जो कहते थे कि जीते रहिये
यश मालवीय
अमर
उजाला से प्रभात जी का फोन पाकर सन्न रह गया हूँ। हिन्दी
का एक जुझारू योद्धा नेपथ्य में चला गया है। शैलेश मटियानी
नहीं रहे। एक देह धरा स्वाभिमान अदृश्य हो गया है। साहित्य
का एक–एक सजग सिपाही अब हमें अपनी रचनाओं में ही दिखा
करेगा। निराला भी इसी तरह तिल–तिलकर मिटे थे। अपना हिन्दी
समाज बड़ी आसानी से लेखक के दिमागी संतुलन पर सवालिया निशान
लगा देता रहा है। मटियानी भी इसके अपवाद नहीं थे।
मटियानी जी की साँस–साँस में साहित्य था। उनकी शिराओं में
रक्त तरह प्रवाहित होती थी सृजनशीलता। उनकी भंगिमा में
कहानियाँ सजती थीं। भाषा और राष्ट्रीय अस्मिता पर उनका
अपना सर्वथा मौलिक चिंतन था। उनसे असहमत तो
हुआ जा सकता था, पर उनकी
ईमानदारी, निष्ठा और नीयत पर शक की कोई गुंजाइश नहीं होती
थी। वह श्रमजीवी साहित्यकार थे, उन्हें साहित्य का
'होलटाइमर' भी कह सकते हैं.। उन्होंने अंतिम साँस तक लिखा।
अभी पिछले सप्ताह ही गिरिराज किशोर के संपादन में ही उनकी
लगभग पचहत्तर पृष्ठों की एक लंबी और बेहद मार्मिक कहानी
'नदी किनारे का गाँव' प्रकाशित हुई है। गिरिराज किशोर ने
अपने संपादकीय में लिखा है कि 'मटियानी जी ने जब विकल्प
निकाला था और वह किसी को आजीवन सदस्य बनाते थे तो इस बात
का खुलासा कर देते थे कि आपकी सदस्यता का संबंध आपके जीवन
से नहीं पत्रिका के जीवन से है।'
अस्वस्थता के बाद भी मटियानी जी की रचनात्मक जिजीविषा
विलक्षण थी। सच पूछिये तो एक रचनाकार की छटपटाहट ने ही
उन्हें पिछले दस–बारह वर्षों से जिंदा रखा हुआ था, अन्यथा
बेटे की .मृत्यु के बाद से तो वह टूट ही गए थे। कभी–कभी
शोले वाले ए के हंगल को याद करते थे और कहते थे कि 'सचमुच
बहुत बड़ा अभिशाप है, बाप के कंधे पर बेटे का जनाजा।'
मेरे छोटे भाई वसु मालवीय से प्रायः कहते थे 'यार! तुम तो
मेरी बिरादरी के हो, कहानियाँ लिखते हो। यश तो कविता के
शार्टकट से साहित्य की वैतरणी पार करने में लगा है।' वसु
के असामयिक निधन पर उन्होंने पत्र लिखा था कि बंबई तो जीते
जी भी मार डालती है। वसु बंबई में थे मुझे कमलेश्वर से पता
चला था। बंबई क्या है यह तो तुम खराद्द पर बंबई में' पढ़
चुके हो। वसु के न रहने पर मेरा एक बेटा चला गया है।'
मटियानी जी से कक्षा
सात में पहली बार एजी आफिस के बाहर यादव जी की कैंटीन पर
पिता उमाकांत मालवीय ने मिलवाया था। मटियानी जी ने उस दिन
'माँ' पर लिखी अपनी एक छोटी सी कविता सुनाई थी। कविता तो
याद नहीं पर उनकी आँखों में टिमटिमा आए आँसू आज भी याद
हैं। माँ का रिश्ता पिता जी और मटियानी जी दोनों की ही
संवेदना का एक विशेष बिंदु था। शायद उन्हीं दिनों मटियानी
जी की माँ का देहांत हुआ था।
मेरे प्रकाशक और मटियानी जी के अंतिम दिनों के प्रकाशक
संयोग से एक ही हैं। आशु प्रकाशन के डा. अभय मित्र के आवास
पर अक्सर उनसे भेंट हो जाया करती थी। एक दिन कथाकार
रवींद्र कालिया से हुई मुकदमेबाजी के बारे में चर्चा चल
निकली, मुस्कराते हुए बोले हम दोनों के बीच कुछ अंतर्विरोध
हो गए हैं। तुम कालिया जी के भी प्रिय हो और मेरे भी, समय
आया तो तुम यह अंतर्विरोध दूर कर सकते हो। वैसे भी नई पीढ़ी
भला क्या नहीं कर सकती? बच्चे बड़े–बड़े काम कर लेते हैं।
सुखद आश्चर्य का विषय यह है कि मामला सुप्रीम कोर्ट तक
जाने के बाद भी बातचीत के क्रम में न मैंने कभी कालिया जी
को कटु होते देखा और न ही मटियानी जी को कटु पाया।
उन दिनों डा. अभय मित्र मेरा पहला गीत संग्रह प्रकाशित कर
रहे थे। मुझे गीत संग्रह का कोई सटीक नाम नहीं सूझ रहा था।
उन्हीं दिनों मेरी एक लंबी कविता 'कहीं सदाशिव' लघु
पत्रिका 'कल के लिए' में प्रकाशित हुई थी। मटियानी जी ने
वह कविता पढ़ रखी थी। उन्होंने कहा संग्रह का नाम इसी एक
कविता के नाम पर दो। इस कविता में कथारस भी है।
छायावादी नाम दोगे तो ठीक नहीं रहेगा। तुम्हारे गीत
अधुनातन बोध के हैं।
मैंने अपना हल्का सा संकोच उनके सामने रखा। मैंने कहा यह
तो किसी उपन्यास के नाम जैसा लगता है। यह सुनकर उन्होंने
कहा और भी अच्छी बात है। किताब के लिए इससे अधिक नवीनता की
बात और क्या होगी। नवगीत की किताब में नवीनता तो होनी ही
चाहिए। आकार के बाद उनकी एक नयी कहानी हंस के अगले अंक में
भी आ रही है। जिसे वह इस बार गंभीर रूप से अस्वस्थ होने के
सप्ताह भर पहले पूरी करके राजेंद्र यादव को 'डिस्पैच' भी
कर चुके थे।
राष्ट्रभाषा का सवाल
उन्हें मथता रहता था। हिन्दी के प्रति उनका लगाव किसी
जिंदा इंसान से लगाव रखने जैसा ही था, हिन्दी उनके लिए एक
मूल्य जैसी हैसियत रखती थी, जिसे वह लेखक की हैसियत से
जोड़कर देखते थे। वही उनकी रोटी भी थी, जिसे मंगलेश डबराल
'लेखक की रोटी' कहते हैं। कवि अजामिल की पंक्तियाँ याद आती
हैं – 'मैं एक ऐसी कविता लिखना चाहता हूँ जिसे रोटी में
तब्दील कर सकूँ।' सचमुच मटियानी जी ऐसी कहानियाँ लिखते थे,
जिसे रोटी में भी तब्दील करना होता था। मटियानी जी लिखते
थे तो उनके घर चूल्हा जलता था।
वह एक मजदूर की तरह लिखते थे। उनके खाते में असंख्य
कहानियाँ हैं। पाप मुक्ति तथा अन्य कहानियाँ, सुहागिनी तथा
अन्य कहानियाँ, सफर पर जाने से पहले जैसे कहानी संग्रहों
के अलावा उगते सूरज की किरन, भागे हुए लोग, बर्फ गिर चुकने
के बाद, बावन नदियों का संगम, जैसे उपन्यास इस वक्त
स्मृतियों में आवाज देकर पुकार रहे हैं। किताबों पर अपनी
उँगलियों से सार्थक शिकन देने वाला एक रचनाकार का हाथ हवा
में हीं कहीं बिखर गया है। उसकी रचनाओं की सुगंध वातावरण
में है। मटियानी जी के समय–समय पर प्रकाशित होने वाले
विचारोत्तेजक लेख भी जैसे खामोश हो गए हैं। उनके जाने पर
लग रहा है जैसे कोई एक दुआ कहीं खो गई है। एक शेर मन में
टीसता हुआ उभर रहा है – रास्तों! कहाँ गए वो लोग जो
आते–जाते, मेरे आदाब पे कहते थे कि जीते रहिए।
१ मई २००१
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