ओऽऽऽ
पिलसंग इंदिऽऽया!
कौन्तेय देशपांडे
दक्षिणी कोरिया का
उलसान शहर...। भारतीय फुटबॉल संघ को प्रोत्साहित करने
के लिए हम सभी 'मुन्सू स्टेडियम' में यह धुन बार-बार
गा रहे थे- 'ओ पिलसंग कोरेआ...' यह कोरिया का एक
राष्ट्रीय घोषवाक्य है जो हमारे 'भारतमाता की जय' से
मिलता है। हाँ, यहाँ दक्षिण कोरिया के उलसान शहर में
'पूसान एशियाड २००२' के अवसर पर भारत विरुद्ध
बांग्लादेश फुटबॉल प्रतियोगिता का आयोजन किया गया था,
जहाँ हम लगभग सभी उलसान स्थित भारतीय उपस्थित थे। २७
सितंबर २००२ के उस मैच में भारत को फुटबॉल में जीतते
हुए, बल्कि बांग्लादेश को ३-० इन भारी अंकों से परास्त
करते हुए देखने के लिए हम सभी भाग्यशाली रहे।
उस दिन का खेल मानो
दर्शकों के लिए एक सुखद आश्चर्य की घटना थी। भारतीय
खिलाडियों के गेंद को पास करना, प्रतिस्पर्धी से
छुड़ाना तथा एकजुट आक्रमण ये सभी प्रयास अत्यंत
दर्शनीय थे। सचमुच, आजकल क्रिकेट के अलावा दूसरे कई
खेल भारत अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेलता भी है इसका हमें
विस्मरण-सा हो गया है। बाइचुंग भुतिया के बारे में
सुना तो बहुत था, परंतु प्रत्यक्ष या तो दूरदर्शन पर
उसका खेल देखने का अवसर कभी आया नहीं था। इस खिलाड़ी
को क्रीडांगन में देखकर मन ही मन में हम यह ठान सकते
हैं कि प्रकृति कई लोगों को ऐसी प्रतिभा व गुण अपने आप
दे देती है, जो केवल प्रयास से प्राप्त नहीं हो सकते।
मैदान में उसका चलना-फिरना, दौड़ना, संकेत करना, व्यूह
रचना यह सब संघनायक की गुणवत्ता से ओतप्रोत तो था ही,
परंतु उसका वहाँ का अस्तित्वमात्र औरों को प्रेरणादायी
था। जिस लालित्य व सहजता से वह रोकने वाले
प्रतिस्पर्धियों को बगल कर गेंद के साथ टहलता और तीर
के समान आगे निकलता उसे देख कर उसके वैश्विक श्रेणी का
खिलाडी होने पर ज़रा भी संदेह नहीं रहा। वास्तव में
वही हमारे देश का एक ऐसा घटक है जिस पर हमें गर्व होना
चाहिए ... जिन्हें नहीं है, वे बेहतर है अपने आप को
टटोलें। अपने संघ के बाकी सदस्यों ने भी बहुत अच्छे
खेल का प्रदर्शन किया। आज यह टिप्पणी लिखते समय उनमें
से एक का भी नाम मुझे ज्ञात नहीं इसलिए मुझे बडा खेद
हो रहा है। हाँ, ... मैं भी उसी विस्मरण की प्रवृत्ति
का शिकार हूँ।
ऐसे कोई भी अवसर पर
अपने मनपसंद दल के लिए चिल्लाना, नाचना-कूदना यह
नि:संशय एक आनंददायी प्रक्रिया होती है। मैं अपने
मित्रों के बीच 'गाने-चिल्लानेवाला' प्रसिद्ध हूँ। मैं
ऐसे समय, अपने पीछे कोई नारे दे भी रहा है या नहीं,
कोई मेरे नाचने पर मुझ पर हँस भी रहा है क्या ... इन
सब शंकाओं से अपने आप को छूने नहीं देता। ऐसे अकेले ही
लगे रहना मुझे भाता है। परंतु यहाँ रवि, रामा, श्री
गंगाहर, श्री मिश्र जैसे अन्य कई मिल गए जिनके होते
मैं शांत नहीं रह सका। भारतीय संघ के लिए अच्छा
वातावरण बनाने का सच्चा श्रेय जाता है उन कोरियन
'अजुम्माओं' को (कोरियन भाषा में महिलाओं को अजुम्मा
कहा जाता है) जो भारत की ओर से तालियाँ बजाने स्वयं-सेविकाओं के रूप में आई थी।
खेल के आयोजकों
द्वारा सामान्यत: ऐसे ऊपरी दर्शकों की व्यवस्था की
जाती है जहाँ बहुत ज़्यादा संख्या में अन्य दर्शक
उपस्थित न रहने वाले हो। तीस चालीस की संख्या में आई
वे महिलाएँ ज़ोर-शोर से भरपूर तो थी ही परंतु उस
नारेबाजी व गाने बजाने में एक प्रकार का अनुशासन था।
उन्होंने भारत की तरफ़ से शोरगुल मचाने में, और तो और,
लगातार नए-नए खेल करने में हम भारतीयों को पीछे छोड़
दिया। वे हमें बार-बार प्रोत्साहित कर रही थीं कि हम
हिन्दी में कोई गाना इकट्ठे गाएँ जैसा की वे कोरियन
में गा रही थी। किंतु हमें इस बात का विश्वास नहीं था
की वहाँ उपस्थित हम भारतीयों को एक भी राष्ट्रीय भावना
का गीत कंठस्थ होगा जो हम एक सुर में गा सकें। हमारे
भारतीय भाई तो सभी
इकट्ठे बैठना छोड़ एक दूसरे से
'सुरक्षित' अंतर लिए बैठे थे।
वहाँ मुझे एक बात फिर से छू कर गई कि हम अंग्रेजी
बोलने वाले भारतीय, शायद ही कभी एकता की भावना से कुछ
करते हैं।
परंतु जाते-जाते एक
बात का उल्लेख आवश्यक है। आज भी 'भारतमाता की जय'
घोषणा का जादू कायम है। और विजय के क्षण जब कोई इसे
दुहराता है, तब उसका मुख गर्व व चेतना से भरा होता है।
और यह देखना बड़ा ही आनंददायी तथा संस्मरणीय है।
( यह विवरण मैं ने
पहले अंग्रेज़ी में लिखा और बाद में हिन्दी में
रूपांतरित किया। सच कहूँ तो हिन्दी में लिखना बड़ा
कठिन हुआ। यदि आप भी प्रयास कर के देखें तो इसका अनुभव
हो सकता है। परंतु मित्रों, हम सभी के लिए क्या यह
चेतावनी नहीं?)