उस ज़माने में माइक तो थे नहीं। लेकिन उनकी आवाज़
तीन किलोमीटर दूर पिंजरा तक जाती। अंग्रेज़ कलेक्टर उनका अभिनय देखने आता था। एक बार जब वे रामलीला में अभिनय कर रहे थे तो
जिसको अंगद बनना था वह बीमार हो गया। अब क्या किया जाए, रात को रामलीला थी, तो वहीं
गाँव में एक महावीर भुजवा थे। उन्होंने कहा, "मुझे अंगद का पाठ याद है। मैं कर
दूँगा।" लोग बोले ठीक है किसी तरह काम सँभाल लो।
रामलीला शुरु हुई। अंगद के वेश में महावीर भुजवा
रावण के दरबार में आए। दुर्गादीन जी रावण बने थे। वे पहाड़ की तरह तो थे ही। दस सिर
वाला मुकुट लगाते, बीस हाथ। वे तलवार लेकर एकदम गरज के बोले, "कौन हो तुम?" गरज
सुनकर अंगद का पाठ करने वाले महावीर भुजवा घबड़ा गए। सिटपिटाकर बोले, "महाराज हम
महावीर भुजवा अहिन, तुम्हार परजा।"
तो ऐसे-ऐसे लोग थे।
एक शिवनारायन शनीचर थे। कुसुंभी के थे। वे सीता का
पार्ट करते थे। मौरावाँ के राजा शंकरसहाय ने उस ज़माने में उनको सीता की भूमिका
करने के लिए बनारस से साढ़े तीन सौ रुपए की साड़ी मँगा के दी थी। आज वो पाँच हज़ार
रुपए में भी नहीं मिलेगी।
एक बार रामलीला के दौरान जैसे ही अशोक वाटिका में दुर्गादीन दादा पहुँचे और गरज के
तलवार लहराते हुए कहा,
"मास दिवस जो कहा न माना,
तौ मैं मारब काढ़ि कृपाना।"
आवाज़ की गरज और तलवार के पैंतरे से घबरा जाने से सीता की भूमिका करने वाले
शिवनारायन जी की धोती गीली हो गई।
रावणों के इतिहास में हमारे भैया भी थे। हमारे
भैया जब रावण बनते थे तो दुर्गादीन मिसिर विभीषण बनते थे। एक बार रावण के दरबार से
विभीषण को लात मारके निकालने का अभिनय करते समय भैया ने वो लात मारी कि दुर्गादीन
मिसिर पड़े रहे तीन महीना, उनकी कमर की नस ही नहीं उतरी। फिर उन्होंने विभीषण का
पार्ट करना ही छोड़ दिया। भैया का रावण अंग्रेज़ी भी जानता था। विभीषण को लात मार
के कहते, "गेट आउट फ्राम माई दरबार।" एक्टिंग में भैया दुर्गादीन दादा से बेहतर थे।
लेकिन आवाज़ की बुलंदी और भयंकरता में दुर्गादीन दादा का कोई जोड़ नहीं था।
अंग्रेज़ डी.एम. उनका अभिनय देखने आता था। कहता था कि पंडित दुर्गादीन अभिनय कर रहे
हों तो हमको ज़रूर बुलाना।
एक और रावण का पार्ट अदा करने वाले थे -पंडित
रामिकिसुन। रामकिसुन जी टयूशन करते थे। दूसरे-तीसरे दर्जे के बच्चों को पढ़ाते थे।
गाँव में एक थे बलभ र बनिया। उनके बच्चों के लिए मैंने पंडित रामकिसुन का टयूशन
लगवा दिया, यह कह कर कि पैसे आप लोग आपस में तय कर लेना। यहाँ का क्या हिसाब है मैं
नहीं जानता।
टयूशन तय हो गया। वे ज़ोर से पढ़ाते थे। पढ़ो -'क'
माने कबूतर। बच्चे जब कहते 'क' माने कबूतर तो वे कहते, "ज़ोर से कहो। अभी तुम्हारे
बाप ने नहीं सुना।"
लड़का ज़ोर से बोलता, 'क' माने कबूतर।
एक बार ज़ोर से पढ़ा रहे थे। ध्यान से उतर गया कि सूरज पूरब में निकलता है, तो
बोले, "सूरज पश्चिम में निकलता है।"
लड़के से कहा, "ज़ोर से बोलो- सूरज पश्चिम में निकलता है।"
लड़का बोला। बलभद्दर ने सुन लिया। भागते हुए आए, बोले, "वाह रे महाराज! यहै पढ़ावति
हौ? सूरज पच्छिम मां निकरत है?"
रामकिसुन महाराज घूम के बैठ गए। बोले, "ए बनेऊ, देंय का चार ठौ रुपया। चार रुपया
मां सूरज पच्छिम मां न निकरी तो का पूरब मां निकरी? अगले महीना जौ पैसा न बढायेव तो
अबकी दक्खिनै मां निकारव।"
अगले महीने उनकी फीस चार रुपए से बढ़ के पाँच रुपए
हो गई। सूरज पूरब में निकलने लगा। तब से अभी तक निकल रहा है। पैसे न बढ़ते तो शायद
सूरज पूरब में न निकलता।
रामकिसुन महाराज हारते हुए भी जीत गए। इसी तरह के तमाम संस्मरण हैं मौरावाँ की
रामलीला के जहाँ का रावण कभी नहीं मरता।
"लेकिन रावण क्यों नहीं मरता वह बात तो रह ही गई,"
मैं याद दिलाता हूँ।
वे बड़ी मुस्कान के बाद बताते हैं-
मौरावाँ के रामलीला मैदान में 7-8 फुट ऊँची पत्थर से निर्मित विशालकाय रावण की
सिंहासनारूढ़ प्रतिमा है। इस प्रतिमा को 1804 में राजा चंदनलाल ने बनवाया था। इस
साल इस प्रतिमा के २०१ वर्ष पूरे हो गए। हर साल इसकी रंगाई पुताई होती है और रावण
साल भर अपनी साज-सज्जा के साथ सिंहासन पर बैठा रहता है। यहाँ सोते हुए कुंभकर्ण की
भी एक प्रतिमा है। रामलीला में इस प्रतिमाएँ का उपयोग नहीं होता है। उसके लिए दूसरे
सामान्य पुतले बनाए जाते हैं। इसीलिए मैंने कहा कि यहाँ रावण कभी नहीं मरता।
इसके बाद वे सुनाते हैं अपनी एक कविता जो शायद इसी
रावण से प्रेरणा लेकर लिखी गई है पर आज के राजनैतिक और सामाजिक जीवन में गहरी पैठती
है। (कृपया कविता अनुभूति में यहाँ देखें)
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