मेरे आदरणीय ताऊजी
डॉ. हरिवंशराय बच्चन जी के निधन पर हृदय में अपार दर्द उमड़
रहा है। स्मृतियाँ पलट कर फिर बम्बई और दिल्ली महानगर के
उन घरों के कमरों की चार–दीवारी में कैद होकर कभी श्री.
श्रद्धेय बच्चनजी (जिन्हें हम ताऊजी कहा करते थे) तथा मेरे
दिवंगत पूज्य पिताश्री पं. नरेन्द्र शर्मा की प्रभावशाली
मूर्तियों को आमने–सामने खड़ा देख रही हैं।
श्री. बच्चनजी हमारे १९वें रास्ते के (खार–उपनगर) बम्बई
में स्थित, घर पर कई कई बार आये। जब उनके पुत्र श्री.
अमिताभ जी जो आज सर्वोच्च कलाकार की तरह प्रसिद्ध व
प्रतिष्ठित हैं – जब वे हमारे लिये सिर्फ 'अमित भैया' ही
थे –– भारत के नंबर वन सुपरस्टार –'बीग बी' नहीं बने थे तब
भी ताऊजी आये और बाद में भी। मेरी अम्मा स्व. सुशीला
नरेन्द्र शर्मा के हाथों का दोपहर का भोजन करते तो कभी
एसिडिटी की शिकायत की वजह से ठंडा दूध ही भोजन की जगह पी
लिया करते थे। भोजन के बाद दोनों मित्र घर के ड्राइंग रूम
की खिड़कियाँ तथा दरवाजे बंद कर कभी कभार सो भी जाते थे।
आज मेरे पास, ताऊजी का यह पत्र दूसरे कई कागजात के बीच
हाथों में आया जिसे मैं आप सभी के साथ बाँटना चाहती हूँ –
तो पढ़िए एक मित्र की पाती, दूसरे के नाम, श्री. बच्चन जी,
श्री. नरेन्द्र शर्मा से क्या कह रहे हैं ––
भाई नरेन्द्र,
तुम्हारा ५ का पत्र मिला। बढ़िया – सविस्तर – कई बार पढ़ा
– बहुत अच्छा लगा तुमसे यह सब सुनना।.
Human interest को ही
प्रधान मानकर यह आत्म चित्रण शुरू किया था। तुम्हारा कहना
ठीक है कि अपने कवि के प्रति भी मेरा मोह प्रकट हो गया
हैं। दोनों मेरे जीवन में अलग नहीं रहे। जीवन ही कविता बन
गया। उसके कवि–पक्ष से कैसे अछूता रहता! हो सकता है, उससे
कुछ त्रुटि आई है, आई हो तो आभारी हूँ! पूर्णता का दावा,
बंधु कभी मैंने नहीं किया। गुण–दोष मय विश्व कीन्ह करतार –
मैं तो उसी विश्व का निम्नतर अंग हूँ – निश्चय ही दोष अधिक
– गुण कम लिए। शायद आज उसी के लिए आकर्षक हो गया हूँ कि
दोषों पर लोगों की दृष्टि आती जाती है और दोषी भी इस युग
में अपने दोष पर कुछ गर्व करने लगता है।
"श्राद्ध" का प्रसंग चलाकर तुमने मेरा मर्म छू लिया है।
मेरी बौद्धिकता मुझे पूरा श्रद्धालु नहीं बना सकी। पर मेरे
संस्कार मुझे आकंठ घेरे हैं। उसी से "श्राद्ध" वाली बात
पढ़कर मैं न जाने क्या क्या सोचने लगा। तुम मेरे मति हो।
तुम्हारी बात मैं नहीं टालूँगा। उसको संपन्न करा देना
तुम्हारा काम है। तुम्हारे मन में यह बात उठी है तो उसका
कोई रहस्यमय कारण हैं। मैं भी जानता हूँ मेरे व्यक्तित्व
की अंग बन चुकीं। अब उनकी अलग करने की बात को कैसे सोचूँ।
अब तो उनको जी भोगकर ही उनको क्षरण करना है। अब मैं अपने
से लड़ने की स्थिति में नहीं, अपने को स्वीकार करने की
स्थिति में हूँ। और मेरे निकटस्थ मेरी आलोचना प्रत्यालोचना
करके भी शायद ही मुझे बदल सकें, अब तो उन्हें मेरे शेष
जीवन–काल में उन्हें मुझे जैसे–तैसे सहन ही कर लेना
चाहिये।
तो तुमने 'बोर' किया तो मैं भी 'बोर' करने में कम नहीं
हूँ। अब कौन किससे क्षमा मांगे!
पंतजी 18 की रात को दिल्ली पहुंच रहे हैं। क्या तुम भी १८,
२० दिल्ली रहोगे? पंत जी को तुम्हें यहां पाकर प्रसन्नता
होगी।
सौ सुशीला जी और बच्चों को मेरे आशिष – परितोष लंबा हो रहा
है – उसकी खुशी हुई – बढ़ते समय बच्चे थोड़ा दुबले हो जाते
हैं। चिंता न करना। पढ़ते समय ध्यान लगा कर पढ़े – खेलते
समय मस्त होकर खेलें।
सस्नेह
'बच्चन'
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