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                   पंद्रह 
					अगस्त अभिव्यक्ति का जन्मदिन भी है। इस अवसर पर प्रस्तुत है 
					हमारी सहयोगी
					दीपिका जोशी का 
					एक पुराना संस्मरण- 
                  जादू 
							की खिड़की से सच की दुनिया में 
							 
 चित्र 
							में बाएँ से – प्रवीन सक्सेना, 
							अश्विन गाँधी,
							पूर्णिमा वर्मन, दीपिका जोशी और विकास जोशी
							 
 "ओ, ओ..." किसी ने मेरी 'जादू की खिड़की' पर दस्तक दी थी।
 'आई सी क्यू' पर एक नाम टिमटिमाया....नाम था 'पर्ल'
 नाम से यह तो पता चल गया कि किसी महिला ने दस्तक दी 
							है...
 किस देश की होगी...कितनी बड़ी होगी...क्या 
							करती होगी...कई विचार मेरे दिमाग में एक साथ दौड़ 
							गये...जब बातें शुरू हुयी तब पता चला कि उसका नाम 
							पूर्णिमा है, हमारी तरह भारतीय है और मेरे ही उम्र की 
							मेरी जैसी गृहिणी दुबई में नयी नयी आयी हुयी....फिर क्या था...दोस्ती जम गई। इंटरनेट से दुनिया 
							कितनी करीब आ गई है! इस वजह से कैसे कैसे नाते रिश्ते 
							जुड़ जाते हैं ! दिल के करीब रखने जैसे दोस्त मिल जाते 
							हैं। तीन साल पहले इंटरनेट का उपयोग मैं सिर्फ समय 
							बिताने के लिये करती थी पर आज समय कैसे बीत जाता है 
							पता ही नहीं चलता।
 
 इंटरनेट असीम है, जिस दिशा में चाहिये आप जा सकते हैं, 
							जो चाहे वह विषय पढ़ सकते हैं। चार साल पहले जब कुवैत 
							के इस कमरे में मैने कम्प्यूटर ऑन किया था, समझ में 
							नहीं आ रहा था कि कहाँ से शुरूवात की जाय। थोड़ा वाचन 
							मराठी और हिन्दी की पत्रिकाएँ, दैनिक समाचार पत्र....यहीं से आरंभ किया था। धीरे धीरे पता चला कि यह 
							माध्यम दोस्त बनाने के लिये भी अच्छा जरिया है। आप 
							चाहे कहीं भी हो, दुनिया के किसी भी कोने में बैठे 
							व्यक्ति से बात कर सकते हैं, यह बात हैरानीवाली तो थी 
							मेरे लिये – जिज्ञासा भी कम नहीं थी। ऐसे ही शौकिया 
							तौर पर एक दिन इंटरनेट से आई सी क्यू डाउनलोड कर 
							इंस्टाल कर लिया। उसी पर समय बिता रही थी और सोच भी 
							रही थी कि दोस्त कैसे मिलते हैं, उन्हें कैसे ढूँढा जा 
							सकता है। तभी पूर्णिमा ने आवाज दी थी। जब बातें शुरू 
							हुयी तब पता चला कि हमारी पसंद, विचार और रुचियाँ भी 
							मिलते–जुलते हैं। हिन्दी भाषा के प्रेम ने हमें और भी 
							करीब कर दिया। बातों का सिलसिला बढ़ता ही गया। रोज 
							नियमित समय पर हम एक दूसरे का इन्तजार करने लगे।
 
 हमारी दोस्ती धीरे धीरे एक साल पुरानी हो चली थी। इतने 
							दिनों में हम 'आप' से 'तुम' पर आ गये और दीदी का नाता 
							भी उससे कायम कर लिया। लेकन ये सारे नाते से भी हमारे 
							दिल का नाता ज्यादा अहम हैं हमारे लिये। वह पत्रकारिता 
							से जुड़ी है, पहले काफी पत्रिकाओं में काम किया है। अब 
							नये जमाने के साथ कम्प्यूटर के भी काफी करीब। इंटरनेट 
							के जरिये काफी लोगों से जुड़ी हुई। पता चला कि वह 
							इंटरनेट पर एक हिन्दी पत्रिका के लिये काम करती हैं। 
							हमेशा कुछ न कुछ सीखते रहना और काम करते रहना चाहिए इस 
							दृष्टि से मुझे बढ़ावा देती रहती। उस हिन्दी मासिक के 
							लिये कुछ लिखने के लिये कह रही थी। लिखने का शौक तो था 
							अब यह सिलसिला शुरू हो गया और चलता ही रहा। साथ साथ और 
							भी काफी बातें मैंने उससे सीखी।
 
 पूनम ने मेरी और भी कुछ लोगों से दोस्ती करवाई। ज्ञान, 
							विचारों का आदान–प्रदान उनसे भी शुरू हो गया। इन 
							दोस्तों में से एक हैं अश्विन गांधी। कनाडा में ३० साल 
							से बसे कम्प्यूटर विज्ञान के प्रोफेसर, हर कम्प्यूटर 
							समस्या का समाधान, अश्विन बातों से बड़े ही मजाकिया 
							लगते थे। अब हम तीनों की सुबह इंटरनेट पर मुलाकातें 
							शुरू हो गयी। फोटो एक दूसरे को भेजी गयीं ताकि आगे की 
							बातें करते समय वे तस्वीरें मन में आती रहें।
 
 अचानक एक दिन पूनम ने बताया कि अश्विन गांधी के सहयोग 
							से वह एक साहित्यिक पत्रिका शुरू करने की योजना बना 
							रही है। मेरा सहयोग माँगा था। मुझे भला क्या अपत्ति 
							होती मैने हाँ कर दी। पूनम का साहित्य और पत्रकारिता 
							का अनुभव और अश्विन का कम्प्यूटर ज्ञान मिला कर यह एक 
							रोचक योजना थी। वे मेरे मित्र तो थे ही इस पत्रिका ने 
							हमें सहयोगी भी बना दिया।
 
 काम में आगे बढ़ते– बढ़ते दिल में आने लगा कि यदि तीनों 
							मिल पाते तो कितना अच्छा रहेगा। अश्विन भारत यात्रा पर 
							मई में निकलने वाले थे। उनका कार्यक्रम था दुबई में 
							पूनम के यहाँ रूकने का। पूनम और अश्विन का इशारा अब 
							मेरी तरफ था। इतने दिनों से बने दोस्त, एक दूसरे को 
							देखे बिना दोस्ती निभा रहे थे, और अब मिलने का मौका भी 
							था। मन में मैं तो उड़ने लगी।
 
 मेरे पति जरा कशमकश में थे, इस प्रकार अपरिचितों के 
							यहाँ जाना चाहिये या नहीं। उनकी भी लंबी बातें प्रवीन 
							पूनम और अश्विन से हुयीं लगा सब ओर मिलने की उत्सुकता 
							बराबर थी। अंततः पतिदेव का मूड भी सबसे मिलने को हो 
							आया। घर से निकलने तक मैं कम्प्यूटर पर थी। पूनम ने 
							पूछा, "दीपिका, जरा साड़ी का रंग तो बता दो, ताकि 
							पहचानने में आसानी रहेगी।" मुझे हँसी आयी, पहचान कर तो 
							देखो! मैंने बिना बताये ही इंटरनेट बंद कर दिया और हम 
							उत्साहित मन से दुबई के लिये घर से निकले। सफर मैं 
							सारा समय सोचती रही, कैसा लगेगा जब हम मिलेंगे। 
							जिन्होंने एक दूसरे को देखा ही नहीं हैं लेकिन मिलने 
							की चाहत देखो कैसी!
 
 एयरपोर्ट पर बाहर निकलते ही मेरी नज़रे पूनम और अश्विन 
							को ढूँढने लगी। तस्वीर मन में तो रखी ही थी। लेकिन 
							हमें लेने के लिये पूनम के पति, प्रवीन आये थे। उन्हें 
							पता था कि मैं तो पूनम और अश्विन को ही ढूँढूँगी 
							इसलिये जानबूझ कर उन्होंने यह मज़ाक किया। प्रवीन का भी 
							हमने फोटो देखा था इसलिये एक दूसरे को पहचान ही लिया।
 
 घर पहुंचकर देखा तो पूनम और अश्विन हमारी राह देख रहे 
							थे। जादू की खिड़की में संदेश टाइप करने वाले अब सच की 
							दुनियाँ में आमने सामने थे। हम सब गले मिले तो मन भर 
							आया। तीन साल की दोस्ती ने पहली बार मिलने का अहसास तक 
							नहीं दिलाया। एकदम घुलमिल कर मज़ाकिया मूड में बातें 
							शुरू हो गयी। जैसे जैसे हम रोज एक दूसरे को इंटरनेट पर 
							चिढ़ाते थे अब वह आमने सामने शुरू हो गया। अश्विन ने 
							अपने पुराने मजाकिया तौर से मेरी और जवाब में मैंने 
							उसकी फिरकियाँ लेना शुरू कर दिया। जरा-सा कम बोलनेवाली 
							पूनम इस बात का खूब मजा ले रही थी। जैसे रोज की चैटिंग 
							में होते था वैसे ही संवाद कभी कदा 'या...हू... ' 
							के साथ यहाँ भी चलते रहे।
 
 दूसरे दिन हमारी पत्रिका के विषय में चर्चा हुयी। 
							अश्विन मेरे लिये फ्रंट पेज की किताब लाये थे, और मुझे 
							पूछने लगे, "डीजे, पता है ना ये किस लिये दी है। आगे 
							अब तुम्हें भी तुम्हारे काम के अलावा ये भी सीखना है।" 
							मैंने भी मेरे एक अलग अंदाज में जवाब दिया, " और क्या... सीखना ही है...ये...स....आशी"। ऐसे दोस्त भी किस्मत से मिलते हैं जो अपने पास 
							जो है, जो सिखा सकते हैं वो तहे दिल से सिखाते हैं।
 
 मिलकर खूब फोटो खींचे। खूब यादें समेट रहे थे हम।
 
 साथ साथ थोड़ी पार्क की सैर, कभी दुबई के नज़ारे देखने 
							निकल पड़ते थे। दुबई का प्रसिद्ध होटल बुर्ज़ अल अरब का 
							मज़ा रात में लिया। मेरी दिलचस्पी दुबई के रेगिस्तान की 
							सफारी और सैंड बैशिंग में थी। रेत में फिसलती जीप में, 
							कभी एकदम रेत के टीले पर से एकदम गहरे खड्डे में जीप 
							की छलांग.... खूब मजा आया।
 
 दुबई के चार दिन कैसे बीते पता तक नहीं चला। देर रात 
							तक गप्पे हाँकना, सुबह उठकर बाहर हरियाली में बैठकर सब 
							की मिल कर होने वाली चाय की चुस्की, कभी न भूलने वाली 
							बातें हैं यह सब। जब वापस लौटने का समय आया तब सब ने 
							मिलकर ऐसा फैसला किया कि हर साल हम मिलते ही रहना है। 
							मैंने कहा, "अगले साल हमारे यहाँ कुवैत में सम्मेलन 
							करेंगे, और बाद में आशी के यहाँ कॅनडा में...  
							कैसी रही...' आज की घड़ी में सब ने हाँ में 
							हाँ 
							मिलाई तो है। हमारी सोच यकीन में बदलेगी इसी भरोसे यह 
							साल खुशी खुशी बीतेगा।
 
 अश्विन भारत के लिये रवाना हो गये और हम हमारी पुरानी 
							मंजिल की ओर।
 
 यादें तो हैं ही, लेकिन अब दुबारा फिरसे जब इंटरनेट पर 
							मिलने का सिलसिला शुरू हो गया हैं तब बातों में 
							मुलाकातों का ज़िक्र हो जाता है।
 
 कुछ रिश्ते वक्त के साथ और अटूट हो जाते हैं। मिलने 
							के बाद और गहराते हैं पर इंटरनेट पर इस तरह दोस्ती 
							होगी वह कभी सोचा नहीं था। हमारी यह दोस्ती एक मिसाल 
							है अपने आप में।
 
							२० अगस्त २००१ |