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संस्मरण

पुण्य तिथि (१ जून) के अवसर पर

राग यात्री
रूपम मिश्र


मुझे याद आ रहा है तेईस नवम्बर छियानवे का शनिवार का दिन। वह हमारे लिए अश्रुपूर्ण उपलब्धि का दिन था। बाबूजी की अंतिम लिखी स्मृति–गीतों की पुस्तक 'जलतरंग' उनके जाने के बाद छपकर हमारे हाथ में आयी थी। उस समय हम सभी के मन में खुशी, संतोष और गर्व का मिला–जुला भाव था। एक जून, १९९५ को बाबूजी नहीं रहे। उससे दो–चार दिन पहले बाबूजी की डायरी में लिखी ये पंक्तियाँ हमें मिलीं –
जीवन के आखिरी मोड़ पर
दूर चला जाऊँगा
बहुरंगी शब्दों का ढेर छोड़कर

बहुरंगी शब्दों के इस ढेर को जब हमने सहेजना शुरू किया, तो पाया कि 'जलतरंग' के हर सुर में मम्मी भरी पड़ी हैं –
ऐसी भरी पड़ी तू मुझमें
क्या होगा फिर
स्मृति–गीतों के एक शतक से

बाबूजी ने मम्मी से जुड़ी जीवनभर की स्मृतियों के माध्यम से हर बिछोह सहनेवाले मन की संवेदना, पीड़ा, दर्द और सन्नाटे को इसमें वाणी दी है। उन्होंने लिखा है –
कितने दिनों के बाद
आयी नींद है उसको
रोते नहीं उस वक्त जब
सोना जरूरी हो
ओ लाड़ली, मत रो।

हमनें उन्हीं की बात मानकर स्वीकार कर लिया है, जीवन के कटु यथार्थ को। आज बाबूजी के न रहने पर भी, आँसुओं को आँखों से बाहर न आने देने के वचन को हम सभी निभा रहे हैं।

यों तो 'जलतरंग' बाबूजी की वैयक्तिक पीड़ा और बिछोह की पराकाष्ठा है, लेकिन समाज की हर त्रासद घटना ने उन्हें झकझोरा है, जिसकी सशक्त अभिव्यक्त उनकी रचनाओं में हुई है। चाहे वह अपने परिवारजन का बिछुड़ना हो या निराला या मुक्तिबोध का निधन, बंगाल का अकाल हो या फिर भोपाल गैस त्रासदी या वियतनाम युद्ध। भोपाल गैस दुर्घटना पर अगले ही दिन लिखी उनकी कविता उन्हीं के स्वर में सुनकर मैं दुर्घटना के शिकार लोगों के बीच का जैसे एक हिस्सा ही बन गयी थी। समाचार में दुर्घटना की खबर सुनना, उस पीड़ा को इतनी गहराई से अनुभव करना और इत
ने कम समय में उसे मार्मिक शब्दों और स्वरों में बाँधकर अभिव्यक्त कर देना, हर किसी के लिए संभव नहीं है। यह उनकी अतिसंवेदनशीलता दर्शाता है।

विष भरी हो गयीं जब हवाएँ
भर गया तब कुएँ में जहर
देखते–देखते चाँदनी में
मर गया एक जिंदा शहर

कुछ दिन पहले किसी कार्यवश अचानक भोपाल जाना हुआ। गरमी की छुट्टियों का सिलसिला शुरू हो जाने के कारण रिजर्वेशन दादर–अमृतसर एक्स्प्रेस का ही मिल पाया। ज्यादा सफर रात को सोते हुए कटा, पर फिर भी सुबह लग रहा था, मानो हम पैसेंजर ट्रेन में सफर कर रहे हैं। हम लोग बात कर रहे थे कि राजधानी और शताब्दी ट्रेनों में तो हम अब तक देश के एक कोने से दूसरे कोने में पहुँच गये होते। तभी एक जगह ट्रेन रूकी, छोटा स्टेशन लग रहा था। नाम था 'गंज बासोदा'। नाम पढ़ते ही दिमाग में कुछ कौंधा, अचानक याद आया कि यहाँ तो बाबूजी दो–एक बार कवि सम्मेलनों में
आ चुके हैं। तभी बाबूजी और पाँच दशकों की उनकी धुआँधार कवि सम्मेलनी यात्रा से जुड़ी ढेरों स्मृतियाँ ताजा हो आयीं।

मुझे पाकिस्तान युद्ध के समय की कुछ धुँधली–सी याद है कि जब मम्मी बाबूजी को लेने नयी दिल्ली स्टेशन गयीं थीं और हम लोग घर में अकेले थे, अचानक उन ब्लैक आउट के दिनों में सायरन हो गया और हम दहशत में आ गये, लगा कि आज तो जरूर कोई बम गिरेगा और हम सबका अलग–अलग पता नहीं क्या होगा? खिड़की–दरवाजों पर शीशों पर काले कागज लगे थे, लाइट खोल नहीं सकते थे, मम्मी–बाबूजी घर में नहीं, बस डर के मारे रोना आ रहा था, वो तो पड़ोस की आँटी ने अपनी गैलरी से हमारी हिम्मत बँधायी कि चिंता मत करना हम लोग यहीं हैं, मम्मी अभी आती होंगी।
खैर, किसी तरह क्लीयर का सायरन थोड़ी देर बाद बजा, फिर मम्मी–बाबूजी भी आये। हम लोग एक–दूसरे से ऐसे मिले जैसे कब से बिछड़े थे।

बाबूजी की इस फ्रीलांसर की जिंदगी को हमने होश सँभालने के पहले से देखा था, इसलिए वह हमें अजीब नहीं लगती थी। मम्मी ने तो पता नहीं कब से अपने को उस जिंदगी में ढाल लिया था। बाबूजी ने जिंदगी में समझौते किये बिना स्वाभिमान का जो जीवन जिया, मम्मी ने न केवल उसे स्वीकारा बल्कि उन्हें हर कदम पर सहयोग भी दिया। घर की तरफ से उन्हें सदैव निश्चिंत रखा। जीवन के कुछ ऐसे अवसर होते थे जैसे होली, दीवाली – जैसे त्यौहार जब बाबूजी हजारों मील दूर से ट्रेनें, बसें बदलते जरूर घर में पहुँचकर हमारे साथ रहते थे। छोटे होने पर हमें उनसे एक बात की शिकायत जरूर रहती थीं कि वह गरमी की छुट्टियों में हम सबको बाहर हिल–स्टेशन घुमाने नहीं ले जाते थे, जबकि स्कूल–कॉलेज में अन्य लोग खूब मौज करते थे, हम कहीं जाते थे, तो बस अपने दादा–दादी के पास ग्वालियर। पर वहाँ हमारी बुआ और उनका परिवार भी हमारे लिए हमेशा आकर्षण का केन्द्र रहता था।

में अपने बाबूजी से एक शिकायत यह भी रहती थी कि जब वह बाहर से आये अपने किसी परिचित से हमें मिलवाते थे, तो हमारी पढ़ाई और क्लास को बताने में कभी–कभी गलती कर बैठते थे। सेकेंड इयर वाले को फर्स्ट इयर में, ग्यारहवीं वाले को दसवीं में आदि। बाहरवाले के जाने के बाद हम उनसे लड़ते थे कि आप बड़ी क्लास में बता देते तो कोई बात नहीं, हमारी क्लास छोटी करके क्यों बतायी। बस वह यह कहकर हमें शांत कर देते थे कि अगली बार ऐसा ही कह देंगे। उनका स्नेह हमारी सब शिकायतें दूर कर देता था।

वैसे बाबूजी की यात्राओं से हमारे परिवार को, खासतौर से मम्मी को, कुछ तकलीफें तो निश्चित रूप से हुईं, पर फिर वे सब हमारी आदतों का हिस्सा बन जाने पर अखरती नहीं थीं। इससे हमारे पूरे परिवार में आत्मनिर्भरता, दायित्व बोध, स्व
–नियंत्रण, साहस, सामंजस्य, जागरूकता – जैसी बातें स्वयमेव ही व्यक्तित्व में आ गयीं।

बाद के पाँच–दस वर्षों में बाबूजी का कवि सम्मेलनों में जाना काफी कम हो गया। एक तो मंच का वातावरण बदल गया था, जो उनके अनुकूल नहीं था, दूसरे वह बैठकर अपने पढ़ने–लिखने पर अधिक ध्यान देना चाहते थे और साथ ही हम लोगों के अपने पैरों पर खड़े हो जाने से आर्थिक मजबूरियाँ नहीं थीं। पर जब उन्हें किसी विवशतावश कविसम्मेलनों में जाना पड़ता था, तो बड़ी कोफ्त होती थी। ऐसी ही किसी मनःस्थिति में लिखे उनके गीत की ये पंक्तियाँ कितना कुछ कह देती है :
रूखी यात्राओं पर निकल रहे हम स्वयं
पुरवाई हमें मत ढकेलो...
क्या जाने कब ये बरसाती साँझ मिले
गठरी में बाँध दो फुहारें
पता नहीं कंठ कहाँ रूँध जाए भीड़ में
जेबों में डाल दो मल्हारें
स्व
यं छोड़ देंगे हम गुंजित नभ–मंच ये
दे दो एकांत जरा
'वाह–वाह' ले लो।

सचमुच ही एक समय ऐसा आया, जब उन्होंने कवि सम्मेलनीय मंच से अपने को काट लिया। मम्मी के जाने के बाद तो जैसे उन्होंने कवि सम्मेलनों में न जाने का प्रण–सा कर लिया। पचास वर्षों तक यायावरी जीवन जीने पर भी उन्होंने अपने परिवार, अपने साहित्य को कहीं प्रतिकूल रूप से प्रभावित नहीं होने दिया, बल्कि एक–दूसरे को परस्पर समृद्ध ही किया। जहाँ मंच पर लोकप्रियता की ऊँचाइयों को छुआ, वहीं साहित्य में अपनी अलग पहचान बनायी। व्यक्ति के जीवन के हर सुख–दुःख, दर्द और यथार्थ को शब्द और स्वर के माध्यम से जहाँ लाखों श्रोता–पाठकों तक पहुँचाया, वहीं जीवन के संघर्ष को स्वीकारते हुए आशा का स्वर दिया।

जीवन–शक्ति से भरपूर उनके गीत जीवन–सफर में हमारा संबल हैं, जिस जीवन शैली को हमने स्वीकारा है, उससे तो हमें प्यार है। मुझे याद आ रही है बाबूजी के गीत की पंक्तियाँ –
बिजली यह व्यर्थ नहीं चमकी है, यात्रा या खोज यह स्वयं की है
त्रासद हर एक पल, मधुवंती, फिर भी अविराम चल मधुवंती।

२४ जून २००२

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