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संस्मरण

दीपावली के दीयों से सजा दिवाली नगर का मुख्यद्वार1
त्रिनिडाड की जगमगाती दीवाली और
अकेलेपन से लड़ता मैं
डॉ. प्रेम जनमेजय
 


टिमटिमाते दीपावली के दीये, आस–पास साड़ियों और कुरते पायजामे में सजी सँवरी नारियाँ, भारतीय परिधान पहन स्वयं को गौरवान्वित अनुभव करते प्रफुल्लित नर, आतिशबाजी से अपना मनोरंजन करते बच्चे, और सड़क पर कंधे से कंधा टकराती दीपावली के दीयों सी जगमगाती भीड़। दीवाली नगर में प्रतिदिन शाम पाँच घंटे आठ दिन तक लगातार चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम, हजारों की संख्या में उमड़ती भीड़— यह मैं भारत के किसी क्षेत्र से आँखों देखा हाल सुनाने की तैयारी नहीं कर रहा हूँ अपितु भारत से हजारों मील दूर एक नन्हे से द्वीप त्रिनिडाड में भारत से अत्यधिक प्यार करने वाले भारतीय मूल के लोगों के दीपावली के प्रति उत्साह का वर्णन कर रहा हूँ।

सन २००० के अक्टूबर माह की पहली तारीख। मेरी पत्नी आशा और बेटा विदित त्रिनिडाड से भारत के लिए रवाना हो गए और अकेलेपन से लड़ने के लिए मुझे छोड़ गए। पानी में प्यासी मीन, थाने में ऊपरी कमाई न पाने वाले थानेदार, भ्रष्टाचार निरोधक मंत्रालय में ईमानदारी की कमाई खाने को विवश अधिकारी और बीस बरस तक पुरस्कार समिति का सदस्य होकर भी स्वयं को पुरस्कार न दे सकने वाले को जो जान सकता है वो दीपावली के इस उजाले में मेरे अकेलेपन की अँधेरी विवशता को समझ सकता है। कहते हैं कि दूध का जला छाछ को भी फूँक–फूँक कर पीता है और मैं ऐसा दूध का जला था कि जो दोबारा जलने को तैयार था। जनवरी १९९९ में जब मैं त्रिनिडाड पहली बार आया तो अकेला ही था और यह देश मेरे लिए पूरी तरह अजनबी था। परिचय के कुछ नाम मैं जानता था पर मिला किसी से नहीं था। न सड़कें न लोग, कुछ भी परिचित नहीं था। मेरे परिवार का भारत जाना एक विवशता थी और इस विवशता ने दूध को जलने के लिए भी विवश किया। इस बार अकेले रहने मे ये तसल्ली अवश्य थी कि यह देश अब मेरे लिए अपरिचित नहीं हैं।

अनेक परिवार ऐसे हैं जिनके यहाँ आना जाना है। घर में कम्प्यूटर है वायस चैट और ई मेल करने के लिए। पर उस दिल का कोई क्या करे जो उदास होने के बहाने ढूँढ लेता हो, जो दिल तनिक भी अकेलापन भाते ही किसी की तलाश में जुट जाता हो। पर हमारे यहाँ इस तरह की परिस्थितियों के लिए अनेक मुहावरे हैं – मजबूरी का नाम महात्मा गांधी, चुनाव का मतलब कुछ बदमाशों में से एक को देश सेवा के लिए चुनना, साहब के आगे हाँ जी हाँ जी करना, पुरस्कार समिति के सदस्य या अफसरी साहित्यकार की निकृष्ट कृति को चार चाँद लगाना आदि आदि। इन मुहावरों का मैंने भी सहारा लिया और अकेलेपन से लड़ने की तैयारी में जुट गया।

यह मेरे लिए पिछले इक्यावन वर्षों में पहला अवसर था जब मैं अकेला दीपावली मनाने की 'तैयारी' में जुट गया था। लोग दीवाली अपनों के साथ मनाने की तैयारी में जुटते हैं और मैं...। मुझे इस तैयारी में जुटाने में पत्नी की एक महत्त्वपूर्ण भूमिका थी। दीपावली त्रिनिडाडवासियों का एक महत्त्वपूर्ण त्योहार हैं जिसे वे बड़ी धूमधाम से मनाते हैं और पत्नी इस धूमधाम का १९९९ की दीपावली के अवसर पर अनुभव कर चुकी थी। दीपावली से पंद्रह दिन पहले और तीन चार दिन बाद तक दीपावली के कार्यक्रमों में सम्मिलित होते होते वह जैसे थक गई थी और इसी थकान ने उसे विश्वास दिलाया था, एक तसल्ली दी थी कि दीपावली के अवसर पर मैं थक तो सकता हूँ, उदास नहीं रह सकता।

प्रसाद साहित्य का विशेष प्रशंसक होने के बावजूद मैंने नियतिवादी विचारधारा को स्वयं पर हावी नहीं होने दिया है। परन्तु पिछले कुछ वर्षो में घटित घटनाओं ने मुझे लगातार विवश करने का प्रयत्न किया है कि मैं प्रसाद की इस धारणा पर विश्वास करूं कि अनेक बार हम जाना कहीं चाहते हैं और नियति हमें नाक पकड़कर कहीं और ले जाती है। मुझे लगता है कि सन् १९९९ में त्रिनिडाड और टुबैगो में अतिथि आचार्य के रूप में मेरी नियुक्ति सम्भवतः मुझे नियति के विश्वास के मार्ग पर चलाने का नियति–चक्र है। न चाहते हुए भी मैंने अनेक कर्म-कुकर्म नहीं किए हैं, अनेक ऐसे स्थानों पर गया और अनेक ऐसे लोगों से मिला हूँ जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। बार–बार मेरे जीवन में घटित घटनाएँ जैसे मुझे नियतिवादी होने को विवश कर रही हैं। और अब मेरी स्थिति यह है कि मैं नियतिवाद का पूर्णतः विरोधी नहीं हूँ। अब मैं नियति पर इस स्तर तक विश्वास करता हूँ कि कर्महीन न हो जाउँ और कर्मवाद पर इतना विश्वास करता हूँ अहंकारी होकर असीम शक्ति को न भूल जाउँ। मेरी पत्नी का भारत जाना और जीवन में पहली बार परिवार से अलग दीपावली मनाना सम्भवतः नियति का एक ऐसा ही चक्र था।

जीवन में पहली बार विदेश में १९९९ की दीपावली के नन्हें दीये जैसे मुझे चुनौती दे रहे थे कि आओ और इस अकेलेपन के अंधेरे से लड़कर दिखाओ। मेरी इस लड़ाई को मेरी हिन्दी की एक छात्रा लक्ष्मी ने जैसे लक्षित कर लिया और मुझसे जैसे वचन लेते हुए बोली कि दीपावली की रात मैं उसके परिवार के साथ उसके घर फिलसिटि में दीपावली मनाऊँगा, अकेले नहीं। अंधा क्या चाहे दो आँखें, संसद सदस्य क्या चाहे मंत्रालय में स्थान और थानेदार क्या चाहे रेड लाईट ऐरिया में पोस्टिंग। मैंने हाँ कह दी। लक्ष्मी के परिवार में उसकी माँ सोना, पिता रघुननन के अतिरिक्त भाई विवेक, बहने शकुन्तला और नलिनि हैं तथा दो और बहने कैनेडा में रहती हैं। पूरा परिवार शाकाहारी, धार्मिक और भारतवर्ष के प्रति विशेष भक्तिभाव रखने वाला है। त्रिनिडाड में रघुनंदन परिवार जैसे अनेक ऐसे परिवार हैं जो भारतीयों के सामने नतमस्तक हो जाते हैं। भारत से पधारे व्यक्ति को देखकर मन श्रद्धा से भर जाता है और उसके लिए कुछ भी करने को तैयार हो जाता है।

दीवाली पर ख़रीदारी करती महिलाएँमैं सन २००० की त्रिनिडाड में अपने दीपावली के अनुभव को नहीं भूल सकता हूँ। शाम सात बजे अपने घर, ४५ पॉम रोड वालसायन में अकेला दीपावली की पूजा कर और दीये जलाकर और भारत में अपने परिवार को यह तसल्ली दिलाकर कि मैं यहाँ खुश हूँ, दीवाली नगर की ओर चल दिया जहाँ मुझे मुम्बई से आए अपने मित्र सत्यनारायण मौर्य के साथ लक्ष्मी के घर जाना था। इससे पहले मैं कभी लक्ष्मी के घर नहीं गया था इसलिए तय हुआ कि लक्ष्मी दीवाली नगर आ जाएगी और हम उसके साथ कार में अनुकरण करते उसके घर पहुँच जाएँगे।

मैं सवा सात बजे दीवाली नगर पहुँच गया, दीवाली नगर आठ दिन की हलचल के बाद थका–सा शान्त, कार्य समाप्ति संतोष को मुख पर समेटे मुस्करा–सा रहा था। मौर्य मुख्यद्वार पर मेरी प्रतीक्षा कर रहा था पर लक्ष्मी अभी नहीं आई थी। आज दीवाली थी और हम दीवाली नगर के मुख्यद्वार पर थे अतः हमें लक्ष्मी की प्रतीक्षा करनी ही थी। आधे घंटे बाद लक्ष्मी आई, कार से उतरते ही भीड़ के कारण देर से आने की क्षमा माँगती। लक्ष्मी बहुत ही विनम्र, विश्वासी और संकोची है। हमने अधिक विलम्ब करना उचित नहीं समझा इसलिए फिलसिटि के लिए खुशी खुशी रवाना हो गए, क्योंकि फिलसिटी का अर्थ ही है खुशियों का शहर। पाँच मिनट बाद हमारी कार रेंगने सी लगी और मैं समझ गया कि हम फिलसिटी की सीमा रेखा पर हैं।

वैसे तो मेरे घर से ही जगमगाते हुए घर दिखाने आरम्भ हो गए थे पर इक्का दुक्का परन्तु फिलसिटि में प्रवेश करते ही जगमगाते घरों का सिलसिला आरम्भ हो गया। इक्का दुक्का घर होगा जो नहीं जगमगा रहा था। सड़क के दोनों ओर जगमगाते घरों को देखकर लग ही नहीं रहा था कि मैं भारत से हजारों मील दूर किसी द्वीप में अकेला हूँ। यहाँ दीपावली की भीड़ वीरान के सहारे, या गाँव के किनारे वाले मंदिर की तरह अकेला नहीं छोड़ रही थी अपितु अपना हिस्सा बना रही थी। कार चलाने की विवशता ध्यान को ज्यादा नहीं बँटने दे रही थी पर मन बार बार फुदककर इस भीड़ का हिस्सा बनने को लालायित हो रहा था। कब लक्ष्मी का घर आएगा और कब हम कार पार्क करेंगे और इस जीवन्त भीड़ का हिस्सा बनेंगे।

मेरे साथ मौर्य भी आश्चर्यचकित मंत्रमुग्ध बैठा था। ऐसे अवसर कम आते हैं जब मौर्य चुप बैठा हो। मौर्य बहुत ही अच्छा चित्रकार और कवि है। उसे नेशनल काऊंसिल फॉर कल्चरल लिरेशन, विशेष रूप से दीपावली पर निमंत्रित करती है। मौर्य ने बहुत ही कम समय में त्रिनिडाड के लोगों के दिल में स्थान बना लिया है। प्रधानमंत्री समेत सभी ने उसके कार्य की प्रशंसा की है। इस वर्ष मौर्य द्वारा संयोजित भारत के भौतिकी, रसायन, गणित आदि क्षेत्रों में महत्त्वपूर्ण योगदान को विभिन्न प्रमाणिक उद्धरणों के माध्यम प्रदर्शित किया गया है जिसे देखकर भारतीय उच्चायुक्त वीरेन्द्र गुप्ता, जो स्वयं विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं, गदगद हो गए। ऐसे ज्ञानी ध्यानी मौर्य को फिनसिटी की दीपावली ने शान्त कर दिया था।

पीमारे रोड पर स्थित लक्ष्मी के आवास पर हमारी कार पहुँची और पूरा परिवार स्वागत के लिए बाहर आ गया। हमें एक छोटे से कमरे में बिठाया गया और भारतीय परम्परा के अनुकूल और त्रिनिडाड परम्परा के प्रतिकूल बिना माँगे पानी दिया गया। इसके पश्चात नाश्ते के नामपर प्लेटभरकर संहीना, गुलाबजामुन, बरफी, खुरमा आदि परोस दिए गए। मेरा मन खाने से अधिक बाहर की धूमधाम में स्वयं को सम्मिलित करना चाहता था पर हमारे मेजबानों का मन भारतीय परम्परा का पालन करते हुए खाने के माध्यम से अपना अपनत्व उड़ेलना चाहता था।

हमें इस विश्वास की रक्षा करनी थी। वैसे भी आवभगत किसे अच्छी नहीं लगती है। लौटकर खाना भी खाना था इसलिए नाश्ते पर अधिक समय न लगाते हुए हम बाहर आ गए। मैंने घड़ी में समय देखा, दीपावली की रात के आठ बजे थे और दीपावली की रात किसी नई दुल्हन सी सोलह शृंगार किए मुस्करा रही थी। यह समय का अजब चक्र है कि भारत में दीपावली गहमा गहमी के बाद सुख की नींद ले चुकी थी और त्रिनिडाड में अभी अँगड़ाई ले रही थी।

लक्ष्मी के घर से नाश्ता कर के बाहर निकले तो चारों ओर सड़क पर सिर ही सिर दिखाई दे रहे थे। रेंगती हुई कारों ने झूम दिया जैसे मैं दिल्ली के सर्वाधिक व्यस्त बाजार करौलबाग में हूँ। जिधर भी निगाह जाती बाँस के द्वारा बनाई गई विभिन्न आकृतियों पर दीये जगमगाते मिलते। एक दूसरे से बतियाते, दीपावली की खुशियाँ बिखेरते, भारतीय परिधानों में सँवरे लोग। चारों ओर दीयों की झिलमिल मुस्कराहट के बीच से निकलते हुए लग रहा था जैसे आकाशगंगा के छिटके सितारों के बीच मंद मंद दूधिया प्रकाश में लिपटे हुए चले जा रहे हैं। लगभग हर घर संगीत की मधुर ध्वनियाँ बिखेर रहा था। कहीं से भजनों का अमृत बरस रहा था और कहीं से किसी हिन्दी फिल्म का चर्चित गीत सड़क पर चलने वाली भीड़ के कदमों को थिरका रहा था। हर घर दीपावली के दीये का प्रकाश बिखेर रहा था और इस पर जब मैंने चकित निगाह से लक्ष्मी के भाई विवेक की ओर प्रशंसात्मक और कुछ प्रश्नात्मक दृष्टि से देखा तो वह बोला, "भैया, फिलसिटी में सौ प्रतिशत हिंदू परिवार रहते हैं, इसलिए आपको हर घर जगमगाता मिलेगा।" विवेक की बात को आगे बढ़ाते हुए शकुन्तला ने कहा कि और गुरू जी जिस घर में दीये नहीं जल रहे हैं वहाँ किसी की मृत्यु हुई है। फिलसिटि जैसा ही आधुनिक गाँव सेंट हेलेना है जहाँ इसी उत्साह के साथ दीपावली मनाई जाती है।

नृत्यांजलि की प्रस्तुति राम कथाफिलसिटि की सड़कों पर गुरू जी नमस्कार, शुभ दीपावली कहकर अपने हिन्दी ज्ञान पर प्रसन्न होते और मुझे प्रसन्न करते मेरे अनेक हिन्दी विद्यार्थी मिले। केवल भारतीय मूल के चेहरे ही दीपावली को अपने अनुभव का हिस्सा नहीं बना रहे थे अपितु विभिन्न देशों के चकित चेहरे इसे एक अंतर्राष्ट्रीय त्योहार बना रहे थे। इस बीच रामनरेश मिल गए। रामनरेश भारतीय संगीत के अच्छे जानकार और प्रेमी हैं। वैसे ऐसे प्रेमी आपको त्रिनिडाड में अनेक मिल जाएँगे। वे रामनरेश मौर्य के अच्छे मित्र हैं और मुझसे भी पहले मिल चुके थे। बोले कि उनके घर तो चलना ही होगा। मेरा मन घर जाने का नहीं था क्योंकि मैं दीपावली की इस अद्भुत रात के हर क्षण को अपने अन्दर समेट लेना चाहता था। पर मौर्य ने भी आग्रह किया अतः हम उनके घर गए, भारी भरकम नाश्ता किया और शुरू हो गई संगीत की महफिल। एक के बाद एक गज़ल भजन और फिल्मी गानों का जो सिलसिला चला वो दो घंटे बाद समाप्त हुआ। रात के ग्यारह बजने वाले थे और अगले दिन छुट्टी भी नहीं थी फिर भी सड़के अपने रंग बिखेर रही थी। लोग अब भी मुस्कान बिखेर रहे थे, मद्धम पड़ते दीये अपनी जिजीविषा को अभिव्यक्त कर रहे थे। काली तारकोल की सड़कें अब भी जगमगाते दीयों का प्रकाश अपने में प्रतिबिम्बित किये स्वयं को विशिष्ट अनुभव कर रही थी।

दीपावली ही एकमात्र ऐसा भारतीय त्योहार है जिसके अवसर पर त्रिनिडाड और टुबैगो में सार्वजनिक अवकाश घोषित होता है और उसी दिन मनाया जाता है वरना फगवा, होली, राखी, शिवरात्री आदि त्योहार उस दिन न मनाकर आनेवाले रविवार को मनाए जाते हैं।

सारा त्रिनिडाड एक मनचाही उत्सव धर्मिता से सराबोर हो जाता है। पिछले दो तीन बरसों में बहुत परिवर्तन आया है। भारत जैसी चहल पहल तो नहीं होती पर हजारों मील दूर ऐसा होता होगा इसकी कल्पना यहाँ आने से पहले मैं नहीं कर सकता था। इतना जानता था कि अनेक अनिवासी भारतीय एन.आर.आई, जिसकी बात कुछ सज्जन, न रहा इंडियन कह कर करते हैं, अपनी अस्मिता को बचाए रखने, अपने अकेलेपन को दूर करने और मिट्टी की गंध को महसूसने के लिए इस तरह के आयोजन करते हैं। परन्तु वहाँ के निवासी इतने उत्साह के साथ त्योहार मनाते हैं इसे पहली बार देखा और महसूस किया।

दीपावली के आने से एक माह पहले ही त्रिनिडाड दीपावलीमय होने की प्रक्रिया में बँध जाता है। नवरात्र आरम्भ होते ही एक माह के व्रत आरम्भ हो जाते हैं। यहाँ अधिकांश के लिए व्रत का अर्थ है एक माह के लिए मांसाहार को तिलांजलि। मुझे जब मेरे एक विद्यार्थी ने बताया कि दीपावली पर हम उपवास रखते हैं तो मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। हम भारतीयों के लिए तो ये त्योहार मौज और मस्ती का वैसे ही है जैसे इसाईयों के लिए बड़ा दिन – धार्मिक यानि खाओ पीओ और ऐश करो।

दीपावली के दिन या उससे कुछ पहले लगभग प्रत्येक हिन्दू – परिवार पंडित को बुलाकर पूजा का आयोजन करता है। इन दिनों पंडित किसी वी.आई.पी. से कम नही होते हैं और उन्हें पकड़ पाना कठिन होता है। दीपावली के दिन अधिकांश पूरे दिन का उपवास रखते हैं, जिसे वे शाम छह बजे मंत्रोच्चारण के साथ तोड़ते हैं। लक्ष्मी पूजन का त्रिनिडाडीय समय शाम छह और सात के बीच है। इस समय देश के मुख्य दूरदर्शन चैनल तथा विभिन्न एफ.एम. चैनल पर पंडित जी पूजा करते हैं, मंत्रोच्चारण करते हैं जिससे जो पूजा विधि नहीं जानते वो साथ साथ कर सके।

वस्तुतः त्योहार तो अपने रंग में आते हैं, परन्तु उस रंग में जीने के लिए एक जिंदा मन चाहिए। वे तो हमें एक अवसर प्रदान करते हैं कि लोग अपने रंगहीन और मायूस जीवन को एक सही दिशा दे सकें और ऐसी ही दिशा देने का प्रयत्न कर रही थी त्रिनिडाड की दीपावली।

विदेश में किसी स्थान का नाम दीवाली नगर सुनकर भारतीय मन उत्साह से भर जाता है, लगता है जैसे अपनत्व का वसंत बिखेरे कोई बुला रहा है। दीवाली नगर के प्रांगण में एक सप्ताह पहले दीपावली के कार्यक्रमों का शुभारम्भ हो जाता है। दीवाली नगर, त्रिनिडाड के भारतीय मूल के लोगों का सांस्कृतिक स्थल। नाम दीवाली नगर है पर यहाँ होली भी खेली जाती है। दीवाली नगर के द्वार पर पहुँचते ही द्वार से लगभग तीस गज दूर, मध्य में स्थित शिव की मूर्ति आने वाले को समझा देती है कि वह कहाँ आ रहा है।

यदि आप शिव की मूर्ति को प्रणाम करें या करे बिना भी चले जाएँ तो आप दीवाली नगर के मुख्य हाल में प्रवेश कर जाएँगे। वातानुकूलित इस हाल के चारों ओर गलियारा है जिसमें हिन्दू धर्म और संस्कृति की जानकारी देने वाली चित्र प्रदर्शनी लगी रहती है। दीवाली नगर के हाल में लगभग ५०० व्यक्तियों के बैठने की व्यवस्था है। सामने एक मंच है जिसकी बाई ओर तुलसीदास का रामचरितमानस लिखते बड़ा चित्र है और दाईं ओर सरस्वती का चित्र है। मध्य में विशाल आयताकार चित्र जिसके सामने के भाग में पहाड़ के सामने, समुद्र के किनारे शिवलिंग के सामने हाथ जोड़े दो भक्त हैं और किनारे पर बनारस शिव मन्दिर। यदि कोई बड़ा आयोजन हो तो बाहर खुले में तम्बू लगाकर किया जाता है। दीवाली के अवसर पर कार्यक्रम के उद्घाटन से लेकर समापन तक के सभी सांस्कृतिक कार्यक्रम दीवाली नगर की बायीं ओर बने खुले मैदान में तम्बू लगा कर होते हैं। त्रिनिडाड के दो ही मौसम हैं –

जनवरी से मई तक ड्राई यानी सूखा मौसम और जून से दिसम्बर तक वेट यानि गीला मौसम। दीवाली बरसात के गीले मौसम में ही आती है और त्रिनिडाड की भव्य अनेक चीजों की तरह बरसात पर भी विश्वास नहीं किया जा सकता हैं। इससे बचने के लिए तम्बूओं का तनना आवश्यक हो जाता है। दीवाली नगर में सात रात लगातार चार–पाँच घंटे के सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत किए जाते हैं और कहा जा सकता है कि इस अवसर पर त्रिनिडाड की प्रत्येक प्रमुख संस्था अपना कार्यक्रम प्रस्तुत करती है। कार्यक्रमों का स्तर अत्यंत ही बढ़िया होता है। सन् २००१ की दीवाली के पहले दिन के कार्यक्रम पर भारतीय उच्चायुक्त विरेन्द्र गुप्ता की पत्नी वीणा गुप्ता ने अपने शास्त्रीय भजन से श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर लिया। दीवाली नगर में आयोजित प्रत्येक कार्यक्रम श्रोताओं को बाँधने की क्षमता रखता है। सांस्कृतिक कार्यक्रमों के अतिरिक्त दीवाली नगर के प्रांगण में मेले खाने पीने, पहनने, सौंदर्य–प्रसाधन आदि के सुसज्जित स्टाल दर्शकों को अपनी ओर लुभावने नारों से बुलाते हैं। भारतीय वस्तुओं के स्टाल पर अद्भुत भीड़ होती है। उद्घाटन और समापन कार्यक्रम का टी.वी. दूरदर्शन पर सीधा प्रसारण होता है। इसके अतिरिक्त लगभग चारों एफ.एम. स्टेशन इसका सीधा प्रसारण करते हैं। दीवाली नगर में आयोजित दीवाली कार्यक्रमों में प्रधानमंत्री समेत देश के सभी गणमान्य व्यक्ति आते हैं। नेशनल काऊँसिल फॉर कल्चरल रिलेशन के अध्यक्ष देवकीननन शर्मा और दीवाली नगर के अध्यक्ष बेनी बालकरण के नेतृत्व में संस्था बहुत अच्छे कार्यक्रम आयोजित कर रही है।

२००१ की दीपावली इस अर्थ में भी विशिष्ट रही की सत बालकरणसिंह की संस्था नृत्यांजली ने भारत की संस्था श्रीराम भारतीय कलाकेन्द्र की तर्ज पर राम कथा को नृत्य की शैली में प्रस्तुत यह राम कथा अपनी सीमाओं में एक अच्छी प्रस्तुति थी। ऐसी ही प्रस्तुति सान्द्रा सुखदेव की संस्था ने दीवाली नगर में की जिसे दर्शकों की विशेष प्रशंसा मिली। इन प्रस्तुतियों के विषय में फिर कभी विस्तार से लिखने का मन है।

इस बार भारतीय उच्चायोग में बड़े धूमधाम के साथ दीपावली का आयोजन किया गया। नमकीन लस्सी और पना को लोग चाव से पी रहे हैं, तथा कचौरी, ढोकला, समोसा, नारियल बरफी, गाजर बरफी आदि बड़े चाव से खा रहे हैं। विभिन्न दूतावासों, मंत्रालयों और व्यवसायों से उपस्थित विशिष्ट अतिथि भारतीय पकवानों का आनन्द उठा रहे हैं। चारों ओर दीये झिलमिला रहे हैं और आतिशबाजी के समय प्रधानमंत्री वासुदेव पांडेय और उनकी पत्नी उमा पांडेय फुलझड़ी को गोलाई में घुमाते हुए जैसे बचपन में लौट गए हैं। सिल्क की कमीज पहने भारतीय उच्चायुक्त वीरेन्द्र गुप्ता और सिल्क की साड़ी में सजी रंगीन सादगी को बिखेरती उनकी पत्नी वीणा गुप्ता मुस्कराकर प्रत्येक अतिथि का स्वागत कर रहे हैं। व्यक्तिगत रूप से निरीक्षण कर रहे हैं कि सबको खाने पीने को मिल रहा है कि नहीं।

वेस्ट इंडिज विश्वविद्यालय भी दीपावली की जगमगाहट से अछूता नहीं है। यू.वी हिन्दू सोसायटी की ओर से जे.एफ.के सभागार में आयोजित दीपावली उत्सव के मुख्य अतिथि त्रिनिडाड और टुबैगो सरकार में मंत्री सादिक बख्श थे और तीन घंटे चलने वाले सांस्कृतिक कार्यक्रम को देखने के लिए एक हजार की सीटों वाला सभागार तो भरा ही था साथ ही उतने ही लोग बाहर से कार्यक्रमों का आनंद ले रहे थे। बीच बीच में फूटते पटाखे और आयोजकों द्वारा ऐसा न करने का माईक पर प्रार्थना – स्वर वातावरण को जीवन्त कर रहा था। इसके अतिरिक्त ' हिन्दी–क्लब' और क्रियेटिव आर्ट सेंटर ने भी दीपावली के कार्यक्रम आयोजित किए। इस प्रकार के आयोजन त्रिनिडाड में ऐसा वातावरण प्रस्तुत करते हैं कि लगता है जैसे भारत अपने लघु आकार में जिंदा हो गया। त्रिनिडाड का हर कोना दीयों से जगमगा उठता है। आजकल दीवाली के दीयों के साथ साथ चुनावी गर्मी भी है इसलिए त्योहार के नाम पर नेता अपने मतदाताओं को लुभाने में नहीं चूकते हैं।

दुकानों पर महीने पहले दीपावली की सेल आरम्भ हो चुकी है। समाचार पत्र दीपावली के समाचारों से भरे हुए हैं। एफ.एम. स्टेशन विशेषकर ९१.५ और १०६ दीपावली के गीत भजन चर्चाएँ प्रसारित कर रहे हैं। हंस हनुमान सिंह, सुमीता ब्रूम्स, डी जे मामू, फैज अलि आदि अच्छे से अच्छे कार्यक्रम प्रस्तुत करने की होड़ में हैं।

त्रिनिडाड की लगभग हर संस्था किसी न किसी रूप में दीवाली मना रही है। आप इसी से अन्दाजा लगा सकते हैं कि बहुत चुनाव करने के बाद भी भारतीय उच्चायुक्त को पूरे एक माह तक अपनी शाम त्रिनिडाड के किसी न किसी दीपावली कार्यक्रम के नाम करनी पड़ती है। जहाँ वो नहीं जा पाते वहाँ उनका काऊँसलर राजेन्द्र भगत समेत उच्चायोग के भव्य अधिकारी गण प्रतिनिधित्व करते हैं।

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चित्र में : दिवाली नगर के प्रांगण में बएँ से प्रधान मंत्री की पत्नी उमा पाण्डेय, प्रेम जन्मेजय, प्रधानमंत्री बासदेव पाण्डेय, नेशनल काऊँसिल आफ कल्चरल रिलेशन के अध्यक्ष देवकीननन शर्मा


सनातन धर्म महासभा, आर्य प्रतिनिधि सभा, कबीर निधि, हिन्दू प्रचार केन्द्र, फ्रेंड्स ऑफ इंडिया सोसायटी, कबीर चौरा, चिन्मय आश्रम, राजयोग सेंटर, जैसी अनेक संस्थाएँ हैं जो दीपावली कार्यक्रमों का भव्य आयोजन करती हैं और यदि मैं इन सबके द्वारा आयोजित कार्यक्रमों का वर्णन करने लग जाऊँ तो उसे आप अगली दीपावली तक पढ़ते रह जाएँगे।

१६ नवंबर २००१

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