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साहित्य संगम

साहित्य संगम के इस अंक में प्रस्तुत है श्रीवल्ली राधिका की तेलुगु कहानी का हिन्दी रूपांतर- "लहरें जहाँ टूटती हैं", रूपांतरकार हैं श्री जी परमेश्वर।


“अर्चना कल ही आ रही है।” भवानी ने बेचैनी के साथ सोचा। उस दिन जागने के बाद उसका इस प्रकार सोचना यह साठवीं बार था। दो वर्ष बाद अपने अभिन्न मित्र से मिलने की बात उसके मन को अशांत कर रही थी।

‘अभिन्न मित्रता!', हाँ, अपनी मित्रता के प्रति उन दोनों की भावना वही है। कालेज में उनकी पहली भेंट, उन दोनों के लिए आज भी एक अविस्मरणीय घटना है। तीन वर्ष का कालेज जीवन, हास्टल, साथ मिलकर देखी गयीं फ़िल्में, पढ़ी हुई पुस्तकें, प्रत्येक घटना, उनकी मित्रता को मज़बूत बनाने में सहायक ही रही। कभी भी... किसी भी परिस्थिति में दोनों की प्रतिक्रियाएँ एक जैसी होती थीं। परिहास में झगड़ने के लिए भी उनके बीच कभी मतभेद नहीं होता था।
“आपके जीवन की अद्भुत घटना कौन सी है?” यदि भवानी से कोई पूछ बैठे तो शायद वह एक ही उत्तर देगी - “ठीक मेरी तरह सोचने वाली मित्र का होना।”

डिग्री एग्ज़ाम्स समाप्त होने की देरी थी कि अर्चना का विवाह हो गया। वे इंजीनियर थे। विवाह के समय अमेरिका में थे। उनकी कंपनी की ओर से उन्हें किसी ट्रेनिंग के लिए भेजा गया था। स्वयं भी अमेरिका जाते हुए अर्चना ने भवानी को सावधान किया “तुम्हारे माता पिता जो भी रिश्ता ले आएँ, उसके लिए सिर न हिला देना। किसी क्लर्क या टीचर से विवाह करके अपने जीवन को नारकीय न बना लेना।”

भवानी, धक-सी हो गयी। क्यों कि उससे एक दिन पहले ही किसी ने एक रिश्ता बताया था। वे सेक्रटेरियट में अपर डिवीजन क्लर्क थे। माता पिता इस रिश्ते पर आस लगाए बैठे थे। एक पल के लिए दुविधा में पड़ कर भवानी ने कहा “मेरा क्या है?”
इस प्रकार अमेरिका की यात्रा कर अर्चना एक वर्ष बाद लौटी। उसके पति की नौकरी मद्रास में हो गई थी। सास... ससुर... बड़ा घर, अपने बारे में विस्तार से लिखते हुए उसने भवानी के नाम एक पत्र लिखा। उसके प्रत्युत्तर में भवानी ने लिखा – उसका विवाह लगभग निश्चित हो चुका था। वर का नाम प्रकाश है... विवाह एक महीने की भीतर ही हो सकता है... वह विवाह में अवश्य आये। प्रकाश की नौकरी के बारे में बिलकुल नहीं लिखा। वे एक सरकारी दफ़्तर में अपर डिवीजन क्लर्क थे। यह बात पत्र में लिखने का साहस उसमें नहीं था। अर्चना विवाहोत्सव में आयी। प्रकाश के बारे में उसने विशेष रूप से भवानी से कुछ नहीं पूछा। भवानी ने सोचा कि देख कर उसने सब कुछ समझ लिया होगा।

सवेरे दस बजे विवाह हुआ, और रात के दस बजे भवानी ससुराल चली गयी। उसके तुरंत बाद अर्चना भी मद्रास के लिए निकल पड़ी। और अब ढाई वर्ष के बाद अर्चना ने हैदराबाद आने का संदेशा भेजा है। इस बीच जीवन ने कितने ही मोड़ लिये। भवानी का एक बेटा हो गया, वह भी एक छोटी सी पाठशाला में नौकरी करने लगी है।

हर दिन एक ही प्रकार की दौड़-धूप ... सवेरे जल्दी-जल्दी घर के काम निपटाना, बेटे को तैयार करना. बेबी केयर सेंटर में पहुँचाना, बस पकड़ कर पाठशाला जाना, शाम को आना फिर बेबी केयर सेंटर पहुँचना, बेटे को लेकर घर लौटना, उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करना, घर के काम धंधों से निपटना और इस बीच चार दस बच्चों को ट्यूशन पढ़ाना।
लगभग एक यंत्र बन गया था भवानी का जीवन। इस विचार से कि इस थकान भरे जीवन में एक दो दिन के लिए कोई परिवर्तन आएगा, उसका उत्साह बढ़ जाता था। स्नान के लिए जाते समय, अलमारी में से साड़ी निकालते समय, अर्चना का पत्र दिखाई दिया। इतनी व्यस्तता में भी भवानी उसे दुबारा पड़े बिना न रह सकी-
“रविवार को सवेरे मेरे देवर का विवाह हैदराबाद में है। मैं शुक्रवार की रात निकल कर आ रही हूँ। शनिवार को सारा दिन तेरे साथ बिताऊँगी। रविवार को भी विवाह-घर में अपने लिये कोई काम न होगा। दोनों दिन हम लोग ढेर सारी बातें कर सकते हैं ... तेरे साथ कितनी सारी बातें करनी हैं ... मन कहता है अभी तेरे पास पहुँच जाऊँ।”

कुकर की आवाज से चौंककर पत्र अलमारी में रख कर बंद कर दिया। घड़ी के सेकेंड के काँटे के साथ होड़ लगाकर, बीस मिनट में अपने बेटे को गोद में लेकर बाहर निकली। प्रकाश अभी-अभी उठकर समाचार पत्र पढ़ रहा था। “क्यों जी, मैं जा रही हूँ" आदत के अनुसार अपने पति से दो बातें कहकर वह सड़क पर पहुँची।
बेटे को बेबी केयर सेंटर में छोड़कर बस स्टाप पहुँचते ही बस आ गयी। “बाप रे, एक पल की भी देर हो जाती तो बस छूट जाती” मन में सोचा।
धीरे से जाकर एक सीट पर बैठ ही रही थी कि, “कैसे हो” पहले से ही खिडकी के पास बैठी महिला ने उससे पूछा।
भवानी ने सिर उठाकर देखा और “आप" कहते हुए मुस्करा दी। उसका नाम लक्ष्मी था और वह भी भवानी की तरह किसी छोटी-सी पाठशाला में काम करती थी।
“क्या बात है? इस बीच आप बिलकुल दिखाई नहीं दे रही हैं?” भवानी ने आश्चर्य प्रकट करते हुए पूछा।
“मेरी सास का स्वास्थ्य ठीक नहीं था। हम लोग गाँव गये थे। आज सवेरे ही लौटे हैं। ”
“ओहो” कहते हुए भवानी ने पूछा “क्या हुआ उन्हें?”
“कुछ नहीं, साधारण-सी सुस्ती है। वहाँ उनकी देखभाल करनेवाला कोई नहीं था, इसलिए मुझे जाना पड़ा।” एक निश्वास के साथ हँसते हुए लक्ष्मी ने बताया। “चार दिन की छुट्टियाँ खत्म हो गयीं। पिछले शनिवार को गयी थी। आज फिर शुक्रवार है।”
“मैं भी कल छुट्टी ले रही हूँ।” भवानी ने हँसते हुए कहा। “मेरी सहेली आ रही है। ” उसके चेहरे पर प्रसन्नता की झलक थी।
उसका बस चले तो उसी बस पर चढ़कर “कल मेरी सहेली आ रही है ...” चीखने का मन कर रहा था, भवानी का।
शाम तक इसी उत्साह से दिन बिताया उसने। घर पहुँचते ही सारे घर की सफाई कर, पोंछा लगा दिया। अगले दिन के टिफिन के लिए दाल भिगो कर रख दी दूसरे दिन के लिए आवश्यक सब्जियाँ काट कर रख लीं। जितना भी काम रात को पूरा कर सके, करके दूसरे दिन सारे कामों से छुट्टी लेकर केवल अर्चना के साथ बातें करने का विचार था उसका।
“कल मैं भी छुट्टी ले लूँ क्या?” प्रकाश ने सोने से पहले पूछा।
“क्यों?” भवानी ने हँसते हुए पूछा “कल एक दिन आप जितनी जल्दी बाहर निकल जाएँगे उतना ही संतोष होगा मुझे।”
प्रकाश ने अपना मुँह छोटा कर लिया।“जैसे सारी दुनिया में तेरे अकेले की ही सहेली है।" और आगे कहा “कल सवेरे पाँच बजे तक ही घर से निकल जाऊँगा और रात के बारह बजे तक नहीं आऊँगा।”

खिलखिला कर हँस पड़ी भवानी। पति के पास ही लेटते हुई “यह कैसे हो सकता है? इतने सवेरे घर से निकल जाओगे तो अर्चना को घर कौन ले आयेगा? उसे घर में छोड़ कर फिर चले जाइए।” भवानी ने कहा ।
प्रकाश उसके सिर पर एक ठोंग मारकर अपने पास लेते हुए कहा “तो इस ड्यूटी से बच नहीं सकता मैं।”
बिस्तर पर कोई चार घंटे लेटी थी कि, पाँच बजने से पहले ही उठ बैठी वह। उसी अँधेरी में अपने आँगन को रंगोली से सजा दिया, दाल भी पीस ली, काफी के लिए डिकॉशन बना कर रख लिया।
छह बजे प्रकाश को जगाकर स्टेशन भेज दिया। उनके लौटने से पहले घर को एक बार और सजाकर स्नान करके खाना बनाने में लग गयी।
सब्जी, दाल, अचार, पुलिहोर, मिठाई ... पकवानों की तैयारी समाप्त होने को थी पर आने वाले मेहमानों का पता नहीं था। भवानी को आश्चर्य होने लगा था “ये लोग अभी तक क्यों नहीं पहुँचे?”

इतने में आँगन में स्कूटर के रुकने की आवाज हुई। आतुरता के साथ भवानी दौड़कर बाहर निकल आयी। पर प्रकाश को अकेले ही स्कूटर से उतरते देखकर उसे आश्चर्य हुआ। “क्यों जी? अर्चना कहाँ है? नहीं आई क्या?” एक ही साँस में उसने पूछा।
प्रकाश ने धीरे से घर में कदम रखा। कुर्सी पर बैठते हुए और भी धीरे से कहा। “आई है, उसकी सास और अन्य लोग भी उसके साथ आये हैं, सब मिलकर विवाह-घर गये हैं। तुमको वहाँ पर बुलाया है।”
निढाल होकर कुर्सी पर बैठ गयी भवानी। “तो अब यहाँ नहीं आयेगी” रुआँसी आवाज में कहा।
प्रकाश ने उठकर भीतर जाते हुए पूछा “नाश्ता तैयार है क्या? हाथ मुँह धो कर आ रहा हूँ। परोस दो।”
एक क्षण के बाद होश आया भवानी को। प्रकाश के लिए परोस दिया। स्वयं ने भी कुछ खाया और बेटे को लेकर चल पड़ी। भवानी को अर्चना के पास छोडकर आँफिस के लिए चला गया प्रकाश। अर्चना किसी से बात कर रही थी। दौड़ते हुए आकर भवानी को अपने गले से लगा लिया।
“तुमने तो लिखा था घर आओगी” रूठते हुए कहा भवानी ने।
“कैसे आऊँ, विवाह के लिए आकर मैं तेरे पास रहूँ तो ठीक रहेगा क्या, बताओ? यहाँ पर भी तो हम लोग बातें कर सकते हैं।” बातों की गंभीरता को टालते हुए अर्चना ने कहा।
भवानी ने निस्सहाय होकर सोचा “यहाँ, यहाँ बातें करेंगे।” इतने सारे नए लोगों के बीच में उसका तो दम घुट रहा था, फिर भी एक कोने में जगह बनाकर दोनों बैठ गयीं।

“तो बताओ” अर्चना ने कहा।
क्या कहें? भवानी का कंठ ही नहीं फूट रहा था।
“तू ही बता, तेरे पतिदेव कैसे हैं?”
“उनका क्या? वे तो ठीक-ठाक हैं।” अनासक्त भाव से अर्चना ने उत्तर दिया।
उसके बाद क्या बात करें, भवानी की समझ में नहीं आया। एक-एक हाथ में आधे दर्जन सोने के कंगन और गले में भरपूर् गहनों के साथ अर्चना जगमगा रही थी। “अभी इतने गहने पहने हैं तो विवाह-मुहूर्त पर और कितने पहनेगी” भवानी को आश्चर्य हो रहा था।
पाँच मिनट खामोशी में बीत गये। अचानक भवानी को याद आया, दो महीने पहले उनकी प्रिय लेखिका का एक उपन्यास बाजार में उपलब्ध था। अत्यंत व्यस्त होते हुए भी, उसे प्राप्त कर उसे पढ़ने तक उसने चैन की साँस नहीं ली। "अर्चना ने पढ़ा है कि नहीं”, विचार के मन में आते ही पूछ भी लिया। “ आँ .. नहीं। ” जम्हाई लेते हुए अर्चना ने उत्तर दिया। “पुस्तकें पढ़ना छोड़े बहुत दिन हो गये।”
भवानी पूछ न सकी कि फिर वह कर क्या रही है। उसे लगा कि अर्चना का उत्तर शायद ही उसकी समझ में आये।
और नहीं तो क्या? पैसे वालों की अभिरुचियाँ सुनते ही कैसे समझ में आ सकती हैं? उनके बारे में वह क्या बात कर सकती है।

“कौन-कौन-सी सिनेमा देखी हैं?” जुबान तक आई बात को भवानी ने रोक लिया। भवानी की समझ में आ गया था कि जहाँ तक अर्चना से संबंध रखता हो, इससे व्यर्थ प्रश्न दूसरा नहीं हो सकता। और क्या पूछ सकती है? अपने स्तर की सहेली के मिलने पर पूछे जाने वाले प्रश्नों को एक बार मन में दोहरा लिया-नया सामान क्या ख़रीदा है, आदि-आदि ।
ये तो अर्चना से पूछे जाने वाले प्रश्न नहीं हैं।
पति..बच्चे।
पति के बारे में तो, अनासक्त होकर अभी-अभी बात को काट गयी। पूछना चाह रही थी कि तीन वर्ष बीत जाने पर भी बच्चे क्यों नहीं हुए। लेकिन साहस नहीं जूटा पायी
“छ: मुझे कैसा भय... वह तो मेरी अभिन्न सहेली है।” अपनी आत्मीयता के बल पर पूछना ही चाह रही थी कि “हाय अर्चना" कहते हुए कोई महिला उसके पास आयी। गहनों के विषय में या नजाकत के विषय में वह अर्चना से किसी कदर कम नहीं थी।
“मेरे पति की चचेरी बहन सुस्मिता, मेरी अभिन्न सहेली भवानी" बड़ी चुस्ती के साथ दोनों का आपस में परिचय कराया।
अर्चना की आवाज में दूने उत्साह को भवानी ने पहचाना। बहुत देर के बाद अर्चना की बातें इतनी उत्साहपूरित हुई थीं। अब तक अतिधीमी आवाज में निरासक्त होकर बात करने को यात्रा की थकावट समझा था भवानी ने। लेकिन अब!
वे दोनों अपने आपको भूल कर बातों में डूब गयीं तो भवानी कुछ देर तक असुविधापुर्वक बैठी रही। अपनी गोद में बेटे को थपकियाँ देते हुए वह इधर-उधर देखने लगी।
बड़े पेट और साँवले रंग की एक लडकी इधर-उधर घूम रही थी।‘शायद काम वाली हो।’ भवानी सोच रही थी। इतने में अर्चना ने सुस्मिता से पूछा “यह आपके घर की काम वाली लड़की शांता है न?”
“हाँ” सुस्मिता ने जवाब दिया ।
“मैं ने पहचाना नहीं, विवाह हो गया क्या इसका?”
“हाँ, मम्मी ने ही करवाया है। अब उसके पाँव भारी हैं। पाँचवाँ महीना चल रहा है। “
“विवाह होकर कितने दिन हुए?”
“नौ महीने"
हँसते हुए अर्चना ने कहा “इनके पास दूसरा कोई काम नहीं होता है क्या?”

उस व्याख्या में कोई दुरुद्देश्य नहीं था। आश्चर्य नहीं था। उपहास भी नहीं था। बिलकुल सहजता से उसने यह बात कह दी। लेकिन इस बात से भवानी की असुविधा चरम सीमा तक पहुँच गयी। अपने वर्ष भर के बेटे को उसने अपनी छाती से लगा लिया।
उसकी पीड़ा को समझने वाले भगवान के समान, उसी समय प्रकाश द्वार के पास दिखाई दिया। भवानी ने उठते हुए कहा “वे आ गये हैं, मैं चलती हूँ।”
अर्चना ने आश्चर्य से देखा “यह क्या, रात को मेरे साथ नहीं रहोगी?”
बलपूर्वक हँसते हुए भवानी ने कहा “यहाँ कैसे रहूँगी?” उसकी आवाज में नाराजगी स्पष्ट दिखाई दे रही थी।
“अरे हम लोगों ने तो बात ही नहीं की" अर्चना ने कहा । उसकी आवाज में ध्वनित चिंता से भवानी को उस पर दया आ गयी और कहा “सवेरे आ जाऊँगी।”
“जल्दी आ जाना मुहूर्त नौ बजे का है।” पति-पत्नी दोनों की ओर देखते हुए अर्चना ने कहा।
हामी भरती हुई वहाँ से तो आ गयी थी भवानी पर दूसरे दिन वहाँ जाने में उसे हिचक सी हो रही थी।
 
विवाह में जाते समय कौन सी साड़ी पहनी जाए इस बात की ओर भवानी ने अब तक कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था, पर अब उसके लिए यह एक समस्या बन गयी थी कि कौन सी साडी पहनकर अर्चना के सामने जाए ... उसे कुछ-कुछ भय सा होने लगा। अंत में जैसे तैसे तैयार होकर विवाह में पहुँची तो उसका संदेह ठीक निकला । वहाँ के लोगों में वह ‘अलग-सी लगने लगी।
“साड़ी, परवाह नहीं, पर गहने…! वहाँ के लोग तो गहनों का बोझ ढो रहे थे और भवानी के गले में केवल एक नानु(गले में पहना जाने वाला एक प्रकार का सोने का हार) और एक गुरिमे की माला थी।
जरीदार साड़ी, ऐसे बड़े-बड़े गहने जिसे भवानी ने सिनेमा में ही देखा था – पहन कर, अर्चना सामने से आयी तो भवानी को बड़ा आनंद हुआ। इतने सारे गहने पहनकर अर्चना साक्षात् लक्ष्मी लग रही थी।
अपने पति के साथ एक जगह बैठकर भवानी विवाह का उत्सव नहीं केवल अर्चना को देखती रही। बीच में जब अर्चना उन्हें भोजन के लिए ले जाने आयी तो भवानी ने अपने संयम को तोड़ते हुए उसका हाथ पकड़ कर उसके गालों को चूम लिया और कहा “कितनी अच्छी लग रही हो!”

अर्चना प्रसन्नता के साथ हँस दी।
“साड़ी बहुत अच्छी है” भवानी ने कहा।
“अच्छी क्यों नहीं होगी, अच्छी खासी रकम जो लगी है।” भवानी के पास से उसके बेटे को लेते हुए अर्चना ने कहा।
भवानी को लगा कि एक झटके के साथ उसका नशा उतर गया । “अच्छी खासी रकम" की बात सुनते ही भवानी का मन कडुवाहट से भर गया ‘रकम की बात की क्या आवश्यकता थी!’ उसने मन में सोचा।

भवानी बात को सहज ही समझ गयी कि अर्चना की अच्छी खासी रकम वाली बात में वैचित्र्य कुछ भी नहीं है। उसकी बातों में न तो कोई उपहास है और न ही उसके लिए कोई चोर की दाढ़ी में तिनके वाली बात। हाँ, इस समय, भवानी धन-दौलत के बारे में बात करने से पहले दुबारा सोचने की स्थिति में है पर धन को छोड़ कोई और बात करने की स्थिति में अर्चना नहीं है। कॉलेज के दिनों में ऐसी नहीं थी। “अब दोनों की परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं।” भवानी ने एक लंबी साँस छोड़ते हुए मन में सोचा। “जिनके मनोभाव और विचार आपस में मिलते हैं, वे ही अच्छे मित्र बनते हैं।” अब तक ऐसा विचार था भवानी का। लेकिन अभी-अभी उसकी समझ में आने लगा था कि मनोभाव और विचार परिस्थितियों के अनुसार बदलते रहते हैं। अर्थात दो व्यक्तियों के बीच की मित्रता में स्थिरता के लिए दोनों का एक ही परिस्थितियों में रहना आवश्यक है। इन्हीं विचारों में डूबी भवानी, ठीक से भोजन भी नहीं कर पायी। भोजन समाप्त होते ही प्रकाश ने जल्दी निकलने के लिए कहा।
 
अर्चना से जाने की बात की तो उसने विनती की “और कुछ देर रह जा न! हम लोग खुल कर बात ही नहीं कर सके।”
भवानी ने अर्चना की ओर दयार्द्र हृदय से देखा। अपनी उपस्थिति से उसे कोई आनंद न दे पायी... उसकी पसंद की बातें नहीं कर पायी। फिर भी अपने से दूर होने की पीड़ा को अर्चना में देखा भवानी ने। उसका प्रेम उमड़ पड़ा तो उसने अर्चना को अपनी बाहों में भर लिया। दोनों की आँखों में आँसू छलक आये।
“घर जाकर कुछ आराम करूँगी अर्चना। कल फिर स्कूल भी जाना है।” भवानी ने कहा।
इस बात पर अर्चना नाराज हो गयी “कल एक दिन के लिए स्कूल नहीं जाओगी तो क्या होगा?” शिकायत भरी आवाज में कहा। भावानी हँस कर चुप रह गयी। गेट तक आकर अर्चना ने उन्हें बिदा किया। बाहर आने के बाद भवानी ने प्रकाश से कहा, “दो महीने के बाद अर्चना दुबारा अमेरिका जा रही है। अब फिर दो या तीन वर्ष के बाद ही शायद उसे देख पाऊँगी।”
“यहीं रह जाओ न फिर रात भर अपनी सहेली से बातें कर सकती हो” प्रकाश ने भवानी की ओर देखते हुए कहा।
“नहीं-नहीं” भवानी ने कहा “बात करने के लिए कुछ नहीं है। बस चिंता हो रही है।”

भवानी ने सोचा था कि जब तक अर्चना शहर में रहेगी वह उससे चिपक कर रहेगी, उसे छोड़ेगी नहीं। लेकिन अब यह मालूम होते हुए भी कि अर्चना कल तक यही रहेगी.. और चौबीस घंटे इसी शहर में रहेगी... वह उसे छोड़कर जा रही है।
सोचकर भवानी का मन उदास हो आया। प्रकाश के विचारानुसार पलटकर जाने को भी उसका मन नहीं कह रहा था। अन्यमनस्क ही घर पहुँची। विचारों के कारण भवानी रात भर सो न सकी।

दूसरे दिन सवेरे काम की व्यस्तता ने उसे सोचने का मौक़ा ही नहीं दिया। हर दिन की तरह दौड़ते-दौड़ते अपने कामों से निपट कर हाँफते हुए बस में चढ़ी तो लक्ष्मी ने उसकी ओर मुस्कुराते हुए देखा और पूछा “तुम्हारी सहेली चली गयी क्या?”
“हाँ, चली गयी" हाँफते हुए ही जवाब दिया भवानी ने।
“आज भी, उसने मुझे छुट्टी लेने को कहा था, पर मैंने ही नहीं ली” चिंतित मन से कहा भवानी ने।
“कैसे हो सकता है शनिवार और सोमवार की छुट्टी लेने पर रविवार का लास आफ पे हो जाता है न!” लक्ष्मी ने भवानी का समर्थन करते हुए कहा।
उसकी असुविधा को समझने वाली लक्ष्मी की ओर कृतज्ञता भरी दृष्टि से देखा भवानी ने, उसके बाद बहुत देर तक दोनों ने ही सीमित छुट्टियों के बारे में कटते वेतन के बारे में बातें कीं।

दोनों ही मिलकर चिंतित हुईं और दुःखदाई सामाजिक व्यवस्थाओं से नाराज भी। चलती बस में आनेवाली ठंडी हवा से थकान को दूर करते हुए, रविवार के लास आफ पे से कितना दुःख होता है, पर चर्चा लक्ष्मी से करने में भवानी को बड़ा आनंद मिल रहा था और मन को शांति भी।

उसे लगा कि दो दिन से निरंतर किये गये असुविधा का अनुभव पल भर में अदृश्य हो गया। अर्चना के नाम पर ही उठने वाले अनुराग की उत्तुंग लहर लक्ष्मी के साथ की पारस्परिक सहभागिता से निशब्द होकर पीछे को लौट गयी। दो वर्ष तक अर्चना के भारत न लौटने की बात ने उसके ह्रदय की गहराइयों को एक निश्चिंतता और शांति प्रदान की।

 

१६ दिसंबर २०१३

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