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संस्मरण

२४ अप्रैल, रामधारी सिंह 'दिनकर' की पुण्यतिथि के अवसर पर

 


लाल कमल तुझे नमस्कार है
- डा आई पी चेलीशेव


जब मैं रामधारीसिंह दिनकर के बारे में सोचता हूँ, तब उनके साथ पहली मुलाकात का स्मरण ही आता है। मुझे याद आती है, सन १९५५ के वसंत में, दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित, लगभग एक लाख लोगों की विशाल जनसभा, जो प्रथम सोवियत प्रतिनिधि मंडल की भारत-यात्रा के उपलक्ष में हुई थी। पंडित जवाहरलाल नेहरू सोवियत और भारतीय झंडों से सुसज्जित मंच पर खड़े थे और उनके पास ही खड़े थे, दीर्घकाय प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले दिनकर जी, अपनी दूध-सी सफेद भूषा में। "लाल कमल तुझे नमस्कार है" अपनी सशक्त वाणी में उन्होंने अपनी कविता आरंभ की और पूरा मैदान गूँज उठा था - "सोवियत संघ और भारत एक-दूसरे से घनिष्ठ रूप में संबद्ध हैं। इनकी नियति भिन्न है, लेकिन इनके सपने एक-जैसे हैं!" कुछ यही भाव था, उनकी कविता का। सभा के बाद मैं उनसे मिला और हमने देर तक, भारतीय और सोवियत साहित्य के विषय में चर्चा की। दिनकरजी ने अपने कई कविता-संग्रह मुझे भेंट किये। बाद में मैंने उनकी कुछ कविताओं को भारतीय कवियों की रचनाओं के साथ प्रथम संकलन में सम्मिलित किया जो १९५६ में मास्को से खुदो जेस्तवेन्नाया लितेरातूरा नामक राजकीय प्रकाशन गृह में प्रकाशित हुआ था।

दिनकरजी के साथ, मेरा दो दशक तक हार्दिक मैत्रीपूर्ण संबंध रहा तथा मैं इसके लिए उनका आभारी हूँ कि उन्होंने भारत को और भी अच्छी तरह से समझने तथा भारत की सांस्कृतिक संपदा को गहराई से जानने में मेरी बड़ी मदद की। मेरे पास समय-समय से, उनके भेजे हुए अनेक पत्र और उनके हस्ताक्षर युक्त उनकी अनेक पुस्तकें, आज भी सुरक्षित हैं।

मुझे गर्व है कि अपने देश में मैं सर्वप्रथम रहा हूँ, जिसने छठे दशक में दिनकर की रचनाओं का अध्ययन शुरू किया तथा उनके और उनके काव्य के बारे में लिखना शुरू किया। सन १९६१ में सोवियत संघ की विज्ञान अकादमी के प्राच्यविद्या संस्थान ने, एक स्नातक एस. त्रुब्निकोवा को दिनकर की रचनाओं के गंभीर अध्ययन के लिए भारत भेजा। सन १९६४ में उन्होंने अपना शोधप्रबंध प्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक था - आधुनिक हिंदी काव्य के विकास में दिनकर का योगदान। इस ग्रंथ के कुछ अध्याय, पत्र-पत्रिकाओं तथा साहित्यिक संकलनों में भी प्रकाशित हुए। उसी समय से हमारे देश में दिनकर की कविताओं का प्रचार शुरू हुआ। उनकी कुछ कविताएँ पत्रिकाओं में तथा काव्य-संकलनों में भी प्रकाशित हुईं। १९६५ में मास्को के प्रगति प्रकाशन गृह से दिनकर की कविताओं का एक संकलन नील कमल के नाम से प्रकाशित हुआ। दिनकर हमें क्यों आकर्षित करते थे, उनका काव्य पुराना क्यों नहीं पड़ता था, कैसे वह काल की परीक्षा में सही उतर रहा है? दिनकर के कृतित्व का अध्ययन करने के लिये अनेक भारतीय विद्वानों ने इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत किया। हम सोवियत अध्येता और विद्वान, जो सोवियत संघ में दिनकर की साहित्यिक विरासत के अध्ययन में और उसे लोकप्रिय बनाने में व्यस्त हैं, हम भी इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए प्रयत्नशील हैं।

दिनकर सच्चे राष्ट्रीय कवि थे उनके कृतित्व का लोकस्वरूप इस तथ्य से उजागर है, कि उसमें भारतीय जनगण के स्वप्न और आकांक्षाओं को अभिव्यक्ति मिली है, हर प्रकार के उत्पीडन के विरूद्ध - औपनिवेशिक, सामंती, पूंजीवादी और साम्राज्यवादी उत्पीड़न के विरूद्ध उसके संघर्ष को अभिव्यक्ति मिली है। उनका काव्य अपनी समसामयिक चेतना की दृष्टि से, अपने आस-पास घटित होनेवाली वस्तुस्थिति के प्रति सचेतना की दृष्टि से उल्लेखनीय है। उन्होंने अपने आपको कभी भी अपनी आंतरिक भावनाओं के बंधन में नही बंधने दया। मनुष्य के प्रति, उसके भविष्य के प्रति सतत चिंताशील इस कवि ने हमेशा अपने जनगण के प्रति, समस्त मानवजाति के प्रति अपने आपको संपूर्णता के साथ समर्पित किया।

दिनकर की रचनाओं का लोकस्वरूप इस तथ्य से भी स्पष्ट है, कि वे हमेशा अपने देशवासियों के समीप रहे तथा अपने देश में सामाजिक और राजनैतिक जीवन के केंद्र में संघर्षरत रहे। वे एक बड़े प्रभावशाली वक्ता थे तथा अपनी कविताओं का भी बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से पाठ करते थे। मैं उस आनंद और उत्साह को कभी नहीं भूल सकूँगा, जो उनकी रचनाओं को सुनते समय भारतीयजनों द्वारा अभिव्यक्त किया जाता था।

वे एक समर्पित देशभक्त थे तथा उन्होंने अपनी समस्त शक्ति और योग्यता का सर्वश्रेष्ठ, हमेशा अपने देश और अपनी जनता की सेवा में लगाया। उन्हें भारत की संस्कृतिक परंपरा पर बड़ा ही गर्व था तथा वे सामाजिक प्रगति के ध्येय को आगे बढ़ाने के लिए, अपने संघर्ष के निमित्त उसी से शक्ति ग्रहण करते थे। उनकी रचनाएं अपने स्वरूप और विषय की दृष्टि से अत्यंत राष्ट्रीय हैं। इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने महान राष्ट्रीय हिंदी साहित्य के निर्माण और विकास में बड़ा महत्वपूर्ण योगदान किया। शब्दों के समुचित प्रयोग, उपमाओं की विविधता, भाषा की चित्रात्मकता, अनायास अभिव्यक्ति और प्रभावपूर्ण शब्दयोजना तथा अभिव्यक्ति की मौलिकता आदि ऐसी उल्लेखनीय विशेषताएं हैं, जो दिनकर के काव्य की, असाधारण लोकप्रियता का मुख्य कारण है।

हिंदी की शास्त्रीय परंपरा से अविभाज्य रूप में संबद्ध होते हुए भी दिनकर ने अपने आपको, केवल अपनी भाषा की काव्य-परंपरा तक ही सीमित नहीं रखा। वे अखिल भारतीय स्तर के कवि थे और उन्होंने भारत के बहुभाषीय साहित्य के रचनात्मक अनुभव से अपने आपको संबद्ध रखा तथा उसकी सर्वोत्तम उपलब्धियों से प्रेरणा ग्रहण की। रवीन्द्रनाथ टैगोर का आदर्श-मानवतावाद, दिनकर को बहुत प्रिय था और यह उन्हें अपनी निजी मान्यताओं के अनुरूप प्रतीत होता था। दिनकर का मानवतावाद अमृत के अनुरूप प्रतीत होता था। दिनकर के काव्य का गहन मानवतावाद और मानव के अमरत्व में उनका दृढ़ विश्वास टैगोर के जीवन देवता की अवधारणा के बहुत कुछ समान था। मुझे १९६१ में टैगोर शताब्दी के अवसर पर साहित्य अकादमी में आयोजित एक अंतर्राष्ट्रीय परिसंवाद में दिया गया, उनका ओजस्वी भाषण स्मरण है, जिसमें उन्होंने टैगोर को अपना काव्यगुरू बताया था।

टैगोर और इकबाल की भांति ही दिनकर ने कभी भी संकीर्ण राष्ट्रवाद का समर्थन नहीं किया। उनकी रचनाओं की राष्ट्रीयता हमेशा अविभाज्य रूप से अंतर्राष्ट्रीयता से जुड़ी रही। उन्होंने देश और देशवासियों के प्रति प्रेम को, पृथ्वी के समस्त मानवों के प्रति गहरे प्रेम के साथ जोड़ लिया था। संसार में कहीं भी और किसी भी रूप में हिंसा और आक्रमण के प्रकट होने पर, वे चुप नहीं बैठ सकते थे।

अपने काव्यों में उन्होंने जो नवीन और प्रयोगशील रूप प्रस्तुत किये हैं, उनके पीछे काव्यस्वरूप, भाषा और हिंदी-काव्य शैली के नये विचारों, नयी भावनाओं और मनस्थिति की अभिव्यक्ति के लिए कवि के रूप में उनके संघर्ष की ही प्रतिछाया अंकित है। उन्होंने नये कार्यरूपों, छंदों और शैलियों की रचना की है।

अपनी आरंभिक रचनाओं में ही, कवि दिनकर ने क्रांति की देवी - क्रांति कुमारी - से प्रार्थना की थी कि उनमें एक ऐसी क्रांतिकारी अग्नि प्रज्वलित कर दे, जिसमें निर्धनों और अंकिंचनों का सारा दुख और कष्ट जलकर भस्म हो जाए। हिमालय शीर्षक अपनी एक कविता में, जो मेरी दृष्टि में दिनकर की एक सर्वोत्तम रचना है, कवि अपनी मातृभूमि से पूछता है कि उसका वह प्राचीन गौरव कहाँ गया, उसकी संतानों के अमर कार्यों को आज क्यों भुला दिया गया है। भारतीय जनता की आत्मिक शक्ति की महानता तथा स्वतंत्रता और स्वाधीनता के संघर्ष के लिए, उसके अदम्य आत्मबल के प्रतीक हिमालय को संबोधित करते हुए कवि इस प्राचीन पर्वत का सदियों को निद्रा त्याग कर जागृत होने के लिए आह्वान करता है। कवि पूर्व में उन प्रथम किरणों का दर्शन करता है जो संसार के इस सबसे ऊंचे पर्वतराज को जगा रही हैं।

सोवियत-भारत मैत्री के प्रतीक दिनकर का नाम सोवियत - जनगण को इसीलिए विशेष प्रिय है, क्यों कि उन्होंने सोवियत-भारत मैत्री के स्थायित्व की घोषणा की है। ये बहुत पहले औपनिवेशिक पराधीनता के वर्षों में ही, लेनिन की उस छवि की ओर उन्मुख हुए थे जो सोवियत - जनगण को इतनी प्रिय है। उन्होंने लिखा था कि लेनिन का हृदय उस पवित्र ज्वाला से दैदीप्यमान है, जिसने समस्त संसार में क्रांति की ज्योति प्रज्वलित की है। हम दिनकर की प्रसिद्ध कविता मास्को और दिल्ली से भी बखूबी परिचित हैं, जो १९४५ में लिखी गयी थी।

मेरे विचार में समस्त हिंदी-काव्य जगत में, यह कविता अपनी ओजस्विता के लिए उल्लेखनीय है तथा इसमें अक्तूबर क्रांति के विचारों की महानता को, बड़े सशक्त ढंग से, अभिव्यक्ति किया गया है, और नाजीवाद पर सोवियत जनगण की विजय के विश्व महत्व को रेखांकित किया गया है। दिनकर ने संसार में सोवियतों के प्रथम देश की राजधानी को उगते हुए सूरज के देश की राजधानी कहा है।

मेरे विचारों में आम जनगण की महान शक्ति की आह्लादमय अनुभूति में, उनके गौरव के प्रति हार्दिक प्रशंसा-भाव में ही दिनकर और मायाकोव्स्की की समानता, उजागर होती हुई नजर आती है। मायाकोव्स्की की कविता की भांति ही, दिनकर की कविता में भी क्रंतिकारी अभियान का लयबद्ध प्रयाण सुनायी देता है। दिनकर की रचनाएं, हमें मायाकोव्स्की द्वारा प्रयुक्त उपमाओं की याद दिला देती है।

सन १९६१ में साहित्य अकादमी के प्रतिनिधिमंडल के नेता के रूप में जब दिनकरजी ने मास्को की यात्रा की थी, तब हमने विस्तार के साथ मायाकोव्स्की के बारे में चर्चा की थी। तब मुझसे दिनकरजी ने कहा था, "मेरी बड़ी इच्छा है कि मैं हिंदी में मायाकोव्स्की का अनुवाद करूँ। उनकी कविताओं के हिंदी और अंग्रेजी में जो अनुवाद उपलब्ध हैं, उनसे मैं संतुष्ट नहीं हूँ। मायाकोव्स्की भावना के धरातल पर, मेरे बहुत समीप हैं, और मेरा विचार है कि हिंदी भाषा के माध्यम से मायाकोव्स्की के काव्य को शाब्दिक रूप में ही नहीं, बल्कि उनकी क्रांतिकारी भावना को भी ठीक-ठीक अभिव्यक्त कर सकूँगा।" लेकिन जहाँ तक मुझे पता है दिनकर की यह इच्छा पूरी नहीं हुई।

अपने इस छोटे-से निबंध को मैं उनके इन शब्दों के साथ समाप्त करना चाहता हूँ जो उन्होंने अपने काव्यग्रंथ नील कमल के रूसी अनुवाद के प्रकाशन के समय सोवियत पाठकों को संबोधित करते हुए लिखे थे "१९६१ के शरद में अपनी सोवियत यात्रा के दौरान मास्को, लेनिनग्राद, येरेवान और ताशकंद के कवियों और लेखकों ने जिस स्नेह और मैत्रीभाव के साथ हमारा स्वागत किया था उसका स्मरण मुझे बहुत ही सुखद लगता है। सोवियत जनगण के प्रति और सोवियत साहित्यकारों के प्रति, मेरे हृदय में बड़ी गहरी श्रद्धा है। भारत और सोवियत संघ की मैत्री, सदा अमर रहे।

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