'मेरे
बाबू जी अपने क्षेत्र के दिग्गज रहे हैं। उन्हें हमेशा
मानसम्मान मिलता रहा। अपनी जिंदगी में जो शोहरत
मुझे अब मिली है वह बहुत पहले मैं अपने बाबू जी के जीवन में
देख चुका हूं। जब मैं उनके साथ कवि सम्मेलनों में जाता
था तब मैं उनके अनगिनत प्रशंसकों से मिलता था, उन्हें सुनने
के लिए लोगों की भारी भीड़ जुटी रहती थी, लोग उनके आटोग्राफ
लेने के लिए बेताब रहते थे। बच्चन जी के बेटे के रूप में
मेरे इंटरव्यू लिये जाते थे। जब मंच पर घोषणा की जाती
थीं कि बच्चन जी कविता पाठ करने वाले हैं तो पूरा पंडाल लोगों
की तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठता, लोग उनके दीवाने थे।
हम लोगों की बाबू जी को बेहद फिक्र
रहती थी। इलाहाबाद में बॉयज हाईस्कूल में स्कूल की दीवार पर
लकीरें खींचने के अपराध में जब मेरे हाथों पर पहली बार डंडे
बरसाए गये, जब बाबू जी को यह पता चला तो उनका पारा चढ़
गया। उन्होंने मुझे अपनी साइकिल के पीछे बैठाया और
साइकिल चलाते हुए स्कूल पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने
प्रधानाध्यापक से पूछा कि उसने उनके बेटे पर हाथ क्यों उठाया?
'फिर तो अगर दोस्तों के साथ खेलते हुए
हमें चोट लग जातीं, या कभी किसी चीज से हम घायल हो जाते
तो बाबू जी को हम भूलेभटके ही इस बात का पता चलने देते थे
क्योंकि वे बेहद संवेदनशील थे।
मुझे याद है, उन्होंने हमें एक
विशेष मेज की फोटो भेजी थी जो उन्होंने अपने लिए बनवायी
थी। जब वे बैठकर लिखतेलिखते थक जाते, तो खड़े हो कर
लिखने लगते। वे हमसे कहते थे कि कभी ऐसी कुरसी पर बैठ कर
मत लिखो जिसके पीछे टिकने के लिए सहारा हो, क्योंकि ऐसी कुरसी
पर आदमी अकसर सुस्ताने लगता है और सो भी जाता है!
उनकी बंधीबंधाई दिनचर्या थी
जिसका वे सख्ती से पालन करते थे। जब मैं कालेज में था,
उन दिनों वे मुझे रोज सुबह पांच बजे उठा देते थे और खुद रात
को तीन बजे ही उठ जाते थे। नित्यकर्म और व्यायाम से फारिक
होने के बाद पांच बजे मुझे जगाकर वे टहलने के लिए निकल
जाते। जब मैंने राजनीति के मैदान में उतरने का फैसला
किया तो वे बहुत उद्विग्न हो उठे। पर साथ ही उन्होंने मुझसे
यह भी कहा कि अगर तुम्हें लगता है कि तुम जो कुछ भीकर रहे हो वह
उचित है, तो मैं तुम्हें नहीं रोकूंगा। इलाहाबाद पहुंचने के
कुछ दिन बाद ही मुझे लगा कि मैंने गलत निर्णय कर लिया है।
मैंने जब उनसे अपने मन की बात कही तो उन्होंने कहा, 'सामान
बांध कर चले जाओ, तुम्हारी ओर से सफाई मैं दे दूंगा।
मगर मेरी मम्मी और जया ने कहा कि मैंने जनता से जो वादा
किया है, उसे निभाना मेरा कर्तव्य है। चुनावों के दौरान
उन्होंने परिवार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर साथ दिया।
इलाहाबाद की गलियों में मेरे लिए चुनाव प्रचार किया वह भी
इस उम्र में! वे हर काम में मुझे अपनी राय जरूर देते थे
पर मेरे ऊपर कभी दबाव नहीं डालते थे।
'बाद में जब मुझ पर राजनीतिक हमले
शुरू हुए तो वे बड़े चिंतित हो उठे, जब वे हमले चरम सीमा पर
पहुंच गये तो उन्होंने मुझे अपने पास बुलाया और कहा, 'तुमने
कोई गलत काम तो नहीं किया न?' बस उसी पल मैंने फैसला
कर लिया कि मैं उन आरोपों से लडूंगा, बाबूजी इस बात को
लेकर ' कितने परेशान हैं, यह देख कर मुझे बेहद तकलीफ पहुंची।'
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वर्ष
1956 की बात है। डॉ हरिवंश राय बच्चन जो तब तक हिंदी के
कवियों में सबसे अगल पंक्तियों में आ खड़े हुए थे, यह
ठान बैठे कि वह प्रयाग विश्वविद्यालय के अंगेजी प्रोफेसर का भार
और गरिमा भरा पद छोड़कर दिल्ली चले जाएंगे विदेश मंत्रालय
में अंडर सेक्रेटरी का नाचीज पद संभालने। इलाहाबाद
प्रतिभापूर्ण शहर है, लेकिन प्रतिभाओं को समुचित आदर देने
में कुछकुछ कृपण। "कुछकुछ नहीं, बहुत कृपण"
. . . बच्चन जी ने मेरी भाषा सुधारते हुए मुझसे कहा था।
वर्ष 1984 और बच्चन जी उन दिनों 'दशद्वारा से सोपान तक' पुस्तक
पर काम कर रहे थे। बच्चन दंपति उन दिनों दिल्ली स्थित
गुलमोहर पार्क में अपनी भव्य और रमणीक कोठी 'सोपान' में
रहते थे। इलाहाबाद की खलिश तबतक भी उनके मन से नहीं गई
थी। 'दशद्वार से सोपान तक' में उन्होंने कहा भी है कि किस
तरह उनके खिलाफ बहुत कुछ कहा ही नहीं गया, लिखा भी गया और
छापे में भी आया। उनके अप्रतिम काव्य मधुशाला पर अभ्युदय
पत्रिका में लेख छपा जिसमें बच्चन के हिन्दी के उमर खैयाम बनने
के स्वप्न पर कटु व्यंग्य करते हुए लेख का शीर्षक दिया गया था
'घूरन के लत्ता कनातन से ब्योत बांधे' (घूरे की हिन्दी चली है
कनात से अपनी गांठ बांधने)। मधुशाला पाठकों की सच्ची
सराहना से मिले पंख लगाकर साहित्य के सर्वोच्च सोपान पर जा
बैठी और अभ्युदय का लेख रह गया वही घूरे पर पड़ा हुआ।
लेकिन कवि के कोमल मन पर लगी खरोच न जानी थी न गई।
बच्चन जी ने बहुत कष्ट देखे थे।
बहुत संघर्ष किया था और महाकवि निराला की ही तरह आंसुओं को
भीतर ही भीतर पीकर उनकी उर्जा और सौंदर्य में अपनी कविता को
सोना बनाया था। जाहिर है इस कष्टसाध्य प्रक्रिया से वही
कलाकार गुजर सकता है जिसके भीतर दुर्धर्ष जिजीविषा मौजूद
हो। दिल्ली आकर विदेश मंत्रालय में बड़े अधिकारी के ठंडे
और हिन्दी विरोधी तेवरों ने उन्हें खिन्न तो किया, लेकिन
बच्चन जी ने फिर कविता का आश्रय लिया। अपनी आत्मकथा में
उन्होंने लिखा है "भलाबुरा जो भी मेरे सामने आया है,
उसके लिए मैंने अपने को ही उत्तरदायी समझा है। गीता पढ़ते
हुए मैं दो जगहों पर रूका। एक तो जब भगवान अर्जुन से
कहते हैं अर्जुन, आत्मावान बनो अर्थात अपने सहज रूप से
विकसित गुणस्वभावव्यक्तित्व पर टिको। दूसरी जगह
जब वे कहते हैं कि गुण स्वभावप्रकृति को मत छोड़ो।
बच्चन जी, तुम भी आत्मवान बनो।"
बच्चन द्वारा उमर खैयाम की मधुशाला
का अनुवाद दरअसल मूल हिंदी में रूपांतरण नहीं है। वह एक
बड़े कवि द्वारा दूसरे बड़े कवि की कविता की आत्मा से साक्षात्कार
करना और अपने साहित्यक और गुणव्यक्ति के अनुसार उसे अपनी
भाषा में अपनी तरह से अभिव्यक्त करना है।
हर बड़ा साहित्यकार साहित्य और
विशेषकर शब्द की गरिमा और मर्यादा पर लड़ मरने को तैयार रहता
है। बच्चन जी के साथ भी कुछ ऐसा ही है। उन्होंने
जितना आदर अपने साहित्य का किया, उतना ही भारत तथा विदेशों के
साहित्य का भी। और इसलिए समयसमय पर अनुवाद
सम्बंधी नीति बनाते हुए उन्होंने भाषा की स्तरीयता बनाए रखने पर
बहुत बल दिया। विदेश मंत्रालय में उन दिनों भी कठिन
अंग्रेजी का अनुवाद हाटबाज़ार वाली हिंदी में करने के बारे
मे एक आग्रह व्याप्त था। इस पर बच्चन जी बहुत बिगड़ते थे।
उनका कहना था कि अंग्रेजी का अनुवाद बाज़ार स्तर की हिन्दी में
मांगना हिंदी के साथ अन्याय करना है। जबजब हिंदी
अंग्रेजी के स्तर तक उठने की कोशिश करती है तो उस पर तुरन्त दोष
लगाया जाता है कि वह कठिन और विलष्ठ है और जब वह उससे
घबराकर अति सरलता की ओर जाती है तो उसे अपरिपक्व कह दिया जाता
है। बच्चन जी ने अपने गद्य और पद्य दोनों में ही एक सुंदर,
सुगठित और सरल हिंदी का प्रयोग करके यह साबित कर दिया कि
आवश्यकता के अनुसार संस्कृत की ओर झुकती हिंदी भी लोकप्रिय और
लोकरंजक हो सकती है। यह बात सहज ही समझ में आती है कि
कभी काशी के महापंडितों से अवधि के पक्ष में पंजा लड़ाने वाले
तुलसी दास उनके प्रिय कवि क्यों थे।
बच्चन जी के जीवन के अंतिम
वर्षों में उनके तेजस्वी पुत्र अमिताभ की सफलता, गौरव और
प्रसन्नता का एक बड़ा स्त्रोत रही और पुत्र ने भी पिता की कविता अपनी
गंभीर आवाज में एक नवीन पीढ़ी तक पहुंचा कर अपना पितृदाय पूरा
किया। पितापुत्र के बीच सहज स्नेह का ऐसा आदानप्रदान
आज दुर्लभ ही है, वरना फिल्मी पत्रिकाओं ने तो बच्चन जी को
पूर्णतः 'सीनियर बच्चन या बिग बी डैड' बनाने में कोई कसर
नहीं छोड़ी। लेखकर हेनरी जेम्स ने कहा है कि हर बड़ा लेखक
अपने जीवन और लेखन में जितना भी जुझारू हो, अंततः उसके
भीतर मानव जीवन के प्रति एक गहरी आस्था होती है। यह गहरी
आस्था बच्चन जी के पूरे लेखन में व्याप्त है। दशद्वार से
सोपान तक के अंत में वह कहते हैं 'जनार्दन के समक्ष जब प्रस्तुत
होना होगा, तो होगा . . . पर मैं जानता हूं कि जनता
जनार्दन के सामने मेरी सृजनशील लेखनी ने मेरी संपूर्ण
अपूर्णताओं के साथ मुझे प्रस्तुत कर दिया है। |