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संस्मरण

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क्या अधिकार था तुम्हें अमृत!
गीता वंद्योपाध्याय


 सचमुच कितनी सुंदर जोड़ी थी दोनों की! एक अमृत था तो दूसरी सुधा। एक को साहित्यिक संस्कार पिता से मिला था तो दूसरी को अपनी माँ से। वर्षों से जानती हूँ मैं अपने अमृत को, और सुधा को भी। सुभाष ने ही मिलाया था दोनों से। अमृत ओर सुभाष की दोस्ती बहुत पुरानी थी। वैसे, सुभाष का परिचय–क्षेत्र काफी बड़ा है लेकिन मित्रों का संसार उतना ही छोटा। बहुत ही छोटा। गिन कर तीन ही तो दोस्त हुए उसके। बचपन के मित्र रमाकांत मैत्र, जिनके साथ सुभाष ने अपने कवि–जीवन की शुरूआत की थी। संगीत शिल्पी हेमंत मुखोपाध्याय और अमृत राय।

बहुत दिन नहीं हुए। अभी हाल ही की तो बात है। कुछ ही महीनों पहले की। अमृत सुधा के साथ कलकत्ता आया हुआ था। बड़ा खुश था वह इस बार, पता नहीं क्यों। उससे पहले इतना खुश मैंने उसे कभी भी तो नहीं देखा था। हँसता तो खूब वह पहले भी था। उसकी हँसी से तो मेरे घर में आलोड़न होने लगता। पर हाँ, इस बार तो हँसने के साथ–साथ मैंने उसे पहले की अपेक्षा खुश होते अधिक पाया था। सचमुच अमृत का खुश रहना मेरे लिए बहुत बड़ी उपलब्धि थी। यह ठीक है कि अमृत और सुधा के ठहरने की व्यवस्था किसी दूसरी जगह पर होती पर अपना एक–एक क्षण हमारे साथ व्यतीत करने में उन्हें सुख मिलता। हमें भी तो मिलता। मेरा और अमृत का रिश्ताा तो मानों अटूट था। यह रिश्ता था एक अच्छे दोस्त का। एक अच्छे भाई–बहन का। और यह रिश्ता इतना गहरा था कि मैं उसके लिए अपने सारे महत्वपूर्ण काम छोड़ने को तैयार रहती। अमूमन ऐसा मैं करती नहीं हूँ। पर अमृत तो अमृत था। कलकत्ता शहर में पाँव रखते ही जैसे अपने हर काम में उसे मेरे सहयोग की अपेक्षा रहती। सुभाष से वह अक्सर कहा करता –– 'यार, तुम्हें कविता लिखना छोड़कर कुछ भी नहीं आता। गीता की तरह व्यवहारिक बनो। मेरी तरह बनो'। और उसकी बातें सुनकर सुभाष हँस देते। सच कहती हूँ! अमृत अपने आपको कितना भी क्यों न व्यवहारिक माने, पर था नहीं वैसा। वह अंदर से बड़ा ही नाजुक था, एक स्वच्छ मन का मानुष।

अपनी पिछली यात्रा में अमृत मेरे स्कूल में भी आया था। उसने स्कूल के बारे में एक–एक बात पूछी। मैं उसे बताती रहती और वह एक शिशु की तरह देखता और सुनता रहता। एक–एक बच्चे को पुचकारता रहता। उस दिन एक–एक अध्यापिका और कर्मचारी से वह बातें करता रहा। शेष में उसने कहा 'गीता सचमुच कितनी खुसकिस्मत हो तुम। इन बच्चों में रहकर खूब खुशियाँ बटोर रही हो। घर में भी बच्चों की पलटन और यहाँ भी उनकी फौज। कविता और क्या होती है। सुभाष तो कविता लिखता है और तुम उसे जीती हो।' यह कहते–कहते उसकी आँखों में आँसू छलक आए थे उस दिन ...और वह इलाहाबाद लौट गया था। उसके पहुँचते ही एक फोन आया। 'गीता, इस बार, तुम लोगों का साथ छोड़ने का मन ही नहीं कर रहा था। जितने दिनों तक तुम लोगों के साथ रहा, लगा, जैसे अपनों के बीच हूँ, अपने घर में हूँ। पर अब तो यहाँ बड़ा अकेला–अकेला सा लग रहा है।' मैंने, उस दिन अमृत से फोन पर ही कहा था कि जल्दी चले आओ। कुछ ही दिनों बाद फिर उसका फोन आया। 'क्या बात है गीता, कोई खोज–खबर नहीं लेती। इतना भी अकेला मत करो हमें।' उसकी बातें सुनकर मैं उस दिन हिल गई थी। और फिर एक दिन इलाहाबाद से एक फोन आया। यह उसकी पुत्रवधू राजू का था। उसने जो खबर सुनाई वह हमारे लिए असह्य थी। हम मानसिक रूप से इसे सुनने के लिए बिलकुल ही प्रस्तुत न थे। अमृत और सुधा दोनों गंभीर रूप से अस्वस्थ थे। इस खबर से हमेशा मन छटपटाता रहता। इसी बीच सुभाष भी बुरी तरह बीमार पड़े.। दो–दो बड़े आपरेशनों को उसे झेलना पड़ा। इधर सुभाष की अस्वस्थता और उधर अमृत और सुधा की बीमारी। मैं भी करती तो क्या। बार–बार मन बनाती ही रह गई, इलाहाबाद जाने का। समय ने मुझे विवश कर दिया और मैं कलकत्ता नहीं छोड़ पायी। और देखा, एक–एक कर सुधा और अमृत, दोनों, हमें छोड़कर चले गए। दोनों का चले जाना मेरे और सुभाष के लिए बहुत बड़ी व्यक्तिगत क्षति है।

अमृत को मैंने हँसते भी देखा था और रोते भी। मेरे घर एक लड़की थी। वह भोजन बनाया करती। वह भोजन भी बहुत बढ़िया बनाया करती। इत्तफाक से उसका भी नाम 'सुधा' था। यह नाम अमृत को बड़ा प्रिय था। वह कहता 'गीता, इलाहाबाद में भी सुधा के हाथों का बनाया भोजन मिलता है और तुम्हारे यहाँ भी। और जब वह लौटता तो उसके हाथों पर कुछ रख कर ही लौटता।

मैंने तो उसकी व्यथा के चरम को करीब से देखा है। उस बार तो अमृत बुरी तरह से टूट चुका था। आज से करीब 30 साल पहले की बात है यह। अमृत का छोटा मिठु बीमार था। उसे ब्लड कैंसर हो गया था। इलाहाबाद के सारे डाक्टरों ने जवाब दे दिया था। किसी ने अमृत को बताया था कि अब उसे किसी अच्छे होमियोपैथ से सलाह लेनी चाहिए। उसने इलाहाबाद से पत्र लिखा कि हम किसी अच्छे डाक्टर से समय ले लें। वह तुरंत आ रहा है। वह सुधा के साथ मिठु को लेकर यहाँ पहुँचा। बहुत बड़े विश्वास के साथ कि हम यहाँ हैं। एक के बाद एक होमियोपैथ और फिर एलोपैथ डाक्टरों को दिखाया गया। डाक्टरों की सलाह के अनुरूप चिकित्सा भी हुई। मिठु के साथ मैं हमेशा बैठी रहती। वह कविताएँ भी लिखता। डायरी भी लिखता। संगीत में भी उसकी काफी रूचि थी। वह मुझे हमेशा खोजता रहता। अमृत कहता 'गीता, तुम अधिक से अधिक समय मिठु को दो।' उस बार मैंने अमृत को बहुत कमजोर होते देखा था। वह इस शहर से निराश होकर लौटा था और मिठु को बम्बई लेकर चला गया था। सच कहती हूँ, एक रात मेरी नींद खुल गई। उस रात पता नहीं क्यों मैं बहुत अधिक विचलित थी। कारण मुझे पता नहीं चला। बाद में सूचना मिली कि उसी रात मिठु ने अपनी अंतिम सांस का परित्याग किया था।

बाद में एक बार मैंने उसकी चर्चा करते हुए अमृत से कहा था 'अमृत, मैंने मिठु की तस्वीर बड़े जतन से संभाल कर रखी है', यह सुनकर वह रोने लगा था, एक शिशु की तरह। उसी क्षण मैंने और सुभाष ने यह निर्णय लिया था कि अब कभी हम अमृत या सुधा से मिठु की चर्चा नहीं करेंगे।

तब सत्यजीत राय नहीं थे। अमृत कलकत्ता आया हुआ था। मैं और अमृत, दोनों सत्यजीत राय के घर गए। विजया राय ने अपने पति के बारे में एक–एक बात बताई, कहाँ बैठकर वे लिखते थे। कैसे काम करते थे। अमृत विजया दी की ओर देख रहा था और उसकी आँखों से आँसू बह रहे थे। उसकी दशा देखकर मैं और विजया दी दोनों भाव–विह्वल हो उठे थे उस दिन। कहने का अर्थ यह कि एक शिशु जैसा मन था उसका।

एक ही वर्ष सुभाष और अमृत दोनों को साहित्य अकादेमी का पुरस्कार मिला। उन दिनों अकादेमी पुरस्कार की बड़ी महत्ता हुआ करती थी। मैं अपनी बड़ी बेटी 'पूपे' को लेकर दिल्ली गई थी। उसे देखते ही अमृत बड़ा खुश हो गया था। पर सच तो यह था कि पूपे गई थी राधाकृष्णन को देखने। उसे यह भ्रम हो गया था कि राधाकृष्णन कोई राजा–महाराजा हैं। पर उस दिन उसका भी भ्रम टूटा था।

अमृत और सुधा दोनों शाकाहारी थे। पर हमें खुश करने के लिए अमृत कभी–कभी मछली भी खा लेता। उसे यह पता था कि सुभाष मछली के बिना नहीं रह सकते। वह भोजन बड़ी रूचि से करता। उसकी पसंद भी अद्भुत थी। एक–एक पदार्थ चुन–चुनकर वह खाता। और संकोची इतना कि कभी भी खुल कर नहीं कहता कि उसे क्या पसंद है। मैंने एक दिन उससे कहा कि अमृत तुम तो शाकाहारी हो, तुम्हारे लिए मैं आज एक विशेष प्रकार की दाल बनाती हूँ। मैंने दाल बनाई और वह भी अरहर की। चख कर उसने कहा कि गीता मैं यह दाल नहीं खाता। फिर सोचा दूसरे दिन दूसरे प्रकार की दाल बनाऊँ। बनाई भी और उसे परोसा। उसने चखा और फिर कहा 'गीता मैं यह दाल भी नहीं खाता, सुधा भी साथ थी। मैंने सुधा से कहा 'सुधा तुम भी खूब हो कि ऐसे आदमी के साथ घर कर रही हो। पता नहीं उसे क्या पसंद है।' उस दिन सुधा ने मुस्कुराते हुए कहा था 'अब न निभाऊँ तो क्या करूँ?'

अमृत कभी यह नहीं चाहता था कि उसकी पहचान समाज में उसके पिता के नाम से बने। पर एक बार उसकी सही पहचान स्पष्ट करने के लिए मुझे उसके पिता के नाम का सहारा लेना पड़ा था। अमृत कलकत्ता से इलाहाबाद लौट रहा था। मैं उसे गाड़ी तक छोड़ने गई। एक यात्री सज्जन ने अपनी बेटी को अमृत के आरक्षित बर्थ पर बैठा दिया था। बार–बार अनुरोध करने पर भी वे उस बर्थ को छोड़ना नहीं चाहते थे और यह दावा कर रहे थे कि वह उन्हीं की है। मुझे ऐसा लगा कि यदि मैंने कुछ नहीं किया तो अमृत इतना संकोची जीव है कि वह फर्श पर बैठकर इलाहाबाद तक चला जाएगा पर अपनी बर्थ की माँग नहीं करेगा। मैंने उस डिब्बे में बैठे मुसाफिरों को जब बताया कि ये प्रेमचन्द के पुत्र हैं तो बड़े आदर के साथ उन्हीं लोगों ने उसकी बर्थ खाली करवाने में भूमिका निभाई थी।

अमृतराय कई मामलों में बड़ा कठोर था। वह अपने लेखन के साथ कभी समझौता नहीं करता। मैंने उसे करीब से देखा है। सत्यजीत राय प्रेमचन्द की कहानी 'शतरंज के खिलाड़ी' पर फिल्म बना रहे थे। काम शुरू था। स्क्रिप्ट की तैयारी चल रही थी। अमृत आया हुआ था यहाँ। घंटों वह सत्यजीत राय के साथ बैठकर उन्हें परामर्श देता रहता और बड़ी गंभीरतापूर्वक देता। वह सुभाष से भी सलाह लेता और मुझे भी बताता – 'अगर ऐसा होता तो कैसा होता? गीता, मैं इस तरह से सोच रहा हूँ और सत्यजीत राय ऐसे सोच रहे हैं।'

एक बार हम लोग उड़ीसा गए हुए थे। वहाँ के लोगों ने प्रेम से एक पनडब्बा दिया था। बड़ा सुंदर था वह। हम लोगों ने उस पनडब्बे को संभाल कर रखा था। जब अमृत आया तो उसे दिया। जब–जब हम इलाहाबाद जाते तो उसे अमृत दिखाता और कहता 'गीता बड़ी अच्छी चीज दी है तुमने'। वह भी हमारे लिए सामान ले आता। हमारा संबंध तो पारिवारिक था।

और सुधा। वह तो इतनी सरल थी कि क्या कहूँ। सब कुछ समझती। पर कभी भी ऐसा दिखाने का प्रयास नहीं करती कि वह बहुत कुछ जानती है। शिशु साहित्य पर हम दोनों की बातें हुआ करती। सुधा का भी साहित्य संस्कार बड़ा पुष्ट था। एक अच्छी गृहिणी थी और थी एक अच्छी माँ।

अमृत का बांग्ला भाषा से बहुत अधिक लगाव था। वह जानता भी था। हम लोगों से तो वह बांग्ला में ही बातें करता। पत्र भी बांग्ला में ही लिखता। उसकी लिखावट से ऐसा नहीं लगता कि किसी अबंगाली की लिखावट है। अमृत अंग्रेजी बोलने से रहे।

एक बार कलकत्ता की एक बांग्ला भाषी संस्था ने अमृत का सम्मान किया। हम दोनों उस अनुष्ठान से लौट रहे थे। उस संस्था की स्थिति यह थी कि वर्षों बाद उसने किसी साहित्यकार का सम्मान किया था। मैंने अमृत से मजाक में कहा कि अमृत इस संस्था ने तुम्हारा सम्मान कर दिया, तुम बड़े भाग्यशाली हो। तुम्हारा सम्मान करके इस संस्था के लोगों ने आने वाले कई वर्षों का अपना काम पूरा कर लिया। अब देखना अगर हमारे जीवित रहते इन लोगों किसी रचनाकार का सम्मान किया तो हमारे लिए यह आज के तुम्हारे सम्मान से बड़ी बात होगी। शायद हम लोग जीवित रहते ऐसा नहीं देख पाएंगे। इस बात से अमृत इतना तेज हँसा कि टैक्सी ड्राइवर ने अपनी गाड़ी अचानक रोक दी। उसने सोचा कि मामला क्या है। ऐसा था अमृत। उसकी हँसी आज भी मैं नहीं भूल पाती।

सचमुच अमृत चला गया। हमें रिक्त कर गया। मेरे घर की सारी खुशियाँ समेट कर लेता गया। उसी ने तो दी थी ये खुशियाँ। किसने दिया था उसे यह हक?
मैं भी माँगती हूँ अपना हक। मुझे अमृत की हँसी और सुधा की मुस्कराहट कोई लौटा सकता है?

२४ अक्तूबर २००२

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