करुणा
की मूर्ति – महादेवी
डॉ
सुरेशचंद्र शुक्ल
सन १९६८–६९
की घटना मुझे याद आ रही है जो कभी मैं भुला नहीं सकता। मैं
कक्षा नौ का विद्यार्थी था। समाचारपत्र में पढ़ा कि लखनऊ में
स्थित उ.प्र. सूचनाकेन्द्र में आभा अवस्थी की गुड़ियों की
प्रदर्शनी लगेगी। महादेवी वर्मा उस प्रदर्शनी का उद्घाटन
करेंगी। तभी पड़ोसी साहित्यप्रेमी हरिप्रसाद यादव के साथ उस
सन्ध्या को महादेवी से मिलने की इच्छा से प्रदर्शनी में जाने
की योजना बनायी। मेरे मन में विचार आया कि इतनी प्रसिद्ध
साहित्यकार हैं उन्हें देने के लिए कुछ तो होना चाहिये। मैंने
गोपीनाथ लक्ष्मणदास रस्तोगी महाविद्यालय से गुलाब के फूल डंठल
सहित तोड़े। हरिप्रसाद मेरे साथ किन्तु कुछ दूर खड़े थे।
उन्होंने मुझसे कहा था कि क्या पता तुम भी आगे चलकर एक अच्छे
लेखक बनो। मुझे हँसी आ गयी। उस समय मुझे जरा सा भी ज्ञान नहीं
था कि आगे चलकर मैं भी लेखन से जुड़ा रहूँगा। क्योंकि परिवार की
आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी, निरन्तर अध्ययन कर पाऊँगा या नहीं
यह भी ज्ञात नहीं था। पर कविता सृजन चलता रहा।
गुलाब के डंठल साफ करते–करते मेरे हाथों में अनेक काँटे चुभ
गये थे। जो स्वाभाविक था। एक नया उत्साह था। फिर डंठल को साफ
किया कि कहीं महादेवी को काँटा न चुभ जाये। जब सूचनाकेन्द्र
पहुँचा तो देखा कि प्रसिद्ध कथाकार अमृतलाल नागर और अन्य
साहित्यकार, शिक्षाविद और पत्रकार वहाँ उपस्थित थे। नागर ने
पैर छूकर व माल्यार्पण कर महादेवी का सम्मान किया था। जब मैं
पुष्प भेंट करने आगे बढ़ा तब नागराज और एक अन्य व्यक्ति ने मुझे
रोका। मेरा फूल भेंट करना उनके कार्यक्रम में नहीं था। जब फूल
बहुत श्रद्धा से लाया था तब भला भेंट करने से कैसे चूकता। कुछ
कवितायें सुन्दर लिखावट में लिखकर लाया था जिनमें अन्त में
अपना पता लिखा था। वे कविताएँ और फूल महादेवी को भेंट कर दिये
थे। महादेवी ने मुझे पास बुलाकर गले लगाया और कहा बड़े
क्रान्तिकारी लगते हो। मैं शरमा गया। मुझे लगा जो व्यक्ति मुझे
हटा रहे थे, थोड़ा शर्मिंदा हो गये थे जो मुस्करा कर मेरी ओर
देखते हुए अपनी शर्मिंदगी कम कर रहे थे। उद्घाटन भाषण
देते–देते वह रो पड़ी थीं। उनका जीवन गुड़िया–गुड्डे का खेल बनकर
रह गया था। जिन्होंने बचपन में गुड़िया–गुड्डों के ब्याह रचाये
उन्हीं महादेवी ने कभी अपना वैवाहिक जीवन का सुख नहीं जाना।
करुणा की कवयित्री और क्रान्तिकारी
व्यक्तित्व
चाहे स्वतन्त्रता संग्राम रहा हो, चाहे शराब की दुकान हटने का
धरना रहा हो, महादेवी ने सक्रिय भूमिका निभायी थी। मुंशी
प्रेमचन्द के पुत्र सुभद्रा कुमारी चौहान की पुत्री से विवाह
करना चाहते थे। उन दिनों विवाहों में जात पात का अधिक बोलबाला
था। हरिवंश राय बच्चन को भी अपनी जात में विवाह न करने के कारण
परिवारजनों सहित अनेकों की अवहेलना झेलनी पड़ी थी। महादेवी ने
सुभद्रा कुमारी चौहान को पत्र लिखा था। महादेवी की कवितायें
भले ही प्रेम–करुणा से सराबोर थीं पर उनका व्यक्तित्व
क्रान्तिकारी रहा है।
महादेवी द्वारा लिखी जाने वाली भूमिका
से वंचित रह गया
सन १९८४ में सुप्रसिद्ध कथाकार जैनेन्द्र कुमारजी के सम्पर्क
में आया। वह अपने बेटे प्रदीप के साथ मिलकर 'सर्वोदय प्रकाशन'
चलाते थे। उनके पास मैं अपने दूसरे काव्यसंग्रह 'रजनी' की
पाण्डुलिपि लेकर प्रकाशन के लिए गया था। साप्ताहिक हिन्दुस्तान
के एक लेखक हमारे साथ थे। वह पुस्तक छापने के लिए राजी हो गये
थे। यह तय हुआ था कि जैनेन्द्रजी महादेवीजी से रजनी की भूमिका
लिखायेंगे। इस सम्बन्ध में वह लखनऊ की एक कवियित्री श्रीमती
सुमित्रा कुमारी या प्रेम कुमारी सिन्हा को लिखेंगे और मेरी
पाण्डुलिपि भेजेंगे जो स्वयं महादेवी जी से भूमिका लिखाने
जाती। मुझे बहुत सुखद लग रहा थ। प्रदीपजी ने पुस्तक प्रकाशन की
एक शर्त रखी थी। दूसरे दिन मुझे वह शर्त ठीक न लगी। जिन लेखक
के साथ गया था उन्होंने कहा कि हाँ कर दो भले ही वह शर्त पूरी
न करो। मैं जैनेन्द्र जी से झूठ नहीं बोल सकता था। मैंने मना
कर दिया और महादेवीजी की भूमिका से वंचित रह गया। जैनेन्द्रजी
से बहुत आत्मीयता हो गयी थी। जब भी दिल्ली जाता उनके जीवित
रहते उनके घर जाता रहा। अपने काँपते हाथों से उन्होंने मेरी
कहानियों पर अपनी सम्मति लिखी थी।
तीसरे विश्वहिन्दी सम्मेलन से वंचित रहा
अपने अंग्रेज मित्र फिन थीसेन (प्रेमचन्द) हिन्दी और बहुभाषी
विद्वान (वर्तमान में ओसलो विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं)
के साथ दिल्ली में सम्पन्न हुए तीसरे विश्व हिन्दी सम्मेलन में
जाना चाहता था। उस सम्मेलन में मुझे विदेशों में हिन्दी पर
बोलना था और मैं नार्वे से प्रकाशित होने वाली प्रथम पत्रिका
'परिचय' का सम्पादक था। फिन थीसेन गये थे परन्तु मैं नहीं जा
सका था। यदि गया होता तो महादेवी जी व अन्य वरिष्ठ लेखकों से
मुलाकात हो जाती।
घरौंदे में अब कोई पंख नहीं फँसेगा
मुझे आभाजी की जीवन शैली महादेवी जैसी लगी। दीन दुखियों से
प्रेम। दूसरों के लिए समर्पित जीवन, गरीब और सामाजिक शोषित
महिलाओं के लिए चिन्तित। उनके पिता विद्वान हरेकृष्ण अवस्थी,
बहन डा. विभा अवस्थी सभी ने सम्पूर्ण जीवन शिक्षा देने में
अर्पित कर दिया। कोई बड़ी बात नहीं कि इनके जीवन में महादेवी
वर्मा की जीवन शैली से प्रभाव पड़ा हो।
पिछले वर्ष अप्रैल सन २००० की बात है। मैं लखनऊ विश्वविद्यालय
में समाजशास्त्र विभाग की विभागाध्यक्ष और लेखिका सुश्री डा.
आभा अवस्थी से मिलने गया था जिनके परिवार से महादेवी के घरेलू
सम्बन्ध थे। बातों ही बातों में आभाजी से अपने प्रकाशित काव्य
संग्रह पर चर्चा करते हुए १७ अप्रैल को लखनऊ विधानसभा अध्यक्ष
और हिन्दी के सशक्त कवि केशरीनाथ त्रिपाठी द्वारा लोकार्पण
करने की सूचना देते हुए उस पर समीक्षा के लिए आग्रह किया और
कहा, "आपके घर का नाम 'घरौंदा' है और मेरे काव्य संग्रह का नाम
है 'नीड़ में फँसे पंख।' उन्होंने मनोविनोद से एक कलाकार की तरह
कहा, "इस घरौंदे में अब कोई पंख नहीं फँसेगा।'
७ अप्रैल सन २००० को विधानसभा में मेरी पुस्तक पर चर्चा करते
समय उन्होंने महादेवीजी का स्मरण किया था और मेरी चर्चा की थी।
आभाजी का घरौंदा आज भी गुड़ियों और अन्य कलाकृतियों से सजा है।
महादेवी जी भले ही दुनिया में नहीं हैं परन्तु उनकी कवितायें
और स्मृतियाँ सदा उनका समरण कराती रहेंगी। उनकी एक पंक्ति में
उनके जीवन का पूरा दर्शन छिपा था, 'पंथ रहने दो अपरिचित प्राण
रहने दो अकेला।'
१ अगस्त
२००१ |