"...जो
नौ साल शान्तिनिकेतन में कटे, वे मेरी जिंदगी का सबसे अच्छा
समय था। शान्तिनिकेतन का वह स्वर्णयुग था। वहां जो लिखने–पढ़ने
के शौकिन थे, उनका एक ' टैगोर स्टडी सर्कल' था। हम सब उसमें
जाते थे।..."
शिवानी जी ने बताया था कि गुरूदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर,
प्रसिद्ध आचार्यगण, साहित्यकार और कलाकारों के सान्निध्य
में गुज़रे ये दिन उनके अपने लेखन के लिए जैसे ईश्वर ने
सौगात में भेज दिए थे।
गुजरात के राजकोट शहर में राजकुमारों के लिए एक कॉलेज था।
शिवानी के पिता जी वहीं पढ़ाते थे। इसी शहर में सन १९२३
में जन्मी थीं शिवानी। उनका वास्तविक नाम गौरा पंत है। सन
१९५१ में उनकी एक छोटी कहानी 'मैं मुर्गा हूँ' धर्मयुग
में छपी थी। उस पर शिवानी नाम गया था। शान्तिनिकेतन में
गुरूदेव उन्हें 'गोरा' पुकारते थे; बंगला में 'गौरा' नहीं
होता इसलिए। सहित्यिक उपनाम 'शिवानी' रखने के बारे में और
कोई विशेष बात नहीं हैं। इस प्रकार उत्तर–प्रदेश के कुमाऊं
पर्वतीय अंचल की लेखिका ने गुजरात को भी गौरव प्रदान किया।
शिवानी के साहित्य में बंगला भाषा और साहित्य का खासा प्रभाव
है। बंगला समाज और संस्कृति की भी झलक मिलती है। असल में
उनकी पढ़ाई बंगला माध्यम से हुई। नौ वर्ष शान्तिनिकेतन में
रहीं। बंगला के प्रख्यात लेखकों को खूब पढ़ा। वह कहती हैं
कि बंकिमचन्द्र ने उन्हें बहुत उद्वेलित किया। उनकी
'आमादेर शान्तिनिकेतन' और 'स्मृति–कलश' इस पृष्ठभूमि की
श्रेष्ठ पुस्तकें हैं।
अब गुजरात की बात लें। वहां जन्मी। मां गुजराती की विदुषी।
गुजराती साहित्य भी खूब पढ़ा। अतः बंगला–गुजराती के
मिश्रित प्रभाव ने उनकी साहित्यिकता को दो संस्कृतियों का
अनूठा संगम दिया, और फिर हिन्दी तो उनकी अपनी थी ही। उस पर
कुमाऊं की आंचलिकता का पुट। इतने अनुभवों ने शिवानी में
ऊर्जा का तीव्र संचार किया।
पिता अंग्रेजी में लिखते थे। सबको पढ़ने–लिखने का शौक था।
साहित्यिक गतिविधियां चलती थीं। इसीलिए तो शिवानी ने बचपन
में ही कलम पकड़ना सीख लिया। उनकी पहली कहानी 'नटखट' में
छपी। तब वह बारह वर्ष की थीं।
शिवानी की कथा–रचनाओं के बहुत से लोग वास्तविक ज़िंदगी से
चले आए हैं। लघु उपन्यास 'भैरवी' में एक अघोरी साधु को
लिया है। 'माई', 'मेरा भाई', 'नथुनिया ने हाय राम
...
'
भी ऐसी ही कहानियां।
अनुभव तो खूब बटोरे। दादा तो हरिराम पांडे बनारस हिन्दू
विश्वविद्यालय में पढ़ाते थे। संस्कृत के विद्वान और तंत्र
साधना में पारंगत। स्वामी विवेकानन्द बनारस आए, तो
मान–पत्र दादा जी का संस्कृत में लिखा हुआ भेंट किया।
महामना मालवीय के वह आत्मीय थे। नीलकंठ बाबा और संत
नित्यानंद जैसे सिद्ध पुरूष उनके सखा रहे। आनन्दमयी मां को
भी निकट से देखा–जाना। अल्मोड़ा और बनारस में दादा जी के
साथ रहते हुए श्रेष्ठ संस्कार ही मिले।
शिवानी की कृतियों में पाठकों ने लघु उपन्यास 'कृष्णकली' को
सबसे अधिक पसंद किया है, लेकिन उन्हें स्वयं अपना एक
यात्रा–वृत्तांत 'चरैवेति' पसंद है। आज भी अपनी किसी रचना
के छपने का उन्हें आनंद आता है। लिखने को वह अपने लिए नशा
मानती हैं। प्रतिदिन लिखती हैं। चाहे 'चंद सतरें' ही क्यों
न हों! साफ कहती हैं वह कि अपनी रचना का मूल्य चाहती हैं।
शब्दों का व्यापार नहीं करतीं, लिखने से जो कुछ मिल गया,
उसी में संतोष कर लिया। उनके लेखन की भाषा की क्लिष्टता के
बारे में प्रायः प्रश्न उठते हैं, लेकिन उन प्रश्नों ने
कभी उन्हें घायल नहीं किया। वह कहती हैं कि शब्दकोश खोलकर
नहीं लिखतीं। जो भाषा बोलती हैं, वही लिखती है। वास्तव में
बात भी ठीक है। अगर उनकी भाषा दुर्बोध होती, तो आज क्या वह
लोकिप्रियता के शिखर पर होतीं? क्या उनके रचना–संसार पर
इतने शोध कार्य चल रहे होते? उन्हीं के अनुसार न तो
लोकप्रिय होना इतना आसान है और न ही उसे स्थिर बनाए रखना,
फिर भी 'कुछ बात है कि मिटती नहीं, इसीलिए आधी सदी से भी
अधिक हो गया कि कलम न थकती है, न रूकती है। वह कभी भी लिख
लेती हैं। ज्यादातर रात को या फिर एकान्त में लिखना अच्छा
लगता है। कभी–कभी तो रात–दिन भी लिखा है। 'कालिंदी' ऐसा ही
उपन्यास है।
'करिए छिमा' पर विनोद तिवारी ने फिल्म बनाई थी। 'सुरंगमा',
'रतिविलाप', 'मेरा बेटा', 'तीसरा बेटा' पर टीवी सीरियल
बन रहे हैं, परन्तु वह फिल्म और टीवी से बहुत नाराज़
हैं। उनका अनुभव है कि ये लोग अच्छी–खासी रचना का दम निकाल
देते हैं। आगे इस मीडिया को कुछ भी देने का इरादा नहीं
हैं।
'कृष्णकली' उनका सबसे प्रसिद्ध उपन्यास है। इसके दस से अधिक
संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। देश के अनेक
विश्वविद्यालयों में 'कृष्णकली' कोर्स में लगी हुई हैं।
उनकी कहानियां भी पाठ्यक्रमों में हैं। अपनी साहित्यिक
सेवाओं के लिए उन्हें भारत सरकार ने पद्मश्री की उपाधि से
भी सम्मानित किया है।
शिवानी जी के पति विद्वान थे। उनके प्रोत्साहन ने लेखन को
और भी तीव्र बनाया। पहले लेक्चरर थे, फिर शिक्षा मंत्रालय
में चले गए, जहां संयुक्त सचिव का पदभार संभाला।
(शिवानी की श्रेष्ठ कहानियाँ की भूमिका से साभार)
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