते हुए कि लल्ली पर तुम कृपाल हुए, हम पर भी अपनी कृपा बनाए रखना।

ससुराल में बहुओं की कष्ट गाथाएँ सिर्फ़ लल्ली के ही साथ नहीं थीं, अलखेश्वरी रूप भवानी, हब्बा खातून, अरनिमाल। इन लोकगीतों, गाथाओं की नायिकाएँ भी घरेलू महाभारतों के बीच जूझती खुद को बचाए रख पाई थीं। उनके आँसू, उनके द्वंद्व और संघर्ष गीतों में ढल कर औरत की कहानियाँ बन गईं थीं।

लेकिन माँ के साथ, अपनी सास जी के अनुभव न घर में, न घर से बाहर किसी ने सुने। दूसरों की कष्टगाथाओं के बहाने स्त्रियाँ अपने दिल के गुबार तो निकाला ही करतीं, लगे हाथ बेटियों को आगत के लिए तैयार भी कर लेतीं कि जो हुआ, हो रहा है, वह आगे भी होगा ही होगा। भले बदली शक्लों के साथ आज उत्तर आधुनिकता के दौर में, तमाम बदलावों, अधिकारों और स्वच्छंदताओं के बावजूद, स्त्री विमर्श के सशक्त तेवरों वालियाँ भी जानती हैं कि घर परिवार में आज भी पुरुष वर्चस्व और स्त्री की कंडीशनिंग से पैदा हुई कष्टगाथाएँ जारी है।

माँ ने अपने कष्ट किसी से नहीं कहे। कहती, तो शायद उसके भीतर वह लावा न सुलगता रहता, जिसकी परिणति उसके जीवन के विस्फोटक अंत में हो गई।

यों उस दौर में अपनी बात कहने का चलन स्त्रियों ने अपनाया ही नहीं था। हमारे घरों के आभिजात्य में कुलीन स्त्रियाँ अक्सर बेजुबान ही हुआ करती थीं। कुछ घरेलू सुविधाओं, गहनों–कपड़ों और गृहणी की पारंपारिक, अर्थ खो चुकी विरुदावलियों के बीच औरत की इच्छाओं का संसार अपने पंख समेटे बैठा रहता। कितना सुखी, कितना संतुष्ट, यह मापने का कोई यंत्र हमारे पास नहीं है।

माँ कभी–कभी प्रकाश रामायण की पंक्तियाँ गुनगुनाती – "गयामध राम दंडक वन . . .।" उसकी आवाज़ में घने जंगलों में अकेली भटकती सीता का दुःख छलक पड़ता। वह मुँह मोड़ कर, छिप कर अपने आँसू पोंछ लेती। आँसुओं के साथ शायद वह उस अनाम गुस्से को कहने नहीं देना चाहती, जो बेकसूर स्त्री को कटघरे में खड़ा करने की वजह से, राम और उसकी सत्ता के प्रति उसके भीतर से सिर उठाता था। माँ ऐसे गाने क्यों गाती थी कि गाते–गाते गला रुँध जाए? जबकि हमारी चाची जी, माँ की देवरानी, शांत भाव से भवानी सहस्रनाम और भगवद्गीता के श्लोक पढ़ती होतीं? माँ के भीतर कौन सा उदास अकेलापन कुंडली मारे बैठा था? जबकि बाहर से सब कुछ भरा–भरा और सुखसान था?

मन की तहों में घुसकर सच तलाशना अक्सर संभव नहीं होता। अपने मन के अंधेरे गलियारों से होते हुए, हम भले किसी सच तक पहुँच जाएँ पर दूसरों के अंधेरे तहखानों को भेदने की एक्सरे आँख प्रायः हमारे पास नहीं होती, खासकर तब जब हमारे पास गहराई में खोजने–टटोलने की न उम्र हो और न शऊर।

लेकिन आज मुझे माँ को जानकर खुद को जानने जैसा ही स्वाभाविक लगता है। उम्र जो सही ग़लत का जायज़ा लेने की विवेकदृष्टि देती है, वही बिना आँख धुँधलाए, उस छितरे–बिखरे रंगों की तस्वीर को समझने की नज़र भी देती है। चाहे अनचाहे, माँ ने मुझमें अपने वजूद का कोई अंश रोप दिया है। जीन्स के बहाने कुछ उद्वेग, राग–द्वेष, अकूत जिज्ञासाएँ या न भरने वाला अकेलापन। मेरा अपना अर्जित कितना और अंशदान में मिला कितना है, इसे जानने की आकुलता, एक जीवन जी चुकी स्त्री के दबे ढके कोनों–अंतरों को उघाड़ना नहीं है, बल्कि अपनी ही बंद खिड़कियाँ अलग–अलग पटरियों पर चलते, होने के बावजूद क्या कुछ ऐसा नहीं है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी हम एक दूसरे को थमाते हुए आए हैं?

शरीर के रोग–शोक, नाक–नक्श से लेकर जीने होने के फ़लसफ़े तक, कितना कुछ चाहे अनचाहे हमारी मज्जा में घुला रहता है। मेरी वैज्ञानिक सोच की बेटी जीन्स की महिमा जानकर भी चकित है कि माँ की जैसी कुछ बातें, नाक–नक्श, भाव संवेग ज्यों का त्यों उसमें कैसे जगह पा गई है, जबकि समय के बदलते संदर्भों में आज की सोच कल बासी पड़ जाती है। ऐसा क्या है जो बदलाव की सारी अवधारणाओं को निरस्त कर हमारे भीतर अपने मूल स्वरूप को बचाए रखता है। हमारी चाहें, हमारी आकांक्षाएँ? जिनके बारे में हम खुद भी नहीं जानते। क्या जिग्मंट बाऊमैन, लाइफइन फ्रेग्मेंट में सही नहीं कह रहा है कि, " सब तरह की प्रगति के अंत में हम वहाँ खड़े हैं जहाँ आदम और ईव खड़े थे?"

हदों को फलांगने के दावों के बाद भी अपनी बनाई नयी हदबंदियाँ। कटघरों का विरोध करने के बावजूद अपने–अपने कटघरे। प्यार, समर्पण, अधिकार–अस्मिता की अलग–अलग परिभाषाएँ, कहीं धमकाते गर्जते तेवर, कहीं खामोशी ज़िदें और उनके पीछे जीने और होने की सनातन छटपटाहटें। माँ भी तो इन गर्जते तेवरों और खामोश ज़िदों के दो ध्रुवों के बीच अपनी मनचाही ज़िंदगी जीने की कोशिश करती रही थीं।

१६ मई २००६

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