संसद में
नहीं हूँ झख मार रही हूँ
तारकेश्वरी
सिन्हा
इस आपाधापी
के जीवन में जब कोई पूछ बैठता है कि संसद में नहीं रहने के
बाद आप क्या कर रही हैं, तो जी चाहता है उत्तर दूँ कि 'झख'
मार रही हूँ। तारकेश्वरी सिन्हा का जीवन अकसर लोग संसद के
घेरे में ही देखते रहे हैं। जैसे, मैं कोई कबूतर हूँ जो
संसद में ही घर बनाकर 'गुटर गूँ' करती रही हूँ। पर कबूतर
का भी तो अपना जीवन होता है और संसद की मुँडेरों पर घोसला
बना कर वह प्यार करता है, बच्चों को जन्म देता है,
दाना–चारा लाकर बच्चों का पेट भरता है, उड़ना सिखाता है, और
फिर एक दिन उन्हें
उड़ाकर स्वयं भी घोसले को छोड़
देता है और भविष्य में नया घोसला बनाने का उपक्रम भी शुरू
कर देता है।
फिर मैं क्यों संसद की सदस्य बनकर उड़ान भरने का हक नहीं
रखती। संसद की सदस्य तो मैं थी, पर घर–परिवार को छोड़ा तो
नहीं था, माँ बनकर माँ की जिम्मेदारी को भी निभाया था। पर
यह प्रश्न तो कोई पूछता ही नहीं। जो मेरी जिंदगी में
वर्षों तक छाये रहे, वो भी यही कहते हैं, "तारकेश्वरीजी,
अब आप क्या कर रही हैं?" मैं यह तो कहने की जुर्रत कर नहीं
कर सकती कि यह प्रश्न आप लोगों ने महात्मा गांधी से नहीं
पूछा, जयप्रकाश नारायण से नहीं पूछा, अरूणा आसफ अली से
नहीं पूछा कि संसद के तो आप लोग कभी सदस्य रहे नहीं, तो
जीवन कैसे बिताया? फिर मुझ पर ही क्यों, आप लोग, अपने
सितुए की धार तेज करते रहते हैं, जैसे मैं सिर्फ कद्दू का
टुकड़ा हूँ।
वैसे राजनीतिज्ञ की जिंदगी अपने और गैरों का फर्क निरंतर
मिटाने की कोशिश करती रहती है। पर क्या अंतर सिर्फ संसद के
दायरे में उलझा रहता है? या फिर राजनीतिक जीवन की आपाधापी
में, 'संसद के बाहर' उसका आधार सामाजिक परिवेश में, आर्थिक
परिवेश में बहुत बड़ा होकर अपनी ही गहराइयों की तरफ खसकाता
है और महसूस कराता रहता है ––
सफर है, रास्ता है, फासला है
कदम मंजिल, कदम ही रहनुमा है
और निरंतर इन्हीं क्षणों में जीना, हमारी जिंदगी का अनूठा
क्षण होता है। पर जब कोई पूछ बैठता है कि वह कौन–सा क्षण
है, तो ऐसा लगता है जैसे, मैं समुद्र के किनारे बसे एक शहर
के मकान की बालकनी में खड़ी हूँ और अपने सामने देख रही हूँ
अनगिनत लहरों के थपेड़ों को, जो बीच से उमड़कर किनारे पर आते
हैं और हलके से टकराकर न जाने कहाँ खो जाते हैं। न जाने
कितनी बार उनकी गिनती की है, पर हिसाब नहीं रख पायी हूँ अब
तक।
हाँ, देखा है कुछ हरे–मुरझाये पत्ते, कुछ कागज के टुकड़े,
कुछ लकड़ियों के टूटे–फूटे हिस्से, कुछ बिखरे फूल और उन्हीं
के बीच, जिंदगी का अहसास देती और इधर–उधर दौड़ती–सरसराती
मछलियाँ। अगर मैं कहूँ कि मेरे जीवन के अनूठे अनुभवों का
यही सिलसिला है –– तो क्या किसी को आश्चर्य होगा? उसी तरह
की तो मेरी जिंदगी की झलकियाँ हैं –– जिनका संसदीय जीवन से
कोई रिश्ता नहीं, पर मुझसे बहुत गहरा है।
अहसास मछलियों का
संसद के भवन में रहते–रहते, एक दिन महसूस हुआ कि मेरी
जिंदगी भी समुद्र के तट की तरह है –– जहाँ मैं खुद एक
बालकनी पर खड़ी हूँ। समुद्र की लहरों को रोज गिनती हूँ पर
पकड़ नहीं पाती। और घर में रहनेवाले मेरे बच्चे उन मछलियों
की तरह हो गये हैं जैसे, समुद्र में दौड़ती–सरसराती
मछलियाँ। जिस दिन पहली बार यह महसूस हुआ, वही शायद मेरे
जीवन का सबसे अनूठा संस्मरण है।
मेरे बड़े लड़के का इम्तहान था। उसने एक दिन मेरे कमरे में
आकर कहा, "अम्मा! आप जरा मुझे नागरिक शास्त्र पढ़ा दें। मैं उसी दिन दिल्ली से बाहर जानेवाली थी। मैंने
कहा कि तीन–चार दिन में लौटकर आती हूँ तो तुम्हें पढ़ा
दूँगी। मैं जिस दिन सुबह लौटकर आयी, वह ऊपर के कमरे से
दौड़ता हुआ किताब लेकर नीचे आया, तब तक कुछ लोग आ गये और
मैं उनमें उलझ गयी। ऐसा उस दिन तीन बार हुआ। फिर वह मुझसे
पढ़ने कभी नहीं आया। उस दिन से वह बहुत कुछ बदल गया। जब भी
घर आता, सीधे ऊपर चला जाता अपने कमरे में, वैसे भी
ज्यादातर वह बाहर ही रहता। एक बार मोटर साइकिल से गिरने से
उसे बहुत सख्त चोट आयी थी। उस दिन भी उसने मुझसे कुछ नहीं
कहा और सीधे ऊपर चला गया। जब मुझे मालूम हुआ कि उसे गहरी
चोट लगी है, तो मैं भागकर ऊपर गयी। मुझे देखकर, लगा जैसे
उसकी आँखें एकाएक अपरिचित–सी हो गयीं हैं।
उस दिन मैं बहुत ही डर गयी थी। इसलिए कि
माँ, बेटे से बहुत
दूर चली गयी थी। उस घटना को बरसों बीत गये हैं। अब वह लड़का
काम करने लगा है दिल्ली से बाहर। दूरी में –– मैंने उसे
शायद, फिर पा लिया है। उसकी चिठ्ठियों में वही प्यार और
अपनापन झलकता है। पर अभी हाल में ही मैं उसकी पुरानी
फाइलों को साफ कर रही थी। उसमें उसकी लिखी एक डायरी मिली।
डायरी में लिखा था – 'जब तक जीवित रहूँगा, अपनी माँ को कभी
माफ नहीं कर सकूँगा। मेरी माँ संसद और राजनीति के समुद्र
में खो गयी है। मैं अपने घर में भी बहुत अकेला महसूस करता
हूँ, आखिर क्यों? माँ के पास सबके लिए समय है, संवेदना है,
तड़प है –– पर इतनी फुरसत कहाँ कि मेरे और उनके दरम्यान
उठती दीवार को वह तोड़ सकें। मैं भी बहुत चुप होता जा रहा
हूँ। पर फिर भी अपने बारे में एक कविता लिख रहा हूँ।
अकेलेपन से ओतप्रोत उसकी वह कविता मेरे जीवन में, सबसे अनोखा अहसास बन गयी है और
इसलिए जब–तब मुझे महसूस होता है कि मैं बालकनी में खड़ी
हूँ, समुद्र के किनारे और गिन रही हूँ जिंदगी की लहरों में
खोये हुए अहसासों को, मुरझाए हुए रिश्तों को और साथ ही
कभी–कभी तैरती हुई मछलियों को, जिन्हें पकड़ पाना तो संभव
नहीं, पर महसूस करना संभव है, इस अहसास के साथ, जैसे वो कह
रही हों ––
तुम हो जहाँ, बेशक वहाँ ऊँचाई है
मगर इस सागर की कोख में
गहरी खाई है
२४ फरवरी
२००३ |