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संस्मरण

 

जीवन सत्य के उद्घोषक कवि थे - केदारनाथ
नरेन्द्र पुण्डरीक


मेरा केदार जी से सर्वप्रथम परिचय एक वकील के रूप में हुआ। तब मैं आठवी में गौरमेन्ट स्कूल में गाँव से पैदल पढ़ने आता था। हमारे स्कूल जाने का शार्टकट रास्ता कचहरी के बीच से था सो आते-जाते हम काठ की कुर्सियों व लकड़ी के तख्तों में बैठे या इधर उधर आते-जाते काले कोट धारी वकीलों को देखा करते थे।

बांदा की कचहरी तब आज की तरह बड़ी नहीं थी, फुर्र से दौड़ कर हम लोग इस पार से उस पार निकल जाते थे। कचहरी छोटी थी लेकिन मुकदमे इतने बड़े-बड़े चलते थे कि जिनकी धमक दूर-दूर के गाँवों से लेकर आसपास जिलों तक सुनाई देती थी।

एक-एक वकील के पीछे मुवक्किलों की लंबी कतारें चलती थीं, इस समय बांदा के वकीलों को दूसरे जिलों के कचहरियों में मुकदमा लड़ने के लिए बुलाया जाता था। तब बड़े वकील दो-दो तीन-तीन मुंशी रखते थे जो बस्ता बाँधे हुये वकीलों के पीछे दौड़ते थे, उनके पीछे मुवक्किलों का कारवाँ चलता था।

वकील एवं वकालत की बड़ी साख मानी जाती थी। जिस घर में कोई वकील होता था वह प्रभावशाली परिवार माना जाता था। आज मुंशी तो सिरे से गायब हैं गधे के सींग की तरह, आज वकील ही मुंशी बने हैं और मुंशी वकील बने हैं। जो कचहरी में वकीलों को चराते देखे जा सकते हैं।

केदार जी को मैंने दूसरे वकीलों की तरह कभी खाली-मूली बैठे नहीं देखा, न मुवक्किलों के लिए कभी परेशान देखा। न कभी उन्हें मुवक्किलों को फाँसते देखा। मैं अपने एक पारिवारिक मुकदमें में पूरे साल भर माह में उनके पास दो-तीन बार तारीख लेने के लिए जाता था। कचेहरी में मुझे वे कम ही मिलें, वे घर पर ही मिलते थे, घर कचेहरी के पास ही था बस स्टाप के पीछे, तब भी उनका घर ऐसा था जैसा आज है। मेरे पहुँचने पर वे अपने मुंशी फैयाजुद्दीन को संकेत करते, मुंशी अपने चश्में के भीतर से मुझे देखता और डायरी खोल कर तारीख बता देता। मुंशी फैयाजुद्दीन ऐसे मुंशी थे जिन्होंने केदार जी के साथ वकालत छोड़ देने के बाद किसी दूसरे वकील के साथ मुंशीगीरी करना गवारा नहीं किया। मुंशीगीरी ही छोड़ दी।

सन ६३-६४ में केदार जी सरकारी वकील बनाए गए, उनके सरकारी वकील बनने के बाद भी उनके रवैये, रहन-सहन,बोल-चाल, मिलने-जुलने में कोई परिवर्तन नहीं आया। हाँ, पुलिस की आवा-जाही, सलाम-फटीक ज़रूर बढ़ गई। लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं था। यह अपना कार्य अपनी प्रकृति के अनुसार ही करते रहे। आम आदमी के लिए कानून से लड़ते रहे।

"चाकुओं की सदारत में
सलाम ठोकते
प्यासा आदमी
कब्र से उठा खून के इंतज़ार में
खड़ा है।"

गरीब को न्याय दिलाने के लिए छटपटाते रहें। इस छटपटाहट में ही यह कविता लिखी -

"कोई नहीं सुनता
झरी पत्तियों की झिर झिरी
न पत्तियों के पिता पेड़
न पेड़ों के मूलाधार पहाड़।"

१९७३ में केदार जी ने अखिल भारतीय स्तर पर प्रगतिशील लेखकों का बांदा में एक सम्मेलन बुलाया। लंबे समय से चले आ रहे लेखकों के बीच फैले सन्नाटे को तोड़ा। संगठन को एक नई गति प्रदान की। फलत: इसके बाद देश में दूसरी जगहों में प्रगतिशील लेखक संघ की अधिवेशनों की शुरुआत हुई। इस समय मैं इण्टर में पढ़ता था। सम्मेलन की धमक सारे शहर में थी स्कूलों में थी। यह वह समय था जब जिले के सभी विधायक एवं सांसद सी.पी.आई. के थे। वे सभी किसी न किसी रूप में सहायता दे रहे थे।

प्रशासन काफी परेशान था, वह चिन्तित था कि देश भर के कम्युनिस्ट लेखक यहाँ एकजूट हो रहे हैं। कुछ बवाल न हो जाय। इस समय 'धन और धरती बँटकर रहेगी' का नारा बुजुर्वा लोगों की नींद हराम किये रहता था। कम्युनिस्ट विचारधारा के लोग उन्हें पे्रत की तरह दिखाई देते थे। मेरे बड़े भाई जगत नारायण शास्त्री भी इस लेखक सम्मेलन में केदार जी के सहयोगी थे। उस समय वे घर में इस सम्मेलन की चर्चा किया करते थे। सो इस समय मैंने जाना कि वह वकील साहब जिनके पास मैं तारीख लेने जाता था वही कवि केदार नाथ अग्रवाल हैं।

इस समय मैंने लिखना शुरू नहीं किया था लेकिन साहित्य पढ़ने में विशेष रुचि थी। घर में पढ़ने, पढ़ाने का माहौल था, घर में कुल साहित्य की पुस्तकें थीं लेकिन उस समय निकलने वाली लगभग सभी पत्रिकायें, हिन्दुस्तान, धर्मयुग, सारिका, दिनमान, निहारिका, कादम्बिनी पत्रिकायें घर में आती थीं। फलत: साहित्य के पठन-पाठन की तरफ़ मेरी रुचि बढ़ी, जो समय पढ़ने एवं घर के कार्यों से बचता वह इन पत्रिकाओं के साहित्य की किताबों के बीच गुज़रता, अचानक मेरी पढ़ाई रुक गई।

रोज़गार की तलाश में कई शहरों में भटका, जगह-जगह की धूल छानी, दीन-दुनियाँ के बहुत कटु अनुभव हुए - अन्त में अपनी छूटी धरती से जुड़ा। उसने मुझे अपने आगोश में ही रोटी का जुगाड़ किया, नौकरी मिली। छूटी हुई पढ़ाई पूरी की। नौकरी के शुरुआती दिनों में रामकृष्ण विकलेश से मुलाकात हुई जो मेरे ही विभाग में कार्यरत थे। वे साहित्यिक रुचि के थे, स्वयं कवितायें भी लिखते थे, साहित्य के प्रति मेरी रुचि एवं विचारों को जान कर मुझे कविता लिखने की तरफ़ खींचा, इसके पूर्व लिखने के नाम पर कुछ कहानियाँ लिखी थीं।

एक दिन विकलेश जी मुझे एक स्थानीय कविता की गोष्ठी में ले गए। वहाँ मेरी मुलाकात कृष्ण मुरारी पहारिया से हुई, जो स्थानीय कवियों के बीच, कविता की अच्छी समझ वाले व्यक्ति माने जाते थे, वहाँ मैंने उनकी कवितायें सुनी जो मुझे बाकी कवियों से अलग दिखीं। भाषा, भाव एवं अभिव्यक्ति की दृष्टि से, मैं उनकी तरफ आकृष्ट हुआ। मैं उनसे मिलने जुलने लगा। घंटों रचना प्रक्रिया पर उनसे बात करने लगा। एक दिन इन्होंने बताया कि मेरे कविता के गुरू केदारनाथ अग्रवाल हैं। यह जो मेरी समझ और कविता है उन्हीं की देन हैं। उन्हीं की संगत का फल है। उनके नाम एवं तासीर से पहले से परिचित था ही, अब उनसे मिलने का एक रास्ता और एक सही मार्ग दर्शक मिल गया था।

एक दिन सायंकाल चार बजे केदारजी से मिलने गये। केदारजी की बैठक के दरवाजे खुले थे। वे उस समय अलमारी से कोई किताब निकाल या रख रहे थे, हम लोगों की आहट पर उन्होंने पीछे मुड़कर देखा और प्रसन्न मुद्रा में कहा - "आओ मुरारी, आओ, बैठो। बहुत दिन बाद मिले हो, ठीक हो न।" हम लोगों ने हाथ जोड़कर नमस्ते की। उन्होंने जवाब देते हुये, मेरी तरफ कुछ उत्सुकता से देखा। पहारिया जी ने मेरा परिचय उनको दिया और कविता की मेरी समझ के प्रति उन्हें ताकीद किया। उस दिन एक के बाद एक मेरी पाँच-छ: कवितायें उन्होंने सुनी और कहा, "ठीक लिखे हो।" कुछ देर चुप रहे और फिर कहा, "मुरारी, उधर देखो मेरी डायरी रखी है उठा दो उन्होंने यह कविता पढ़ी। जो मुझे पच्चीस साल बाद भी याद है -
"आद्र बनाकर
छोड़ गया है
जब से बादल
पानी के अक्षर रोया है
खड़े-खड़े
चुपचाप पहाड़।"
मैं सुनकर सुन्न रह गया। ऐसी ताजी-टटकी भावाभिव्यक्ति, एवं कविता में विम्ब की संश्लिष्टता मेरे भीतर घर कर गई। मन की गीली मिट्टी में अपनी अमिट छाप छोड़ गई। वह चीज मुझे मिल गई जिसके लिए मैं भटक रहा था।
इसके बाद केदारजी से मिलने-जुलने का अटूट सिलसिला चालू हो गया। तब से यानी पच्चीस सालों से गिनती के दिन ही ऐसे होंगे जिस दिन में उनसे न मिला हूँ। वह दिन, वे रहे होंगे जब मैं गाँव में रहता था, और छुट्टी का दिन रहा होगा। लेकिन अवकाश के दिनों में भी मैं उनसे मिलने के लिए अक्सर ही घर से ८-१० कि मी चला आता था - लेकिन मेरे इस भाग्य को किसकी नजर लगी कि केदारजी जब अपने जीवन की अन्तिम घड़ियाँ गिन रहे थे इस समय मैं उनसे ५०-६० कि म़ी दूर पंचायतीराज का सपना साकार कराने चुनाव में लगा था।
२१ जून को रात नौ बजे मेरी उनकी अन्तिम मुलाकात थी। उनकी अपनी गोली जेरी फोर्ड जो रात में खाने के बाद खाते थे, मैं अपने हाथ से खिलाकर गया था। २३ की रात नौ बजे जब मैं वापस शहर लौटा तो सब कुछ खत्म हो चुका था। उनकी अन्त्येष्टि सम्पन्न कर उनके भतीजे अपना बोझिल मन लिए घरों के अन्दर थे। पूरी रात नींद नहीं आयी। नींद की झपकी आई तो सपनों की बीहड़ता को लिए हुये। पूरी रात पलकों में कटी।

दूसरे दिन सुबह २४ जून को उनके भतीजों के साथ श्मशान घाट गया उसी केन के किनारे जहाँ वे अक्सर पल्थी मार कर बैठते थे, घण्टों केन के सौंदर्य को उसकी कर्मठता को, जीवन्तता को निहारते हुये हिन्दी साहित्य को -
"आज नदी बिलकुल उदास थी
सोई थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर
बादल का वस्त्र पड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबें-पाँव घर वापस आया।"
पहली बार नदी के उदास होने से परिचित कराया। जिस नदी को बिना जगाये हुये घर लौट आये थे। आज उसी नदी के किनारे घर न जाने की जिद् कर लेटे हुये थे।
उनकी चिता की राख भरे हुये मन से उसी केन में अपने हाथ से प्रवाहित कर घर लौटा। रात की ट्रेन से जब मैं उनकी अस्थियाँ (अस्थिकलश) लेकर संगम जा रहा था, मुझे लग रहा था केदार अमूर्त रूप में मेरे पास बैठे हुये देख रहे हैं। सब यात्री सो रहे थे। फिल्म की रील की तरह केदार जी के सानिध्य में गुजारे दिन याद आ रहे थे।

क्योंकि उनके सानिध्य ने मेरी कविताओं को और जीवन को संस्कारित किया था। मैं यह लगातार अनुभव किया करता था कि वह अपने सामने बैठे व्यक्ति को अपनी कविता का सच बतलाते समय, उसे जीवन का सच पहले देते थे। यह सब समान रूप से सबके साथ करते थे। यह कार्य उनके सृजन कार्य से अलग नहीं था। केदार जी के संसर्ग से यह बदलाव कई तरह से आते थे। पहले अब तक की जी हुई जिन्दगी में बदलाव लाने के खातिर व्यक्ति को जीविका से जुड़ी हुई स्थितियों के प्रति उसे ईमानदार रहने एवं इस नैतिकता के बल पर ही अनैतिक दबावों से मुक्त रहने के लिए जिन्दगी को अपने आस-पास के जीवन से बंध कर, उसे पूर्णत: नैतिक रखने की कोशिश करते थे।
यानी जो वे खुद थे वही सामने वाले में देखना चाहते थे, वह कहते थे -
"लोग पैसा टटोलते हैं
मैं सत्य टटोलता हूँ
लोग इज्जत टटोलते हैं
मैं बेइज्जत होना पसंद करता हूँ।"
इसलिए कि मुझे सत्य मिले। अगर मैं असत्य पकड़कर आपको दे जाऊँ तो मेरे मरने के बाद भी वह कविता में सत्य टटोलने के लिए मजबूर करती रहेगी।

मुझे याद नहीं आता कि उन्होंने कभी किसी को मार्क्सवाद के पोथे पढ़ने की सलाह दी हो। हमेशा मार्क्स ऐतिहासिक छंदात्मकता को समझने की सलाह दी, इसके सतत विकास को समझने की सलाह दी। बातों-बातों में वे हमेशा मार्क्स के, विचारों का आसव पिलाते रहते थे। अपने से जुड़ने वाले नये लोगों को नयी-नयी पत्रिकाएँ देते, इस शर्त के साथ कि भाई वापस कर देना। वापस करने पर रचनाओं के प्रतिक्रिया जानना कभी नहीं भूलते। रचनाओं पर अपनी भी राय देते। यह क्रिया केदार जी हर नये पुराने आनेवालों के साथ करते थे। हमेशा रचनाकार को आम आदमी से जुड़ने की सलाह देते थे।
चन्दू चला चबेना खाता
सारी उमर का धुवाँ उड़ाता

केदार जी से जुड़ने के बाद मैं जैसे-जैसे उनकी कविता से परिचित होता गया, वे मेरे भीतर धंसकर बैठते चले गये। मैंने देखा केदारजी अपनी दैनिक क्रियाओं की तरह अनिवार्य रूप से बिना नागा अपनी किताबें साफ करते हैं, उन्होंने अपना निजी काम कभी भी किसी दूसरे को करने को नहीं कहा, कोई करना भी चाहे तो वह उसे स्पष्ट रूप से रोक देते थे। जीवन से जुड़ी हुई चीजों के प्रति उनका अद्भुत लगाव था। केदारजी के यहाँ जो कुछ है वह सामान्य छवि का नहीं बल्कि चेतना एवं संघर्ष का प्रतिरूप है। चाहे वह पेड़ हो, पहाड़ हो, नदी हो -
"उन्नत पेड़ पलाश के
ढ़ाल लिये रण में खड़े
सम्मुख लड़ते सूर्य से
बाँह बली ऊपर किये
दुर्दिन में रहकर हरे
छाँह घनी भू-पर किये।"
केदार की कविता में नदी की विकल संवेदना का एक अद्भूत संश्लिष्ट विम्ब देखें -
चली गई है कोई श्यामा
आँख बचाकर
नदी नहा कर
कांप रहा है अब तक व्याकुल
विकल नील जल।"

केदारजी की कविता में मैंने फूल को देखा और दंग रह गया। आग का धुँधवाना देखा है, आग का ठंडा होना देखा है। लेकिन दुनिया के साहित्य में आग का बतियाना मदमस्त होना नहीं देखा। लेकिन कविता पढ़ कर लगा कि जवानी की सार्थकता आग होने में ही है -
"जल रहा है
जवान होकर गुलाब
खोलकर होंठ
जैसे आग
गा रही है फाग।"
केदार की कविता में घास को देखो जो अपनी निरीहता के लिए जानी जाती है लेकिन केदार के यहाँ वह भी जड़ता को तोड़ने वाला बल्लम है। समग्र हिन्दी साहित्य में है कोई ऐसी कविता, जैसे केदार ने लिखी है, जीवन के मूल उत्सवों का जैसा निरूपण केदार की कविता में आया है उसकी मिसाल दुर्लभ है -
"हरी घास का बल्लम
गड़ा भूमिपर
सजग खड़ा है
छह अंगुल से नहीं
बडा है
मन होता ह
मैं उखाड़ कर इसे मार दूँ
कुंठा को गढ़ में पछाड़ दूँ
जहां गड़े हैं भूले मुरदे
वहाँ गाड़ दूँ

साहित्य में एक दौर आया था जब कुछ लोगों को कुण्ठा बहुत प्रिय थी यह कविता उनका जवाब भी है। केदार ने समय के हर दौर में अपनी प्रतिबद्धता एवं चेतना को पूरी तरह तलवार की धार की भांति खड़ा रख कर अपनी कविता से पूरा जवाब दिया - हवा, धूप, पानी के सौंदर्य पर केदार ने अद्भुत कवितायें लिखी हैं। यह मन को बांधने वाली जितनी है, उससे कहीं अधिक जीवन के सापेक्ष हैं जो ठहराती नहीं बल्कि गति प्रदान करती हैं। यह जड़ाऊ नहीं गतिशील विम्ब के कवि हैं।
"धूप नहीं यह
बैठा है खरगोश पलंग पर
उजला रोयेंदार मुलायम
इसको छूकर
ज्ञान हो गया है जीने का
फिर से मुझको।"
यह जो 'मुझको' है यह केदार की कविता में ही मिलेगा। अपने काव्य विम्बों के साथ यह तदात्मय और कहां है? उन्होंने मात्र काव्य बिम्बों के लिए कवितायें नहीं लिखीं। जीवन के लिए काव्य बिम्ब दिये हैं -
"हवा आयी
खुबसूरत वल्लरी के वेश में
और मेरी देह से लिपटी रही
वह प्रिया है, पेड़ हूँ मैं नीम का
प्रमुदित हुआ।
हवा आयी
गुदगुदाती हंसिनी के वेश में
और मेरे नीर में तिरती रही
वह प्रिया है अंक हूँ मैं झील का
पुलकित हुआ।"
हिन्दी कविता में निराला के बाद यदि कहीं कविता में प्रगीतात्मकता मिलती है तो वह केदार की कविता है। जिसमें आयी आन्तरिक लय, उनकी कविता के प्रति एक अलग तरह का जुड़ाव पैदा करती है। जो कहीं न कहीं कविता की सृजन प्रक्रिया में उन्हें निराला के समकक्ष खड़ा करती है। उनकी वैचारिक दृढ़ता एवं सृजन की विशिष्टताओं को देखकर डा शर्मा ने हिन्दी साहित्य में निराला के बाद का सबसे बड़ा कवि माना है। अन्त में -
ढूंढते लोग नहीं ढंूढ पाते मुझे
म्ंौंने ही उन्हें ढूंढा और पाया
और उन्हीं के लिए
अपने को भविष्य बनाया।"

 

१६ सितंबर २००१

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