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                        एक युग बीत जाने पर भी मेरी 
                        स्मृति से एक घटाभरी अश्रुमुखी सावनी पूर्णिमा की रेखाएँ 
                        नहीं मिट सकी है। उन रेखाओं के उजले रंग न जाने किस व्यथा 
                        से गीले हैं कि अब तक सूख भी नहीं पाए - उड़ना तो दूर की 
                        बात है। उस दिन मैं बिना कुछ सोचे हुए ही भाई निराला जी से पूछ 
                        बैठी थी, "आप के किसी ने राखी नहीं बाँधी?" अवश्य ही उस 
                        समय मेरे सामने उनकी बंधन-शून्य कलाई और पीले, कच्चे सूत 
                        की ढेरों राखियाँ लेकर घूमने वाले यजमान-खोजियों का चित्र 
                        था। पर अपने प्रश्न के उत्तर में मिले प्रश्न ने मुझे क्षण 
                        भर के लिए चौंका दिया।
 
                        'कौन बहन हम जैसे भुक्खड़ को 
                        भाई बनावेगी?' में, उत्तर देने वाले के एकाकी जीवन की 
                        व्यथा थी या चुनौती यह कहना कठिन है। पर जान पड़ता है किसी 
                        अव्यक्त चुनौती के आभास ने ही मुझे उस हाथ के अभिषेक की 
                        प्रेरणा दी जिसने दिव्य वर्ण-गंध-मधु वाले गीत-सुमनों से 
                        भारती की अर्चना भी की है और बर्तन माँजने, पानी भरने जैसी 
                        कठिन श्रम-साधना से उत्पन्न स्वेद-बिंदुओं से मिट्टी का 
                        श्रृंगार भी किया है। मेरा प्रयास किसी जीवंत 
                        बवंडर को कच्चे सूत में बाँधने जैसा था या किसी उच्छल 
                        महानद को मोम के तटों में सीमित करने के समान, यह सोचने 
                        विचारने का तब अवकाश नहीं था। पर आने वाले वर्ष निराला जी 
                        के संघर्ष के ही नहीं, मेरी परीक्षा के भी रहे हैं। मैं 
                        किस सीमा तक सफल हो सकी हूँ, यह मुझे ज्ञात नहीं, पर लौकिक 
                        दृष्टि से नि:स्व निराला हृदय की निधियों में सब से समृद्ध 
                        भाई हैं, यह स्वीकार करने में मुझे द्विविधा नहीं। 
                        उन्होंने अपने सहज विश्वास से मेरे कच्चे सूत के बंधन को 
                        जो दृढ़ता और दीप्ति दी है वह अन्यत्र दुर्लभ रहेगी। दिन-रात के पगों से 
                        वर्षों की सीमा पार करने वाले अतीत ने आग के अक्षरों में 
                        आँसू के रंग भर-भर कर ऐसी अनेक चित्र-कथाएँ आँक डाली है, 
                        जिनसे इस महान कवि और असाधारण मानव के जीवन की मार्मिक 
                        झाँकी मिल सकती है। पर उन सब को सँभाल सके ऐसा एक 
                        चित्राधार पा लेना सहज नहीं। उनके अस्त-व्यस्त जीवन को 
                        व्यवस्थित करने के असफल प्रयासों का स्मरण कर मुझे आज भी 
                        हँसी आ जाती है। एक बार अपनी निर्बंध उदारता की तीव्र 
                        आलोचना सुनने के बाद उन्होंने व्यवस्थित रहने का वचन दिया। संयोग से तभी उन्हें कहीं 
                        से तीन सौ रुपए मिल गए। वही पूँजी मेरे पास जमा कर के 
                        उन्होंने मुझे अपने खर्च का 'बजट' बना देने का आदेश दिया। जिन्हें मेरा व्यक्तिगत 
                        रखना पड़ता है, वे जानते हैं कि यह कार्य मेरे लिए कितना 
                        दुष्कर है। न वे मेरी चादर लंबी कर पाते हैं न मुझे पैर 
                        सिकोड़ने पर बाध्य कर सकते हैं, और इस प्रकार एक विचित्र 
                        रस्साकशी में तीस दिन बीतते रहते हैं। पर यदि अनुत्तीर्ण 
                        परीक्षार्थियों की प्रतियोगिता हो तो सौं में दस अंक पाने 
                        वाला भी अपने-आपको शून्य पाने वाले से श्रेष्ठ मानेगा। अस्तु, नमक से लेकर नापित 
                        तक और चप्पल से लेकर मकान के किराए तक का जो अनुमान-पत्र 
                        मैंने बनाया वह जब निराला जी को पसंद आ गया, तब पहली बार 
                        मुझे अपने अर्थशास्त्र के ज्ञान पर गर्व हुआ। पर दूसरे ही 
                        दिन से मेरे गर्व की व्यर्थता सिद्ध होने लगी। वे सबेरे ही 
                        आ पहुँचे। पचास रुपए चाहिए - किसी विद्यार्थी का 
                        परीक्षा-शुल्क जमा करना है, अन्यथा वह परीक्षा में नहीं 
                        बैठ सकेगा। संध्या होते-होते किसी साहित्यिक मित्र को साठ 
                        देने की आवश्यकता पड़ गई। दूसरे दिन लखनऊ के किसी तांगे 
                        वाले की माँ को चालीस मनीआर्डर करना पड़ा। दोपहर को किसी 
                        दिवंगत मित्र की भतीजी के विवाह के लिए सौ देना अनिवार्य 
                        हो गया। सारांश यह कि तीसरे दिन उनका जमा किया हुआ रुपया 
                        समाप्त हो गया और तब उनके व्यवस्थापक के नाते यह दानखाता 
                        मेरे हिस्से आ पड़ा। एक सप्ताह में मैंने समझ 
                        लिया कि यदि ऐसे अवढर दानी को न रोका जावे तो यह मुझे भी 
                        अपनी स्थिति में पहुँचा कर दम लेंगे। तब से फिर कभी उनका 
                        'बजट' बनाने का दुस्साहस मैंने नहीं किया। पर उनकी 
                        अस्त-व्यस्तता में बाधा पहुँचाने का अपना स्वभाव मैं अब तक 
                        नहीं बदल सकी हूँ। बड़े प्रयत्न से बनवाई 
                        रजाई, कोट जैसी नित्य व्यवहार की वस्तुएँ भी जब दूसरे ही 
                        दिन किसी अन्य का कष्ट दूर करने के लिए अंतर्धान हो गईं, 
                        तब अर्थ के संबंध में क्या कहा जावे जो साधन मात्र है। वह संध्या भी मेरी स्मृति 
                        में विशेष महत्व रखती है जब श्रद्धेय मैथिलीशरण जी निराला 
                        जी का आतिथ्य ग्रहण करने गए। बगल में गुप्त जी के 
                        बिछौने का बंडल दबाए, दियासलाई के क्षण प्रकाश क्षण अंधकार 
                        में तंग सीढ़ियों का मार्ग दिखाते हुए निराला जी हमें उस 
                        कक्ष में ले गए जो उनकी कठोर साहित्य-साधना का मूक साक्षी 
                        रहा है। आले पर कपड़े की आधी जली 
                        बत्ती से भरा, पल तेल से खाली मिट्टी का दिया मानो अपने 
                        नाम की सार्थकता के लिए ही जल उठने का प्रयास कर रहा था। 
                        यदि उसके प्रयास को स्वर मिल सकता तो वह निश्चय ही हमें, 
                        मिट्टी के तेल की दूकान पर लगी भीड़ में सब से पीछे खड़े 
                        पर सब से बालिश्त भर ऊँचे गृहस्वामी की दीर्घ, पर निष्फल 
                        प्रतीज्ञा की कहानी सुना सकता। रसोईघर में दो-तीन अधजली 
                        लकड़ियाँ, औंधी पड़ी बटलोई और खूँटी से लटकती हुई आटे की 
                        छोटी-सी गठरी आदि मानो उपवास-चिकित्सा के लाभों की 
                        व्याख्या कर रहे थे। वह आलोकरहित, 
                        सुख-सुविधा-शून्य घर, गृहस्वामी के विशाल आकार और उससे भी 
                        विशालतर आत्मीयता से भरा हुआ था। अपने संबंध में बेसुध 
                        निराला जी अपने अतिथि की सुविधा के लिए सतर्क प्रहरी हैं। 
                        वैष्णव अतिथि की सुविधा का विचार कर वे नया घड़ा ख़रीद कर 
                        गंगाजल ले आए और धोती-चादर जो कुछ घर में मिल सका सब तख़्त 
                        पर बिछा कर उन्हें प्रतिष्ठित किया। तारों की छाया में उन 
                        दोनों मर्यादावादी और विद्रोही महाकवियों ने क्या कहा-सुना 
                        यह मुझे ज्ञात नहीं, पर सबेरे गुप्त जी को ट्रेन में बैठा 
                        कर वे मुझे उनके सुख-शयन का समाचार देना न भूले। ऐसे अवसरों की कमी नहीं 
                        जब वे अकस्मात पहुँच कर कहने लगे, ''मेरे इक्के पर कुछ 
                        लकड़ियाँ, थोड़ा घी आदि रखवा दो - अतिथि आए हैं, घर में 
                        सामान नहीं है।'''उनके अतिथि यहाँ भोजन करने आ जावें' सुन कर उनकी दृष्टि 
                        में बालकों जैसा विस्मय छलक आता है। जो अपना घर समझ कर आए 
                        हैं, उनसे यह कैसे कहा जावे कि उन्हें भोजन के लिए दूसरे 
                        घर जाना होगा।
 भोजन बनाने से ले कर जूठे 
                        बर्तन माँजने तक का काम वे अपने अतिथि देवता के लिए सहर्ष 
                        करते हैं। तैतीस कोटि देवताओं के देश में इस वर्ग के 
                        देवताओं की संख्या कम नहीं, पर आधुनिक युग ने उनकी 
                        पूजा-विधि में बहुत कुछ सुधार कर लिया है। अब अतिथि-पूजा 
                        के पर्व कम ही आते हैं और यदि आ भी पड़े तो देवता के 
                        अभिषेक, श्रृंगार आदि संस्कार बेयरा आदि ही संपन्न करा 
                        देते हैं। पुजारी गृहपति को तो भोग लगाने की मेज पर 
                        उपस्थित रहने भर का कर्तव्य सँभालना पड़ता है। कुछ देवता 
                        इस कर्तव्य से भी उसे मुक्ति दे देते हैं। ऐसे युग में आतिथ्य की 
                        दृष्टि से निराला जी में वही पुरातन संस्कार है जो इस देश 
                        के ग्रामीण किसान में मिलता है। उनके भाव की अतल गहराई और 
                        अबाध वेग भी आधुनिक सभ्यता के छिछले और बँधे भाव-व्यापार 
                        से भिन्न है।उनकी व्यथा की सघनता जानने का मुझे एक अवसर मिला है। श्री 
                        सुमित्रानंदन जी दिल्ली में टाइफाइड ज्वर से पीड़ित थे। 
                        इसी बीच घटित को साधारण और अघटित को समाचार मानने वाले 
                        किसी समाचार-पत्र ने उनके स्वर्गवास की झूठी ख़बर छाप 
                        डाली।
 निराला जी कुछ ऐसी 
                        आकस्मिकता के साथ आ पहुँचे थे कि मैं उनसे यह समाचार 
                        छिपाने का भी अवकाश न पा सकी। समाचार के सत्य में मुझे 
                        विश्वास नहीं था, पर निराला जी तो ऐसे अवसर पर तर्क की 
                        शक्ति ही खो बैठते हैं। वे लड़खड़ा कर सोफे पर बैठ गए और 
                        किसी अव्यक्त वेदना की तरंग के स्पर्श से मानो पाषाण में 
                        परिवर्तित होने लगे। उनकी झुकी पलकों से घुटनों पर चूने 
                        वाली आँसू की बूँदें बीच-बीच में ऐसे चमक जाती थीं मानो 
                        प्रतिमा से झड़े हुए जूही के फूल हों। स्वयं अस्थिर होने पर भी 
                        मुझे निराला जी को सांत्वना देने के लिए स्थिर होना पड़ा। 
                        यह सुन कर कि मैंने ठीक समाचार जानने के लिए तार दिया है, 
                        वे व्यथित प्रतीक्षा की मुद्र में तब तक बैठे रहे जब तक 
                        रात में मेरा फाटक बंद होने का समय न आ गया। सबेरे चार बजे ही फाटक 
                        खटखटा कर जब उन्होंने तार के उत्तर के संबंध में पूछा तब 
                        मुझे ज्ञात हुआ कि वे रात भर पार्क में खुले आकाश के नीचे 
                        ओस से भीगी दूब पर बैठे सबेरे की प्रतीक्षा करते रहे हैं। 
                        उनकी निस्तब्ध पीड़ा जब कुछ मुखर हो सकी, तब वे इतना ही कह 
                        सके, 'अब हम भी गिरते हैं। पंत के साथ तो रास्ता कम अखरता 
                        था, पर अब सोच कर ही थकावट होती है।' प्राय: एक स्पर्धा का तार 
                        हमारे सौहार्द के फूलों को वेध कर उन्हें एकत्र रखता है। 
                        फूल के झड़ते या खिसकते ही काला तार मात्र रह जाता है। इसी 
                        से हमें किसी सहयोगी का बिछोह अकेलेपन की तीव्र अनुभूति 
                        नहीं देता। निराला जी के सौहार्द और विरोध दोनों एक 
                        आत्मीयता के वृंत पर खिले दो फूल हैं। वे खिल कर वृंत का 
                        श्रृंगार करते हैं और झड़ कर उसे अकेला और सूना कर देते 
                        हैं। मित्र का तो प्रश्न ही क्या ऐसा कोई विरोधी भी नहीं 
                        जिसका अभाव उन्हें विकल न कर देगा। गत मई मास की, लपटों में 
                        साँस लेने वाली दोपहरी भी मेरी स्मृति पर एक जलती रेखा 
                        खींच गई है। शरीर से शिथिल और मन से क्लांत निराला जी मलिन 
                        फटे अधोवस्त्र को लपेटे और वैसा ही जीर्ण-शीर्ण उत्तरीय 
                        ओढ़े हुए धूल-धूसरित पैरों के साथ मेरे द्वार पर आ उपस्थित 
                        हुए। 'अपरा' पर इक्कीस सौ पुरस्कार की सूचना मिलने पर 
                        उन्होंने मुझे लिखा था कि मैं अपनी सांस्थिक मर्यादा से वह 
                        रुपया मँगवा लूँ। अब वे कहने आए थे कि स्वर्गीय मुंशी नव-जादिक 
                        लाल की विधवा को पचास प्रति मास के हिसाब से भेजने का 
                        प्रबंध कर दिया जावे। 'उक्त धन का कुछ अंश भी 
                        क्या वे अपने उपयोग में नहीं ला सकते?' के उत्तर में 
                        उन्होंने उसी सरल विश्वास के साथ कहा, ''वह तो संकल्पित 
                        अर्थ है। अपने लिए उसका उपयोग करना अनुचित होगा।'' उन्हें व्यवस्थित करने के 
                        सभी प्रयास निष्फल रहे हैं, पर आज मुझे उसका खेद नहीं है। 
                        यदि वे हमारे साँचे में समा जावें तो उनकी विशेषता ही क्या 
                        रहे! इन बिखरे पृष्ठों में एक 
                        पर अनायास ही दृष्टि रुक जाती है। उसे मानो स्मृति ने 
                        विषाद की आर्द्रता ने हँसी का कुमकुम घोल कर अंकित किया 
                        है। साहित्यकार-संसद में सब 
                        सुविधायें सुलभ होने पर भी उन्होंने स्वयं-पाकी बन कर और 
                        एक बार भोजन करके जो अनुष्ठान आरंभ किया था उसकी तो मैं 
                        अभ्यस्त हो चुकी हूँ। पर अचानक एक दिन जब उन्होंने पाव भर 
                        गेरु मँगवाने का आदेश दिया तब मैंने समझा कि उनके पित्ती 
                        निकल आई हैं, क्यों कि उसी रोग में गेरु मिले हुए आटे के 
                        पुये खाए जाते हैं और गेरु के चूर्ण का अंगराग लगाया जाता 
                        है। प्रश्नों के प्रति निराला 
                        जी कम सहिष्णु हैं और कुतूहल की दृष्टि से मैं कम जिज्ञासु 
                        हूँ। फिर भी उनकी सुविधा-असुविधा की चिंता के कारण मैं 
                        अनेक प्रश्न कर बैठती हूँ और मेरी सद्भावना में विश्वास के 
                        कारण वे उत्तरों का कष्ट सहन करते हैं। मेरे मौन में मुखर चिंता 
                        के कारण ही उन्होंने अपना मंतव्य स्पष्ट किया, ''हम अब 
                        सन्यास लेंगे।'' मेरी उमड़ती हँसी को व्यथा के बाँध ने 
                        जहाँ का तहाँ ठहरा दिया। इस निर्मम युग ने इस महान कलाकार 
                        के पास ऐसा क्या छोड़ा है जिसे स्वयं छोड़ कर यह त्याग का 
                        आत्मतोष भी प्राप्त कर सके। जिस प्रकार प्राप्ति हमारी 
                        कृतार्थता का फल है उसी प्रकार त्याग हमारी पूर्णता का 
                        परिणाम है। इन दोनों छोरों में से एक मनुष्य के भौतिक 
                        विकास का माप है और दूसरा मानसिक विस्तार ही थाह। त्याग 
                        कभी भाव की अस्वीकृति है और कभी अभाव की स्वीकृति पर 
                        तत्वत: दोनों कितने भिन्न हैं। मैं सोच ही रही थी कि चि. 
                        वसंत ने परिहास की मुद्रा में कहा, ''तब तो आपको मधुकरी 
                        खाने की आवश्यकता पड़ेगी।'' खेद, अनुताप या पश्चाताप 
                        की एक भी लहर से रहित विनोद की एक प्रशांत धारा पर तैरता 
                        हुआ निराला जी का उत्तर आया, ''मधुकरी तो अब भी खाते 
                        हैं।'' जिसकी निधियों से साहित्य का कोष समृद्ध हैं उसने 
                        मधुकरी माँग कर जीवन निर्वाह किया है, इस कटु सत्य पर आने 
                        वाले युग विश्वास कर सकेंगे यह कहना कठिन है। गेरु में दोनों मलिन 
                        अधोवस्त्र और उत्तरीय कब रंग डाले गए इसका मुझे पता नहीं, 
                        पर एकादशी के सबेरे स्नान, हवन आदि कर के जब वे निकले तब 
                        ग़ैरिक परिधान पहन चुके थे। अंगौछे के अभाव और वस्त्रों 
                        में रंग की अधिकता के कारण उनके मुँह, हाथ आदि ही नहीं, 
                        विशाल शरीर भी ग़ैरिक हो गया था, मानो सुनहली धूप में धुला 
                        गेरु के पर्वत का कोई शिखर हो।बोले, ''अब ठीक है। जहाँ पहुँचे किसी नीम, पीपल के नीचे 
                        बैठ गए। दो रोटियाँ माँग कर खा लीं और गीत लिखने लगे।'
 इस सर्वथा नवीन परिच्छेद 
                        का उपसंहार कहाँ और कैसे होगा यह सोचते-सोचते मैंने उत्तर 
                        दिया, '''आपके संन्यास से मुझे इतना ही लाभ हुआ कि साबुन 
                        के कुछ पैसे बचेंगे। गेरुये वस्त्र तो मैले नहीं दिखेंगे। 
                        पर हानि यही है कि न जाने कहाँ-कहाँ छप्पर डलवाने पड़ेंगे, 
                        क्यों कि धूप और वर्षा से पूर्णतया रक्षा करने वाले 
                        नीम-पीपल कम ही हैं।'' मन में एक प्रश्न बार-बार 
                        उठता है - क्या इस देश की सरस्वती अपने वैरागी पुत्रों की 
                        परंपरा अक्षुण्य रखना चाहती है और क्या इस पथ पर पहले पग 
                        रखने की शक्ति उसने निराला जी में ही पाई है? निराला जी अपने शरीर, 
                        जीवन, और साहित्य सभी में असाधारण हैं। उनमें विरोधी 
                        तत्वों की भी सामंजस्यपूर्ण संधि है। उनका विशाल डीलडौल 
                        देखने वाले के हृदय में जो आतंक उत्पन्न कर देता है उसे 
                        उनके मुख की सरल आत्मीयता दूर करती चलती है। उनकी दृष्टि में दर्प और 
                        विश्वास की धूपछाँही द्वाभा है। इस दर्प का संबंध किसी 
                        हल्की मनोवृत्ति से नहीं और न उसे अहं का सस्ता प्रदर्शन 
                        ही कहा जा सकता है। अविराम संघर्ष और निरंतर विरोध का 
                        सामना करने से उनमें जो एक आत्मनिष्ठा उत्पन्न हो गई है 
                        उसी का परिचय हम उनकी दृप्त दृष्टि में पाते हैं। कभी-कभी 
                        यह गर्व व्यक्ति की सीमा पार कर इतना सामान्य हो जाता है 
                        कि हम उसे अपना, प्रत्येक साहित्यकार का या साहित्य का मान 
                        सकते हैं, इसी से वह दुर्वह कभी नहीं होता। जिस बड़प्पन 
                        में हमारा भी कुछ भाग है वह हममें छोटेपन की अनुभूति नहीं 
                        उत्पन्न करता और परिणामत: उससे हमारा कभी विरोध नहीं होता। निराला जी की दृष्टि में 
                        संदेह का वह पैनापन नहीं जो दूसरे मनुष्य के व्यक्त परिचय 
                        का अविश्वास कर उसके मर्म को वेधना चाहता है। उनका 
                        दृष्टिपात उनके सहज विश्वास की वर्णमाला है। वे व्यक्ति के 
                        उसी परिचय को सत्य मान कर चलते हैं जिसे वह देना चाहता है 
                        और अंत में उस स्थिति तक पहुँच जाते हैं जहाँ वह सत्य के 
                        अतिरिक्त कुछ और नहीं देना चाहता। जो कलाकार हृदय के गूढ़तम 
                        भावों के विश्लेषण में समर्थ हैं उसमें ऐसी सरलता लौकिक 
                        दृष्टि से चाहे विस्मय की वस्तु हो, पर कला-सृष्टि के लिए 
                        यह स्वाभाविक साधन है। सत्य का मार्ग सरल है। 
                        तर्क और संदेह की चक्करदार राह से उस तक पहुँचा नहीं जा 
                        सकता। इसी से जीवन के सत्यद्रष्टाओं को हम बालकों जैसा सरल 
                        विश्वासी पाते हैं। निराला जी भी इसी परिवार के सदस्य हैं। किसी अन्याय के प्रतिकार 
                        के लिए उनका हाथ लेखनी से पहले उठ सकता है अथवा लेखनी हाथ 
                        से अधिक कठोर प्रहार कर सकती है, पर उनकी आँखों की 
                        स्वच्छता किसी मलिन द्वेष में तरंगायित नहीं होती। ओठों की खिंची हुई-सी 
                        रेखाओं में निश्चय की छाप है, पर उनमें क्रूरता की भंगिमा 
                        या घृणा की सिकुड़न नहीं मिल सकती। क्रूरता और कायरता में 
                        वैसा ही संबंध है जैसा वृक्ष की जड़ों में अव्यक्त रस और 
                        उसके फल के व्यक्त स्वाद में। निराला किसी से सभीत नहीं, 
                        अत: किसी के प्रति क्रूर होना उनके लिए संभव नहीं। उनके 
                        तीखे व्यंग की विद्युत-रेखा के पीछे सद्भाव के जल से भरा 
                        बादल रहता है। घृणा का भाव मनुष्य की 
                        असमर्थता का प्रमाण है। जिसे तोड़ कर हम इच्छानुसार गढ़ 
                        सकते हैं, उसके प्रति घृणा का अवकाश ही नहीं रहता, पर 
                        जिससे अपनी रक्षा के लिए हम सतर्क हैं, उसी की स्थिति 
                        हमारी घृणा का केंद्र बन जाती है। जो मदिरा के पात्र को 
                        तोड़ कर फेंक सकता है, उसे मदिरा से घृणा की आवश्यकता ही 
                        क्या है! पर जो उसे सामने रखने के लिए भी विवश है, और अपने 
                        मन में उससे बचने की शक्ति भी संचित करना चाहता है वह उसके 
                        दोषों की एक-एक ईंट जोड़ कर उस पर घृणा का काला रंग फेर कर 
                        एक दीवार खड़ी कर लेता है, जिसकी ओट में स्वयं बच सके। 
                        हमारे नरक की कल्पना के मूल में भी यही अपने बचाव का विवश 
                        प्रयत्न है। जहाँ संरक्षित दोष नहीं, वहाँ सुरक्षित घृणा 
                        भी संभव नहीं। विकास-पथ की बाधाओं का 
                        ज्ञान ही महान विद्रोहियों को कर्म की प्रेरणा देता है। 
                        क्रोध को संचित कर द्वेष को स्थायी बना कर घृणा में बदलने 
                        के लंबे क्रम तक वे ठहर नहीं सकते। और ठहरें भी तो घृणा की 
                        निष्क्रियता उन्हें निष्क्रिय बना कर पथ-भ्रष्ट कर देगी। निराला जी विचार से 
                        क्रांतिदर्शी और आचरण से क्रांतिकारी है। वे उस झंझा के 
                        समान हैं जो हल्की वस्तुओं के साथ भारी वस्तुओं को भी उड़ा 
                        ले जाती है उस मंद समीर जैसे नहीं जो सुगंध न मिले तो 
                        दुर्गंध का भार ही ढोता फिरता है। जिसे वे उपयोगी नहीं 
                        मानते उसके प्रति उनका किंचित मात्र भी मोह नहीं, चाहे 
                        तोड़ने योग्य वस्तुओं के साथ रक्षा के योग्य वस्तुएँ भी 
                        नष्ट हो जावें। उनका मार्ग चाहे ऐसे 
                        भग्नावशेषों से भर गया हो जिनके पुनर्निर्माण में समय 
                        लगेगा पर ऐसी अडिग शिलाएँ नहीं है, जिनको देख-देख कर 
                        उन्हें निष्फल क्रोध में दाँत पीसना पड़े या निराश पराजय 
                        में आह भरना पड़े। मनुष्य की संचय-वृत्ति 
                        ऐसी है कि वह अपनी उपयोगहीन वस्तुओं को भी संगृहीत रखना 
                        चाहता है। इसी स्वभाव के कारण बहुत-सी रूढ़ियाँ भी उसके 
                        जीवन के अभाव को भर देता है। विद्रोह स्वभावगत होने के 
                        कारण निराला जी के लिए ऐसी रूढ़ियों पर प्रहार करना जितना 
                        प्रयासहीन होता है, उतना ही कौतुक का कारण। दूसरों की बद्धमूल 
                        धारणाओं पर आघात कर उनकी खिजलाहट पर वे ऐसे ही प्रसन्न 
                        होते हैं जैसे होली के दिन कोई नटखट लड़का, जिसने किसी की 
                        तीन पैर की कुर्सी के साथ किसी की सर्वांगपूर्ण चारपाई, 
                        किसी की टूटी तिपाई के साथ किसी की नई चौकी होलिका में 
                        स्वाहा कर डाली हो। उनका विरोध द्वेषमूलक 
                        नहीं पर चोट कठिन होती है। इसके अतिरिक्त उनके संकल्प और 
                        कार्य के बीच में ऐसी प्रत्यक्ष कड़ियाँ नहीं रहतीं, जो 
                        संकल्प के औचित्य और कर्म के सौंदर्य की व्याख्या कर सकें। 
                        उन्हें समझने के लिए जिस मात्रा में बौद्धिकता चाहिए उसी 
                        मात्रा में हृदय की संवेदनशीलता अपेक्षित रहती है। ऐसा 
                        संतुलन सुलभ न होने के कारण उन्हें पूर्णता में समझने वाले 
                        विरल मिलते हैं। ऐसे दो व्यक्ति सब जगह मिल सकते हैं 
                        जिनमें एक उनकी नम्र उदारता की प्रशंसा करते नहीं थकता और 
                        दूसरा उनके उद्धत व्यवहार की निंदा करते नहीं हारता। जो 
                        अपनी चोट के पार नहीं देख पाते वे उनके निकट पहुँच ही नहीं 
                        सकते, अत: उनके विद्रोही की असफलता प्रमाणित करने के लिए 
                        उनके चरित्र की उजली रेखाओं पर काली तूली फेर कर प्रतिशोध 
                        लेते रहते हैं। निराला जी के संबंध में फैली हुई भ्रांत 
                        किंवदंतियाँ इसी निम्नवृत्ति से संबंध रखती है। मनुष्य-जाति की नासमझी का 
                        इतिहास क्रूर और लंबा है। प्राय: सभी युगों मे मनुष्य ने 
                        अपने में से श्रेष्ठतम, पर समझ में न आनेवाले व्यक्ति को 
                        छाँट कर, कभी उसे विष दे कर, कभी सूली पर चढ़ा कर और कभी 
                        गोली का लक्ष्य बना कर अपनी बर्बर मूर्खता के इतिहास में 
                        नए पृष्ठ जोड़े हैं। प्रकृति और चेतना ने जाने 
                        कितने निष्फल प्रयोगों के उपरांत ऐसे मनुष्य का सृजन कर 
                        पाती हैं, जो अपने स्रष्टाओं से श्रेष्ठ हो। पर उसके 
                        सजातीय, ऐसे अद्भुत सृजन को नष्ट करने के लिए इससे बड़ा 
                        कारण खोजने की भी आवश्यकता नहीं समझते कि वह उनकी समझ के 
                        परे है अथवा उसका सत्य इनकी भ्रांतियों से मेल नहीं खाता। निराला जी अपने युग की 
                        विशिष्ट प्रतिभा हैं, अत: उन्हें अपने युग का अभिशाप झेलना 
                        पड़े तो आश्चर्य नहीं। उनके जीवन के चारों ओर 
                        परिवार का वह लौहसार घेरा नहीं जो व्यक्तिगत विशेषताओं पर 
                        चोट भी करता है और बाहर की चोटों के लिए ढाल भी बन जाता 
                        है। उनके निकट माता, बहन, भाई आदि के कोमल साहचर्य के अभाव 
                        का ही नाम शैशव रहा है। जीवन का वसंत ही उनके लिए 
                        पत्नी-वियोग का पतझड़ बन गया है। आर्थिक कारणों ने उन्हें 
                        अपनी मातृहीन संतान के कर्तव्य-निर्वाह की सुविधा भी नहीं 
                        दी। पुत्री के अंतिम क्षणों में वे निरूपाय दर्शक रहे और 
                        पुत्र को उचित शिक्षा से वंचित रखने के कारण उसकी उपेक्षा 
                        के पात्र बने। अपनी प्रतिकूल 
                        परिस्थितियों से उन्होंने कभी ऐसी हार नहीं मानी जिसे सह्य 
                        बनाने के लिए हम समझौता कहते हैं। स्वभाव से उन्हें वह 
                        निश्छल वीरता मिली है, जो अपने बचाव के प्रयत्न को भी 
                        कायरता की संज्ञा देती है। उनकी वीरता राजनीतिक कुशलता 
                        नहीं, वह तो साहित्य की एकनिष्ठता का पर्याय है। छल के 
                        व्यूह में छिप कर लक्ष्य तक पहुँचने को साहित्य 
                        लक्ष्य-प्राप्ति नहीं मानता। जो अपने पथ की सभी 
                        प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बाधाओं को चुनौती देता हुआ, सभी 
                        आघातों को हृदय पर झेलता हुआ लक्ष्य तक पहुँचता है, उसी को 
                        युग-स्रष्टा साहित्यकार कह सकते हैं। निराला जी ऐसे ही 
                        विद्रोही साहित्यकार हैं। जिन अनुभवों के दंशन का विष 
                        साधारण मनुष्य की आत्मा को मूर्च्छित कर के उसके सारे जीवन 
                        को विषाक्त बना देता है, उसी से उन्होंने सतत जागरुकता और 
                        मानवता का अमृत प्राप्त किया है। किसी की व्यथा इतनी हल्की 
                        नहीं जो उनके हृदय में गंभीर प्रतिध्वनि नहीं जगाती, किसी 
                        की आवश्यकता इतनी छोटी नहीं जो उन्हें सर्वस्व दान की 
                        प्रेरणा नहीं देती। अर्थ की जिस शिला पर 
                        हमारे युग के न जाने कितने साधकों की साधना तरियाँ चूर-चूर 
                        हो चुकी हैं, उसी को वे अपने अदम्य वेग में पार कर आए हैं। 
                        उनके जीवन पर उस संघर्ष के जो आघात हैं वे उनकी हार के 
                        नहीं, शक्ति के प्रमाणपत्र हैं। उनकी कठोर श्रम, गंभीर 
                        दर्शन और सजग कला की त्रिवेणी न अछोर मरू में सूखती है न 
                        अकूल समुद्र में अस्तित्व खोती है। जीवन की दृष्टि से निराला 
                        जी किसी दुर्लभ सीप में ढले सुडौल मोती नहीं हैं, जिसे 
                        अपनी महार्धता का साथ देने के लिए स्वर्ण और 
                        सौंदर्य-प्रतिष्ठा के लिए अलंकार का रूप चाहिए। वे तो 
                        अनगढ़ पारस के भारी शिला-खंड हैं। न मुकुट में जड़ कर कोई 
                        उसकी गुरुता सँभाल सकता है और न पदत्राण बनाकर कोई उसका 
                        भार उठा सकता है। वह जहाँ हैं, वहीं उसका स्पर्श सुलभ है। 
                        यदि स्पर्श करने वाले में मानवता के लौह-परमाणु हैं तो 
                        किसी ओर से भी स्पर्श करने पर वह स्वर्ण बन जाएगा। पारस की 
                        अमूल्यता दूसरों का मूल्य बढ़ाने में हैं। उसके मूल्य में 
                        न कोई कुछ जोड़ सकता है, न घटा सकता है। आज हम दंभ और स्पर्धा, 
                        अज्ञान और भ्रांति की ऐसी कुहेलिका में चल रही हैं जिसमें 
                        स्वयं को पहचानना तक कठिन है, सहयात्रियों को यथार्थता में 
                        जानने का प्रश्न ही नहीं उठता। पर आने वाले युग इस कलाकार 
                        की एकाकी यात्रा का मूल्य आँक सकेंगे, जिसमें अपने पैरों 
                        की चाप तक आँधी में खो जाती है। निराला जी के साहित्य की 
                        शास्त्रीय विवेचना तो आगामी युगों के लिए भी सुकर रहेगी, 
                        पर उस विवेचना के लिए जीवन की जिस पृष्ठभूमि की आवश्यकता 
                        होती है, उसे तो उनके समकालीन ही दे सकते हैं। साहित्यकार के जीवन का 
                        विश्लेषण उसके साहित्य के मूल्यांकन से कठिन है। साहित्य 
                        की कसौटी सर्वमान्य होती है, पर उसकी उर्वर भूमि आलोचक के 
                        विशेष दृष्टिबिंदु को फूलने-फलने का आकाश दे सकती है। एक 
                        कविता का विशेष भाव, एक चित्र का विशेष रंग और एक गीत की 
                        विशेष लय, किसी के लिए रहस्य के द्वार खोल सकती है और किसी 
                        से टकरा कर व्यर्थ हो जाती है। पर जीवन का इतिवृत्त इतनी 
                        विविधता नहीं सँभाल सकता। एक व्यक्ति का कर्म समाज को या 
                        हानि पहुँचा सकता है या लाभ, अत: व्यक्तिगत रुचि के कारण 
                        यदि कोई हानि पहुँचाने वाले को अच्छा कहे या लाभ पहुँचाने 
                        वाले को बुरा तो समाज उसे अपराधी मानेगा। ऐसी स्थिति में 
                        कर्म के मूल्यांकन में विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता पड़ती 
                        है। असाधारण प्रतिभावान और 
                        अपने युग से आगे देखने वाले कलाकारों के इतिवृत्त के 
                        चित्रण में एक और भी बाधा है। जब उनके समानधर्मा उनके जीवन 
                        का मूल्यांकन करते हैं तब कभी तो स्पर्धा उनकी तुला को 
                        ऊँचा-नीचा करती रहती है और कभी अपनी विशेषताओं का मोह 
                        उन्हें सहयोगियों में अपनी प्रतिकृति देखने के लिए विवश कर 
                        देता है। जब छोटे व्यक्तित्व वाले किसी असाधारण व्यक्तित्व 
                        की व्याख्या करने चलते हैं, तब कभी तो उनकी लघुता उसे घेर 
                        नहीं पाती और कभी उसके तीव्र आलोक में अपने अहं को 
                        उद्भासित कर लेने की दुर्बलता उन्हें घेर लेती है। इस प्रकार महान कलाकारों 
                        के यथार्थचित्र व्याख्याबहुल हों तो विस्मय की बात नहीं। साहित्य के नवीन युगपथ पर 
                        निराला जी की अंक-संसृति गहरी, और स्पष्ट उज्ज्वल और 
                        लक्ष्यनिष्ठ रहेगी। इस मार्ग के हर फूल पर उनके चरण का 
                        चिह्न और हर शूल पर उनके रक्त का रंग है। प्रस्तुत पुस्तक के लेखक, 
                        निराला जी के निकट संपर्क में भी रहे हैं और उन्हें समझने 
                        वालों के भी। अपनी आँखों देखना अच्छा है, पर यदि दृष्टि को 
                        सहायता की आवश्यकता पड़े तो ऐसा स्वच्छ पारदर्शी शीशा लेना 
                        अच्छा होता है जो दृष्टि के आधार को विरूप न कर दे। लेखक ने अपने व्यक्तित्व 
                        को निराला में समाहित कर उनके चित्रांकन का प्रयत्न किया 
                        है। साहित्य तो उतना ही आया है जितना रेखाओं से छलक न 
                        पड़े। कवि के आचरित साहित्य के लिए ऐसा संतुलन आवश्यक भी 
                        है। ये मिली-अनमिल, मोटी-महीन 
                        रेखाएँ निराला जैसे विरोधी तत्वों के संघात का संपूर्ण 
                        चित्र देने में कहाँ तक समर्थ हैं यह दूसरे बता सकेंगे। 
                        लेखक के पक्ष में इतना कहना पर्याप्त है कि उसकी प्रत्येक 
                        रेखा की भंगिमा निराला जी के विशाल व्यक्तित्व के किसी न 
                        किसी अंश को घेरे हुए हैं। 
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