"लेखक
को कभी आलोचक की चिंता नहीं करनी चाहिये। आलोचक
विवश होता है लेखक पर लिखने को। हिन्दी साहित्य का पाठक
वर्ग हिन्दी का सबसे बड़ा आलोचक है। व्यंग्य पाठकों
द्वारा सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली और पसंद की जाने वाली
विधा है। मैं बधाई देना चाहूंगा आयोजकों को तथा
इस कार्यक्रम के संयोजकों को कि उन्होंने इतना
बढ़िया, लीक से हटा हुआ, विषय आज बहस के लिये
रखा। व्यंग्य आलोचना पर आज की बहस सुनकर मेरा मन
बना है कि मैं 'व्यंग्य के मूलभूत प्रश्न' के पश्चात 'व्यंग्य
आलोचना : चिंतन और चिंताएं ' विषय पर पुस्तक
लिखूं।" यह उद्गार डा शेरजंग गर्ग ने युवा
साहित्य मंडल द्वारा आयोजित दो दिवसीय सम्मेलन के
दूसरे दिन नेशनल बुक ट्रस्ट के सहयोग से 'व्यंग्य
आलोचना का व्यंग्य' विषय पर आयोजित गोष्ठी में
अपने अध्यक्षीय भाषण में कही। कार्यक्रम का संयोजन
एवं संचालन व्यंग्यकार प्रेम जनमेजय ने किया। इस
अवसर पर देश के विभिन्न राज्यों से आए हुए डेढ़ सौ से
अधिक रचनाकार उपस्थित थे। कार्यक्रम
के आरम्भ में प्रेम जनमेजय ने विषय की संकल्पना स्पष्ट
करते हुए कहा,"गद्य को कवियों की कसौटी माना जाता
है। यदि गद्य कविता की कसौटी है तो व्यंग्य गद्य की कसौटी
है। कविता को अपना रूप निखारने के लिए वर्षों का समय
मिला है। इसके मुकाबले गद्य ने अल्पकाल में ही बहुमुखी
विकास किया है। व्यंग्य का सही स्वरूप तो स्वतंत्रता के बाद
ही उभर कर आया है। व्यंग्य का एक महत्वपूर्ण तत्व
आलोचना है। व्यंग्य को जीवन की आलोचना भी कहा
गया है परन्तु जीवन की विसंगतियों की आलोचना करने
वाली इस साहित्यिक विधा के साथ यह विसंगति घटित
हुई कि उसका आलोचना का पक्ष बहुत दुर्बल रह गया। रायपुर
से आए, सद्भावना दर्पण के संपादक गिरीश पंकज ने
कहा, "आज आवश्यकता है कि हम व्यंग्य से जुड़े अन्य
विषयों पर भी चर्चा करें। व्यंग्य पर हो रही बहसें
बहुत ही सीमित हैं। आज आवश्यकता है व्यंग्य को उसका
स्वतंत्र रूप दिलाने के लिए उसके प्रतिमानों पर चर्चा करने
की। व्यंग्य मात्र हंसने हंसाने की विधा नहीं है यह
जीवन की सार्थक आलोचना प्रस्तुत करता है और हममें
आक्रोश पैदा करता है।" राजेन्द्र
सहगल ने तीखे तेवर अपनाते हुए कहा कि यह अच्छी
बात है कि व्यंग्य आलोचना से जुड़े विषयों पर
सार्थक बातचीत हो रही है। मेरे हिसाब से रचना वही
अच्छी है जो अधिक से अधिक पाठकों तक पहुंचे। चर्चित
व्यंग्यकार और व्यंग्य आलोचक सुभाष चंदर ने कहा कि
आज का विषय होना चाहिये थाहिन्दी व्यंग्य
आलोचना को तलाश है एक नामवर सिंह की। आज देखें तो
व्यंग्य आलोचना का मापदंड क्या है? हम आलोचकों को
बहुत भाव दे रहे हैं और लोग मुझसे अपेक्षा रख रहे हैं
कि मैं व्यंग्य रचनाकर्म छोड़ आलोचक का कर्म अपना लूं।
यह विषय बहुत ही बढ़िया है और मैं चाहूंगा कि
भविष्य में भी इस पर बहस हो। डा
रामचंद्र खरे ने कहा कि व्यंग्य एक सार्थक अस्त्र है। व्यंग्यकार
के साथ रहना एक मुश्किल कर्म है। व्यंग्य की पूरी थाली हो
तो ही आनंद आता है। व्यंग्य में एक अच्छे आलोचक की कमी
है। डा रमेश सोबती ने कहा कि अक्सर व्यंग्य को हास्य के
एक भेद के रूप में ही अभिव्यक्त किया गया है। व्यंग्य
चेतना का शंखनाद है। यह हमें झकझोरने का काम करता
है। खंडवा
से पधारे श्री चौरे ने आज के युग में व्यंग्य की
आवश्यकता पर बल देते हुए कहा कि व्यंग्य आज की सबसे
अधिक लोकप्रिय विधा है। श्याम सखा श्याम ने भी व्यंग्य
की सही और निष्पक्ष आलोचना की आवश्यकता पर बल देते
हुए उसके स्वरूप निर्धारण पर बल दिया। भरतपुर से आई
अर्चना बंसल ने भी बल दिया कि कोई भी बहस करने
से पहले हम जान लें कि व्यंग्य है क्या। इलाहाबाद से
पधारे डा रामसेवक शुक्ल ने कहा कि व्यंग्य वार की तरह
होता है जो मोटी खाल पर वार नहीं करता। सुल्तानपुर से
पधारे डा सुशील कुमार पांडेय ने आचार्य मम्मट का उद्धरण
प्रस्तुत करते हुए बताया कि व्यंग्य एक उत्तम काव्य है। तुलसी
भी रत्नावली के व्यंग्य बाण को कभी भूल नहीं पाए।
प्रसिद्ध
व्यंग्यकार डा हरीश नवल ने कहा कि व्यंग्य की ताकत को आज
तक सही रूप में समझा नहीं जा सका है। यह सही है कि जब
रचनाकार को इसका सही मूल्यांकन करने वाला मिल जाता
है तो पाठकों के सामने रचनाकार का सही चेहरा आ जाता
है। हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने जब कबीर पर आलोचनात्मक
दृष्टि से लिखा और उनको वाणी का डिक्टेटर कहा तो
लोगों ने कबीर की भाषा की ताकत को सही रूप में
पहचाना। मैं बधाई देना चाहूंगा प्रेम जनमेजय को
कि उन्होंने इस विषय पर आज एक सार्थक बातचीत शुरू
करवाई तथा कार्यक्रम के आरम्भ में ही विषय से जुड़े
सवालों को इतनी बेहतर तरह से प्रस्तुत कर दिया कि आने
वाले वक्ता उससे दिशा ग्रहण कर सकते थे।
हास्य
और व्यंग्य में अंतर है और आवश्यकता है उसे समझने
की। व्यंग्य कुनैन की तरह होता है तथा व्यंग्यकार हास्य के
कैपसूल में इस कड़वी गोली को लपेटकर देता है। हास्य
व्यंग्य का सहायक है। व्यंग्य में करूणा अवश्य होनी
चाहिये। हमारी तीसरी पीढ़ी प्रेम जनमेजय, ज्ञान
चतुर्वेदी, हरीश नवल, ईश्वर शर्मा, पूरन सरमा,
दामोदर दत्त दीक्षित, बालेंदुशेखर तिवारी आदि बहुत
सामर्थ्यवान पीढ़ी के रूप में उभरी और इसे अनेक
चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। सबसे बड़ी
चुनौती थी अपने अग्रजों को न दोहराना तथा
आलोचकों ने स्वीकार किया है कि हमारी पीढ़ी ने इस
चुनौती को बखूबी स्वीकार किया है।
कार्यक्रम
के विशिष्ट अतिथि, लंदन से पधारे तथा कथा यूके व इंदु
शर्मा अंतर्राष्ट्रीय कथा सम्मान के संयोजक, प्रसिद्ध
कथाकार, तेजेन्द्र शर्मा ने चुटकी लेते हुए कहा कि हम
कहानीकार जिस आलोचक से परेशान हैं, व्यंग्यवाले
कहते हैं कि वह हमारे यहां क्यों नहीं है। लेखक को कभी
परवाह नहीं करनी चाहिये कि उसे आलोचक मिला या
नहीं। रचनाकार को तो अपना रचनाकर्म करना चाहिये। हम
प्रवासी भारतीय अगर आलोचकों की चिंता करने लगें तो
कभी लिख ही नहीं सकते हैं। विपरीत परिस्थितियों में हम
जिस तरह विदेशों में हिन्दी साहित्य को जिंदा रखे हुए
हैं, एक बड़ी बात है।
अंत
में नेशनल बुक ट्रस्ट के पंकज चतुर्वेदी ने ट्रस्ट की ओर
से सभी को धन्यवाद देते हुए कहा कि मैं आभारी हूं कि एक
सार्थक विषय पर सार्थक बातचीत हुई है।
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