७ जुलाई
जन्मतिथि के अवसर पर
आज का संगीत दैहिक हो गया है
अनिल विश्वास
अनिल विश्वास का जन्म बारीसल
(पूर्वी बंगाल) में ७
जुलाई १९१४ को हुआ। बचपन से ही वह अच्छे तबलावादक थे।
उन्होंने रंगमंच पर बाल गायक के रूप में भी कार्य किया है।
मुकेश और तलत महमूद जैसे चोटी के पाश्र्व गायक देने वाले
संगीतकार अनिल बिस्वास ने फिल्मी दुनिया में ६० वर्ष पूरे
कर लिए हैं। सन् १९३५ में उन्होंने पहली बार फिल्म में
संगीत दिया था और फिर एक के बाद एक फिल्मों में उन्होंने
बेहतर संगीत दिया।
हमारे समाज
में पहले मिल बैठने की एक रिवायत थी। लोग साथ–साथ बैठते थे।
बातें करते थे। साथ–साथ खाते–पीते थे और फिर जुदा हो जाते थे।
वह रिवायत अब धीरे–धीरे खत्म होती जा रही है यानी महफिल की
रिवायत–बाँग्ला में जिसे जल्सा कहते
हैं। उस जमाने में गाना–बजाना भी उसी तरीके से होता था।
हिंदुस्तानी संगीत का माध्यम ही शायद 'चेंज विद दि
म्यूजिक' के रूप में हमारे पुरखों ने विकसित किया होगा।
महफिल में बैठने से एक–दूसरे से भावों का आदान–प्रदान भी
संभव था। लोग मुझसे पूछते हैं – पहले के संगीत में और आज
के संगीत में क्या फर्क आ गया है? मैं कहता हूँ – संगीत
में कुछ फर्क नहीं आया, वह रूपांतरित हो गया है। उसका रूप
बदल गया है। हम पहले अपनी आत्मा को सामने रखकर गाते थे।
भगवान को सामने रखकर गाते थे। लोग यहाँ तक कहते थे कि
संगीत के माध्यम से आप ईश्वर को पा सकते हैं। यानी अगर ताल
बँध जाए तो वहाँ तक पहुँचने की सोच सकते हैं। दूसरी तरफ आज
का संगीत दैहिक हो गया है। सिर्फ शरीर नाचता है, मन नहीं
नाचता। और संगति के इस बदलते रूप में मैं फिल्मी दुनिया
में अपने आप को अनफिट समझने लगा हूँ। यही कारण है कि मैं
वह दुनिया छोड़कर चला आया। क्योंकि आज जो संगीत रचा जा रहा
है वह मुझसे नहीं हो सकता। इसीलिए 'ऐ दिल मुझे ऐसी जगह ले
चल जहाँ कोई न हो।'
हम लोग आम तौर से शब्दहीन संगीत (एब्स्टे्रक्ट म्यूजिक)
में गाते हैं। इसे शास्त्रीय संगीत कहते हैं। इसमें शब्द
नहीं होता, सिर्फ शब्द भ्रम होता है।
'ये राही मतवाले' गीत तैयार किया था कमर जलालाबादी ने।
हालाँकि उनका असली नाम ओम प्रकाश है लेकिन वह कमर
जलालाबादी के नाम से ही लिखते हैं। मेरी जिंदगी भी एक
गीतकार के रूप में शुरू हुई। मुझे काफी अच्छे साहित्यकारों
का भी साथ मिला है, जैसे –सुमित्रानंदन पंत, नरेंद्र
शर्मा, अमृतलाल नागर आदि के साथ मिल–बैठने का मौका मिला।
तो 'ये राही मतवाले' के लिए मैंने गाना रवींद्रनाथ के एक
गीत से उठाया था। इसकी एक पंक्ति थी 'देख–देख चकोरी का मन
हुआ चंचल, चंदा के मुखड़े पर बदली का अंचल।'
इस पर कमर जलालाबादी बोले, "दादा, ये अंचल तो गलत है। अंचल
कोई शब्द नहीं हैं, आंचल होना चाहिए था।"
मैंने कहा, "हाँ, तुम्हारी 'डिक्शनरी ' में होगा, हमारी
'डिक्शनरी' में अंचल भी हैं।" तो मेरे कुछ एक रूपांतरण ऐसे
रहे हैं, जो दुनिया वाले अब भी नहीं भूला पाए। "हम होंगे
कामयाब' मेरा ही रूपांतरण है और यह मैंने राष्ट्र को आखिरी
उपहार के तौर पर दिया है। इसे मैं आज के युवकों के लिए छोड़
रहा हूँ और इसको भुलाना मुश्किल होगा। जैसे 'दूर हटो ऐ
दुनिया वालों हिंदुस्तान हमारा है' आज तक नहीं भूला पाए। '
दिल जलता है तो जलने दे' आज तक नहीं भुला पाए। इस तरह से
मैं अगर अपनी पसंद के गाने चुनने बैठूँ तो वे दर्जन भर से
ज्यादा नहीं होंगे। दूसरे शब्दों में, शायद दर्जन भर गाने
हमने अच्छे तैयार किए हैं।
सी. रामचन्द्र ने हँसो–हँसो ऐ दुनिया वालो में मेरे सहायक
के रूप में काम किया। वह कहा करता था कि "तू माझा बाप आहे"
(तू मेरा बाप है), एक बार इंदौर में कोई उसका
साक्षात्कार लेने को पहुँचा। उसने कहा, "मैं साक्षात्कार
तो दे दूंगा, लेकिन आपको बड़े–बड़े अक्षरों में यह लिखना
पड़ेगा कि मैं अनिल बिस्वास का सहायक था। अगर आप यह वचन दें
तो मैं साक्षात्कार के लिए तैयार हूँ।" नौशाद मियां भी यह
कहते हैं कि अनिल बिस्वास मेरे रहबर हैं, मेरे गुरू हैं।
हालांकि उनको मैंने कुछ नहीं सिखाया है। लता मंगेशकर भी
खुले आम यह स्वीकार करती है कि फिल्मों में मैंने किसी कुछ
सीखा है, तो अनिल दा से सीखा है।
मुकेश १७–१८ साल की उम्र में मेरे पास आया और तब मैं शायद
२३–२४ साल का था। मेरे स्वर्गीय दोस्त मोतीलाल उस समय इस
लड़के को मेरे सामने लेकर आए और बोले, "इसको सुनकर देखो,
इसके बारे में कुछ करना है।" फिर मैंने उसको सुना। आप यकीन
नहीं करेंगे, कि मैं उसके गले पर मर मिटा। उसके गले में एक
मुर्की थी। उसके टिंबर में मैं मर गया। इस माध्यम के लिए
टिंबर सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। मैंने कहा, "वाह! क्या
टिंबर है?" लेकिन उसको माँझने में
मुझे बहुत वक्त लगा।
तलत फिल्मी दुनिया में हीरो बनने के लिये आया था। बिल्कुल
दुबला–पतला था। मैंने उससे कहा, "भाई या तो तू गोश्त खा और
मोटा होकर आ या फिर अपने बदन पर कुछ गोश्त–वोश्त लगाकर,
उसके ऊपर कपड़ा पहनकर आ। तेरे लिए तुझसे भी पतली हीरोइन में
कहाँ से ढूँढूँ।" दो दिन बाद उसने बताया कि मैं गाना भी
गाता हूँ। फिर उसने गा कर सुनाया। उसकी आवाज बेहद खूबसूरत
थी। एक रेशमी खूबसूरती–सी मालूम हुई उसकी आवाज में। एक
मखमली आवाज। उसकी आवाज काँपती थी। उसके लिए मैंने एक गाना
बनाया।
दूसरे दिन जब वह आया तो सीधी–सीधी आवाज में गाने लगा।
मैंने कहा, "भाई तू कौन है?" कहने लगा, "क्यों?" मैंने
कहा, "वह तलत महमूद किधर है, जिसको मैंने कल सुना था?"
कहने लगा, "दादा, बाहर सब लोगों ने हमको इतना डराया कि
तेरी आवाज काँपती है, इसको सीधा करके ले जा, नहीं तो तेरा
काम नहीं बनेगा।"
मैंने उससे कहा, "तू मेरे घर से बाहर निकल जा और मेरे कल
वाले तलत महमूद को बुलाकर ला, फिर तुझको गाना गाने को
मिलेगा।" इस तरह मेहनत करने के बाद वह गाना बना – 'ऐ दिल
मुझे ऐसी जगह ले चल जहाँ कोई न हो।' इसी तरीके से तलत बना।
जब मैं मुकेश को ट्राई कर रहा था तो उसे एक गीत 'नयन उसके
नयन' गाना था। मैं कोशिश कर रहा था कि मुकेश इसको गा ले।
दो–तीन दिन तक मैं ट्राई करता रहा। इधर महबूब मेरे पीछे
पड़ा था कि जल्दी करो। दूसरे काम में हाथ लगाना है। उसकी
जल्दबाजी से तंग आकर मैंने मुकेश से कहा, "तू हट, मैं गाता
हूँ।" मैंने वह गाना गा दिया। दूसरे दिन सबने वह गाना
सुना। सबको पसंद आया। सुनने के बाद मुकेश ने मुझसे कहा,
"दादा आप गाना खुद बनाएँगे, खुद गाएँगे तो आपसे बेहतर कोई
उसकी व्याख्या नहीं कर सकता। तो इसका क्या यह मतलब है कि
हम कभी आपके बनाए हुए गानों को नहीं गा सकेंगे।" उसकी बात
से जैसे एक जोरदार घूँसा लगा मेरे दिल के ऊपर। उस समय तो
मैंने कहा, "नहीं–नहीं, ऐसी बात नहीं है।" पर रात में मैं
इसी घटना पर विचार करता रहा और उसके बाद मैंने यह निश्चय
कर लिया कि अब व्यावसायिक रूप में कुछ नहीं गाऊँगा, सिर्फ
संगीत निर्देशक बना रहूँगा। हालाँकि मैं अब भी गाता हूँ,
अब भी गुनगुनाता हूँ लेकिन वह अपने शौक के लिए है, अपने
सुख के लिए, जिसे स्वातः सुखाय कहते हैं।
गालिब शताब्दी वर्ष में मैं राष्ट्रपति भवन में राष्ट्रपति
जाकिर हुसैन के सामने फारसी में गज़ल गा चुका हूँ। हुआ यों
कि उस दिन समारोह में बढ़िया धोती–कुर्ता और चद्दर–वद्दर
ओढ़कर गया – पूरे बंगाली अंदाज में। लोगों ने सोचा – ये
क्या गज़ल गाएगा, कुछ बंगाली में गाएगा। लेकिन आप माने या न
माने, मैंने उस दिन गालिब की एक फारसी गज़ल 'दोस्त व
गर्दिश' शानदार तरीके से गाई। जाकिर साहब ने कहा,
"वाह–वाह! इन्होंने तो गज़ल गा दी, जबकि हमारे यहाँ गज़ल पढ़ी
जाती है। हम गज़ल गाते नहीं पढ़ते हैं।" इस पर पद्मानंद जी
ने बताया कि इसने न सिर्फ गज़ल गा दी, बल्कि जो फारसी गज़ल
इसने सुनाई है वह बाँग्ला में लिखी हुई है।
अशोक कुमार और मैने मिलकर एक फिल्म बनाई थी किस्मत, उसने
एक इतिहास रचा। कलकत्ता के राक्सी सिनेमा में यह तीन साल
आठ महीने लगातार चलती रही, शोले आने के पहले तक यह एक सुपर
हिट फिल्म थी। मैं ' बांबे टाकीज' में एक मुलाजिम के तौर
पर काम करता था, यानी मुझे तनख्वाह मिलती थी। लेकिन बाद
में बांबे टाकीज के दो भाग हो गए। पहला था – चुन्नीलाल,
शशधर मुखर्जी और इधर हिमांशु राय के गुजर जाने के बाद,
देविका रानी बेचारी बहुत अकेली पड़ गई। उसने एक फिल्म
निर्माण के समय मुझसे संगीत बनाने को कहा। मुखड़ा उसके पास
था। मैं हारमोनियम लेकर बैठ गया और पूछा, "बताओ क्या शब्द
हैं? क्या वाक्य है?" उन्होंने कहा, "गोरी मुझसे गंगा के
पार मिलना।" मैं गुनगुनाने लगा तो वह कुछ
यों बना – 'गोरी
मुझसे गंगा के पार मिलना, मैं तो आऊँगी ओढ़े हरी चुनरी।'
अपने जमाने की मशहूर फिल्म रोटी का वाक्या भी बड़ा दिलचस्प
है। असल में हम लोग जहाँ काम करते थे, वह जगह जैसे एक पूरा
परिवार था। आज जैसे लोग कार्यालय में काम छोड़कर घर भागते
हैं उसी तरह हम लोग घर छोड़कर स्टूडियो भागते थे कि वहाँ
दोस्तों से मिलेंगे और बात करेंगे, अमुक–अमुक कार्यक्रम
बनाएँगे, वगैरह–वगैरह। हम लोग खाना भी साथ बैठकर खाते थे।
एक दिन सब लोग खाना खा रहे थे। बाकी लोग मुर्ग–मुसल्लम खा
रहे थे लेकिन एक दोस्त को (स्वस्थ न होने के कारण) सूखा
टोस्ट और पानी जैसा सूप दिया गया। खाते–खाते उसने कहा,
"सालो, तुम लोग मेरे सामने बैठकर मुर्ग–मुसल्लम खा रहे हो
और मुझे पानी और ये सूखी रोटी दी है।"
मैंने कहा, "दुबारा इसके बारे में सोचने की कोशिश मत
करना।"
वह बोला, "क्यों?"
मैंने कहा, "रोटी के लिए ही हम लोग सब कुछ करते हैं। रोटी
हमारी जिंदगी में वो चीज है, जिसके लिए हम मर–मिटते हैं,
एक–दूसरे का गला काटते हैं, एक–दूसरे की जेब में हाथ डालते
हैं, किसी को ठगते हैं, तो किसी के सामने झूठ बोलते हैं।
सारा अच्छा–बुरा रोटी के लिए करते हैं।"
उसने कैमरामैन की तरफ इशारा करके कहा, "हनी, ये बंगाली कुछ
कह गया है। इसमें कुछ दम है।" और उसके बाद ही
रोटी फिल्म का पूरा प्लाट बना।
यह बात १९४० की है और हिंदुस्तान पर अंग्रेजों का शासन था।
यह ब्रिटिश किस तरह हमारे मुँह से हमारी रोटी छीन रहा है,
यह कहना उस वक्त थोड़ा मुश्किल था। इसके लिए बड़ा कलेजा
चाहिए था। मैं सोचता रहा। फिर उसमें एक पागल का रोल डाला
गया। बाँग्ला में एक कहावत है जिसका अर्थ है – 'बकरी क्या
नहीं खाती और पागल क्या नहीं बकता।' तो जो कुछ पागल
बोलेगा, लोग उसे पागल की बकवास समझेंगे। अब समस्या आई कि
वह रोल किसे दिया जाए। इसी बीच मुझे अशरफ खान मिले। उनका
कद मुझसे भी छोटा था। मगर जब वह मंच पर बोलते थे तो ऐसा
मालूम होता था कि कोई भारी–भरकम व्यक्ति बोल रहा है। यह
व्यक्तित्व था उनका। काफी मनाने, समझाने के बाद वह यह रोल
करने को तैयार हुए। इस फिल्म में मैंने अपने एक महबूब
दोस्त डा. आर. सी. ठाकुरी से कहलवाया है, जिसके बोल कुछ इस
तरह से हैं –
रहम न खाना, रहम न खाना,
झूठा राजू पहनकर आया, दया धर्म का बाना
इसी वहम ने तुमको मिटाया, राज पाट सब अपना गँवाया
खान ने खोई आन–बान, वो दाँत बने हैं राणा,
रहम न खाना, रहम न खाना
राणा है मक्कार जमाना
झूठा साधू पहन के आया, दया धर्म का बाना,
दुखिया, दुर्बल, दीन दे रोटी,
हाथ मरोड़कर छीन ले रोटी
भीख माँगकर जीने से तो अच्छा है मर जाना
रहम न खाना, रहम न
खाना
इस फिल्म में एक मारवाड़ी सज्जन को भी दिखाया गया है, जो
करोड़पति हैं। उनकी पगड़ी खुली हुई है और उसके अंदर से वह
खटमल निकाल रहे हैं। वह बहुत ऊँचे स्थान पर एक मंदिर गए
हैं। वहाँ गरीबों को बुलाकर एक–एक पाई उनकी झोली में डाल
रहे हैं और नीचे खड़े होकर वह पागल कहता है, "गरीबों पर दया
करके बड़ा अहसान करते हो, इन्हें बुजदिल बना देने का तुम
सामान करते हो, उन्हीं को लूटते हो और उन्हें खैरात देते
हो, बड़े तुम धर्म वाले हो ये अच्छा दान करते हो, डरो उस
वक्त से जब रंग बदलेगा जमाने का, वे तुमसे लेंगे बदला
जिनका आज अपमान करते हो।" तो इस तरह के फीचर उस फिल्म में
डाले गए। लेकिन बाद के दौर में 'मेरी दुनिया बसा ले, मेरी
मन दुनिया बसा ले' जैसे गाने पढ़ने को जी नहीं करता। मैंने
कभी एक गाना बनाया था – 'धीरे–धीरे आ रे बादल, धीरे–धीरे
जा, मेरा बुलबुल सो रहा है, शोर–गुल न मचा।" इस तर्ज के
गाने मैंने फिल्मी दुनिया को दिए। जब वहाँ के स्तर में
गिरावट आनी शुरू हुई, मैंने इस दुनिया को छोड़ दिया। वह
कहते हैं न कि आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे।
१ मई २००३ |