अमृतसर और लाहौर के बीच लकीर खींचकर धरती बांटनेवाले चाहे अंग्रेजों की
कूटनीति का शिकार हुए हों या अपने भीतर छिपे वैमनस्य का, किंतु उनके द्वारा खींची गयी यह लकीर न अपने दोनों ओर रहते लोगों के हृदयों को बांट सकी है
और न उनकी साझी संस्कृति को। पाकिस्तान का अस्तित्व मुझे उस बेटे जैसा प्रतीत होता है,
जो बाप से लड़कर, जोर–जबरदस्ती से अपना हिस्सा लेकर अलग तो हो जाता है लेकिन उसकी नाक हर समय पुराने घर की रसोई में से उठ रही महक को सूंघती रहती है।
समुद्र की गहराइयां नापनेवाले जानते हैं कि ऊपर से प्रलयकारी लहरों का रूप प्रस्तुत करनेवाला समुद्र भीतर से कितना शांत होता है।
इसी प्रकार, मानव–रक्त से खींचीं गयी वह सीमा–रेखा यद्यपि, कई बार बारूदी धुआं उगलते हुए देखी गयी हैं लेकिन, सत्य यह है कि न पाकिस्तानी महाजिर
कभी भारत को भुला पायें हैं और न भारतीय शरणार्थी पाकिस्तान को। रेखा के देानों ओर स्मृतियों का शूल एक ऐसी पीड़ा को जन्म देता रहता है,
जो चुभती नहीं हैं बल्कि, एक लालसा को जन्म देती है। लालसा – एक बार फिर अपने घर की छत के नीचे सोने की, एक बार फिर से गलियों में खोया अपना बचपन तलाशने की।
बात पुरानी हो गयी है।
मैंने लाहौर में रह रहे अपने एक मित्र से पूछा,
"तुम भारत छोड़कर इधर आ बसे हो, कैसा लगता है तुम्हें?" कहने लगा,
"इसमें लगने–लगाने की क्या बात है। अपने कितने ही यार–दोस्त अमेरिका, इंग्लैंड, कनाडा, अफरीका गये हुए हैं। चार पैसे कमाकर घर लौट आएंगे।
जैसे, तुम रिटायर होने पर चंडीगढ़ से मालेर कोटला लौट जाओगे।"
"किंतु, अब तो तुम पाकिस्तानी नागरिक हो।"
"वे जो कनाडा अमेरिका गये हुए हैं, क्या वहां के नागरिक नहीं हैं?"
यह पहला अवसर था, जब मैंने गंभीरता से सोचना शुरू किया कि फिर यह पाकिस्तान क्यों?
दूसरी बार यही प्रश्न फिर उपस्थित हुआ मेरे सामने, सन् 1963 में। मैं लाहौर गया हुआ था।
मेरे बचपन का मित्र अल्ताफ खां मुझे अनारकली ले गया। एक दूकान के बाहर बड़ा सा बोर्ड लटक रहा था – "बेली राम एंड संज" मैंने अल्ताफ से कहा,
"अरे, मुसलमानों ने इस दूकान का नाम क्यों नहीं बदला?"
"पगला गये हो क्या?" अल्ताफ बोला, "यह दूकान बेलीराम के बेटों की ही है।"
"क्या?";
"हां, सुना है तकसीम के वक्त यहां के मुसलमानों ने इनको नहीं जाने दिया था।"
"लेकिन, उस समय तो वहशत मुंडेर–मुंडेर दनदना रही थी।"
"दनदना रही होगी लेकिन, एक घर तो डायन भी छोड़ती है, उसने बेलीराम की दूकान छोड़ दी।"
इसके बाद कितनी ही बार यह प्रश्न मेरे सामने आकर खड़ा होता रहा और
मैं इसका उत्तर ढूंढ़ने में तब भी असफल रहा था और आज भी असफल हूं।
मैं गुजरांवाला में अपने मित्र मुहम्मद रमज़ान के घर पर ठहरा हुआ था।
खूब गरमी पड़ रही थी, इसलिए हमारी चारपाइयां छत पर लगायी गयी थीं। भोर होते ही शंख–घड़ियाल के स्वर मेरे कानों से टकराये
तो मुझे लगा मैं कोई सपना देख रहा हूं। आंखें खोलकर देखा, दिन निकल आया था। शंख–घड़ियाल के स्वर जागने पर भी सुनायी दे रहे थे।
साथ की चारपाई पर सो रहे रमज़ान को झिंझोड़कर जगा दिया मैंने।
"अरे! कयामत के दिन शंख तो बजेगा पर क्या साथ में घड़ियाल भी बोलेगा?
यह पाकिस्तानी इस्लाम का कोई आविष्कार है क्या?"
वह हंस पड़ा और उठकर बैठ गया। बोला, "यार, अगर आप इसको कयामत समझ रहे हैं, तो यह देवी–दवाले में बरपा हो रही है।"
"देवी–दवाला?"
"हां, ले चलूं तुम्हें?"
"चलो।"
कुछ मिनिटों में ही हम भव्य देवी–मंदिर के प्रांगण में खड़े थे। एक अधेड़ आयु की महिला आरती कर रही थी और
उसकी बेटी कभी शंख फूंक देती और कभी घड़ियाल बजाने लगती।
पता चला कि इस ब्राह्मण महिला का पति दंगों में मारा गया था।
महल्लेवालों ने, पश्चात्तापवश, इसे गुजरांवाला छोड़कर नहीं जाने दिया। ये लोग आज तक इनको आर्थिक सहायता एवं सुरक्षा प्रदान कर प्रायश्चित कर रहे हैं।
बड़ी बेटी को वह भारत ले जाकर ब्याह आयी हैं और छोटी के लिये भारत में वर तलाश कर रही हैं।
एक बार तो यह प्रश्न साकार होकर मेरी छाती पर ही चढ़ आया।
मॉडल टाऊन, लाहौर में अपने बुजुर्ग दोस्त डिप्टी अब्दुल शकूर के घर पर ठहरा हुआ था मैं। शाम के समय बोले,
"मेरे एक मित्र ने तुम्हें खाने पर बुलाया है।"
"किसने?"
"हकीम अब्दुल हकीम ने।"
"लेकिन, मैं तो उन्हें जानता तक नहीं।"
"पर वह तो तुम्हें जानता है तुम्हारी शायरी के जरिए।"
तैयार होकर हम दोनों उसके घर जा पहुंचे। वह अपनी कोठी के लॉन में बैठा हमारी प्रतीक्षा कर रहा था।
हम भी लॉन में ही बैठ गये। नौकर चाय–वाय ले आया। दोनों वक्त मिल रहे थे। कोठी के भीतर से छोटी–छोटी घंटियों के बजने की आवाज आयी।
फिर 'जय जगदीश हरे' की हलकी–सी आवाज आयी। विस्मय और उत्सुकता स्वतः ही मेरे चेहरे पर उभर आयी।
हकीम ने मुस्कराकर कहा, "आरती का समय है। नास्तिक नहीं हो, तो अंदर जा सकते हो।"
हैरानी किसी अधपके बेर की भांति मेरे गले में फंस गयी और मेरे पांव अनायास ही मुझे कोठी के अंदर ले गये।
एक छोटे–से कमरे में, लकड़ी की चौकी पर, कुछ मूर्तियां रखी हुई थीं। बेगम अब्दुल हकीम आरती कर रही थीं।
उनके एक हाथ में पंचमुखी आरती थीं। दूसरे हाथ से वे छोटी–सी घंटी बजा रही थीं। आरती संपूर्ण हुई,
तो उन्होंने श्रद्धानत होकर मूर्तियों को प्रणाम किया। पीठ मोड़ते ही एक अपरिचित व्यक्ति को खड़े देख वह चौकीं।
मैं संस्कारवश मूर्तियों को प्रणाम कर रहा था।
अपना परिचय स्वयं ही दे दिया मैंने।
उनको मेरे पाकिस्तानी–प्रवास की सूचना पहले से ही थी। मालूम हुआ, हकीम साहब नाभा के रहनेवाले थे।
बेगम खरड़ की थीं। दोनों ने लव–मैरिज की। न अब्दुल हकीम ने इस ब्राह्मण–कन्या से इसलाम कुबूल करने को कहा,
न इसने हकीम साहब की शुद्धि के बारे में सोचा। मैंने पूछा, "आपके बच्चे किस धर्म को मानते हैं? हिंदू धर्म या इसलाम?"
"इंडो–पाक रिलीजन", हकीम ने बड़ी सादगी से उत्तर दिया।
मैंने विस्मयपूर्वक उनकी ओर देखा। तो बोले,
"आप लोग इंडो–पाक मुशायरे करते हैं ना? जबान एक, अंदाज एक, माहौल एक, तहजीब एक, बयान एक।
इसी तरह का मजहब हैं मेरे बच्चों का, जिसे मैं 'इंडो–पाक रिलीजन' कहता हूं।"
अनुत्तरित प्रश्न किसी बिफरे हुए सांड की तरह अपने शक्तिशाली सींगों से मेरी
हृदय–भूमि पर कयामत ढा रहा था कि फिर यह पाकिस्तान क्यों?
|