स्मृतियों के सारांश
शिवानी ने अपने बारे में
बहुत कम लिखा है। लेकिन उनके संस्मरणों और यात्रा विवरणों
में उनके दार्शनिक व्यक्तित्व की निष्कपट सुंदरता अपनी
पूरी तरलता के साथ बिखरी दिखाई देती है। उनकी कोमल
संवेदनाएँ, सशक्त लेखनी के साथ इस तरह आकार लेती हैं कि हर
चित्र सजीव हो उठता है। उनके ये सजीव चित्र पाठकों के हृदय
में अमर हो कर बसते हैं और बार–बार स्मृतियों के द्वार
खटखटाते हैं।
उनके पात्र हों या घटनाएँ या फिर उद्धरण, वे दादी माँ की
कहानियों की तरह हज़ार बार दोहराने पर भी पुराने नहीं
पड़ते। इसका एक प्रमुख कारण ये है कि उनकी संरचना में ऐसी
मानवीय कोमलता गुंथी हैं जो लोक से सीधी जा जुड़ती हैं। जब
वे सौंदर्य का वर्णन करती हैं तो विशेषण और उपमाएँ उनकी
लेखनी से फुलझरी की तरह छूटते हैं। जब वे संस्मरण लिखती
हैं तो यही फुलझरी जादू की छड़ी बन जाती है और घटनाओं में
रंग भरती चली जाती है। उनका यही रंगीन जादू दिखाई देता है
इन पंक्तियों में—
बलराज साहनी के व्यक्तित्व का वर्णन करते हुए वे कहती हैं—
""हमारे दूसरे अंग्रेज़ी के अध्यापक थे बलराज साहनी, जो
बाद को फिल्म जगत के नक्षत्र बन के चमके। गोरा रंग, सजीला
व्यक्तित्व, लाल खद्दर का कुर्ता और सवा लाख की चाल, लगता
था कोई दूल्हा ही झूमता चला आ रहा है। वे हमारी अंग्रेज़ी
कविता की क्लास लेते थे ..."
और उनकी पत्नी दमयंती के विषय में शिवानी कहती हैं—
दम्मो दी गज़ब की आनंदी युवती थीं। गोरा रंग, बेहद
घुंघराले बाल, जो उनके सलोने चेहरे पर कुंडल किरीट बन कर
छाए रहते, कानों में लंबे लंबे लाल चेरी बने बुंदे और खड्ग
की धार–सी तीखी सुभग नासिका, अब जब किसी धारावाहिक में
उनके बेटे परीक्षित को देखती हूँ, तो बार बार उन दम्मो दी
की याद हो आती है, जो मुझे परीक्षा के सन्निकट त्रास से
क्षण–भर को मुक्ति दिलाने बरबस अपने कमरे में खींच ले
जातीं, "ए पढ़ाकू लड़की, क्या हर वक्त किताबों में घुसी
रहती है? चल महफिल जमाएँ। ...वैसी मंजीरे सी
खनखनाती हँसी और चुहल से चमकती बुद्धि प्रदीप्त आंखें क्या
कभी इस जीवन में देखने को मिल सकती हैं?"
अपनी प्राध्यापिका मिस साइक्स की संथाल परिचारिका का वर्णन
करते हुए वे कहती हैं—
"केवल एक मोटी धोती का परिधान, पुष्ट जूड़े पर लगा
जवापुष्प, कोबरा की पीठ सी चमकती सुचिक्कन काली नंगी पीठ।
उस घोर कृष्णवर्णी संथाल चेहरे का सबसे बड़ा आकर्षण थी,
उसकी विद्युत सी धवल दंत पंक्ति। मेज़ पर झुकी स्वामिनी
बड़ी देर तक लिखती पढ़ती रहतीं और वह उनके चरणों के पास
स्वामिभक्त श्वान सी चुपचाप बैठी रहती। उसका कंठ अत्यंत
मधुर था और हमें उसने कितने ही विचित्र स्वर लहरी के संथाल
गाने सिखाए थे।
और बेगम अख्तर के विषय में —
" ...बैंगनी रंग की जार्जेट की
साड़ी, बांहों में फ्रिल लगा ब्लाउज़, जैसा कि उन दिनों
चलन था, हाथों में मोती के कंगन, कानों में झिलमिलाते
हीरे, अंगुली में दमकता पन्ना, कंठ में मोतियों का मेल
खाता कंठा, पान दोख्ते से लाल–लाल अधरों पर भुवन मोहिनी
स्मित, ये थीं अख्तरीबाई फ़ैज़ाबादी।"
उनका आदर्श हो या उनका यथार्थ, वह चरित्र के करघों पर कस
कर ताना गया है और उसमें ऐसे बूटे बुने गये हैं कि सादगी
से बेपनाह सौन्दर्य की रचना होती है। कथ्य की सरलता, भावों
के सौंदर्य और भाषा की बेमिसाल शक्ति से भरे प्रस्तुत हैं
कुछ प्रेरणाप्रद अंश। इनसे बहुत कुछ सीखा जा सकता है— लेखन
के विषय में भी और जीवन के विषय में भी। यह टुकड़ा है
समृति कलश की भूमिका से—
लिखा मैंने बहुत है, अर्थोपार्जन भी प्रचुर किया है, किंतु
इस कृतित्व को कभी व्यापार नहीं बनाया। पुरस्कार, यश,
ख्याति की कामना से कभी कलम नहीं थामी। पुरस्कार सनद मिले
भी तो वाग्देवी की कृपा से बिन माँगे मोती ही झोली में
पड़े, झोली कभी फैलाई नहीं–– दरिद्रान् भव कौंतेय मा
प्रयच्छेदश्वरे धनम्।
यही पंक्ति मेरी प्रेरणा बनी रही और सदा रहेगी। इतना अवश्य
जान गई हूँ कि लेखनी यदि ईमानदारी से चलती रहती है, स्वयं
नीचता की परिधि नहीं लांघती, तो भले रूष्ट इष्ट मित्रों की
प्रताड़ना आहत करे, कोई कभी अनिष्ट नहीं कर पाता। यदि
स्वयं ईर्ष्या द्वेष मात्सर्य से अछूते रहे, तो कोई पीठ
में छुरा भोंक भी दे, तो वह वार कभी घातक नहीं हो पाता,
अपितु आत्मा को और उज्ज्वल करता है और लेखनी को निश्चित
रूप से अधिक गतिशील बनाता है।
छोटी छोटी कहानियाँ सुनाने में वे निष्णात हैं और इन
कहानियों के ज़रिये वे बड़ी से बड़ी बात को सरलता से कह
गुज़रती हैं। ऐसी सरलता जो व्यक्तित्व की दृढ़ता को लोहे
की मज़बूती देती है तो चरित्र की चमक को सोने सा निखार फिर
भी विनम्रता और कोमलता में कहीं कमी नहीं आती। जब वे अपने
बारे में बात करती हैं तो उनका यह हुनर पाठक को विभोर कर
देता है—
"नीरद बाबू ने अपने एक सद्यःप्रकाशित निबंध में, एक रोचक
प्रसंग उद्धृत किया है – 'एक बार शिकारी कुत्तों के दल को
आता देख, कुटिल सियार ने अपनी सहमी बिरादरी से कहा, 'डरो
नहीं, इन शिकारी कुत्तों से बचने के लिए मेरे पास हमेशा,
शत कौशल रहते हैं, निरापद, निश्चिंत बैठे रहो। मेरे रहते
तुम्हें कोई चिंता नहीं।' किंतु मुर्गा बोला, 'भाइयों, मैं
तो एक ही उपाय जानता हूँ। मेरे पास शत कौशल तो नहीं हैं,
पर एक उपाय अवश्य है, चट से उड़ कर पेड़ की डाल पर बैठ
जाना।'
मैं भी अपने बंग बंधुओं से यही कहता हूँ, 'तुम्हारे शत
कौशल तुम्हें ही मुबारक हों। मैं तो स्वल्पबुद्धि प्राणी
हूँ। एक ही उपाय जानता हूँ, वही मेरा एकमात्र कृतित्व है,
लिखना।'
आज नीरद बाबू की यही पंक्ति दोहराने को जी चाहता है। मेरा
भी एक ही कृतित्व है, लिखना। न कभी शत कौशल सीखने की इच्छा
रही, न सीखने की चेष्ट ही की। नाना आघात, भय, संघर्ष,
डरावनी धमकियाँ, आत्मीय स्वजनों की प्रताड़ना, मान–अपमान,
तिरस्कार, अवहेलना इन सब शिकारी कुत्तों से अब एक निरापद
अपना अस्तित्व सेंतती आई हूँ। शत कौशल सीख कर नहीं,
एकमात्र उपाय अपना कर, ऊंचे पेड़ की डाल पर बैठ कर। उस
एकांत में, उस डाल पर बैठने में जो अलौकिक अनुभूति प्राप्त
होती है, यह वही जान सकता है, जो शत कौशलों की अवहेलना कर
इस एकमात्र कौशल को अपना पाया है। विधाता ने भले ही लाख
उठाया–पटका हो, वह सर्वशक्तिमान किसे नहीं पटकता, पर इस
डाल पर बैठने के सुख से कभी वंचित नहीं किया। यही मानती
हूँ कि अंत तक विपत्ति की भनक पाते ही ऊंची डाल पर, उचक कर
बैठ सकूं। जब स्वयं राम झरोखे बैठ कर सबका ब्यौरा ले सकते
हैं, तो डाल पर बैठ, जग का ब्यौरा लेने का यह सुख, मुझे भी
अंत तक देते रहें।
आज शिवानी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी लेखनी के ये
सुदृढ़ परचम आने वाली पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त करते रहेंगे।
उन्होंने अपनी रचना यात्रा में जिस भाषा–शैली को जन्म
दिया, जिसका पोषण और विकास किया वह हर किसी के बस की बात
नहीं। उनका आभिजात्य अक्षर अक्षर में साफ झलकता है और
समकालीन लेखकों में अपने परिष्कृत स्वभाव और अध्ययनशील
मनोवृत्ति के कारण बिलकुल अलग दिखाई देता है।
— पूर्णिमा वर्मन द्वारा संकलित |