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                   वह कौन थी?
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					नीरजा द्विवेदी
 
 दोनों हाथ जोड़कर, सिर झुकाकर, अस्फुट स्वर में बोलते, 
						श्वेत वस्त्रावृता, कोने में बैठी स्त्री को नमस्ते करते 
						देखकर मैं चौंक पड़ी। शीघ्रता से मैं यह सोच उसके समीप 
						पहुँची कि वह ज़मीन पर बैठी है, संभवतः वह बीमार है और उसे 
						मेरी सहायता की 
						आवश्यकता है। 
 "क्या आपकी तबियत ख़राब है?" मैंने प्रश्न किया, पर उसके 
						मुख की भाव–भंगिमा से ऐसा प्रतीत हुआ कि वह मेरी भाषा नहीं 
						समझती है। फिर "मे आई हेल्प यू" कहकर मैंने उसे उठाने का 
						प्रयास किया तो वह सिर हिलाकर कुछ बोलने लगी। अवाक होकर 
						मैंने उसकी ओर देखा, मैं उसकी भाषा समझने में अक्षम थी। 
						अनजानी भाषा में बोलते हुए वह कुछ देर में यह समझ कर कि 
						मैं उसकी भाषा नहीं समझ पा रही हूँ, मौन हो गई, फिर कुछ 
						क्षण रुक कर अटकते हुए सप्रयास बोली, 'प्रेयर'। 'ओह' कहकर 
						मैं उठी और सामने 
						लुफ्थांज़ा एयरलाइंस के आफ़िस में प्रविष्ट होकर एक कुर्सी 
						पर बैठ गई।
 
 फ्रैंकफर्ट एयर पोर्ट पर १६ जनवरी २००४ की रात्रि लाउंज 
						में व्यतीत करने के उपरांत अगली प्रातः छे बजे मैं 
						'लुफ्थांज़ा एयरलाइंस' के आफ़िस में आई थी। मेरी सीट 
						१६ 
						जनवरी को १ बजे प्रातः दिल्ली से फ्रैंकफर्ट तक फ्लाइट नं 
						७६१ से बुक थी और फ्रैंकफर्ट एयर पोर्ट पर तीन घंटे रुककर 
						ऐटलांटा के लिए फ्लाइट नं ४४४ से बुक थी, जिससे मैं उसी 
						दिन १६ जनवरी को अटलांटा पहुँचने वाली थी। दिल्ली में घने 
						कोहरे और ख़राब मौसम ने सब उलट–पुलट कर दिया था। जो फ्लाइट 
						एक बजे रात्रि दिल्ली से चलने वाली थी, परिवर्तित होकर 
						उसका समय सवा बारह बजे दिन का हो गया था। मेरे पति मेरे 
						लिए बहुत चिंतित थे क्योंकि वाइरल होने पर लिए गए 
						एंटीबाईटिक्स के रियेक्शन से मैं अत्यधिक कमज़ोर हो गई थी 
						और पैदल चलने की क्षमता तो मेरी वैसे ही कम है। मेरे लिए 
						व्हील चेयर की सहायता प्रदान करने हेतु मेरे पति ने 
						लुफ्थांज़ा आफ़िस में लिखा दिया था, परंतु दिल्ली से 
						प्रस्थान करने के पूर्व लुफ्थांज़ा के दिल्ली आफ़िस ने किसी 
						प्रकार भी यह सूचना नहीं दी थी कि मेरी फ्लाइट लेट हो जाने 
						की वजह से यदि कनेक्टिंग फ्लाइट जा चुकी होगी, तो 
						फ्रैंकफर्ट एयरपोर्ट पर मेरे लिए वे क्या प्रबंध करेंगे? 
						प्रस्थान की तिथि परिवर्तित कराने के विषय में प्रश्न करने 
						पर उन्होंने बताया कि ऐसी स्थिति में काफ़ी पैसा कटेगा। यह 
						सुन करके मैंने अपने पति से कहा था, "मैं इसी फ्लाइट से 
						चली जाऊँगी, आप चिंतित न हों।"
 दिल्ली से चलते समय मन बहुत उदास था। पहली बार पति को 
						छोड़कर मैं अकेली यात्रा कर रही थी। इसके अतिरिक्त 'बच्ची 
						होते ही तुम जल्दी मेरे पास आ जाना' अश्रुभरे नेत्रों 
						से मेरा हाथ पकड़कर छियासी वर्षीया मेरी सास द्वारा किया 
						गया करुण अनुरोध भी मेरे पैर जकड़ रहा था। उधर दूसरी ओर 
						अमेरिका में छोटे बेटे देवर्षि, बहू अनामिका एवं पौत्र 
						देवांश के एक साथ फ्लू से बीमार हो जाने के कारण मातृत्व 
						ज़ोर पकड़ रहा था। बहू का प्रसव काल समीप था और वह बहुत 
						कमज़ोर हो गई थी। अतः उसकी सहायता हेतु मेरा जाना आवश्यक हो 
						गया था। इसके अतिरिक्त पहली बार घर में 
						कन्या आने वाली है, इस उल्लास में भी बेटा–बहू मेरी 
						उपस्थिति चाहते थे।
 दिल्ली से दोपहर १२:१५ बजे फ्लाइट चली तो मैंने स्वयं को 
						अँतर्द्वन्द्वों से मुक्त करके, एकाकीपन को विस्मृत करने 
						के लिए माँ वीणापाणि से सहयोग की आकाँक्षा की। अचानक 'ई' 
						मैगज़ीन की पहेली "गुनगुनी धूप है" के लिए कल ही लिखी कविता 
						की पंक्तियाँ याद आ गईं और मेरा मन काव्य तरंगिणी में 
						प्रवाहित हो उठा। चलते समय पति द्वारा स्नेह से मेरे हाथ 
						में पकड़ाया छोटा पैड़ व पेन मेरा साथी बन गया। मन गुनगुनाने 
						लगा तो पंक्तियाँ बनने, बिगड़ने 
						लगीं और मनमाँगी विंडोसीट न 
						मिल पाने और आकाश से धरती निहारने के आनंद से वंचित रह 
						जाने का दुःख भी धूमिल हो गया।
 
 शाम को साढ़े चार बजे फ्लाइट फ्रैंकफर्ट पहुँची। मेरे 
						सहयात्री एक भारतीय ने मेरी सहायता करते हुए कहा, "आँटी! 
						यहाँ आप सहायता ज़रूर 
						माँग लीजिएगा।"
 
 प्लेन से उतरकर मैंने वहाँ उपस्थित स्टाफ से कहा, " मैं 
						ज़्यादा पैदल नहीं चल पाऊँगी, मुझे सहायता चाहिए।" उसने 
						कहा, "आप इस लाइन में चले जाइए और आपके सामने ही कार्ट 
						मिलेगी, वहाँ प्रतीक्षा कीजिए।" वहाँ से कुछ दूर पर ही 
						बच्चों की कार जैसी एक कार्ट मिली जिसमें बीच की सीट पर दो 
						सज्जन बैठे थे। पिछली सीट पर मैं भी बैठ गई। कुछ ही देर 
						में आगे की सीट पर आकर एक लड़का बैठ गया और कार्ट चलाकर 
						आफ़िस के पास ले आया। वहाँ से उसने एक लड़की को मार्गदर्शन 
						हेतु मेरे साथ भेज दिया। जैसी आशंका थी, आफ़िस पहुँचने पर 
						ज्ञात हुआ कि आज की फ्लाइट जा चुकी है। उपस्थित अधिकारी ने 
						कहा,
 "आप को रात्रि यहीं बितानी होगी, कल फ्लाइट मिलेगी। हम कुछ 
						नहीं कर सकते हैं। उसने मुझसे प्रश्न किया,
 "आप के पास किस देश का पास पोर्ट है?" मैंने उत्तर दिया,
 "इंडियन पासपोर्ट।" इस पर उसने कहा,
 "खेद है कि आप को रात्रि लाउंज में बितानी होगी। आप को 
						कंबल, तकिया, पानी एवं नाश्ते हेतु भोजन मिल जाएगा। इस पर 
						मैंने कहा,
 "मेरा बेटा मुझे लेने के लिए अटलांटा एयर पोर्ट पर आकर 
						प्रतीक्षा करेगा, उसे सूचना देनी है।" इस पर एक लड़की मुझे 
						लेकर दूसरे आफ़िस में गई। वहाँ से फ़ोन करने की अनुमति नहीं 
						मिली तब उसने मुझसे लेकर पाँच डालर की यूरो करेंसी चेंज 
						कराई और फ़ोन मिलाकर देवर्षि से मेरी बात कराई। मैंने 
						देवर्षि को बताया,
 "कल इसी फ्लाइट से आऊँगी, पापा को भी बता देना।" वह लड़की 
						बड़े प्यार से मुझे लाउंज में ले आई।
 
 इतने विशाल जनहीन लाउंज में एक कोने की बेंच पर मैंने अपना 
						हैंडबैग रख दिया। मेरे पास जर्मनी का वीसा नही था अतः मुझे 
						इसी लाउंज में रुककर रात्रि व्यतीत करना आवश्यक था। उस 
						लड़की ने लिफ्ट की ओर इंगित करते हुए बताया, "बटन तीन दबाने 
						पर आप रेस्ट्रां में पहुँच जाएंगी, जहाँ आप को खाने को मिल 
						जाएगा" बेंच के बगल में स्टूल पर उसने एक बोतल पानी व कुछ 
						बिस्कुट रख दिए। एक शाल जैसा पतला ब्लैंकेट और दो छोटे 
						कुशन जैसे पिलो उसने बेंच पर रख दिए और मुझसे प्रातः ६ बजे 
						लुफ्थांज़ा एयरलाइन्स के आफ़िस में, जो समीप ही था, आने को 
						कहा। इतने बड़े लाउंज में मुझे लगभग अकेला छोड़ते हुए वह भी 
						मेरे प्रति संवेदनशील हो उठी थी अतः उसने दूर एक कोने में 
						बैठी एकमात्र महिला यात्री से मेरा परिचय कराना चाहा, 
						परंतु वह स्त्री वहीं पर पाषाणवत बैठी रही। इस पर वह लड़की 
						आकर मुझसे 'बाइ' कहकर चली गई। उसकी शिष्टता ने वहाँ रात्रि 
						व्यतीत करने के मेरे आक्रोश को कुछ कम कर दिया। उस लाउंज 
						में रात्रि व्यतीत करने वाली मेरे अतिरिक्त दूर बैठी केवल 
						वही एक स्त्री थी। कुछ समय पश्चात बीच की बेंच पर एक श्वेत 
						व्यक्ति आकर बैठ गया था जो न मालूम यात्री था या कि 
						कर्मचारी।
 
 शाम के छः बज चुके थे। मेरी बहन सुषमा ने चलते समय पूड़ी, 
						सब्ज़ी बनाकर साथ रख दी थीं। मैंने हैंड बैग से निकालकर 
						प्रेम से भोजन किया, पानी पिया और ज़रूरी काग़ज़ात पाउच में 
						रखकर, कमर में बाँधते हुए, बेंच पर शाल ओढ़कर लेट गई। 
						स्वेटर, कोट सब पहनकर लेट जाने से भयंकर सर्दी से बचाव हो 
						गया।
 
 फ्रेंकफर्ट एयरपोर्ट पर बिताई वह रात्रि मेरे जीवन की 
						रोमांचकारी घटनाओं में एक है। नींद में खो जाने के पश्चात 
						अचानक कुत्तों के भौंकने की आवाज़ से नींद खुली तो मैंने 
						देखा कि दो भयंकर कुत्तों को लेकर काली वर्दी पहने 
						सुरक्षाकर्मी यमदूत के समान लाउंज में चक्कर लगा रहे हैं। 
						एक सुरक्षाकर्मी बीच–बीच में अपने हाथ में पकड़े कुत्ते को 
						एक लकड़ी जैसी कोई वस्तु चबाने को देता और फिर छीन लेता था। 
						कुत्तों के शोर से वातावरण भयावह हो गया था। चारों ओर 
						घुमाकर वे लोग कुत्तों को लेकर एक दरवाजे. से बाहर निकल गए 
						और फिर आधे घंटे बाद ही उन्हें लेकर फिर वापस आ गए। मैं तो 
						चुपचाप शाल ओढ़कर, अपनी आँखें बंद करके लेटी रही। कुछ देर 
						में एस्कलेटर से अनेकों यात्रियों का ऊपर जाने का शोर 
						सुनाई दिया। संभवतः कोई फ्लाइट आई थी या जा रही थी।
 
 कुत्तों को लेकर सुरक्षाकर्मियों का आना–जाना रात भर चलता 
						रहा। कुछ घंटों के पश्चात चार कुत्तों को लेकर, कई काली 
						वर्दीधारी सुरक्षाकर्मी लाउंज में घूमते नज़र आए। उनमें एक 
						कुत्ते पर दृष्टि गई, तो वाकई मेरी रूह काँप गई। बड़े–बड़े 
						बालों वाला, मोटा–ताज़ा, भयंकर जर्मन शेफर्ड कुत्ता था और 
						बड़ी बुलंद आवाज़ थी उसकी। मेरी स्मृति में कुछ समय पूर्व 
						हिटलर पर देखी एक फ़िल्म झिलमिला उठी जिसमें एक यहूदी 
						स्त्री के बच्चे पर गेस्टापो वाले कुत्ते छोड़ देते हैं, जो 
						भंयकर शोर करते हुए बच्चे पर टूट पड़ते हैं। इतना कोहराम 
						वहाँ मचा था कि एक क्षण को तो मैं विचलित हो उठी, पर तुरंत 
						ध्यान आया कि ये तो सुरक्षा कर्मियों के प्रशिक्षित कुत्ते 
						हैं। मेरे पास भोजन के अतिरिक्त कपड़े ही हैं, और कोई 
						प्रतिबंधित वस्तु तो है नहीं। भोजन भी सामने स्टूल पर ही 
						रक्खा था। इसी समय मेरी दृष्टि सामने गई तो मैंने देखा कि 
						लाउंज में तीन–चार और लोग भी शाल ओढ़कर सो रहे हैं। संभवतः 
						मेरी तरह ही उनकी भी फ्लाइट छूट गई होगी। किसी प्रकार 
						सोते–जागते रात्रि व्यतीत हुई। प्रातः चार बजे नींद खुल गई 
						तो मैं नित्यकर्म से निवृत्त हो आई। पूजा का बक्सा मेरे 
						साथ में था, कुछ देर ईश्वर का ध्यान किया। अब भूख लगने लगी 
						थी। अतः मैंने चलते समय भैय्या–भाभी द्वारा दी हुई मिठाई 
						निकालकर खा ली और बोतल का बचा पानी पी लिया। मैंने चाय की 
						तीव्र इच्छा का शमन करना ही उचित समझा क्योंकि ऊपर 
						रेस्ट्रां में जाने और जर्मनों को इंग्लिश में अपनी बात 
						समझाने की परेशानी मैं मोल लेना 
						नही चाहती थी।
 
 किसी तरह जब छह बजे गया तो मैं आकर लुफ्थांज़ा एयरलाइन्स के 
						दफ्तर में बैठ गई। आठ बजे आफ़िस के कमरे से बाहर टौयलेट 
						जाकर लौटते समय मेरी दृष्टि बरामदे के कोने में बैठी उस 
						दुबली–पतली स्त्री पर पड़ी थी, जो मुझे हाथ जोड़कर "नमस्ते" 
						की मुद्रा में अभिवादन कर रही थी। सफ़ेद कपड़े से कानों तक 
						ढँका हुआ मुख, लंबी सी पतली मुखाकृति, भारतीयों का सा रंग 
						रूप और मेरी देवरानी रश्मि की माँ की सी शारीरिक अनुकृति 
						ने मेरे मन में उसके प्रति संवेदना उत्पन्न कर दी थी। 
						बारंबार मैं सोच रही थी कि यह स्त्री कौन है? किस देश की 
						है? क्या भाषा बोल रही है? कोने में ज़मीन पर बैठकर वह 
						प्रेयर कर रही है, पर मुस्लिमों की तरह नमाज़ भी नहीं पढ़ 
						रही है। जर्मन वह हो नहीं सकती क्योंकि श्वेतवर्णी नहीं 
						है। एयर लाइन्स के आफ़िस में प्रवेश करते समय कर्मचारियों 
						ने जब उससे कुछ प्रश्न किए थे तब वह कुछ बोली नहीं थी, 
						उसने केवल अपने सब काग़ज़ सामने बढ़ा दिए थे। उन्होंने उसमें 
						से अपने मतलब की 
						सूचना एकत्रित करके, सभी काग़ज़ उसे वापस देते हुए कोने की 
						खाली कुर्सी की ओर इशारा करके बैठने को कह दिया था। वह 
						चुपचाप एक कुर्सी पर जाकर बैठ गई थी।
 
 साढ़े आठ बजे एक लड़की आई और उसने मुझसे पाँच मिनट बाद 
						फ्लाइट के लिए चलने को कहा। तत्पश्चात उसने एक अजीब सा नाम 
						लेकर पुकारा। उत्तर न मिलने पर उसने उस रिक्त कुर्सी की 
						ओर इशारा करके प्रश्न किया, "वह स्त्री कहाँ है जो उस 
						रिक्त कुर्सी पर बैठी थी। उसे ऐटलांटा जाना है। अब मुझे 
						ज्ञात हुआ कि वह स्त्री भी अटलांटा जाने वाली है। मैंने 
						उस लड़की को बताया, "एक स्त्री पूजा हेतु बाहर गई हुई है।" 
						इस पर वह सिर हिलाकर चली गई। मैं चुपचाप प्रतीक्षा करने 
						लगी। चाय की हुड़क उठ रही थी। इतने में एक प्यारी सी लड़की 
						वहाँ आकर बढ़िया सी काफी दे गई तो मन तरोताज़ा हो गया। कहाँ 
						तो मैं कई बार चाय लेने की शौकीन हूँ और कहाँ कल शाम से एक 
						प्याला चाय भी नसीब 
						नहीं हुई थी।
 
 नौ बजे के पश्चात एक लड़की वहाँ पर आई और मुझे एवं उस 
						स्त्री को सुरक्षा जाँच के स्थल पर ले आई। अँदर एक कार्ट 
						खड़ी थी। सुरक्षा जाँच के पश्चात उस पर बैठने को कहा गया। 
						चूंकि हम दोनों स्त्रियाँ साथ थे, वर्ण भी एक सा था तो 
						सुरक्षा अधिकारी ने मेरी सहयात्री के काग़ज़ भी मेरे काग़ज़ों 
						में रखकर मुझे दे दिए। मैं असमंजस में थी कि तभी उक्त 
						अधिकारी ने मुझसे प्रश्न किया, "क्या वह आप के साथ है? 
						मेरे मना करने पर उसने उस स्त्री के काग़ज़ मुझसे वापस लेकर 
						उसके हाथ में थमा दिए। उस स्त्री को भी उसी कार्ट में 
						बैठने को कहा गया। एक कर्मचारी उस कार्ट को चलाकर हमें 
						अँदर के लाउंज में ले आया। वहाँ आकर उसने कहा, "अब आप यहाँ 
						प्रतीक्षा कीजिये।" उसने दाहिनी ओर के गेट की ओर इशारा 
						करके कहा, "आप को उस गेट से जाना है" हम दोनों एक बेंच पर 
						पास–पास बैठ गईं। आख़िरकार उद्घोषणा हुई, "एल .एच. ४४४ के 
						यात्री गेट पर पहुँचें" इस गेट से बाहर निकल कर सामने छोटी 
						सी एक सुरंग जैसी बनी थी, जिसमें प्रविष्ट होकर मैं सीधे 
						प्लेन के दरवाज़े पर पहुँच गई।
 
 वह स्त्री मेरे आगे थी, मैं कुछ विलंब से पहुँची। मुझे 
						देखकर वह अपना टिकिट मुझे दिखाकर इशारे से सीट के विषय में 
						पूछने लगी। मैंने चश्मा नहीं लगाया था अतः ठीक से पढ़ नहीं 
						पाई। पीछे भी यात्री आ रहे थे अतः मैंने रास्ता न रोककर 
						अपने से पीछे वाले यात्री से उस स्त्री की सहायता करने को 
						कह दिया। मेरा सीट नं था ४० बी। मेरे सहयात्री ने मेरे 
						द्वारा सहायता की याचना करने के पूर्व ही मेरा हैंडबैग 
						उठाकर ऊपर के शेल्फ़ में रख दिया। इस प्लेन की सीट आरामदेह 
						नहीं थी– ख़ासतौर से एक दिन की यात्रा और फिर बीस घंटे पतली 
						सी बेंच पर व्यतीत करने के उपरांत मेरे लिए। हालांकि प्लेन 
						के बीच वाले भाग में मेरी पहली सीट थी, परंतु सहयात्री सभी 
						पुरुष थे, अतः मैं मन ही मन संकोच का अनुभव कर रही थी। 
						मैंने बाईं ओर देखा वही स्त्री ३९ सी पर बैठी थी। मेरे आगे 
						की सीट पर जो सज्जन आकर अपने परिवार के साथ बैठे थे वह 
						हमारे वर्ण के ही थे। उनकी पत्नी श्वेत थी, बच्चे 
						मिले–जुले वर्ण के थे। मैंने अनुमान लगाया कि संभवतः वह 
						पंजाबी हों।
 इसी बीच उक्त सज्जन ने इशारे से उस स्त्री से 
						उसके बगल की रिक्त विंडोसीट पर बैठने की इच्छा व्यक्त की। 
						परंतु उस महिला ने मुझे इशारा करके कहा कि तुम मेरी बगल की 
						सीट पर आ जाओ नहीं तो (उस पुरुष की ओर इंगित करते हुए) 
						वह बगल की सीट पर आना चाहता है। अँधे को क्या चाहिए? दो आँखें – मुझे तो प्रकृति से अत्यधिक प्रेम है और हवाई 
						यात्रा के दौरान विंडोसीट मिल जाना मैं सदैव सौभाग्य मानती 
						रही हूँ, मैं मन ही मन प्रसन्नता से उछल पड़ी कि ईश्वर की 
						कृपा से विंडोसीट का प्रबंध हो गया। मैंने प्लेन अटेंडेंट 
						से अनुमति माँगी– "क्या मैं अपनी सीट उस विंडो सीट से बदल सकती हूँ?
 "प्लेन के उड़ान भरने के बाद जब सीट बेल्ट बाँधे रहने 
						का निर्देश स्क्रीन से हट जाए, तब आप सीट बदल सकतीं हैं।" 
						उसने अनुमति दे दी।
 
 प्लेन की विंडोसीट से नीचे देखने का आनंद ही कुछ और है। 
						लेगो गेम में बच्चों द्वारा बनाए गए छोटे–छोटे भवनों के 
						शहर, रंग–बिरंगी अल्पना जैसे कलाकृतियाँ, बादलों का 
						क्षण–क्षण छटा परिवर्तन करता रूप – कभी ऐसा प्रतीत होता 
						जैसे रजाई की पुरानी रूई तोड़कर घुनने के लिए फैला दी गई है 
						तो कभी नयी धुनी हुई रूई जैसे बादल नभ में छा जाते। कभी 
						टुकड़े–टुकड़े बादल भेड़ों के झुंडो के रूप में परिवर्तित हो 
						जाते। बादल हट जाते तो नीचे समुद्र तल और बीच–बीच में बादल 
						के श्वेत टुकड़े दिखाई देते। ऐसा आभास होता जैसे 
						श्यामल–तना, जीर्ण–शीर्ण वस्त्रावृत्ता प्रकृति का 
						अनावृत्त सौंदर्य निखर उठा है। कभी समस्त आकाश घने बादलों 
						से ढँक जाता तो मन मचल उठता कि खिड़की से बाहर निकलकर नंगे 
						पैरों उन पर दौड़ने लगूँ। ३५ हज़ार फीट की ऊँचाई से जब देर 
						तक नीचे कुछ भी दृष्टिगोचर न होता तो ऐसे में मैं पैड और 
						कलम निकाल लेती और कुछ पंक्तियाँ गुनगुनाते हुए नयी कविता 
						की सृष्टि में लग जाती। मेरी सहयात्रिणी चूंकि सहभाषिणी 
						नहीं थी अतः हम दोनों ही मौन थे। कभी–कभी मेरी तंद्रा उसके 
						छींकने या खाँसने पर भंग होती। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि वह 
						बीमार है। अचानक वह कंधे उचकाकर, सिर आगे की सीट के पिछले 
						हिस्से पर टिकाकर बैठ गई तो मैंने सोचा कि उसके कंधों में 
						दर्द है। मेरा शरीर स्वयं भी बुरी तरह अकड़ रह था। मैंने 
						धीरे से अपने दोनों हाथों से उसके कंधों की मालिश करते 
						हुए, उसे इशारा करके अपनी गर्दन चारों ओर व ऊपर–नीचे 
						घुमाने को कहा। मुझे लगा उसे कुछ आराम मिला और उसने अपनी 
						भाषा में मुझसे कुछ कहा। मैं मू.ढ़–सी उसकी ओर देखने लगी।
 
 उसकी बात न समझ पाने पर उसने मेरा हाथ पकड़कर चूम लिया और 
						अपनी कृतज्ञता ज्ञापित की। बीच–बीच में उसे किसी वस्तु की 
						आवश्यकता होती और वह एयरहोस्टेस को इशारे से बताने का असफल 
						प्रयास करती तो मैं उसकी बात कुछ–कुछ समझकर अँग्रेज़ी में 
						कहकर उसकी सहायता कर देती। एक दूसरे की भाषा न समझते हुए 
						भी हम दोनों के परस्पर काम चलाऊ वैचारिक आदान–प्रदान कर 
						लेने पर मेरी स्मृति में सन १९७६ की एक घटना कौंध गई। तब 
						मेरे पति फैज़ाबाद में वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक थे। मेरे देवर 
						रमेश, देवरानी रश्मि व उनकी बेटी सीमा अमेरिका से हमारे 
						पास आए थे। मेरा बेटा देवर्षि चार वर्ष का था और सीमा पाँच 
						वर्ष की। सीमा उस समय केवल अँग्रेज़ी बोलती थी, हिंदी 
						नाममात्र समझ लेती थी। देवर्षि हिंदी बोलता था और कुछ–कुछ 
						अँग्रेज़ी समझ पाता था। कुछ देर तक दोनों एक दूसरे को देखकर 
						शरमाते रहे, फिर बड़ों के आपसी वार्तालाप में व्यस्त हो 
						जाने पर उन्होंने एक दूसरे से आँखें मिलाईं और बोलना 
						प्रारंभ कर दिया। कुछ देर तक दोनों एक दूसरे को बिल्कुल 
						नहीं समझे, परंतु कुछ घंटों के उपरांत हमने देखा कि दोनों 
						बाहर लान में खेल रहे थे और संकेतों एवं टूटी–फूटी भाषा के 
						माध्यम से एक दूसरे को अपनी बात समझा रहे थे। 
						हम दोनों का भाषाई 
						आदान–प्रदान भी उसी भाँति चल रहा था।
 
 मैं विंडोसीट से नीचे देखती और जब नीचे दिखाई देना बंद हो 
						जाता तो कुछ लिखने में निमग्न हो जाती। इसी बीच मेरा ध्यान 
						गया कि मेरी सहयात्रिणी बीच–बीच में कुछ अस्फुट बुदबुदाते 
						हुए अपनी उंगलियों पर मंत्रों का जाप जैसा कर रही थी। ऐसे 
						में मेरे मन में पुनः यह जिज्ञासा कुलबुलाने लगती कि – 
						मेरी सहयात्रिणी कौन भाषा–भाषी, किस देश की निवासिनी है? 
						मैं कुछ भी अनुमान नहीं लगा पा रही थी। अचानक एयरहोस्टेस 
						के हाथ से प्लेट गिर जाने से कुछ छींटे उसके कपड़ो पर गिर 
						गए। नैपकिन से उसने कपड़े पोंछे तो मेरी दृष्टि उसके 
						वस्त्रों पर गई। वह मैरून रंग का कुर्ता और संभवतः मैरून 
						रंग की ही सलवार जैसा कुछ पहने थी। ऊपर से सफ़ेद कपड़ा ढँका 
						हुआ था जो बुर्का जैसा नहीं था। फिर भी मन में विचार आया 
						कि क्या वह मुस्लिम है? पर तुरंत ही ध्यान आया कि वह 
						एयरपोर्ट पर मुस्लिमों की तरह 
						नमाज़ नहीं पढ़ रही थी।
 
 इसी समय कस्टम व इमिग्रेशन फार्म भरने को दिए गए। मैंने 
						अपने फार्म भरकर पासपोर्ट में लगाकर ठीक से रख लिए। तब 
						मेरा ध्यान गया कि वह अँग्रेज़ी नहीं जानती थी। अतः मैंने 
						उसके फार्म माँगकर भरने का प्रयत्न किया, परंतु उसकी 
						बात समझ न पाने के कारण असफल रही। तब उसने अपने फार्म व 
						पासपोर्ट एयर होस्टेस को पकड़ा दिए, जिसने कुछ देर बाद लाकर 
						उसे वापस कर दिया।
 
 सामने स्क्रीन पर दिखाई दिया कि प्लेन अब न्यूयार्क के 
						ऊपर उड़ रहा था। मैं उत्सुकता से नीचे देख रही थी। मुझे 
						नीचे चाँदी के समान चमकती एक रजतनगरी दिखाई दी। घरों, 
						सड़कों, पेड़ों, सभी स्थानों पर बर्फ़ जमी हुई थी। ऐसा लग रहा 
						था जैसे चाँदी पिघलाकर बहा दी गई है। बाई ओर से सूर्य की 
						तेज किरणें आँखों को चुभ रही थी अतः मैंने आधी ब्लाइंड बंद 
						कर दी और नीचे झाँने लगी। सूर्य के प्रचण्ड ताप से पिघलकर 
						यहाँ वहाँ वह चाँदी नीचे नदी के रूप में प्रवाहित हो रही 
						थी। अत्यंत सुंदर एवं रोमांचकारी दृश्य था। अचानक पुनः 
						बादलों ने संपूर्ण आकाश को आवृत कर लिया। टर्बुलेंस होने 
						से हवाईजहाज़ ज़ोर–ज़ोर से थरथराने लगा। भीतमता हो मैंने टी 
						.वी .पर चलती फ़िल्म पर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास 
						किया। इसी बीच मेरी सहयात्रिणी ने अपनी पोटली खोलकर कुछ 
						खाने का व्यंजन निकाला और स्नेह से संकेतो द्वारा मुझसे भी 
						लेने का आग्रह किया। मैंने सिर हिला कर मना किया। उसने 
						पुनः सिर हिलाकर इशारे से संभवतः यह बताने की कोशिश की कि 
						"अच्छा है"। कुछ कहने का भी प्रयत्न किया जो मुझे पोर्क 
						जैसा समझ में आया। मैंने फिर से मना कर दिया, पर मेरे मन 
						में विचार आया कि यदि उसने पोर्क ही कहा है तो वह स्त्री 
						मुस्लिम नहीं हो सकती, क्योंकि मुसलमान पोर्क नहीं खाते 
						हैं। अनायास फिर उसकी पहिचान का प्रश्न मेरे सामने उभर 
						आया, जिसका समाधान 
						नहीं हो पा रहा था।
 
 न्यूयार्क निकल जाने के लगभग डेढ़ घंटे के पश्चात हम 
						अटलांटा एअरपोर्ट पर उतरने वाले थे। सारा बदन अकड़ रहा था 
						और थककर चूर हो रहा था। "हे भगवान अटलांटा के इतने बड़े 
						एयरपोर्ट पर पैदल कैसे चल पाऊँगी, ऐसे ही इतना थक चुकी हूँ," यह सोच कर मुझे पसीना आ रहा था। आख़िरकार यात्रा की 
						घड़ियाँ समाप्त हुई। प्लेन रुकने पर मैं अपनी सहयात्रिणी की 
						ओर देखकर विदा लेने के भाव से मुस्करा दी, जिसका उसने 
						स्नेहिल प्रतिदान दिया। मैं प्रतीक्षा कर रही थी कि कोई 
						अटेंडेंट दिखे तो अपना हैंडबैग ऊपर से नीचे उतारने में 
						सहायता लूँ। इसी समय एक भारतीय युवक ने जो मेरे पीछे आ रहा 
						था, आगे आकर मेरा हैंड बैग नीचे उतारकर मेरी समस्या का 
						समाधान कर दिया। जब मैं किसी तरह अपना हैंडबैग घसीटते हुए 
						अपना पर्स, कोट हाथ में लटकाए हाँफती हुई नीचे उतरी तो 
						पैदल चलने की हिम्मत नहीं थी। बाहर उतरकर मैंने एक 
						कर्मचारी से सहायता के लिए पूछा तो उसने मेरा नाम पूछा। 
						नाम बताने पर एक अफ्रीकन लड़का व्हील चेयर लेकर सामने आया 
						और मुझसे बैठने को कहा। मुझे बिठाकर जब वह आगे लाया तो यह 
						देखकर मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि दूसरी व्हील चेयर 
						पर मेरी सहयात्रिणी बैठी है। वह युवक दोनों हाथों से एक–एक 
						व्हील चेयर को धक्का देते हुए हमें इमीग्रेशन डेस्क तक ले 
						आया। पहले मेरी सहयात्रिणी के पेपर्स देखे गए। वहाँ 
						उपस्थित अधिकारी ने उस अफ्रीकन पोर्टर से कहा, "इनके 
						काग़ज़ात पर मैं हस्ताक्षर नहीं करूँगा। इनहें दूसरे 
						कार्यालय ले जाओ।" अब मेरा नंबर आया। व्हील चेयर पर 
						बैठे–बैठे हमारे दोनों हाथों की तर्जनी का निशान काग़ज़ पर 
						लिया गया। कैमरे में फ़ोटो खींची गई और प्रश्न किया गया, 
						"आप यहाँ क्यों आईं हैं? मैंने बताया, "मेरे पास रिटर्न 
						टिकट है। मैं अपनी बहू की डिलीवरी के उपरांत वापस चली 
						जाऊँगी।" उक्त अधिकारी ने मेरे पासपोर्ट पर ६ माह का 
						वीसा देने की मुहर लगा दी 
						और मुझे जाने की अनुमति दे 
						दी।
 
 अब आगे सुरक्षा जाँच का स्थान आया। पिछली बार मैं अपने पति 
						के साथ ११ सितंबर २००१ की घटना के उपरांत आई थी। उस समय 
						मैं सलवार कुर्ता पहने थी। मेरी पोशाक तथा नयी जगहों को 
						ध्यान से देखने के शौक ने मुझे सुरक्षा अधिकारियों की नज़र 
						में आतंकवादियों की श्रेणी में पहुँचा दिया था। जगह–जगह पर 
						मेरी कई बार चेकिंग हुई थी। शर्म भी आती थी, बुरा भी लगता 
						था पर पिता व पति के पुलिस में रहने के कारण, पुलिस की 
						मजबूरियों से भी परिचित थी, अतः मन मसोसकर रह जाती थी। इस 
						बार मैं अकेले आ रही थी। अतः मैं सिल्क की पटोला की साड़ी 
						पहनकर, बिंदी लगाकर आई थी और चाहते हुए भी इधर–उधर किसी 
						वस्तु की तरफ़ भी ध्यान से नहीं देखती थी। अतः मेरी 
						सुरक्षा जाँच साधारण ही रही।
 
 यहाँ से आगे चलकर कस्टम चेक से पहले कन्वेयर बेल्ट से अपनी 
						अटैचियाँ निकालनी थीं। यहाँ भी व्हील चेयर वरदान सिद्ध 
						हुई। अटेंडेंट ने मेरे द्वारा अटैची पहचान लेने पर, दोनों 
						अटैची कन्वेयर बेल्ट से नीचे उतार ली। इसके बाद मेरी 
						सहयात्रिणी का भी समान पहचानकर उतारा। अब एक चेयर पर मैं 
						बैठी थी, एक पर सहयात्रिणी एवं एक ट्राली पर हम दोनों का 
						सामान था। अब एक हास्यापद दृश्य उत्पन्न हो गया। वह 
						अटेंडेंट बारी–बारी से कभी मेरी चेयर को धक्का देता तो कभी 
						दूसरी चेयर को और बीच में आगे बढकर ट्राली को धक्का देने 
						लगता। ऐसे में मेरी नज़रें शर्म से ऊपर नहीं उठ रही थीं। 
						रही–सही कसर एक भारतीय महिला यात्री की कटाक्षपूर्ण 
						मुस्कराहट ने पूरी कर दी। पर मैं करती भी क्या, कमज़ोरी के 
						कारण मजबूर थी। कस्टम पर मेरा सामान एक्सरे मशीन से 
						निकालकर मुझे जाने की अनुमति मिल गई, परंतु अभी मेरी 
						सहयात्रिणी की जाँच होना बाकी थी। उस युवक ने एक ट्राली पर 
						सारा सामान रखकर एक कोने में मेरी 
						व्हील चेयर के साथ खड़ा कर 
						दिया।
 
 इसके पश्चात मुझे प्रतीक्षा करने को कहकर वह उस महिला को 
						लेकर दूसरे आफ़िस में चला गया। जाँच कराके लौटने में उसे 
						आधा घंटा लग गया। अब पुनः वही अनोखा दृश्य था – वह युवक 
						क्रम से कभी एक व्हील चेयर को धक्का देकर आगे बढ़ाता, कभी 
						दूसरी को और बीच में आगे बढ़कर सामान की ट्राली को धक्का 
						देकर आगे बढ़ा देता। भगवान की कृपा से एक महिला कर्मचारी को 
						उस युवक के ऊपर तरस आ गया और उसने आगे बढ़कर सामान की 
						ट्राली थाम ली। सामान की एक बार और जाँच करके कनवेयर बेल्ट 
						पर रख दिया गया। अब वह युवक हम दोनों की व्हील चेयर लेकर 
						प्लेटफार्म पर आया। जहाँ से अँडरग्राउंड ट्रेनें जाती थीं। 
						इलेक्ट्रिक से चलने वाली इन ट्रेनों में खड़े रहने का स्थान 
						होता है, बैठने का नही। स्टार्ट होते ही उनकी गति इतनी 
						तीव्र हो जाती है कि अपने को सम्हालकर खड़े रखना आसान नहीं 
						होता है। यदि व्हील चेयर न होती तो मेरे थके शरीर को ट्रेन 
						की गति के अनुसार साधना मेरे वश में नहीं था, मैं निश्चित 
						ही गिर गई होती। पहले प्लेटफार्म ई आया, फिर डी, फिर सी, 
						फिर बी, फिर ए, इसके बाद बैगेज क्लेम का प्लेटफार्म आया। 
						हर प्लेटफार्म पर उद्घोषणा होती थी, एक मिनट के लिए 
						इलेक्ट्रिक ट्रेन का दरवाज़ा खुलता था और फिर बंद हो जाता 
						है और ट्रेन तीव्र गति से चल देती थी। बैगेज क्लेम के 
						प्लेटफार्म पर उस युवक ने बारी–बारी से दोनों व्हील चेयर 
						को बाहर निकाला। इसके पश्चात वह हमें कन्वेयर बेल्ट तक 
						लाया और हमारा सामान पहचानकर नीचे उतार दिया।
 मेरी 
						सहयात्रिणी का परिवार उसे लेने के लिए वहीं आकर खड़ा था। 
						उन्होंने परस्पर अभिवादन किया। चलते समय उस महिला ने मेरा 
						हाथ पकड़कर अभिवादन किया और कृतज्ञता–स्वरूप स्नेह से मेरे 
						गाल पर चुंबन लिया। मैं उसके स्नेह से अभिभूत हो उठी।
 अब उस युवक ने मेरे बेटे को वहाँ न देखकर मुझसे नंबर लेकर 
						अपने सेलफोन से मेरे बेटे देवर्षि के सेलफोन पर संपर्क 
						किया जो कार पार्किंग में ट्रैफ़िक जाम में अटका हुआ था। 
						देवर्षि कार लेकर सीधे एयरपोर्ट पर आ गया और उस युवक ने 
						मेरा सामान लाकर कार में रख दिया। मैं कमर सीधी करती हुई 
						बेटे की कार में आकर बैठ गई।
 
 अभी भी मेरी स्मृति में उस अपरिचित महिला यात्री के स्नेह 
						की सुगंधि अवशिष्ट है। मैं नहीं जानती वह कौन थी? क्या नाम 
						था? कौन सी भाषा–भाषी थी? किस देश की थी? किस धर्म की थी? 
						जानती हूँ तो केवल यह कि न मानवीयता की भाषा होती है न 
						स्नेह की परिधि।
 १६ दिसंबर 
						२००५ |