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                   छोटा सच बड़ा सच
 —अमृता प्रीतम
 
 रोज़ सवेरे 
						पेड़–पौधों को पानी देना मेरे प्यारे कामों में शुमार है। 
						रोज़ सवेरे जितनी देर पानी देती हूँ, इमरोज़ हाथ में सवेरे 
						का अख़बार लिए साथ–साथ मुझे ख़बरें सुनाता है। एक दिन पेड़ों 
						के इर्द–गिर्द लगाया हुआ मनीप्लांट इमरोज़ को दिखाया और 
						कहा, "देखो, यह मनीप्लांट कैसे बेलों की तरह बढ़ गया है।" 
						तो उसने उत्तर दिया, "तुमने तो पानी 
						दे–देकर वारिस शाह की बेल को 
						भी बढ़ा दिया, यह तो सिर्फ़ मनीप्लांट है।" 
 कभी–कभी खुशी और उदासी एक साथ आ जाती है, कहा, "वारिस शाह 
						की बेल को दिल का पानी दिया था, दिल का भी, आंसुओं का 
						भी...पर याद है वह समय, जब तुमसे पहली बार मिली थी, तो यह 
						ख़बर चारों तरफ़ फैल गई थी। तब जालंधर में किसी समागम के 
						प्रधान पद के लिए मेरा नाम प्रस्तावित हुआ, तो एक 
						कम्युनिस्ट नेता ने कहा था, "नहीं, हम उसे नहीं बुलाएँगे, 
						उसकी बदनामी के कारण हमारी 
						सभा बदनाम हो जाएगी।"
 
 उसी शाम दिल्ली के खालसा कॉलेज ने मुझे रिसेप्शन दिया था – 
						दिल्ली यूनिवर्सिटी से डी.लिट.की डिग्री मिलने के सिलसिले 
						में। मन में वही सवेरे का माहौल था, उनका शुक्रिया अदा 
						करके कहा, "लेखक हर हाल में लेखक है, मौसम चाहे शोहरत का 
						हो, चाहे गुमनामी का, चाहे बदनामी का।" अब– समय बीत जाने 
						पर शोहरत, गुमनामी और बदनामी को जिंदगी के मौसम कह सकती 
						हूँ। तसल्ली है कि सब मौसम देखे हैं, पर कई बरस पहले, इन 
						मौसमों से गुज़रना बहुत कठिन लगता था। ज़िंदगी, इमरोज़ के साथ 
						में, कोई समतल वस्तु नहीं है, यह अति की ऊँचाइयों और 
						निचाइयों से भरी हुई है। इसमें दो व्यक्तित्व मिलते हैं और 
						टकराते हैं – नदियों के पानियों की भाँति मिलते हैं और दो 
						चट्टानों की भाँति टकराते हैं। पर चौदह बरस (राम–वनवास 
						जितने समय) के अनुभव के बाद कह सकती हूँ कि इस राह की 
						निचाइयाँ छोटा सच है 
						और इस राह की ऊँचाइयाँ बड़ा सच है।
 
 इमरोज़ का व्यक्तित्व दरिया के प्रवाह के समान है। जैसे 
						दरिया एक सीमा स्वीकार करता है, पर नहर जैसी पक्की बनी हुई 
						सीमा नहीं, चाहे तो अपने प्रवाह का रुख़ भी बदल सकता है। 
						इमरोज़ के लिए कोई रिश्ता केवल तब तक रिश्ता है, जब तक वह 
						बंधन नहीं है। रिश्ते अक्सर अपने स्वाभाविक स्वतंत्र रूप 
						में नहीं होते– कभी उनकी नकेल कानून के हाथ में होती हैं, 
						तो कभी सामाजिक कर्तव्य के, पर इमरोज़ के शब्दों में, "अगर 
						राह अपनी है, राहदारी की क्या ज़रूरत है?" हर कानून 
						"राहदारी" होता है। इमरोज़ को यह राहदारी, अपनी राह की 
						तौहीन लगती है। मुझ पर उसकी पहली मुलाक़ात का असर – मेरे 
						शरीर के ताप के रूप में हुआ था। मन में कुछ घिर आया और तेज़ 
						बुख़ार चढ़ गया। उस शाम उसने पहली बार अपने हाथ से मेरा माथा 
						छुआ था, "बहुत बुख़ार है?" इन शब्दों के बाद उसके मुँह से 
						केवल एक ही वाक्य निकला था, "आज एक दिन में मैं कई साल बड़ा 
						हो गया हूँ।" इमरोज़ मुझसे साढे छह बरस छोटा है, पर उस दिन, 
						उस पहली मुलाक़ात के दिन – वह जब अचानक कई बरस बड़ा हो गया, 
						तो इतना बड़ा हो गया कि अपने और मेरे अकेलेपन को 
						नापकर वह अक्सर कहने लगा, 
						"नहीं, और कोई नहीं, और कोई भी नहीं, तुम मेरी बेटी हो, 
						मैं तुम्हारा पुत्र हूँ।"
 
 और जहाँ तक उसी दोस्त की राह में आने वाली निचाइयों का 
						प्रश्न है – उसके कारण बहुत ही छोटे होते हैं, पर उनसे 
						पैदा होने वाला उसका गुस्सा और मेरी उदासी – कोई तीन घंटे 
						के लिए बहुत गहरे हो जाते हैं – इतने गहरे कि अकेलापन 
						"आख़िर सच" लगने लगता है। ये कारण होते हैं – ड्राइंग रूम 
						की एक गद्दी उल्टी क्यों पड़ी है? सिगरेट का ख़ाली पैकेट 
						दीवान पर क्यों गिरा हुआ है? गोंद की शीशी जिस मेज़ पर से 
						उठाई थी, उस पर न रखकर उसे दूसरे कमरे की मेज़ पर क्यों रख 
						दिया? अगर कार बाहर निकाली थी, तो गैरेज का शटर क्यों नहीं 
						बंद किया? और नौबत यह आ जाती है – हाथ का ग्रास हाथ में और 
						सामने प्लेट में पड़ी रोटी प्लेट में रह जाती है। घड़ी की 
						सुई एक ही जगह पर अटक जाती है। एक ख़ामोशी छा जाती है – 
						जिसमें केवल एक खटका, बहुत ज़ोर से, एक बार सुनाई देता है – 
						और उसके कमरे का दरवाज़ा एक ठहाके से बंद हो जाता है।
 
 लगभग तीन घंटे इस तरह 
						बीत जाते हैं, जैसे समय की ऊपर की साँस ऊपर, नीचे की साँस 
						नीचे रह गई हो। फिर इमरोज़ के एक हसीनतर फ़िकरे से यह ख़ामोशी 
						टूटती है, "मैं तुम्हारा शीर्षासन, तुम मेरा प्राणायाम!" 
						इसीलिए इन सब निचाइयों को छोटा सच कह सकती हूँ और इमरोज़ के 
						अस्तित्व को बड़ा सच। हिंदी कवि कैलाश वाजपेयी को ज्योतिष 
						का गहरा ज्ञान है। एक दिन कैलाश ने कहा, "अमृता! तुम्हारे 
						जन्म के समय चंद्रमा तुम्हारे भाग्य के घर में बैठा हुआ 
						था।" मैं हँस रही थी, "पर वह तो ढ़ाई घड़ी बैठकर चला गया 
						होगा..." कि पास से ही हँसकर इमरोज़ ने कहा, "वह कोई इमरोज़ 
						थोड़े ही था, जो फिर और कहीं न जाता, वह सिर्फ़ चंद्रमा था, 
						आया, बैठा और फिर उठकर टहल दिया...चंद्रमा को तो घर–घर 
						जाना होता है न..."
 
 याद आ रहा है – एक दिन बीमारी की हालत में मैंने इमरोज़ से 
						कहा, "मैं इस दुनिया से चली गई तो तुम अकेले मत रहना, 
						दुनिया का हुस्न भी देखना और जवानी भी।" तो इमरोज़ ने बल 
						खाकर कहा, "मैं पारसी नहीं हूँ, जिसकी लाश को गिद्धों के 
						हवाले कर दिया जाता है। तुम मेरे साथ और दस बरस जीने का 
						इक़रार करो – मेरी एक हसरत अभी बाक़ी है, मैं एक अच्छी फ़िल्म 
						बना लूं, बस, वह बनाकर फिर एक साथ दुनिया से जाएँगे।" ये 
						शब्द जिस घड़ी कहे गए, उस घड़ी इससे बड़ा सच और कोई नहीं था। 
						इसीलिए कहती हूँ – ज़िंदगी की सारी कठिनाइयाँ छोटा सच हैं 
						और इमरोज़ का साथ बड़ा 
						सच।
 
 यह बड़ा सच, हँसी–मज़ाक की रौ में कभी छोटा नहीं हुआ। एक बार 
						मुझे और इमरोज़ को चाय पीने की इच्छा हुई। इमरोज़ ने कहा, 
						"अच्छा, तुम गैस पर चाय का पानी रखो, आज मैं चाय बनाऊँगा।" 
						मैं बिस्तर में बैठी हुई थी, उठने को जी नहीं कर रहा था। 
						कहा, "मेरे जो अब थोड़े–से दिन रहते हैं जीने के, पर जितने 
						बाक़ी रहते हैं, अब मैं इस तरह जीना चाहती हूँ, मानो ईश्वर 
						के विवाह में आई हुई होऊँ।" इमरोज़ कोई मिनट–भर के लिए चुप 
						रहा, फिर कहने लगा, "पर मैं भी तो ईश्वर के ब्याह में आया 
						हूँ!" मुझे हँसी आ गई, "हाँ, हाँ, और तुम लड़की वाले की तरफ़ 
						से हो, मैं लड़के वाले की तरफ़ से।" उस दिन से रोज़ एक 
						मज़ाक–सा चल गया कि बातों–बातों में इमरोज़ कह देता, "अच्छा 
						जी! यह काम भी हम ही कर देते हैं, हम लड़की वाले की तरफ़ से 
						जो हुए, आप बैठे रहें, लड़के वालो!" सच – इमरोज़ की दोस्ती 
						में जैसे मैंने सचमुच ईश्वर का विवाह देखा हो...विवाहों पर 
						होने वाले बिरादरी वालों के झगड़े भी देखे हैं और विवाह 
						भी...
 
 रसोइया कभी मेरे लिए 
						ज़रूरी होता था, इतना कि अगर उसे बुखार चढ़ता हुआ मालूम हो, 
						तो घबराकर सोचती थी– हाय ईश्वर! मुझे बुख़ार चढ़ जाए, पर 
						रसोइए को न चढ़े, नहीं तो रोटी मुझे बनानी पड़ेगी। पर पिछले 
						१६-१७ बरसों से रसोइया मेरे लिए ज़रूरी नहीं रहा। अपने हाथ 
						से रोटी पकाने की आदत मुझे अंदरेटे जाकर पड़ी थी। मैं और 
						इमरोज़ कांगड़ा वैली प्रसिद्ध चित्रकार सोभासिंह जी से मिलने 
						गए थे, पर हमारे खाने का सारा झंझट जब सोभासिंह जी की 
						पत्नी पर पड़ गया, तो अच्छा नहीं लगा। मैंने कोशिश की, तो 
						मुझसे लकड़ियों की आग नहीं जलाई गई। पर जब इमरोज़ ने फूँके 
						मारकर आग जलाने का ज़िम्मा ले लिया, तो मैंने रोटी बनाने का 
						ज़िम्मा ले लिया और फिर वापस आने पर नौकर एक दखलअंदाज़ी 
						मालूम होने लगा।
 
 सो, पिछले १६-१७ 
						बरसों से रोटी अपने हाथ से बनाती हूँ। कमरों और बर्तनों की 
						सफ़ाई–मँजाई के लिए "पार्ट टाइम" प्रबंध है। इससे ज़्यादा 
						मुझे किसी नौकर की आवश्यकता नहीं पड़ती। पर अगर यह पार्ट 
						टाइम वाला कभी बीमार हो या छुट्टी पर हो, तो बर्तन भी खुद 
						साफ़ कर लेती हूँ। ऐसे समय में मैं बर्तन माँजती हूँ और 
						इमरोज़ पास खड़े होकर मुझे गर्म पानी दिए जाता है, मैं बर्तन 
						धोए जाती हूँ। और जब कभी वह स्टूडियो में पेंट कर रहा होता 
						है, मैं उसे बैठने नहीं देती, ख़ुद ही बर्तनों का काम ख़त्म 
						करके आवाज़ दे देती हूँ, "लो, लड़की वालो! आज तो लड़के वालों 
						ने बर्तन भी माँज दिए हैं।" और फिर जैसे यह मज़ाक हमारी 
						ज़िंदगी का एक हिस्सा बन गया है, उसी तरह एक उत्साह भी हमने 
						अपने लिए सुरक्षित रखा हुआ है। इमरोज़ का व्यवसाय बहुत 
						महँगा है, रंग भी। कभी उसके पास नया कैनवस ख़रीदने के लिए 
						पैसे न हों, तो कहती हूँ, "तुम्हारी पहली पेंटिंग मैंने 
						ख़रीद ली, यह लो पैसे– तुम नया कैनवस ख़रीद लो और पेंट कर 
						लो।" और जब कभी मुझे अपनी किताबों से पैसे न मिल रहे हों 
						और मैं उदास होऊँ तो वह कहता है, "चलो! आज मैंने तुम्हारी 
						अमुक कहानी पर फ़िल्म 
						बनाने का अधिकार ख़रीद लिया, यह लो साइनिंग अमाउंट और इसका 
						फ़िल्मी अधिकार मुझे बेच दो।"
 
 जानती हूँ, पैसे उसके पास हों, या मेरे पास, रहते उतने के 
						उतने ही हैं, पर हम मौक़ा आने पर उस दिन का उत्साह अवश्य 
						कमा लेते हैं, और इस तरह हर कठिन दिन को आसान बना देते 
						हैं। और यह सब इतना बड़ा सच बन जाता है कि पैसों की कमी 
						छोटा सच हो जाती है। मैं केवल मन में नहीं, 
						ट्रंकों–अलमारियों में कई छोटी–मोटी चीज़ें संभालकर रख लेती 
						हूँ। किसी के जन्मदिन पर कोई सौग़ात देनी हो, मेरे ट्रंकों 
						और अलमारियों में से कुछ न कुछ ज़रूर निकल आता है। अचानक 
						कुछ ख़रीदना पड़ जाए, बैंक के किसी न किसी अकाउंट में से 
						उसके लिए रकम भी मिल जाती है। बे–समय भूख लग आए, तो फ्रि.ज 
						में से कुछ न कुछ खाने के लिए भी मिल जाता है। इमरोज़ इस 
						बात पर बहुत हँसता है। एक बार हँसते हुए कहने लगा, "तुमने 
						मेरा भी कुछ हिस्सा कहीं बचाकर ज़रूर रखा होगा, ताकि अगले 
						जन्म में काम आए..."
 
 अगले जन्म का पता 
						नहीं, पर लगता है पिछले जन्म का ज़रूर कुछ बचाकर रखा हुआ 
						था, जिसे इस जन्म में मैं दुर्गम रेगिस्तान में पानी के 
						कटोरे के समान पी सकी हूँ। और सोचती हूँ– ईश्वर करे, उसकी 
						बात भी ठीक हो जाए और मैं उसे कुछ कहीं से, अपने अगले
  जन्म 
						के लिए भी बचाकर रख सकूँ... 
 मैं तुझे फिर मिलूँगी
 कहाँ किस तरह
 पता नहीं
 शायद तेरी कल्पनाओं में
 चित्र बन के उतरूंगी
 जहाँ कोरे तेरे कैनवस पर
 एक रहस्यमय लकीर बन के
 ख़ामोश तुझे तकती रहूँगी
 (जीवन के अंतिम दिनों में लिखी गयी उनकी कविता के कुछ 
						अंशों का हिंदी रूपांतर)
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