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धुएँ
से आजादी
घनश्यामदास आहूजा
बातों ही
बातों में उस दिन अभिव्यक्ति की टीम को बताया कि मैं धूम्रपान
की आदत को कई वर्षों तक पाल कर इससे छुटकारा पा चुका हूँ और
अपना अनुभव लोगों में बाँटना चाहता हूँ। उनके सकारात्मक जवाब का
परिणाम के फलस्वरूप मेरी यह आत्मकथा आपके सामने प्रस्तुत है।
मैं चाहता हूँ “धुएँ से आजादी” नाम से लिखित मेरे इस संस्मरण
को वे लोग तो पढ़ें ही जो धूम्रपान
करते हैं वे भी पढ़े जो इस आदत से दूर हैं ताकि वे अपने स्मोकर
मित्रों को इसके बारे में बता सकें। यदि एक भी व्यक्ति मेरे इस
प्रयास से लाभान्वित होता है तो मैं अपनी कोशिश को सफल
समझूँगा। मैंने यह बताने का यत्न किया है कि किस तरह मेरी
जिन्दगी धुआँ धुआँ हो गई थी जिसे नियति मान कर इस समस्या से
उबरने के सारे प्रयास लगभग बन्द से कर दिये थे। फिर किस तरह से
इस आदत के चंगुल से मुझे आजादी मिली।
वैसे तो मेरा धूम्रपान करना या न करना मेरे व मेरे परिवार के
लिए भले ही बहुत महत्वपूर्ण हो किसी और को इससे ज्यादा क्या
मतलब? लेकिन मुझे यकीन है इसे पढ़ने के बाद लोगों को यह विश्वास
करना ही पड़ेगा कि मजबूत इरादा मंजिल तक पहुँचा ही देता है।
चोरी चोरी चुपके चुपके
कक्षा ९ और १० की पढ़ाई उन दिनों भी काफी महत्वपूर्ण हुआ करती
थी क्योंकि शिक्षा के इसी पड़ाव पर विद्यार्थी के भविष्य का
दिशा निर्धारण होता है। मगर उन दिनों को यहाँ पर याद करने का
कारण दूसरा ही है। यही वो समय था जब मेरे जीवन में धूम्रपान की
आदत ने प्रवेश किया था।
यह १९६७ की बात है। मैं कक्षा ९ में था। प्राइमरी व मिडिल स्कूल
के मित्र विदा हुए। नये दोस्त बन रहे थे। एक सहपाठी से कुछ
ज्यादा ही लगाव हो चला था। एक दिन वह क्लासरूम में ही दो
बीड़ियाँ लेकर आ गया। पूछने पर उसने बताया कि ये उसने अपने
पिताजी के बीड़ी के बन्डल से चुराई हैं। कुछ तो नई–नई चीज का
एक्साइटमेंट और कुछ उस दोस्त का आग्रह एक खाली पीरिअड में
स्कूल के टायलेट में दोनों ने बीड़ियाँ सुलगा ही डाली। पहली
खाँसी को सहन कर लिया तो स्वाभाविक था कि इसकी पुनरावृत्ति
हो। हर दो चार दिनों के अन्तराल पर यह सिलसिला शुरू हो गया।
मित्र की कृतज्ञता का इतना बोझ हो गया था कि एक दिन मुझ से रहा
न गया मैने भी पिताजी के बीड़ी बन्डल पर हाथ साफ कर दिया। इसका
अवसर भी आसानी से मुझे मिल गया। गरमियों के दिनों में सभी छत पर
सोया करते थे। पिताजी को हल्के खर्राटे भरने की आदत थी। ज्योंही
खर्राटे प्रारम्भ हुए मेरा हाथ चुपके से उनके तकिए के नीचे
रेंग गया। कहने की आवश्यकता नहीं है कि वहीं पर मेरी मंजिल के
रूप में बीड़ी का बन्डल था। यह मेरी पहली चोरी थी आखिरी इसलिए
नहीं कहूँगा क्योंकि यह सिलसिला चल पड़ा था। बीड़ी के धुएँ से
अपने आप को सराबोर करने के लिए दोनों दोस्त बारी बारी से यह
मिनी चोरी करने लगे। कुछ समय बाद थोड़ी आत्मग्लानि होने की वजह
से या फिर आवश्यकता बढ़ने के कारण जेबखर्च से बीड़ियाँ आने
लगी। जेब खर्च बढ़ा तो सिगरेट ने अपने पैर फैलाने शुरू किए।
इस तरह से मेरी जिन्दगी में इस आदत ने कदम रखे। अब यह सोचता हूँ
काश उस समय यह चोरी न की होती तो जिन्दगी के इतने वर्ष धुएँ को
समर्पित न हुए होते। मगर यह सब सोचने से क्या होता है मैं अपनी
जिन्दगी पर लगे इस दाग को भला कैसे धो सकता हूँ कि मैंने एक
तुच्छ सी वस्तु की चोरी की वो भी अपने भले के लिए नहीं।
नायक या खलनायक
अभिनेता देवानन्द मेरे पसन्दीदा कलाकारों में से एक रहे हैं
लेकिन कुछ हद तक मेरी धूम्रपान की आदत को बढ़ावा देने के लिए
जिम्मेदार भी। उन दिनों जिस तरह से वे
सिगरेट उछाल–उछाल कर पीते थे या फिर चरित्र अभिनेता प्राण साहब जलती
हुई सिगरेट को बिना हाथ लगाए मुँह के अन्दर बाहर कलाबाजियाँ
कराते थे उस समय के नौजवानों का दिल बल्लियों उछालने के लिए काफी था।
धुएँ के
छल्ले बनाने की हीरो इमेज ने मेरे हाथों में सिगरेट को और भी
मजबूती से पकड़ा दिया। मन में विचार आता था कि जब ये लोग इतना
कुछ कर रहे हैं तो कम से कम हम साधारण तरीके से धुआँ निकालने
का लुत्फ तो उठा ही सकते हैं।
मैं जिन्दगी का साथ निभाता चला गया…हर फिक्र को धुएँ में
उड़ा………। ”
यह गाना गुनगुनाते हुए मैं अपने आप को हीरो समझने लगा था। उन
दिनों इस डैश डैश का अर्थ नहीं समझा था। लेकिन अब यकीन हो चला
है कि ये खाली स्थान भविष्य में आने वाली रिक्तता की ओर इंगित
कर रहा था। जवानी के जोश और हीरो जैसी स्टाइल अपनाने की चाह के
कारण इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया कि जिसे हम मजा समझ रहे थे
वास्तव में अन्धकारमय भविष्य की शुरूआत थी।
वैसे तो नशे के कारण कई अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के दम तोड़ने
तक के उदाहरण सामने थे लेकिन कहते हैं न कि चढ़ते सूरज को हर कोई
नमस्कार करता है डूबते हुए सूरज को तो समुद्र अथवा
किसी अनन्त किनारे में विलीन हो जाना है। आज भी जब सलमान खान
शर्ट उतार कर विभिन्न प्रकार की मुद्राएँ बनाता है तो कई मनचले
नौजवान नकल करने को आतुर हो उठते है। हम भी उन दिनों अपने चहेते
कलाकारों की भाव भंगिमाओं की नकल किया करते थे। यही समय था
धूम्रपान की लत ने धीरे धीरे दिमाग को पूरा वश में कर लिया।
जाने अनजाने हम इस बात को भूल रहे थे कि नायक बनने के चक्कर
में खलनायकों की सी आदत अपनाते जा रहे हैं। छुप छुप कर सिगरेट
के कश लगाना धीरे धीरे हमारे शरीर में निकोटिन रूपी जहर घोल
रहा था। मेरा जीवन किस प्रकार धुएँ से भर गया था इस विषय पर
चर्चा से पहले कहना चाहूँगा —
धुआँदार जीवन जिसका हो चला : ना उसका भला ना औरों का भला
फिल्मी नायकों के अन्दाज की नकल करते करते अब हमारी जिन्दगी
धुआँमय हो चली थी। सिगरेट की ललक बढ़ती चली गयी थी। दुर्भाग्य से
कॉलेज में भी मित्र मंडलियाँ इस तरह की नहीं मिली कि इस आदत को
छोड़ने के बारे में सोचा जा सके। ८ या १० सिगरेट प्रतिदिन की
संख्या को मैं अत्यधिक की श्रेणी में मानता था। हालांकि इससे
अधिक मात्रा में सेवन करने वाले भी बहुतेरे होंगे लेकिन मैंने
अपनी अधिकतम सीमा का उल्लंघन एकाध बार को छोड़ कर कभी भी नहीं
किया।
उन दिनों धूम्रपान से होने वाली प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष
हानियों के बारे में ज्यादा जानकारी भी उपलब्ध नहीं थी। इसलिए
इस ओर कभी ध्यान ही नहीं गया कि धूम्रपान करने से क्या क्या
नुकसान हो सकते हैं। यदि गया होता तो इतने वर्षों तक धुएँ के
साये में न रहा होता और अपने इर्द गिर्द के लागों के स्वास्थ्य
की भी रक्षा कर पाता। वैसे भी मुझे शुरू से ही अपने से ज्यादा
दूसरों के बारे में सोचने की आदत है। मेरी वजह से किसी अन्य को
आघात पहुँचे या दिल दुखे ऐसा न तो मैंने चाहा है और न ही कभी
जीते जी चाह सकता हूँ। इस आदत को छोड़ने के बाद ही इससे होने
वाले दुष्परिणामों के बारे में ज्ञात हुआ।
दरअसल होता यह है कि धूम्रपान करने वाला व्यक्ति इसकी गन्ध या
दुर्गन्ध का इतना आदी हो जाता है कि उसे महसूस ही नहीं होता कि
उसके मुख से या उसके आसपास ऐसी गन्ध फैली होती है जिसे
धूम्रपान न करने वाले के लिए सहन करना लगभग अस( होता
है। मित्रता, रिश्तेदारी अथवा अन्य मजबूरी के दबाव में वे इसे
किस तरह सहन करते हैं, अनुमान लगाना निहायत ही मुश्किल काम है।
स्वयं के नुकसान के बारे में सोचें तो इससे शारीरिक हानि तो है
ही आर्थिक हानि भी बहुत है। लम्बे अर्से तक का यदि हिसाब लगाया
जाए तो यह एक फ्लेट खरीदने तक पहुँच सकता है। ऊपर से यदि उन
रूपयों को यदि बैंक में रख दिया जाए तो वह फ्लेट फर्निश भी हो
सकता है। बाकी क्या क्या नुकसान होता है यह सब देखना तो
शोधकत्र्ताओं का कार्य है।
समस्या नियति बन जाए जब
यह जानते हुए भी कि धूम्रपान की लत से शारीरिक आर्थिक सामाजिक
समस्याएँ उत्पन्न होती हैं इन्सान क्यों इस आदत को छोड़ नहीं
पाता? असल में होता यह है कि यह आदत जिसे एक बार लग जाए तो
उसका पीछा ही नहीं छोड़ती। उसके खून से ही एक प्रकार की आवाज सी
आने लगती है और दिमाग से बन्दूक की गोली की तरह संदेश निकल
पड़ता है। बाकी काम शरीर अपने आप करने लगता है मसलन सिगरेट लेकर
आना या जेब से निकालना यहाँ तक कि कभी कभी मित्रों से भी
माँगनी पड़ जाती है और माँगने का मतलब तो समझाने की जरूरत ही
नहीं है।
मैंने भी कई बार दोस्तों से सिगरेट मांगी है इस बात से अनजान
रह कर कि क्या सोचते होंगे मेरे बारे में, सोचा करे, अपनी
बला से। उस समय जब धूम्रपान की तलब लगती है तो कुछ भी अच्छा
नहीं लगता। ऐसे कई अवसर आते हैं जब सिगरेट पास में नहीं होती तो
तुरन्त उन दोस्तों की याद आने लगती है जो धूम्रपान करते
हैं। फिर दिमाग बेशर्म होकर याचक बना कर उनमें से किसी एक के
सामने खड़ा कर देता है।
ऐसी समस्या जिसका निवारण दूर दूर तक नजर न आऐ तो इन्सान उस
समस्या के साथ रहना सीख जाता है और उस परिस्थिति को ही अपनी
नियति मानने लगता है। मैंने भी अपनी इस आदत को अपनी नियति मान
लिया था। उन दिनों मैं सोचा करता था कि जी तोड़ प्रयत्न करने पर
भी यह आदत छूटने वाली तो है नहीं फिर व्यर्थ में ही ईंधन क्यों
खपाया जाए।
यहाँ पर यह सब लिख कर मेरा इरादा प्रयत्न करने वालों को
हतोत्साहित करना कदापि नहीं है वरन् जो उम्मीद हार बैठे हैं और
धूम्रपान की आदत को छोड़ना लगभग असम्म्भव मान चुके हैं उनको भी
इस कथा से प्रेरणा मिलेगी। यह भी एक सच है कि इन्सान कितना भी
अपनी आदतों का गुलाम क्यों न हो उसके दिल के किसी कोने में यह
बात जरूर रहती है कि काश यह आदत छूट जाए और वह भी कई और लोगों
की तरह स्वच्छ वातावरण में साँस ले सके।
इसलिए इस समस्या को अपनी नियति मान चुकने के बाद भी मेरे दिल
के एक कोने में कोई और ही कहानी जन्म ले रही थी।
दिल के किसी कोने में
धूम्रपान को अपनी नियति मान लेने पर भी दिल के किसी कोने में
सुषुप्तावस्था में ही सही लेकिन यह इच्छा हमेशा ही रही कि इस
आदत से हो सके तो छुटकारा पाया जाए। अपने आप को इस मामले में
भाग्यहीन समझ लेने के बावजूद भी मन में यह हल्की सी उम्मीद
अवश्य रही कि कभी न कभी अपनी भी लॉटरी खुल सकती है। इस आदत से
निजात पाने के लिए कम से कम इतनी उम्मीद रखना आवश्यक है।
स्वयं अपने दिल को टटोलने की जरूरत होती है। दिल अगर कह दे कि
हाँ, यह आदत एक अच्छी आदत नहीं है और इसको छोड़ने का प्रयास
करना ही चाहिये तो बाकी सिलसिले अपने आप बनते चले जाते
हैं। जैसे कारणों की तलाश या क्या फायदा होगा छोड़ने पर, यह
जानने की इच्छा जागृत होगी कि अपने परिचितों में किन लोगों ने
सफलता पूर्वक इस आदत का परित्याग किया है, आदि आदि।
जिस तरह अग्नि को प्रज्जवलित करने के लिए एक चिनगारी बहुत ही
जरूरी है उसी प्रकार मन में क्षीण ही सही मगर यह विचार होना
अत्यावश्यक है कि मौका मिलने पर इस आदत को तिलांजलि देनी है
अन्यथा उस व्यक्ति को नॉन स्मोकर बनने के लिए ज्यादा कठिनाइयों
का सामना करना पड़ सकता है। यह आत्ममंथन का ही परिणाम था मैं
सोचने लगा था कि ऐसे कौन कौन से कारण हैं जिनकी वजह से कठिनाई
सह कर भी इस आदत का परित्याग करूँ। यह १९९५ के आसपास की बात थी।
मंजिल शायद करीब थी इसलिए जो कारण पहले दिखलायी नहीं देते थे
अब अपनी उपस्तिथि दर्शाने लगे थे। इस बीच धूम्रपान भले ही जारी
रहा मगर दिल के कोने में दबी बात धीरे धीरे जुबाँ पर आने लगी
थी और लोगों से मैंने यह कहना शुरू कर दिया था कि मैं स्मोकिंग
छोड़ने जा रहा हूँ।
अगले कुछ पृष्ठों में मैं आप सभी को बतलाऊँगा कि ऐसे किन
कारणों को मैं परिलक्षित कर पाया जिनकी वजह से मुझे धूम्रपान
की आदत से निजात मिल पायी। यह जरूरी नहीं कि ये सभी कारण हर
व्यक्ति पर लागू हों मगर इनमें से कुछ एक में समानता हो सकती
है। आप स्वयं निश्चित करें कि उनकी जिन्दगी में भी कहीं इनसे
मिलते जुलते कारण तो मौजूद नहीं हैं। जब बहुत सारे कारण सामने
नजर आ जाते हैं तो स्वाभाविक तौर पर हजार उपाय सूझने लगते
हैं। टटोलिये अपने दिल को और पूछिये उससे क्या वो भी यही कहता
है……
कारण सामने तो उपाय हजार
काफी समय से लोगों से कह रहा था कि मैं सिगरेट पीना कम कर रहा
हूँ विशेषतया संयुक्त अरब अमीरात के ही एक मित्र मि, ओमर जासिम
जब भी मिलते तो पूछते हेलो मिस्टर आहूजा, स्टिल रिड्यूसिंग ?
क्या, अभी तक कम ही कर रहे हो? उनका यह टोकना अपने आप में एक
कारण बन गया।
१९९६–९७ के दौरान मैंने रेडियो कार्यक्र्र्रमों की कई
प्रतियोगिताओं में भाग लिया था और कुछ पारितोषिक भी पाए थे। इसी
दौरान रेडियो एशिया के एक प्रोग्राम “कौन आया” कार्यक्रम में
हिस्सा लेने एक पत्र भेजा था। इस कार्यक्रम में स्वयं वहाँ पर
जा कर प्रोग्राम पेश करना होता है। इसके लिए अपनी आवाज में
सुधार की इच्छा होना स्वाभाविक था। इसलिए यह भी एक महत्वपूर्ण
कारण बना।
स्टेमिना में कमी होने का अहसास धीरे धीरे बढ़ता जा रहा था। थोड़ा
सा भी भारी काम करने पर थकान सी महसूस होती थी।
१२ जून १९९६ को मेरे जन्मदिन पर मेरे बच्वों ने जो उपहार मुझे
दिया वह मुझे आजीवन याद रहेगा। इसमें एक छोटी सी प्लेट पर एक
बल्ब लगा हुआ है। पारदर्शी बल्ब के अन्दर सिगरेट के आकार की
नलिका है साथ ही माचिस की एक तीली। पास ही उस प्लेट पर एक हथौड़ा
चिपका है। बचे हुए स्थान पर लिखा है ‘इन केस ऑफ एमरजेन्सी ब्रेक
दॅ ग्लास’। इस उपहार ने मेरी आँखें खोल कर रख दी और वह सब कह
दिया जो कि बच्चे मुझसे चाहते थे। आज भी वह उपहार उन सिगरेटों के
साथ, जो छोड़ते समय पेकेट में बची थी, सुरक्षित है और मेरे लिए
एक ऐतिहासिक स्मारक बन गया है।
सितम्बर १९९६ से बीयर की संख्या पर काफी नियंत्रण कर लिया था।
४
या ५ से कम कर के संख्या २ पर लाने से अप्रत्यक्ष रूप से इस
नशे पर भी काबू पाने के लिए मनोबल में काफी वृद्धि हो चुकी थी।
काफी समय से धूम्रपान नियंत्रित कर रहा था। दो सिगरेट एक साथ
पीने (एक के बाद एक) पर तो स्वतः का अनुशासन लगा ही रखा था
साथ ही ड्यूटी पर दो और रूम पर दो की खुराक पर चल रहा था।
जनवरी १९९७ में १८ दिनों तक ड्यूटी के समय सिगरेट न पीने का
अनुभव ताजा ताजा ही था। फरवरी १९९७ की छुट्टियों में मेरी
सिगरेट पीने की आदत के प्रति बच्चों के व्यवहार में काफी बदलाव
नजर आया। विशेष तौर पर बिटिया ने तो यहाँ तक कहा ‘पापा आप
सिगरेट खिड़की के पास जाकर के पिया करो’ उसका कहना सही भी
था। अपनी आदत की वजह से किसी भी अन्य के स्वास्थ्य से खेलने का
हक न तो मुझे था और न ही पाना चाहता था। देर आयद दुरूस्त आयद यह
विचार मन में तो आया।
१८ मार्च से २२ मार्च १९९७ तक प्रातःकालीन पारी होने के बावजूद
बार में न जाकर मैने अपनी इच्छाशक्ति में आशातीत वृद्धि को
महसूस किया। धूम्रपान छोड़ने में यह एक महत्वपूर्ण कारण बना। यहाँ
पर मैं आपको बताना चाहता हूँ कि धूम्रपान व मदिरापान
(बीयरपान भी) में चोली दामन का साथ होता है। नशे या सरूर की
अवस्था में धूम्रपान की तलब कुछ ज्यादा ही हाथ पैर मारती
है। इसलिए अगर एक को वश में करना है तो दूसरे की ओर भी ध्यान
देना जरूरी है।
मेरे कुछ सहकर्मियों वेंकटाचारी, अमलारसन, सुब्रमन्यन और
बालू का उल्लेख मैं विशेष तौर पर करना चाहता हूँ। इन साथियों
ने मेरी इस आदत को कभी भी हीन दृष्टि से न देखकर हमेशा ही मुझे
इस बात के लिए प्रोत्साहित किया कि मैं इस आदत को छोड़
सकूँ। इसके लिए समय समय पर उनके द्वारा किया गया फोलोअप भी इस
कार्य में बहुत सहायक बना।
जी टी वी पर एक लघु चित्र (सिगरेट इन माई हेन्ड) आया करता
था जो सिगरेट पीने से होने वाली बुराइयों को दर्शाता था। उसका
प्रभाव धीरे धीरे मुझ पर इतना हुआ कि मैं उस लघु फिल्म को पूरा
देखने से कतराने लगा और अक्सर चेनल बदल दिया करता था। इससे हुआ
यह कि मन ही मन यह धारणा मजबूत होती गई कि मेरी यह धूम्रपान की
आदत कोई अच्छी आदत नहीं है।
पत्नी श्री के सहयोग का यहाँ पर उल्लेख न करूँ तो यह सर्वथा
अनुचित होगा। देखा जाए तो सबसे अधिक प्रेरणा मुझे वहीं से
मिली। मेरी इस आदत से सबसे अधिक परेशानी यकीनन उनको ही हुई होगी
मगर इसे हेय द्रष्टि से न देखकर वे हमेशा ही मुझे इस बात के
लिए प्रेरित करती रही कि मैं कम से कम मात्रा में धूम्रपान
करूँ। मेरी उस समय की मजबूरी को समझते हुए जिस तरह से मेरा साथ
दिया मुझे यह कहते हुए जरा भी संकोच नहीं है कि यह उनकी
दूरदृष्टि का ही परिणाम है कि मैं यहाँ तक पहुँचा हूँ।
कई अन्य अप्रत्यक्ष कारण या प्रत्यक्ष कारण जिन्हें मैं
विस्मृत कर चुका हूँ रहे होंगे जिनकी वजह से आज मैं नॉन स्मोकर
बन सका हूँ। ये सब कारण जो मैंने बताऐ हैं जरूरी नहीं कि सभी पर
लागू हों। इनमें से कुछ एक हो सकते हैं। कुछ मिलते जुलते कारणों
को अपने नजरिये से देखा जा सकता है। हर व्यक्ति में कुछ कर
दिखाने की इच्छा होती है। जरूरत होती है तो सिर्फ मौका मिलने
की। ढेर सारे कारण जब सामने हों तो हजारों उपाय सूझने लगते है।
एक बार विचार कर लिया जाऐ कि अब तो हर हालत में इस आदत को
छोड़ना ही है तो सम्भावित दिक्कतों के बारे में पहले से ही सोच
कर उन्हें दूर करने के उपायों पर अग्रिम रूपरेखा बनाने से
मंजिल पाने में काफी आसानी हो जाती है। मैंने भी कुछ लक्ष्य और
कार्यक्रम तय किए जिनसे मुझे बहुत सहायता मिली।
सर्वप्रथम तो मैंने बैसाखियों का सहारा सुपारी, पान मसाला आदि
का सेवन न करने की ठान ली। क्योंकि ऐसा न करने से एक आदत के
छूटने पर दूसरी आदत के घर कर जाने का प्रबल खतरा रहता है।
डाक्टरों से सुना हुआ था कि धूम्रपान छोड़ने पर वजन में
बढ़ोतरी होती है। इसको कम से कम करने के लिए प्रतिदिन एक घन्टा
चलने का प्रण किया और इसका पालन भी किया। क्योंकि अपना फिगर
पहले ही इतना खुबसूरत नहीं है तो ऐसी हालत में इस होने वाली
बढ़ोतरी की मार से बचने का यह एक अच्छा उपाय साबित हुआ।
जैसा कि पिछले पृष्ठों में भी लिख चुका हूँ सिगरेट शराब और
बीयर की सहचरी होती है इसलिए बीयर जो पहले ही कम कर चुका था को
और अधिक अन्तराल के बाद सेवन का निर्णय लिया। यहाँ तक कि एक साल
तक संयुक्त अरब अमीरात में ‘नो बीवरेज’ का निर्णय ले डाला और
एक रमादान महीने के प्रारम्भ से दूसरे वर्ष के रमादान महीने के
अन्त तक इस पर कायम रहा।
खाली दिमाग शैतान का घर माना जाता है और मैं इस सिगरेट रूपी
शैतान को पुनः आमन्त्रित करने की कल्पना मात्र से भी भयभीत था इसलिए
खेलों में यथासम्भव भाग लेने का संकल्प किया ताकि मन भी लगा रहे और
व्यायाम का व्यायाम हो जाऐ।
जी टी वी वालों को धन्यवाद पत्र भेजने का मन बनाया कि किस तरह
उनकी एक लघु फिल्म ने मेरा हृदय परिवर्तन कर दिया। उसको
कार्यान्वित नहीं कर पाया यह और बात है मगर यहाँ इस बात का
उल्लेख मुझे लगता है इस कमी को पूरा कर सकेगा।
जब मेरी नौकरी गल्फ में लगी थी तो मेडीकल रिपोर्ट में ‘स्मोकर’
लिखा जाना स्वाभाविक था। इसलिए यह विचार किया कि क्विट स्मोकिंग
के कुछ दिनों के बाद पर्सनल और मेडिकल विभागों को ‘नॉन स्मोकर’
बनने की बाकायदा सूचना दे दूँगा और कहूँगा कि अपना रिकार्ड
दुरूस्त कर लें। उपयुक्त समय पर मैंने ऐसा किया भी। इससे मुख्य
लाभ यह हुआ अपनी इस नई पहचान को कायम रखने में बहुत मजबूती
मिली। अतिरिक्त लाभ के रूप में अपने पर्सनल रिकार्ड में
नॉनस्मोकर का खिताब मिल गया।
धूम्रपान छोड़ रहा हूँ या चुका हूँ इस बात की जानकारी अपने
मित्रगणों को देता रहा। इससे लाभ यह होता है कि जितने अधिक
लोगों को बताएँगे आप इसे पुनः शुरू करने में संकोच
करेंगे। क्योंकि कोई भी व्यक्ति कई लोगों के सामने शर्मिन्दा
नहीं होना चाहता है।
क्विट स्मोकिंग के प्रारम्भिक दिनोे में ज्योंही धूम्रपान की
इच्छा होती थी तो तुरन्त ही एंटी स्मोकिंग पर कुछ लिखने से उस
इच्छा का दमन होता है यह मैंने पहली बार जाना। इच्छा का सीधा
सम्बन्ध दिमाग से होता है। वही दिमाग जब उस इच्छा के विरूद्ध
सोचेगा या लिपिबद्ध करेगा तो स्वाभाविक है कम से कम उस समय तो
उस इच्छा को ठंडे बस्ते में जाना पड़ेगा। वही तो नाजुक समय होता
है जब इसकी तलब को नियंत्रित करने की जरूरत होती है।
मूड परिवर्तन के लिए शुरू के दिनों में कोई नई दिनचर्या
प्रारम्भ की जाए तो अच्छा रहता है। एक मित्र अक्सर अपने कमरे
में आने के लिए आमन्त्रित करता रहता था। मैं ही समय की कमी के
कारण जा नहीं पाता था। सिगरेट छोड़ने के बाद कुछ दिनों तक बिना
गैर हाजिरी के उसके कमरे पर जाकर समय व्यतीत किया। बदलाव का
बदलाव साथ में उद्देश्य की प्राप्ति।
हाल ही में इंटरनेट की एक साइट पर जाने का अवसर मिला उसका
उल्लेख मैं यहाँ पर करना चाहता हूँ वह है
www.ntobacc.org इसमें बड़े ही सुन्दर तरीके से समझाया
गया है किस तरह से धूम्रपान को छोड़ा जा सकता है और किस तरह से
पुनः उठने वाली तलब से निपटा जा सकता है।
याहू के एक क्लब [NONSS] में उसके सदस्य अक्सर धूम्रपान के
विषय पर चर्चा करते रहते हैं। जब मैंने इस आदत से मुक्ति पाई तो
मैं इन उपायों से लगभग अपरिचित था। लेकिन जब जानकारी मिली है तो
सम्भावित नॉन स्मोकर्स की सुविधा के लिए इन साइटों का उल्लेख
किया है। अन्य भी कई साइट होंगी इसी विषय पर जिनसे मदद ली जा
सकती है। इसी प्रकार से हर व्यक्ति स्वयं अपने कार्यक्रम के
अनुसार उपाय निर्धारित कर सकता है तथा धूम्रपान को तिलांजलि दे
कर अपने धुंधलाते जीवन में भी “ स्वर्णिम दिन” का आगमन कर सकता
है। जी हाँ अब मैं आप सबको बताने जा रहा हूँ किस तरह से मैंने
अपने जीवन में उस “ स्वर्णिम दिन” का पर्दापण होते देखा……
स्वर्णिम दिन
११ मार्च १९९७ आबूधाबी एअरपोर्ट पर उतरा। पहली बार अपने ब्रान्ड
के बजाय दूसरे ब्रान्ड की सिगरेट खरीदने के पीछे मूल कारण उस
कम्पनी का सेल्स प्रमोशन न होकर शायद मन ही मन आदत को तोड़ने का
यत्न करना था।
नया ब्रान्ड शुरू करते ही खाँसी व गले के दर्द की शिकायत
हुई। उन्हीं दिनों मौसम बदलने के कारण कुछ सर्दी सहित हरारत भी
थी। २२–२३ मार्च को गले का दर्द जब ज्यादा हुआ तो २४ मार्च को
डाक्टर की शरण में जाना ही पड़ा। डा अली ने कहा ‘यदि सिगरेट पीते
रहे तो दवा असर नहीं करेगी’ यह सुनकर मैं विचार में पड़
गया। काफी सोच विचार के बाद इसका हल यह निकाला कि जब भी सिगरेट
की इच्छा हो सिगरेट पेकेट से निकाली जाए फिर जलाई जाए और सिर्फ
एक कश लगा कर धुएँ को बिना अन्दर लिए हवा में छोड़ दिया जाए तथा
सिगरेट बुझा दी जाए।
२४ से २६ मार्च तक का यह एक्सपेरिमेन्ट सफल रहा और दवा असर कर
गई। तबीयत लगभग ठीक हो गई। इसका सबसे ज्यादा असर दिल पर हुआ
जिसने दिमाग को सोचने पर मजबूर कर दिया कि जब निकोटिन को रक्त
में प्रवेश कराए बिना इस तरह से रहा जा सकता है तो क्यों न
इससे सदा के लिए मुक्ति पाने का प्रयास किया जाए।
२६ मार्च की रात्रि पारी के समाप्त होने पर यानि २७ की सुबह
मैंने अपने पड़ौसी मित्र मि सागर से कहा ‘मैं सिगरेट पीना बन्द
कर रहा हूँ प्रतिदिन केवल एक सिगरेट टायलेट में पिया करूँगा
प्लीज किसी से कहना मत’। यह कहकर मैं सो गया। जागने पर सुबह की
कही गयी बात फिर से याद आई और मेरा मन आत्मग्लानि से भर उठा कि
मेरे जैसे आदमी जिसको झूठ से सदा नफरत रही है ने ऐसी बात कही
कैसे। इसका प्रभाव यह हुआ कि उस दिन सुबह को पी गई सिगरेट मेरे
जीवन की आखिरी सिगरेट बन गई।
इस प्रकार से २७ मार्च १९९७ मेरी जिन्दगी का स्वर्णिम दिन बन
गया।
धुएँ रहित जिन्दगी
जिस चीज की कल्पना भी न हो और वही मिल जाए तो जिस आनन्द की
अनुभूति होती है उसी आनन्द का अनुभव मुझे हुआ जब मैंने पाया कि
मेरी जिन्दगी अब धुएँ से मुक्त हो गई है। नॉन स्मोकर बनने के
बाद जो भी अनुभव मुझे हुए मैं उनको यहाँ लिपिबद्ध करने का
प्रयास करता हूँ-
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शरीर में नई ताजगी का अनुभव।
|
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खर्च कम हो जाने से आर्थिक बचत का सुख।
|
 |
गलती से जलती सिगरेट छूट जाने से आग लग जाने के भय की समाप्ति।
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परिवार के सदस्यों की खुशी का कोई ठिकाना न होने से आत्मसुख की
प्राप्ति। |
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शारीरिक क्षमता में बढ़ोतरी।
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ज्ञान बाँटने से बढ़ता है अपने अनुभवों को इंटरनेट के क्लबों
में बाँटने का अनुभव। |
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एंटी स्मोकिंग पर लिखी गई रचनाओं से रचनाकार मन को संतुष्टि।
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मुझे देखकर बच्चे में इस आदत के पनपने का खतरा जाता रहा।
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घर का माहोल धुएँ रहित होने से वातावरण स्वस्थ एवम स्वच्छ।
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कठिन कार्य को अन्जाम दे पाने से अपनी इच्छा शक्ति में अधिक
विश्वास। |
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बीयर अल्कोहल आदि के सेवन में और कमी से जीवन लगभग नशामुक्त।
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अन्य आदतों के जाल में न फसने को प्रोत्साहन।
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यह आत्मकथा लिखने का अनुभव अपने आप में एक निराला अनुभव
है, इसके अतिरिक्त
अन्य प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष अनुभव जो इस समय विस्मृत हो चुके
हैं।
२७ मार्च १९९७ से जिन्दगी का जिस तरह से काया पलट हो चुका है
इसका शब्दों में वर्णन करना बहुत ही मुश्किल है। एक बात कहना
चाहूँगा कि "धूम्रपान करने से मिलने वाले तथाकथित आनन्द से
कहीं ज्यादा या यों कहिये कि बहुत ज्यादा आनन्द धूम्रपान न
करने से मिलने वाले आनन्द में है। ” लेकिन इसका रसास्वादन
धूम्रपान को पूर्णतया छोड़ देने पर ही हो सकता है।
पिछले ४½ वर्षों की धुएँ रहित जिन्दगी ने मुझे अत्यधिक आनन्द
दिया है। जीवन को देखने समझने का नज्रिया ही बदल गया है। क्रोध
में कमी का होना भी एक महत्वपूर्ण लक्षण है।
धुएँ रहित जिन्दगी…मेरी सलाह
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सर्वप्रथम मैं यह कहना चाहता हूँ कि जल्दबाजी में फैसला न
करें। |
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अपनी इच्छा शक्ति में सदैव विश्वास
रखें। अपने इर्द गिर्द कारणों की तलाश करें।
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अपनी मंजिल स्वयं तय
करें। |
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कार्यक्रम के अनुसार आगे बढ़ो।
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मित्रों से अपने प्लान के बारे मे जरूर चर्चा
करें। |
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प्लान समय पर
आश्रित न होकर परिणाम पर आश्रित होना चाहिये।
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अपने स्मोकर मित्रों का साथ थोड़ा कम
करें पर घृणा कदापि
नहीं। |
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जब करें तो विचार पक्का
करें और उस पर कायम रहें। |
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किसी के बहकावे में आकर अपना प्रोग्राम बीच में न छोड़ें।
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यह कार्य मिठाई के स्वाद चखने जैसा नहीं कि मजा आया तो छोडें,
अन्यथा नहीं। |
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जिन्दगी में अगर अल्कोहल शामिल है तो धीरे धीरे कम करें।
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इस आदत के छूटने के बाद या छोड़ने के दौरान अन्य किसी नशे का
सहारा न लें। |
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एक बात गाँठ
बाँध लें ‘धूम्रपान से टेन्शन घटता नहीं अपितु
बढ़ता है’। |
पसंद अपनी–अपनी ख्याल अपना–अपना
अपनी इस आत्मकथा के अन्तिम पृष्ठ की ओर बढ़ते हुए मुझे एक
पूर्णता का आभास हो रहा है परन्तु मन में शंका भी है कि पता
नहीं आपको मेरी यह लघु जीवनी कैसी लगी क्योंकि… “पसन्द अपनी अपनी खयाल अपना अपना”…
मैंने यह आत्मकथा न तो किसी के ऊपर कोई दबाव डालने के लिए लिखी
है और न ही किसी अन्दरूनी दबाव के कारण लिखी है। जब अपने तीस
साल के धुएँ में घिरे जीवन की पिछले साढ़े चार साल के धुआँमुक्त
जीवन से तुलना की तो मुझे लगा यदि इस अनुभव को अन्य व्यक्तियों
के साथ बाँटने का प्रयास करूँ तो कैसा रहेॐ इसे पढ़ने वाले पर निर्भर करता है कि इसमें कही गई बातों को
कितनी गम्भीरता से ले पाता है आज के इस इन्टरनेट युग में जब
सूचना के तमाम साधन उपलब्ध हैं कोई भी अपनी मर्जी किसी पर भी
अनचाहे थोप नहीं सकता। एक छोटी सी कहानी के साथ मैं अपनी इस
धूम्रपान की आत्मकथा को समाप्त करना चाहता हूँ। “एक व्यक्ति ने अपने स्मोकर मित्र से मिजाहिया मूड में कहा
‘यार यह जो तुम सिगरेट पीते हो न इसके कम से कम तीन फायदे हैं’
‘कौन कौन से’…स्मोकर मित्र बोला पहला मित्र … ‘पहला यह कि धूम्रपान करने वाले को कभी बुढ़ापा
नहीं आता…दूसरा घर में कभी चोर नहीं आते’ स्मोकर मित्र…और तीसरा?
पहला मित्र…और तीसरा ‘उसे कभी कुत्ता नहीं काटता’
स्मोकर मित्र …वो कैसे? ‘मैंने तो कभी इसके बारे में सुना
नहीं। ’इस पर पहला मित्र बोला…देखो, धूम्रपान करने वाला व्यक्ति
ज्यादा जीता ही नहीं तो बुढ़ापा आएगा कैसे ? और रात में जब वो सोता है अक्सर खाँसता रहता है जिससे चोर यह
समझता है घर में कोई जाग रहा है ऐसे में घर के अन्दर घुसने का
जोखिम वो नहीं उठाएगा। स्मोकर से रहा न गया…और वो कुत्ते वाली बात ?
पहला मित्र… अरे भाई, धूम्रपान की लत वाले के हाथ में जल्द ही
लाठी आ जाती है। अब लाठी हाथ में देख कर कुत्ता पास फटकेगा क्या
भला? दोस्त की समझ में सब कुछ आ गया था और उसी दिन से वह नॉन स्मोकर
बन गया।
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