अभी
लंच करके लेटा ही था, तभी फोन बज उठा। रिसीवर उठाकर कान पर
लगाते हुए मैंने पूछा, "हेलो, कौन?"
"नमस्ते पापा!" परागी की आवाज सुनते ही मैंने हँसकर कहा, "ओह
परागी! कैसी हो तुम?"
"बस पापा! अवनीश और मैं अपने अपार्टमेंट की बालकनी में
बैठे-बैठे बातें कर रहे हैं"। परागी ने कहा, "यहाँ
ऑस्ट्रेलिया में दोपहर है और आपके इंडिया में सुबह।"
"ठीक कहा बेटा! खूब खुश लग रही है तू!"
"जी पापा! वातावरण ही खुशनुमा है, जैसे साबरमती अहमदाबाद के
बीच से बहती है, बैसे ही यारा नदी यहाँ मेलबर्न के बीच से बहती
है। बहुत ही सुंदर लगती है।"
फिर उसकी गंभीर सी आवाज आई, "आज आकाश में बादल...पापा, इन्हें
देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया।"
"कैसे बेटा?"
"मैं और भाई मुनीर, जब हम छोटे थे, तब इसी तरह आकाश में बादलों
में बनते-बदलते आकारों के बारे में आप बतलाया करते थे।"
"हाँ-हाँ..।" मैं भी भाव-विभोर हो उठा।
"बस, ऐसे ही यहाँ देख रही हूँ, बादलों में बनी बड़ी सी मछली
दिखाई देती है, फिर हाथी... और फिर उनमें से कोई विचित्र पक्षी
जैसा और ऐसे ही बहुत कुछ और...।"
मैं क्षण भर के लिए मुनीर और परागी के बचपन की दुनिया में खो
गया।
"पापा-पापा!" परागी की तेज आवाज को सुनते ही मैं बोला,
"हाँ-हाँ, बेटी! बोल, ऑस्ट्रेलिया में मन तो लग गया न!"
"पापा..." बोलकर वह थोड़ी देर रुकी, फिर बोली, "अब हम यहाँ सेट
होते जा रहे हैं। पिछले रविवार को हम होम्स देखने गए थे।"
परागी ने सहज होते हुए बताया, "इससे पिछले रविवार को सेंट
पैट्रिक चर्च देखने गए थे।"
"अच्छा है, बेटा, इसी तरह घूमते-फिरते रहो" मैं जैसे बोलने के
लिए बोल गया।
"मुनीर तो ऑफिस गया होगा न! सलोनी भाभी और रिया क्या कर रही
हैं?" परागी ने पूछा।
"सलोनी रिया को लेकर अपनी मम्मी के घर गई है कल या परसों
आएगी।" मैं भी कहने को कह गया। लेकिन परागी के मन में शक तो आ
ही गया। उसने पूछा, "पापा, ऐसे कैसे ढीले-ढाले बोल रहे हो? वे
तुम्हारी देखभाल तो कर रहे हैं न, ठीक ढंग से?"
मैं थोड़ा सा अटका, फिर फौरन ही सँभलते हुए बोला, "तू क्या पूछ
रही है, बेटा?" तेरा भाई तो अपने में मस्त और मैं अपने में।
कोई फिकर नहीं।"
कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद परागी बोली, "पापा, हम यहाँ सेट
हो जाएँ तो इसके बाद आपको यहीं बुलाएँगे, खूब जमेगी यहाँ।"
अवनीश-परागी के इन लगाव भरे शब्दों को सुनकर मेरी आँखों में
आँसू आ गए।
परागी और मुनीर दोनों मेरी ही संतानें। परागी बड़ी और मुनीर
छोटा सुरभि के गुजर जाने के बाद परागी ने ही सारे घर को सँभाल
लिया था। पढ़ाई के साथ-साथ वह घर का भी ध्यान रखती। सुरभि के
समय में घर जैसा था, उसे वैसा ही बनाए रखा, लेकिन मेरी
जवाबदारी बढ़ गई, क्योंकि सुरभि ही घर-बाहर के सारे व्यवहार
सँभालती थी, सभी संबंधों को बनाए रखती थी। क्या खरीदना है?
कहाँ से खरीदना है? कब लेना है? इस सबकी उसे गहरी समझ थी। उसके
फोटो पर नजर डालता हूँ तो वह एक मर्म भरी हँसी हँसती हुई-सी
लगती है। मैं मन-ही-मन व्यथित होता, लेकिन कर भी क्या सकता था
लाचारी के सिवाय।
दिन बीतते गए। मुनीर ने कॉलेज पूरा कर कंप्यूटर का कोर्स किया।
परागी एम.ए. पास कर एक कॉरपोरेट कंपनी में नौकरी पर लग गई।
मेरी पेंशन से हम तीनों का गुजारा चल जाता था। सुरभि की मृत्यु
के बाद परागी कभी-कभी रात को जाग जाती। बालकनी में जाकर आसमान
को देखती रहती। इसमें कहाँ होगी मम्मी?...मुझे देखती होगी
क्या- ऐसे विचारों में खोई-खोई वह रो पड़ती। मैं उठकर उसके पास
जाता और रोती हुई परागी को समझा-बुझाकर चुप कराता। वह मुझसे
लिपटती हुई कहती, "पापा, मम्मी की बहुत याद आती है।"
"बेटा, याद तो मुझे भी बहुत आती है, लेकिन किया भी क्या जाए।"
"मैं और भाई क्या करेंगे? हमारी क्या...?" मैं बीच में ही,
हालाँकि मैं अंदर-ही-अंदर टूट चुका था, फिर भी कह उठता, "बेटा,
मैं हूँ न, सब ठीक हो जाएगा।"
परागी धीरे-धीरे शांत हो जाती और लड़का मुनीर गहरी नींद में
सोता रहता।
सुरभि के जाने के बाद एक-दो मित्रों ने गुपचुप कहा भी, ‘तू
दूसरी शादी कर ले, हमारी निगाह में है एक...।’
मैं बीच में कहता, ‘नहीं, परागी और मुनीर दोनों बड़े हो रहे
हैं, उन्हें समझ है, वे संस्कारी हैं। परागी विवाह के बाद चली
जाएगी तो मेरी जिंदगी मुनीर के परिवार के साथ बीत ही जाएगी।’
फिर जब मैं अकेले में होता तो मेरा मन इन दोनों के भविष्य के
बारे में, विवाह-शादी के बारे में सोचने लगता।
भविष्य की आशा में ही दिन बीत रहे थे।
मुनीर के लिए एक लड़की देखी थी और उसकी आंटी की मदद से बात
पक्की कर दी थी। परागी भी भाई की शादी की तैयारी करवाने में
पीछे नहीं रही। मुझे कोई चिंता करने की जरूरत नहीं पड़ी। मुनीर
की शादी गाजे-बाजे के साथ धूमधाम से हो गई। मुनीर और सलोनी की
जोड़ी ऐसी थी कि उन्हें देखकर किसी को भी ईर्ष्या हो सकती थी।
मेरी आँखों में आनंद की चमक देख सभी खुश थे, पर मुझे डर लगता
कि मेरे घर को किसी की नजर न लग जाए।
नौकरी करते-करते परागी वहीं के एक युवक अवनीश के परिचय में आई।
दोनों के हृदय का आकर्षण अंततः परिणय में बदल गया। मुझे लगा कि
चलो, मेरे सिर का बोझ हलका हुआ। अब मुनीर के बच्चों के साथ
जिंदगी बीत जाएगी।
परागी के साथ शादी करने के बाद दूसरे महीने में ही अवनीश को
ऑस्ट्रेलिया में कंप्यूटर की एक कंपनी ने एक बड़ी तनख्वाह का
ऑफर देकर बुला लिया। परागी और अवनीश तीसरे महीने ही
ऑस्ट्रेलिया के लिए उड़ गए।
अब घर में मैं, मुनीर और सलोनी तीन ही प्राणी रह गए। सलोनी
प्रेगनेंट थी। मैं मन-ही-मन सोचता रहता कि अब सुरभि के बिना
बचे दिन मुनीर के बच्चों के साथ खेलते-खाते कट जाएँगे। लेकिन
उसके बच्चों के साथ खेलना-खाना मेरे भाग्य में नहीं था। सलोनी
बेटी रिया को जन्म देने के बाद एकदम ही बदल गई।
ससुराल में आकर बहुओं को ससुराल के रीति-रिवाजों को अपनाकर उसे
स्वर्ग बनाना होता है। पीहर को भूलकर अपने व्यक्तित्व को
निखारना होता है लेकिन सलोनी ने ससुराल से अलग होकर रहने में
ही अपना सुख देखा। उसने मुनीर से अलग होने को कहा। बेवजह के
सवाल खड़े कर सलोनी ने घर के वातावरण को कलहपूर्ण बना डाला।
अंततः वे दोनों अलग रहने चले गए।
इस बात को बताकर मैं परागी को ऑस्ट्रेलिया में दुखी नहीं करना
चाहता था। इसलिए परागी जब भी फोन पर मुनीर-सलोनी के बारे में
पूछती तो मैं एक ही जवाब देता, ‘दोनों बाहर गए हैं।’
एक बार परागी का रात के नौ बजे फोन आया। "पापा", कहकर
खिलखिलाकर हँसी, हँसती हुई बोली, "चौंक गए न? बताओ, यहाँ कितने
बजे होंगे?"
"इस समय यहाँ...बताता हूँ रुको एक सेकेंड...।"
यहाँ रात के दो बजे हैं और आपके यहाँ नौ।" परागी ने बताया।
"क्यों बेटा, आधी रात तक जागती हो!" मैंने पूछा।
"कंप्यूटर पर थोड़ा सा काम कर रही थी कि आपकी याद आ गई", फिर
थोड़ा सा अटककर बोली, "मुनीर को जरा फोन दीजिए अवनीश को उससे
बात करनी है।"
मैंने धड़कते दिल से कहा, "लेकिन बेटा परागी, वह तो बाहर गया
हुआ है।"
"पापा, मैंने उसे ई-मेल किया था, उसका भी उसने कोई जवाब नहीं
दिया, इसलिए...।"
मैंने अपने स्वर में सहजता लाते हुए कहा, "काम में लगा रहा
होगा, मैं उससे कह दूँगा।"
इस तरह समय बीतता रहा।
एक दिन सुबह-ही-सुबह भट्ट साहब घर पधारे। घर में घुसते ही
बोले, "कहीं दिखाई नहीं देते? क्या करते रहते हो दिन भर घर में
पड़े-पड़े?"
मैंने कहा, "बैठो भट्टजी! आज सुबह-ही-सुबह...?"
"हाँ, यहाँ पास में ही आया था, तो लगा कि तुमसे भी मिलता
चलूँ।" भट्टजी ने कहा। फिर पूछा, "परागी और जमाईराजा क्या करते
हैं ऑस्ट्रेलिया में?"
"बस, मौज कर रहे हैं। कभी-कभी फोन कर लेते हैं तो मुझे भी चैन
आ जाता है।"
"मुनीर और सलोनी अलग रह रहे हैं, यह बात तुमने बताई उन्हें?"
"ना, यह बात जानकर दोनों वहाँ दुखी होंगे। मैं तो अपना समय काट
ही लूँगा यहाँ।"
तभी फोन की घंटी बजी। मैंने फोन के रिसीवर को कान पर लगाते हुए
कहा, "बोलो...!"
"पापा, क्या कर रहे हो?"
"परागी! तू...तेरी ही बात चल रही थी बेटा! भट्ट अंकल आए हुए
हैं, वे पूछ रहे थे तेरे बारे में! ले, भट्टजी से बात कर...।"
कहकर मैंने फोन को हथेली से ढककर भट्टजी से कहा, "लो, भट्टजी
बात करो, लेकिन मुनीर-सलोनी के बारे में बात नहीं करना।"
भट्टजी फोन पर परागी से बात करने लगे। उनकी बातें चल ही रही
थीं कि तभी दरवाजे की घंटी बजी। मैंने दरवाजा खोला। देखा, कान
से मोबाइल लगाए बात करती परागी और अवनीश! मैं तो अवाक् रह गया।
मेरे मुँह से निकल पड़ा- "परागी-अवनीश! इस तरह अचानक? मुझे खबर
तो की होती।"
"पापा, हम कल शाम को ही आ गए थे।"
भट्टजी तुरंत बोल उठे, "कल शाम को ये मेरे घर आ गए थे।
परागी ने महीने भर पहले मुझे फोन किया था और तुम्हारे बारे में
सारी बातें मुझसे पूछी थीं। मैंने मुनीर-सलोनी रिया को लेकर
अलग रहने लगा है- यह बात इन्हें बता दी थी।"
"लेकिन भट्टजी, मैंने तुम्हें...।"
"न, पापा" अवनीश ने बीच में कहा, "हमें भट्ट अंकल ने सही बात
बता दी और हमने जान ली, इसलिए उनसे कुछ न कहिए।"
"लेकिन भट्टजी का फोन नंबर तुम्हारे पास कहाँ से...?
"पापा, मेरे मोबाइल में बहुत पहले से इनका नंबर था। मैं जब भी
आपसे पूछती तभी आप सकपका जाते। आपके बोलने के अंदाज से लग गया
था कि यहाँ कुछ न बताने लायक बात हो गई है।" कहते-कहते परागी
थोड़ी देर रुकी फिर बोली, "मोबाइल में नंबर चेक करते-करते भट्ट
अंकल का नंबर मिल गया, जिससे सारी बात पता चली।" तभी अवनीश ने
कहा, "और मैंने ही परागी से कहा, चलो, अपने पापा को यहाँ ले
आएँ।"
"लेकिन बेटा!" मेरी आँखें छलछला आईं। मैं आगे कुछ नहीं बोल
सका।
मेरा
पासपोर्ट तैयार था। वीजा के लिए सारी भागदौड़ अवनीश ने पहले ही
कर ली थी। पंद्रह दिनों के अंदर ही इंडिया छोड़ने की तैयारी
पूरी हो गई। रवाना होने से एक दिन पहले मुनीर-सलोनी को मैंने
बुलाया। परागी बोली, "भाई सलोनी भाभी पापा ने वसीयत कर दी है।
वह अंकल भट्ट के पास है। उसमें पापा ने मेरे नाम संपत्ति लिख
दी है लेकिन मुझे वह नहीं चाहिए। सबकुछ तुम ले लेना- यह बात
मैं अपनी मरजी से कह रही हूँ। भट्ट अंकल, मेरी यह बात याद
रखना।" फिर थोड़ी रुककर भाव-विभोर होते हुए परागी बोली, "पापा
को हम अपने साथ ले जा रहे हैं। मम्मी-पापा ने हमें गरीबी में
किस तरह पाल-पोसकर बड़ा किया है, इसे मैं जानती हूँ, इसीलिए हम
इन्हें यहाँ अकेले नहीं छोड़ सकते, अपने साथ ले जा रहे हैं।"
और इसके बाद ही कमरे में सन्नाटा छा गया। |