उनके बेटे की ये सब बातें सुनकर, उसका भद्र-व्यवहार देखकर नीपा व दिवाकर तनिक भी क्रोध नहीं कर पा रहे थे। वे लोग चुपचाप वहाँ से चले आए थे।

बहुत दिनों के बाद वह फिर आए थे हमारे घर। इसी आफिस समय पर। क्या मदद कर पाती नीपा? क्यों आए थे वह? अपने तरह-तरह के दुखों की कहानी सुनाने के लिए। उनको ड्राइंग-रूम में ऐसे बैठाकर चले जाना उचित नहीं था। उनको भी नीपा के साथ-साथ चले जाना चाहिए था। इधर-उधर की सारी बातें सोचने पर नीपा को लग रहा था उनके पास कुछ भी काम नहीं है। थोड़ी देर बैठेंगे, अखबार के पन्नों को पलटेंगे, ज्यादा होगा तो कुछ झपकी लगा देंगे, नहीं तो फिर अपने अतीत के बारे में सोचेंगे। तब तक तो दिवाकर भी आ जाएँगे। उसके बाद दोनों साथ बैठकर खाना खाएँगे, गप्पे हाकेंगे। और फिर जब दिवाकर के आफिस का समय होगा, तो शायद उनको रास्ते में कहीं छोड देगा।

आज नीपा वास्तव में आफिस में लेट से पहुँची थी। ऑफिस पहुँचते ही, चपरासी शिव पहले से ही उनका रास्ता रोक कर खड़ा था।
"मैडम, पाणी बाबू बहुत समय से आपका इंतजार कर रहे हैं?"
"हाँ"
"मैडम, अपना रूपया नहीं लेंगी। नहीं तो, मेरी पाकेट से फिर से खर्च हो जाएगा।"
"कौनसा रूपया?" आश्चर्य से नीपा ने पूछा।
"भूल गईं?"
"अरे! जल्दी बताओ न, कौनसा रूपया?"
"अक्टूबर के महीने में आपने जो मुझे उधार दिए थे।"
"अरे! सच, मैं तो भूल ही गई थी।"
"अच्छा रखिए, रखिए। आप तो भूल गई थीं, आपके पास तो बहुत पैसा है। हम गरीब लोग, कहाँ भूल पाते हैं?"
चपरासी की यह बात नीपा को अच्छी नहीं लगी। गरीब शब्द उच्चारण करते समय ऐसा लग रहा था, मानो उसका कुछ अलग ही अर्थ निकल रहा हो। जो भी हो, जब वह अपने केबिन के पास गयी तो वहाँ पाणी बाबू को खड़ा देखकर समझ गई थी कि शिव के पाकेट में रूपया कहाँ से आया? पाणी बाबू ने नीपा को सिर झुकाकर नमस्ते किया। और अधीनस्थ की भाँति हँसने लगे थे। फिर धीरे से एक लिफाफा उनकी तरफ बढ़ा दिया।
"देखिये, पाणी बाबू आप तो मुझे पहले से ही जानते हैं? ये सब चीजें मुझे कतई पसंद नहीं है। आप पहले अपना लिफाफा यहाँ से उठाइए। जहाँ इसकी जरूरत है, वहाँ उसे दे दीजिए।" पाणी बाबू लिफाफा नहीं ले रहे थे। नीपा सीधे जाकर अपने कम्प्यूटर के पास बैठ गई।
"थोड़ा देखिएगा, मैडम।"

लिफाफा उठाते हुए पीछे से बोले थे पाणी बाबू। पाणी बाबू के चले जाने के बाद, नीपा टेबल पर रखी फाइलों को पढ़ने लगीं। बीच-बीच में अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को शीशे की दीवार में से देख रही थी। एक बार शिव को बुलाकर डाँटा भी। फिर डर के मारे दबे पाँव मैनेजिग-डायरेक्टर के चेम्बर में गई। और जब वहाँ से लौटी, तो उसको तीन अन्य काम भी दिए गए थे। वह इस बात को अच्छी तरह समझ गई थी कि अगले सप्ताह जो वह छुट्टी पर जाना चाहती थी, अब उसके लिए संभव नहीं होगा। उसका मन दुखी हो गया था । वह अपनी किस्मत और नौकरी को कोसने लगी और कम्प्यूटर में काम करने में इतनी लीन हो गई कि उसे पता भी नहीं चला कि लंच का समय बीत चुका। आफिस के दूसरे लोग लंच लेने के बाद अपनी-अपनी जगह पर लौट आए थे। उसने बिना मन से अपने बैग में हाथ घुसाया, तो पता चला कि उसमें टिफिन नहीं था। वह आज टिफिन लाना भूल गई थी। चपरासी को भेजकर सामने वाले ठेले से कुछ फास्ट-फूड मँगवा लिया, मगर उसे भी खाने की इच्छा नहीं हो रही थी।

स्वाँई बाबू ने उसको दो बार अपने चेम्बर में बुलाया था। स्वाँई बाबू उसे टूर पर भेजना चाहते थे। टूर पर जाने से नीपा को घर चलाने में दिक्कतें आती थीं, इसलिए टूर का नाम सुनने से उसे डर सा लगता था। स्वाँई बाबू को नीपा की यह कमजोरी मालूम थी, इसलिये कुछ भी हो जाने से हर बार टूर की बात उठा देते थे। स्वाँई बाबू नीपा की दक्षता के बारे में इतना बढ़ा-चढ़ाकर बोलते थे कि मेनेजिंग-डायरेक्टर भी टूर के लिये उसके नाम का प्रस्ताव पारित कर देते थे। अतः टूर पर जाने के लिये वह बाध्य हो जाती थी।

स्वाँई बाबू के चेम्बर से लौट आने के बाद नीपा दुख और गुस्से से उफनने लगी थी। इधर कोने में बैठी हुई नंदिता यह सब दृश्य देख रही थी। वह हँसती हुई उसके पास आ गई और टेबल के ऊपर चाऊमीन का पैकेट देखकर पूछने लगी, "क्या तुम आज टिफिन लाना भूल गई? क्या चाऊमीन बाहर के खोमसे से मँगवाया है? लंच के समय हमारे पास क्यों नहीं आई? क्या आज मियाँ-बीवी के बीच कुछ अनबन हो गई है? मैने देखा तुम स्वाँई बाबू के चैम्बर से आ रही थी तो तुम्हारा चेहरा गुस्से से तमतमा रहा था। मैंने सोचा, चलो देख आऊँ। जरूर कुछ न कुछ सुनाया होगा, स्वाँई बाबू ने।"

कितनी जल्दी नंदिता ने, नीपा की दिनचर्या को अपने संक्षिप्त भाषण में कह डाला! उसको देखकर नीपा को लग रहा था, काश, वह भी नंदिता की तरह चालाक होती! नीपा नंदिता को दो कारणों से पसंद नहीं कर पाती थी, पहला कारण वह उसके परमशत्रु स्वाँई बाबू की एक नंबर चमची थी, दूसरा कारण वह उससे उम्र में छोटी तथा उसके अधीनस्थ काम करने वाली होने के बावजूद भी ओछे मुँह -"तू-ताम " से ऐसे बातें करती थी मानों उसकी सखी हो। नीपा ने चाऊमिन पैकेट मोडकर डस्टबिन में फेंक दिया और कहने लगी, "आज बहुत ही व्यस्त थी, इसलिये खाना नहीं ला पाई थी।"

"मैं यहाँ आ गई तो तुमने चाऊमिन फेंक दिया। अंडे वाला था या चिकन वाला?" पेपर-वेट को टेबल पर घुमाते-घुमाते पूछने लगी थी नंदिता "यह स्वाँई बाबू कोई अच्छा आदमी नहीं है। बड़े ही घमंडी किस्म का, भाव-वाला आदमी है, सेडक्टिव नेचर का है, दूसरों को परेशान करने में उसे खूब मजा आता है। कुछ लोग ऐसे ही होते हैं, जो दूसरों के पीछे हाथ धोकर पड़े रहते हैं।"
नीपा ब्रांच ऑफिस के लिये एक बजट बना रही थी, इसलिये वह ध्यान-मग्न होकर फाइल पढ रही थी। बोली "छोड़ॊ न, इन बातों को।" नंदिता नीपा की तरफ से कोई प्रतिक्रिया न पाकर फिर से बोलने लगी थी "तुम्हें पता है? आफिस के सामने एक प्रदर्शनी लगी हुई है। उसमें हर प्रकार की इलेक्ट्रोनिक वस्तुएँ किफायती दामों में मिल रही है। आफिस बंद होने के बाद तुम चलोगी साथ में?"
"हाँ, हाँ, मुझे पता है, बाहर से देखा है, भीतर नहीं गई हूँ। देखती हूँ, सुविधा होने से चलूँगी।"
"और कितना काम करोगी? घड़ी में साढे तीन बज गये हैं। अभी देखना, सभी लोग एक-एक करके बाहर निकलना शुरु कर देंगे।"
"मुझे और पन्द्रह मिनट लगेंगे. थोडा काम बाकी है।"
"ठीक है, पहले तुम अपना काम खत्म कर लो, फिर मेरे केबिन में आ जाना।"
नंदिता चली गई थी अपने केबिन में। नीपा पुनः अपने काम में लग गई। वह इस चीज को बखूबी जानती है, वह अच्छा काम करती है तभी तो मैनेजिंग-डायरेक्टर उसको पसंद भी करते हैं। नहीं तो, अभी तक तो तिनके की तरह कहाँ फेंकी जाती, पता भी नहीं चलता। स्वाँई बाबू के कारण या तो वह किसी कस्बे में नियुक्त होती, या फिर नौकरी से ही निकाल दी गई होती। नीपा को अपना काम खत्म करने में बीस से पच्चीस मिनट का समय लगा था। नंदिता कब से उसका इंतजार कर रही थी, नीपा के केबिन में बैठकर। बचे-खुचे कामों को निपटा कर वे दोनों बाहर निकल गई थीं। नीपा ने अपनी कलाई घडी देखी तो उसमें चार बजने में दस मिनट बाकी थे। वे दोनों आफिस से बाहर आ गई थीं।
नीपा को पता नहीं क्यों आज अच्छा नहीं लग रहा था। कहीं नहीं जाकर सीधे घर लौट जाने का मन हो रहा था। फिर भी वह प्रदर्शनी देखने गई थी। प्रदर्शनी में इलेक्ट्रानिक चीजों को देखते-देखते एक सुंदर-सी इलेक्ट्रानिक घड़ी की तरफ आकर्षित हो गई थी। इस इलेक्ट्रानिक रिस्ट-वाच में नीपा ने लाइट जलाकर देखा, अलार्म दबाकर चेक किया, उसमें उसने अपना टेलिफोन नंबर सेव करके भी देखा। इस प्रकार वह घडी के साथ कुछ समय तक खेलती रही। यह देखकर नंदिता बोली थी "ले लो, बहुत ही सुंदर है यह घडी!" नीपा के पास पैसे तो थे, जो शिव ने उसे लौटाए थे। वह घडी खरीदना चाहती थी, मगर उसने वह घडी नहीं खरीदी। उस क्षण उसे लग रहा था, अगर वह घड़ी के बदले एक सांइटिफिक-केलकुलेटर खरीदती, तो बेटे के काम आता। जिसके लिये बेटा कई दिनों से कह रहा था। खरीद कर ले जाने से वह खुश हो जाएगा। उसका तो अपनी पुरानी घडी से ही काम चल जाता है। ज्यादा शौकीन होने से क्या फायदा? यही सोच-विचारकर नीपा ने उस कलाई-घडी को रखकर दूसरे काउंटर से बेटे के लिए केलकुलेटर और बेटी के लिए बैटरी संचालित नाचने वाली गुडिया खरीद ली थी। प्रदर्शनी से बाहर निकलकर वे दोनों कुछ दूरी तक एक साथ गए, फिर आगे से अपना-अपना रास्ता पकड लिया। घर पहुँचकर उनको ड्रांइग-रुम में बैठा देखकर आश्चर्य चकित हो गई थी।
"अरे! आप अभी तक यहीं हैं! " नीपा की बात सुनकर वह बुरी तरह से सिकुड गए, उठकर खडे हो गए थे। क्या नीपा ने कुछ खराब कह दिया?
"घर खाली था, इसलिये छोड़कर नहीं जा पाया। यहाँ ताला था, मगर चाबी किसको दूँगा? समझ नहीं पाया।"
"मतलब! दिवाकर के साथ आपकी मुलाकात नहीं हुई?"
"नहीं, वह तो घर नहीं आए।"
"हे भगवान! आप तब से...., सॉरी, एक्सट्रमली सॉरी! बहुत कष्ट हुआ होगा आपको? बहुत बोर हो गए होंगे? क्या करें, हमारी दिनचर्या ही कुछ ऐसी है। बैठिए, भोजन करके जाइएगा, सुबह से कुछ भी नहीं खाया होगा। मैं जल्दी ही कुछ नाश्ता बना देती हूँ। नाश्ता जरूर करके जाइएगा।"
"नहीं, नहीं, मैं जा रहा हूँ।"
"सुबह से कुछ भी नहीं खाया है, भूख लग रही होगी?"
"आजकल भूख कहाँ लगती है?" वह हँस दिये थे।
"दिवाकर शायद किसी काम में फँस गए होंगे या कहीं काम से बाहर चले गए होंगे, अन्यथा रोज दोपहर घर आकर ही लंच करते हैं। दिवाकर ने फोन किया था क्या?"
"नहीं, कोई फोन नहीं आया। अच्छा तो, अब मैं चलता हूँ।"
यह बोलते हुए वह गेट खोलकर चले गए। नीपा चाहते हुए भी उनको रोक नहीं पाई। पाप के भार से उसका सिर फटा जा रहा था। इससे पूर्व, ऐसी परिस्थिति कभी भी उसकी जिंदगी में नहीं आई थी। वह पछतावे की आग में भीतर ही भीतर जल रही थी। बच्चे स्कूल से लौट आए थे, उन्होंने घर के कपड़े भी पहन लिए थे। फिर भी नीपा ऐसी ही गुमसुम बैठी रही। बेटी ने पूछा था, "माँ, आज खाने को कुछ नहीं दोगी?"
"हाँ, क्यों नहीं? नीचे बैठो।" तुरंत उसको याद आ गया था प्रदर्शनी से खरीदी बच्चों के लिए कुछ चीजें। उनको दिखाने से पहले वह बोली थी, तुम दोनों पहले अपनी आँखे बंद करो, फिर देखो, तुम्हारे लिये मैने क्या- क्या नए उपहार खरीदे हैं?
‘दिखाओ-दिखाओ’ कहकर वे दोनो उसके पास आ गए थे। बैटरी संचालित गुड़िया दे दी थी बेटी के हाथ में, और वह साइन्टिफिक केलकुलेटर पकडा दिया बेटे को। दोनो बच्चे खाना भूलकर खेलने लग गए थे। नीपा ने टेबल पर गरम नाश्ता रख दिया।
"बहुत हो गया बच्चों, आओ अब खाना खा लो।"
नीपा ने खुद भी घर के कपडे पहन लिए थे। अभी भी बच्चे खेल में मग्न थे। पाँच बार बुलाने के बाद, बच्चे टेबल के पास आए थे तथा खाना खाने लगे थे। बेटा थोडा-बहुत खाकर उठ गया था। खाने में था वही सुबह का दाल-भुजिया और वहीं सुबह की बासी सब्जी।
"और, मैं खा नहीं पाऊँगा।"
भैया की देखा-देखी बेटी भी खाने की टेबल से उठ गई थी।
नीपा ने उन दोनो को अपने पास बुलाया, कुछ प्रलोभन भी दिखाया तो कुछ गुस्सा भी किया। अंत में खीझकर बोली, "खाना है, तो खाओ, वरना मत खाओ। मैं क्या करती! बोलो, मैं कैसे खाना बनाकर रखती!"
बेटी ने कहा, "मम्मी, मैंने आज अपना टिफिन नहीं खाया है।"
"क्यों?"
"रोज-रोज एक ही प्रकार का टिफिन अच्छा नहीं लगता है न। वही बिस्किट, वही मिक्स्चर कितने दिन तक खाएँगे? तुम दूसरा कुछ बनाकर क्यों नहीं देती हो? हमारे दोस्त कभी पराठा, तो कभी इडली तो कभी उपमा खाते हैं। हर दिन कुछ न कुछ नयी नयी चीजें लाते हैं खाने के लिए।"
"मेरे पास इतना सब बनाने के लिये समय कहाँ है? तुमको क्या मालूम नहीं कि तुम्हारी माँ नौकरी करती है।"
"कौन बोल रहा था आपको नौकरी करने के लिए? हमने तो कहा नहीं था?" रुष्ट होकर बोला था बेटा।
नीपा बेटे की बात सुनकर चुप हो गई थी, क्योंकि बच्चों के मुँह से इस तरह की बाते सुनने की वह आदी थी। कभी ठीक मूड रहने पर वह उनको समझाती थी। वह कहती, "मेरे नौकरी करने से घर में ज्यादा आमदनी होगी और हम सब आराम से रहेंगे।" परन्तु इस समय वह कुछ भी समझाने के मूड़ में नहीं थी। उसको लग रहा था बच्चों के लिये इतना कुछ करने के बावजूद भी कुछ न कुछ कमी रह ही जाती है, जिससे बच्चों के प्रति उसकी अवहेलना झलकती है। यही नहीं, मानों इन बच्चों ने अपने बाल्यकाल की पतली कापी में टेढे-मेढे अक्षरों से माँ की अवहेलना को दर्ज कर लिया हो। जैसे-जैसे उम्र बढ़ती जायेगी, ये बच्चे बड़े होते जाएँगे। जब उनके बाल पककर सफेद हो जाएँगे, तब वह पंगु होकर लाचार बैठी रहेगी। हो सकता है, ये बच्चे धरती से आकाश तक विकसित हो जाए, परन्तु उनके सीने में बाल्यकाल में लिखी गई उस पतली कापी का पन्ना फडफड़ाते हुए पलटेगा।

शायद तब वे कहेंगे--
"आपने हमारे लिए क्या किया था? हमारा बचपन? ठिठुरती हुई ठंड में माँ की गरम गोदी हमें नसीब नहीं हुई। यह हमें अभी तक पता नहीं है, कि गोदी का सुख क्या होता है? छुट्टियों के दिनों में भी हम घर को अंदर से बंद करके रखते थे ताकि चोर-डाकू, लुच्चे-लफंगे, साँप-बिच्छू से खुद को हम बचा सके। मगर भूत! भूत से कौन बचाता? भूत तो दीवार फाडकर आ सकता था, जमीन तोडकर आ सकता था। उन दम-घुटने वाले क्षणों को कैसे भूल पाएँगे माँ, जिन्हें हमने एक छोटे से क्वार्टर में अकेले में बिताया था? बडे ही कष्टकारक दिन थे वे सब! ज्यादातर दिन प्रतीक्षा करते करते यूँ ही बीत जाते थे। हमेशा मन में यही ख्याल रहता था कि आप कब आयेंगी! कब घर सही-सलामत पहुँचेंगी? रास्ते में अगर आपके साथ कोई दुर्घटना हो गई तो हम लोग क्या करेंगे? किसके पास जाएँगे? किसको मदद के लिए पुकारेंगे? हम अनाथ हो जाएँगे। ऐसे घुटन भरे बचपन में हमें अकेले छोडकर इतना समय बाहर बिताना क्या आपके लिए उचित था, माँ? जवाब दीजिए।"

पृष्ठ- . . .

३१ मई २०१०