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संस्मरण


मजरूह: ...और कारवाँ बनता गया
जानकी प्रसाद शर्मा


मजरूह सुल्तानपुरी (१९१९–२०००) की शायरी में साधारण लोकरूचि और गंभीर काव्य–विवेक की समाहिति एक साथ महसूस की जा सकती है। पिछले करीब छःदशकों के दौरान जहाँ एक ओर उनकी शायरी उर्दू के प्रगतिशील हलकों में बहस का विषय बनी रही, वहीं दूसरी ओर अपने लोकरंजनकारी पहलू के कारण यह शायरी आम सिनेमा दर्शकों को अभिभूत करती रही। शायरी का इतना व्यापक परिसर कम शायरों के यहाँ मिलेगा। चौथे दशक के अंत में जिस वैचारिक प्र्रखरता के साथ उनकी शे'रगोई की शुरूआत होती है, आगे फिल्मों से जुड़ाव के बाद उसमें कोई विचलन पैदा नहीं होता। उनके गज़ल संग्रहों के नाम हैं–– 'गज़ल' और 'मिश्अलेजां'। यानी मजरूह ने बहुत कम कहा।

उनकी रचनाशीलता से जुड़ाव के बाद महसूस होता है कि दुखी और आहत (मजरूह) मानवता के प्रति उनका राग निरंतर गहरा होता गया है। उनके कवि–स्वभाव में अवध का लोक जीवन रचा बसा है जो गाहे–बगाहे उनकी रचनाओं में व्यक्त होता रहा है।

मजरूह मुशायरों के रास्ते १९४५ ई. में फिल्मी दुनिया से जुड़े और सबसे पहले ए.आर. कारदार की फिल्म 'शाहजहाँ' के लिए गीत लिखे। १९४५ ई. से लेकर हाल की 'कसम से' फिल्म तक उन्होंने करीब साढ़े तीन सौ से ज्यादा फिल्मों को अपने गीत और गज़लों से रौशन किया। 'शाहजहाँ' के संगीत ने सहगल की आवाज को अमरता दी।

मजरूह फिल्म के लिए लिखे नगमों को अपनी बाकी शायरी से बिल्कुल भिन्न तस्लीम नहीं करते थे। इसका सबूत यह है कि उन्होंने अपने पहले संग्रह 'गजल' के परिवद्र्धित संस्करण में 'गम दिये मुस्तकिल, कितना नाजुक है दिल, ये न जाना' गीत को शामिल किया है। फिल्मों में प्र्रयुक्त उनकी कुछ गज़लें साहित्यिक महत्व की दृष्टि से बेजोड़ हैं। मसलन 'दस्तक' फिल्म की गज़ल —
'हम हैं मता–ए–कूचाओं–बाज़ार की तरह,
उठती है हर निगाह खरीदार की तरह'।

फिल्म में इस गज़ल का संदर्भ यदि हमारे जेहन में हैं तो हम कह सकते हैं कि यह शेर पूरे तीन सौ साल की उर्दू शायरी में स्त्री–जीवन पर कहे गये चंद बेहतरीन शेरों में से एक हैं। वैसे इस शेर का एक व्यापक आयाम है। यानी पूंजी के वर्चस्व ने मनुष्य को बाज़ार की वस्तु (मता–ए–कूचा–ओ–बाज़ार) में घटा दिया है। यह बात कही जानी चाहिए कि फिल्मों के लिए उन्होंने कुछ ऐसे गीत भी लिखे जो उनकी साहित्यिक छवि के अनुरूप नहीं हैं।

मजरूह पांचवे दशक की शुरूआत में जिगर मुरादाबादी के साथ अंजुमन तरक्की उर्दू के मुशायरे में बंबई पहुंचे और वहीं के हो रहे। उनके कवि–संस्कारों पर सबसे ज्यादा प्रभाव जिगर के दिलकश अंदाजे. – बयां का पड़ा। जिगर के लहजे में इंसान के प्रति सच्चा लगाव था और वे इस पर किसी वाद की मुहर लगाने के कायल नहीं थे। अपनी इसी सादगी और सच्चाई की बिना पर वे प्रगतिशील आंदोलन के संगठनकर्ताओं के बीच प्रशंसित हुए। मजरूह के आने तक प्रगतिशील साहित्यांदोलन (विशेष रूप से उर्दू में) सामाजिक स्वीकृति अर्जित कर चुका था।

साम्राज्यवाद और फासिज्म के खिलाफ खुला मोर्चा लेने के कारण इस आंदोलन ने जन–सामान्य के दिलों में जगह बना ली थी। ऐसे दौर में इस आंदोलन में एक और आवाज शामिल हुई – मजरूह की आवाज़। इस आवाज में जीवन का ताप और स्पंदन था और समाज की आलोचना भी। गोया प्रगतिशील शायरी के तमाम तत्व इसमें मौजूद थे। लेकिन एक व्यक्ति के रूप में मजरूह शायरी के राजनीतिक प्रयोजन के कायल नहीं थे। अब तक उनकी शायरी में प्रगतिशील रूझान का सबब उनके प्रत्यक्ष जीवनानुभवों की सच्चाई थी, माक्र्सवाद की शिक्षा नहीं।

मजरूह के संदर्भ से प्रगतिशील आंदोलन के एक अंतर्विरोध को समझा जा सकता है। पहले उभार के दौरान ऐसे अनेक रचनाकार थे जो विचारधारा के किताबी ज्ञान से लैस थे लेकिन इस विचारधारा को रचना में रूपांतरित करने की कला क्षमता उनके पास प्रायःनहीं थी। दूसरी ओर ऐसे रचनाकार भी थे जो सैद्धांतिक रूप से विचारधारा से परिचित नहीं थे, इसके बावजूद उनकी कला में विचारधारा झांकती नज़र आती थी। मजरूह दूसरी कोटि में आते हैं।

मजरूह सिर्फ प्रगतिशील मंच के औपचारिक आयोजनों तक सीमित नहीं रहे। उन्होंने सीधे–सीधे महाराष्ट्र के मजदूर आंदोलनों में हिस्सेदारी की। उनके दुख–दर्द को उनकी बोली–बानी में शेरों में बयान किया और वे मजदूरों के शायर हो गये। उस दौर में ट्रेड यूनियनों के मुशायरों में सबसे ज्यादा कैफी आज़मी, सरदार ज़ाफरी, मख्दूम और मजरूह को सुना जाता था। मजदूर जिसे अपना रचनाकार मान लें, उस पर बड़ा दायित्व आ जाता है। वह खुद को उनकी अपेक्षाओं के अनुरूप साबित करने की कोशिश करता है। वह अपनी कलात्मक उत्कृष्टता बनाये रखते हुए मजदूरों के मन में बनी अपनी छवि को धूमिल नहीं होने देता चाहता। मजरूह को इसके लिए आत्मसंघर्ष से गुजरना पड़ा। तभी उनकी शायरी ' सितम की स्याह रात' के खिलाफ संघर्ष का साहस पैदा करने में कामयाब हो सकी ––

सुतूने–दार पे रखते चलो सरों के चिराग
जहाँ तलक ये सितम की स्याह रात चले।

एक बारगी लगता है कि मजरूह प्रेम के कवि हैं। कुछ गहराई में जाकर मालूम होता है कि उनके यहाँ प्रेयसी की कल्पना प्रचलित रूमानी शायरी से भिन्न है। दूसरे प्रगतिशील शायरों की तरह वे भी प्रेयसी को 'साथी' के रूप में देखते हैं। मजाज़ ने कहा था – ' मैं जिस दुनिया में रहता हूं, वह उस दुनिया की औरत है।' मजरूह भी प्रेयसी को संघर्ष का साथी तस्लीम करते हैं –

मुझे सहल हो गई मंजिलें, वो हवा के रूख भी बदल गये
तेरा हाथ हाथ में आ गया कि चिराग राह में जल गये।

मजरूह ने प्रेम की भावभूमि पर इतने नये अंदाज में शेर कहे हैं जिनका कोई जोड़ नहीं मिलता। यहाँ प्रगतिशीलता के तकाजों से अलग एक दूसरे मजरूह हमारे सामने होते हैं। अपने तरन्नुम और तगज्जुल की बिना पर ये शेर हमारे जेहन पर नक्श हो जाते हैं –

दिल से मिलती तो है एक राह कहीं से आकर
सोचता हूं ये तेरी राह गुजर है कि नहीं।

मजरूह में निजता और सामाजिक चेतना का द्वंद्व बराबर जारी रहता है। उनका रचनाकार अनुभव के दोनों आयामों को छूता हुआ चलता है। मजरूह को यह कहने में संकोच नहीं कि
' हो सके तो खुद को भी एक बार सजदा कीजिए।'

प्रगतिशीलों का एक बड़ा वर्ग व्यक्ति की सत्ता को केंद्र में रखने वाली शायरी को प्रतिक्रियावाद के रूप में परिभाषित करता था। लेकिन बाद में यह महसूस किया गया कि व्यक्ति की केन्द्रीयता के बावजूद रचना में जीवन है तो इसकी कद्र की जानी चाहिए। यदि प्रगतिशीलता के इतने संकीर्ण प्रतिमान लेकर हम रचनाकारों को बाहर करते गये तो एक दिन खेमा खाली हो जायेगा। अतएव मजरूह में एक व्यक्ति की महत्ता नज़र आती है तो यह कवि की आत्मरति के बजाय आत्मविश्वास है। इस भाव को व्यंजित करने वाले अनेक शेर कहावत बन चुके हैं ––

मैं अकेला ही चला था जानिबे–मंज़िल मगर
लोग साथ आते गये और कारवां बनता गया।

इसी गज़ल का मक्ता भी ध्यान देने योग्य है। ये पंक्तियां अपनी शायरी के अवाम से रिश्तों की बाबत कवि के भरोसे का पता देती हैं। इस संसार में कोई विषय शाश्वत नहीं हैं। मेरे कलम ने जिस विषय को छू लिया, वह शाश्वत बन गया –

दहर में 'मजरूह' कोई जाविदां मज्मूं कहाँ
मैं जिसे छूता गया, वो जाविदां बनता गया।

हमें याद है कि प्रगतिशील आंदोलन के दौरान नारों की काफियापैमाई खूब हुई और शेर भी कहे गये। उस दौर के लगभग सब शायरों के यहाँ यह सिफत मिलेगी। समय की लंबी यात्रा के बाद छनकर कुछ शेर बचे रहते हैं और तात्कालितकता से उपजे नारों का सिर्फ ऐतिहासिक महत्व रह जाता है। मजरूह की खूबी यह है कि उन्होंने साम्राज्यवाद के विरोध में सामयिक हालात की अक्कासी की है, मास्को की तारीफ में शेर भी कहे हैं। मजरूह के कवि–व्यक्तित्व को समझने में इन तात्कालिक प्रतिक्रियाओं का अपना एक महत्व है। जैसे साम्राज्यवाद को संबोधित करके कहते हैं –

जबीं पर ताजे–ज़र, पहलू में जिंदाँ, बैंक छाती पर
उठेगा बेकफन कब ये जनाजा, हम भी देखेंगे।

यह शेर भले ही हमारी स्मृति में ज्यादा देर न टिक पाये लेकिन इससे इतना पता तो चलता ही है कि मजरूह का एक रूप यह भी है। आम तौर पर मजरूह शायरी की व्यंजकता और प्रभावोत्पादकता के हामी हैं। उनका यकीन है कि प्रगतिशील शायरी के कलात्मक उपादान भी ऐसे होने चाहिए कि शेर सुन या पढ़कर व्यक्ति के अंतर्मन के तार झनझना उठें, तभी रचना में निहित विचार ठीक से संप्रेषित हो सकेगा। मजरूह यदि जीवन विरोधी हालात में जिजीविषा की बात करते हैं और अपनी नियति को बदलने की प्रेरणा देते हैं तो उनकी यह तर्ज होती है –

देख जिंदाँ से परे रंगे–चमन, जोशे–बहार
रक्स करना है तो फिर पांव की जंजीर न देख।

मजरूह ने 'रक्स' किया और ' पाँव की जंजीर' को नहीं देखा, जिसकी कीमत उन्हें आजाद भारत में १९५१ ई. में जेल जाकर चुकानी पड़ी। एक साल की जेल काटी पर उनका बाँकपन बरकरार रहा –

सर पर हवा–ए–जुल्म चले सौ जतन के साथ
अपनी कुलाह कज है उसी बांकपन के साथ।

मजरूह ने बंबई की आर्थर रोड जेल में एक शेर कहा था –

जुनूने–दिल न सिर्फ इतना कि इक गुल पैरहन तक है
कदो–गैसू से अपना सिलसिला दारो–रसन तक है।

यह शेर मजरूह के दृष्टि–विस्तार और कला–वैविध्य का एहसास कराता है। वे एक ओर क्लासिकी शायरी को बँधे–टँके विषयों से बाहर लाते हैं, दूसरी ओर प्रगतिशील शायरी में कदो–गैसू (देह) को जगह देने की लोच पैदा करते हैं। उनके यहाँ जीवन का एक छोर दैहिक प्रेम से जुड़ा है तो दूसरा सूली और फाँसी से। यह शेर मजरूह का आत्मकथ्य है।

मजरूह एक काव्य–विधा के रूप में गज़ल की हिमायत के लिए याद किये जाएँगे। प्रगतिशीलों के एक हिस्से ने सामाजिक यथार्थ को रूपायित करने के ऐतबार से गज़ल के फार्म को नाकाफी करार दे दिया था। बयानिया शायरी बनाम गजल की बहस जोरों पर थी और कहा जाता था कि गजल विधा की चरम उपलब्धि मीर और गालिब की शायरी में सामने आ चुकी है, गजल ने अपने विकास की आखिरी मंजिलें तय कर ली हैं।

ऐसे में जिगर और फिराक ने तो नज्म भी कही है लेकिन मजरूह गजल को ही अपना वसीला बनाये रहे। मजरूह नज्म की शायरी को हेय नहीं समझते थे लेकिन उनका यकीन था कि जीवन में कुछ ऐसे मुकाम हैं, ऐसी मंजिले हैं, जहाँ सिर्फ गजल साथ देती है। जब कोई भाव–तरंग मन में उठेगी, वह अनायास शेर का आकार ले लेगी। मजरूह को प्रगतिशीलों के बीच गजल को स्वीकार्य बनाने के लिए खासी जद्दोजहद करनी पड़ी। उन्होंने गज़ल के विरोधियों से बहसें कीं। सज्जाद जहीर ने रौशनाई' में लिखा है कि 'कभी–कभी यह मालूम होता था कि इस बहस के काम में हिस्सा लेना ही उनके मानसिक विकास की शर्त है।' बहरहाल उन्होंने गजल के विरोधियों को अच्छी गजलें कहकर जवाब दिया। यहाँ तक कि उन्होंने अपने पहले संग्रह का नाम भी 'गजल' रखा। यह कहा जा सकता है कि मजरूह के साथ गज़ल प्रगतिशील रचना आंदोलन के बीच दोबारा प्रतिष्ठित हुई।

उर्दू के अलावा आज दूसरी भारतीय भाषाओं के रचनाकार गज़ल के साथ आ रहे हैं और कारवां बनता जा रहा है। मजरूह जिस परंपरा में आते हैं वह परंपरा अनेक धाराओं में विकासमान हैं।

२४ मई २००२

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