टोक्यो,
30 जुलाई। दक्षिणपूर्व एशिया के देशों
में हिंदी शिक्षण की परंपरा और वर्तमान स्थिति
पर विचार करने के लिए दो-दिवसीय
अंतर्राष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन संपन्न हुआ।
सम्मेलन के भव्य उद्घाटन समारोह में
जापान, चीन, इंडोनेशिया, थाईलैंड,
मलेशिया और सिंगापुर के अलावा अमरीका
और भारत के प्रतिनिधि मंडल ने भी भाग
लिया। सम्मेलन का उद्घाटन जापान में भारत
के राजदूत महामहिम श्री हेमंतकृष्ण सिंह ने
किया। टोक्यो विश्वविद्यालय के विदेशी भाषा
अध्ययन विभाग की प्रेसिडेंट श्रीमती सेत्सुहो
इकेहाता ने समारोह की अध्यक्षता की। उद्घाटन
समारोह में विदेशों से आए अनेक
प्रतिनिधियों के अलावा भारत के सुप्रसिद्ध
हास्य कवि प्रो .अशोक चक्रधर ने भी भाग
लिया और अपनी रोचक शैली में जापान के
सहयोग से भारत की राजधानी दिल्ली में
निर्मित निजामुद्दीन पुल को भारतजापान
मैत्री का प्रतीक बताते हुए मंत्रमुग्ध कर दिया।
सम्मेलन
के भव्य उद्घाटन के बाद प्रो .किम उजो (दक्षिण
कोरिया) की अध्यक्षता में दक्षिणपूर्व एशिया
के देशों में हिंदी शिक्षण की परंपरा पर
विचारविमर्श आरंभ हुआ। इस सत्र का विषय
प्रवर्तन करते हुए चीन के प्रतिनिधि प्रो
.जियांग जिंग कुइ ने चीन में भारतचीन
संबंधों में आई गरमाहट के कारण हिंदी
शिक्षण के क्षेत्र में संभावित परिवर्तन को
रेखांकित किया। इस सत्र में इंडोनेशिया,
सिंगापुर, मलेशिया, दक्षिण कोरिया,
थाईलैंड और जापान के प्रतिनिधियों ने
अपने-अपने देशों में हिंदी अध्यापन की स्थिति
का आकलन किया। इंडोनेशिया के प्रतिनिधि श्री
अशोकपाल सिंह ने अगला सम्मेलन जकार्ता
में आयोजित करने का प्रस्ताव करते हुए भारत
सरकार से हिंदी शिक्षक देने की मांग भी की।
अपराह्न
के सत्र में हिंदी शिक्षण, पाठयपुस्तक निर्माण,
साहित्यिक अनुवाद और कोशनिर्माण पर
चर्चा आरंभ हुई। इस सत्र की अध्यक्षता जापान के
प्रसिद्ध हिंदी विद्वान प्रो .तोशिओ तानाका ने
की। इस सत्र में न केवल हिंदी, बल्कि उर्दू और
हिंदुस्तानी की अध्ययन परंपरा पर भी
विचार्रविमर्श किया गया। विद्वान वक्ताओं
ने हिंदी-उर्दू के अध्यापन में नाटकों और फ़िल्मों
के विशिष्ट योगदान को रेखांकित किया। इस सत्र
में बीस वर्ष पूर्व जापान से प्रकाशित
ज्वालामुखी जैसी हिंदी पत्रिकाओं को फिर से
शुरू करने
का संकल्प किया गया। हाल ही में प्रकाशित
जापानी-हिंदी कोश की भी विशेष चर्चा की
गई। इस सत्र में जापान के अनेक
विश्वविद्यालयों से आए प्रतिनिधियों ने
भाग लिया और अपने संकल्प, सक्रियता और
निष्ठा से श्रोताओं को झकझोर दिया।
दूसरे
दिन का पहला सत्र पेन्सिल्वानिया विश्वविद्यालय
(अमरीका) के हिंदी प्रोफ़ेसर डॉ .सुरेंद्र
गंभीर की अध्यक्षता में हिंदी शिक्षण में
कंप्यूटर की व्यापक भूमिका पर चर्चा से आरंभ
हुआ। विषय प्रवर्तन करते हुए प्रसिद्ध
भाषावैज्ञानिक प्रो .सूरजभान सिंह ने
हिंदी शिक्षण के संदर्भ में ईशिक्षण के
महत्व को रेखांकित करते हुए सी-डैक, पुणे और
राजभाषा विभाग, भारत सरकार के संयुक्त
तत्वावधान में विकसित और मल्टीमीडिया पर
आधारित 'वेबलीला' नामक स्वयं हिंदी शिक्षक
पैकेज का प्रदर्शन किया। साथ ही प्रो .सिंह ने
यह भी बताया कि भाषा-शिक्षण के अंतर्गत
ज्ञान और कौशल के बाद अब प्रौद्योगिकी का
आयाम भी जुड़ गया है। उसके बाद हिंदी के
सुप्रसिद्ध हास्यकवि प्रो .अशोक चक्रधर ने अपनी
अनूठी और रोचक शैली में युनिकोड पर
आधारित प्रदर्शन करते हुए हिंदी शिक्षकों को
बताया कि शिक्षक यदि चाहें तो युनिकोड पर
आधारित अधुनातन कंप्यूटर प्रणाली की सहायता
से अपनी पाठ्य सामग्री को स्थानीय परिवेश
के अनुरूप अनुकूलित करते हुए अत्यंत रोचक,
उपयोगी, जीवंत और सामयिक बना सकते
हैं। इसे प्रमाणित करने के लिए उन्होंने
जापानी लोककथा के 'को' नामक लोकप्रिय पात्र
के आधार पर जापानी भाषा में 'ओ' ध्वनि के
व्यापक उपयोग पर प्रकाश डाला और इसे भारतीय
मनीषा में लोकप्रिय 'ओ3म्' के साथ
जोड़कर मनोरंजन के साथ हिंदी भाषा
शिक्षण को नया आयाम देने का सफल प्रयास
किया। इसी सत्र को आगे बढ़ाते हुए रेल
मंत्रालय, भारत सरकार के पूर्व निदेशक विजय
कुमार मल्होत्रा ने हिंदी सीखने-सिखाने में
प्राकृतिक भाषा संसाधन के व्यापक उपयोग पर
ज़ोर दिया। सत्र के अंत में प्रो .गंभीर ने
अपने अध्यक्षीय भाषण में ईशिक्षण के
संदर्भ में चार शैक्षणिक बिंदुओं पर प्रकाश
डाला और प्रामाणिक भाषा के आधार पर
अभ्यासिका बनाने की प्रक्रिया भी स्पष्ट की। हिंदी
भाषा शिक्षण के संदर्भ में उन्होंने भाषेतर
ज्ञान के शिक्षण पर भी ज़ोर दिया। अपने
मंतव्य को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने हिंदू
धर्म में प्रचलित अस्थि प्रवाह का उदाहरण देते
हुए यह स्पष्ट किया कि जब तक छात्र अस्थि प्रवाह की
मूल अवधारणा को नहीं समझता तब तक वह
उसके अर्थ को हृदयंगम नहीं कर सकता।
अगले
सत्र में प्रो .तोमियो मिज़ोकामी की
अध्यक्षता में हिंदी शिक्षण में हिंदी सिनेमा
और नाटक आदि जनमाध्यमों की भूमिका पर
व्यापक चर्चा हुई। आरंभ में श्री दिनेश
लखनपाल ने समाज पर सिनेमा के गहरे
प्रभाव का उल्लेख करते हुए स्पष्ट किया कि हिंदी
सिनेमा ने अनायास ही हिंदी के प्रचार में
महत्वपूर्ण भूमिका की निर्वाह किया है। इसके
बाद डॉ .चिहिरो कोइसो (तोक्यो) और
मिवाको कोईजुका (ओसाको) ने बताया कि
जापान में हिंदी शिक्षण के लिए हिंदी फ़िल्म के
गीतों का भरपूर उपयोग किया जाता है और
उन्होंने स्वयं कई गीत गाकर भी सुनाए। अंत
में अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में प्रो
.तोमियो मिज़ोकामी ने अनेक रोचक
प्रसंगों की चर्चा करते हुए बताया कि सिर्फ़
हिंदी फ़िल्मों का ही नहीं, टी .वी .सीरियल
और हिंदी नाटकों का भी हिंदी शिक्षण में
व्यापक उपयोग किया जा सकता है। उन्होंने
आगे बताया कि पिछले वर्ष उनके नेतृत्व में
जापानी छात्रों ने भारत के प्रमुख शहरों में
हिंदी नाटकों का सफलतापूर्वक मंचन किया था।
उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफ़ेसर
गिरीश बख्शी के सहयोग से रामायण के
लोकप्रिय सीरियल को हिंदी पाठ्य सामग्री के
रूप में तैयार करने के लिए लिप्यंकित करके
प्रकाशित भी करवाया है।
अगले
सत्र में विदेशी भाषा के रूप में हिंदी शिक्षण
की समस्याओं पर चर्चा की गई। सुप्रसिद्ध
भाषावैज्ञानिक प्रो .सूरज भान सिंह ने
इस सत्र की अध्यक्षता की। आरंभ में चीन के
प्रतिनिधि प्रो .जियांग चिंग कुई ने इस
बात पर बहुत दुःख प्रकट किया कि भारत के
अधिकांश लोग जब भी चीन में आते हैं तो
हमारे साथ हिंदी के बजाय अंग्रेज़ी में
बोलना ज्यादा पसंद करते हैं। इस कारण हमें
हिंदी में बोलने का अभ्यास नहीं हो पाता।
देशविदेश में रहकर हिंदी शिक्षण की
समस्याओं से निरंतर जूझते हुए उनका
व्यावहारिक समाधान सुझाने के काम में
वर्षों से संलग्न श्री नारायण कुमार ने
गिरमिटिया मज़दूरों के चौथे रूप की चर्चा
करते हुए बताया कि आम तौर पर लोग मॉरिशस,
फिजी, सुरीनाम आदि देशों में भारत से गए
गिरमिटिया मज़दूरों के तीन रूपों से ही
परिचित हैं : बागानों में काम करते हुए
गिरमिटिया मज़दूर .मालिकों के डंडों से
आहत होकर अस्पताल में कराहते हुए गिरमिटिया
मज़दूर और जेलों में बंद होकर
अमानुषीय व्यवहार झेलते हुए गिरमिटिया
मज़दूर . . .लेकिन उनका एक और रूप है . . .रात
के समय लालटेन की रोशनी में रामायण
बांचते हुए गिरमिटिया मज़दूरों का चित्र
उनकी जिजीविषा को प्रदर्शित करता है।
उन्होंने
कहा कि जापान के हिंदी अध्यापक इस बात को लेकर
बहुत चिंतित हैं कि उनके छात्र 'र' और 'ल' में
भेद नहीं कर पाते, किंतु यदि छपरा (बिहार) के
लोग हिंदी ध्वनियों का ग़लत उच्चारण करते
हुए छपरा की 'सरक' पर 'घोरा' 'दौरा' सकते हैं
तो तोक्यो की 'सरक' पर भी 'घोरा' 'दौर'
सकता है। इसके बाद इंडोनेशिया के प्रतिनिधि
प्रो .सोमवीर ने बताया कि बाली (इंडोनेशिया)
में हिंदी पढ़ने वाले छात्रों को संख्या में
निरंतर वृद्धि तो हो रही है, लेकिन यदि उन्हें
कुछ समय के लिए भारत भेजने की व्यवस्था की
जा सके तो इस संख्या में और भी वृद्धि हो
सकती है। उन्होंने आगामी क्षेत्रीय सम्मेलन
इंडोनेशिया में आयोजित करने का सुझाव
भी दिया। थाईलेंड के प्रतिनिधि प्रो .बमरूंग
ने थाईलेंड में हिंदी शिक्षण की समस्याओं
का चर्चा की। ओसाको विश्वविद्यालय में
कार्यरत हिंदी प्रोफ़ेसर सुश्री यासमीन
सुलताना नकवी ने अत्यंत रोचक शैली में
जापानी छात्रों के संकोची स्वभाव का ज़िक्र
करते हुए बताया कि जापानी छात्रों का मुंह
खुलवाना बहुत कठिन होता है, लेकिन जब एक
बार उनका मुंह खुल जाता है तो दिल खुलने
में भी देर नहीं लगती। दक्षिण कोरिया की
प्रतिनिधि प्रो .किम ऊजो ने दक्षिण कोरिया
में हिंदी शिक्षण की समस्याओं से श्रोताओं
को अवगत कराते हुए यह भी सूचना दी कि
क्षेत्रीय स्तर पर समस्याओं का निदान खोजने के
लिए और आपसी तालमेल के लिए जापान,
दक्षिण कोरिया और चीन के प्रतिनिधियों ने
अपना एक मिला-जुला मंच बनाने का विचार
किया है।अंत में प्रो .सूरज भान सिंह ने
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में सुझाव दिया कि
हिंदी के वैश्विक स्वरूप को देखते हुए यह आवश्यक
है कि विभिन्न देशों में प्रचलित हिंदी के
विभिन्न भाषिक प्रयोगों को संकलित किया
जाए ताकि उनका उपयोग विदेशी भाषा शिक्षण
के लिए किया जा सके।
सम्मेलन
का समापन सत्र ओसाका (जापान) में स्थित
भारतीय कॉन्सुलेट के कॉन्सुलेट जनरल श्री
ओमप्रकाश अध्यक्षता में संपन्न हुआ। सत्र के
दौरान अपना वक्तव्य देते हुए विदेश मंत्रालय,
भारत सरकार की उपसचिव (हिंदी) श्रीमती मधु
गोस्वामी ने चीन के प्रतिनिधि द्वारा की गई
आलोचना को 'निंदक नियरे राखिये' की
भावना के अनुरूप रचनात्मक बताया और क्षेत्रीय
हिंदी सम्मेलन की मूल अवधारणा को स्पष्ट करते
हुए कहा कि क्षेत्रविशेष की समस्याओं पर चर्चा
करने के लिए भारत सरकार ने नियमित रूप से
प्रतिवर्ष कम से कम तीन क्षेत्रीय हिंदी
सम्मेलन आयोजित करने का निर्णय किया है।
इस श्रृंखला में पहला सम्मेलन आबूधाबी
में आयोजित किया गया था और इसी क्रम
में तोक्यो का यह सम्मेलन आयोजित किया
जा रहा है।अंत में उन्होंने सम्मेलन में दिए
गए इस सुझाव पर भारत सरकार की ओर से
गंभीरता से विचार करने का आश्वासन दिया कि
विदेशों में कार्यरत हिंदी शिक्षकों के लिए
भारत में एक पुनश्चर्या पाठ्यक्रम चलाया जाए।
मानक पाठ्यक्रम के सुझाव को उपयोगी मानते
हुए भी उन्होंने कहा कि किसी भी पाठयक्रम में
स्थानिक पक्ष की उपेक्षा नहीं की जा सकती। इसी
सत्र में जापान में भारतीय दूतावास के प्रथम
सचिव श्री रामू अब्बागानी ने अहिंदीभाषी
होते हुए भी हिंदी के महत्व को स्वीकार किया।
टोक्यो विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर
और इस सम्मेलन के संयोजक डॉ .सुरेश
ऋतुपर्ण ने सम्मेलन के सभी सत्रों में हुए
विचारविमर्श पर अपनी संक्षिप्त रिपोर्ट
प्रस्तुत करते हुए आशा व्यक्त की कि इस प्रकार के
विचारविमर्श से न केवल जापान में
बल्कि पूरे दक्षिणपूर्व एशिया में हिंदी
प्रचारप्रसार को बल मिलेगा। अंत में
भारतीय कॉन्सुलेट जनरल श्री ओमप्रकाश ने
अपने अध्यक्षीय वक्तव्य में बताया कि भारतीय
मीडिया में हिंदी का बढ़ता उपयोग इस बात का
परिचायक है कि भारत में हिंदी की प्रगति
संतोषजनक है।
अंत
में सम्मेलन के समापन की घोषणा करते हुए
तोक्यो विश्वविद्यालय के विदेशी विभाग के
अध्यक्ष प्रो .ताकेशी फुजिई ने अपने विभाग की
ओर से सम्मेलन में उपस्थित सभी वक्ताओं
और श्रोताओं के प्रति और ख़ास तौर पर विदेश
मंत्रालय, भारत सरकार और जापान स्थित
भारतीय दूतावास के प्रति आभार प्रकट किया।
उन्होंने सम्मेलन को सफल बनाने के लिए
जापान में बसे भारतीय समुदाय के उन
तमाम लोगों के प्रति भी आभार प्रकट किया,
जिन्होंने निष्काम भाव से भोजन, आवास
आदि की समुचित व्यवस्था करने में कोई
कोरकसर नहीं छोड़ी। अंत में उन्होंने पूरी
सहृदयता से स्वीकार किया कि वस्तुतः इस
सम्मेलन की सफलता का पूरा श्रेय टोक्यो
विश्वविद्यालय में हिंदी के प्रोफ़ेसर और इस
सम्मेलन के संयोजक डॉ सुरेश ऋतुपर्ण को
है।
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अगस्त 2006
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