"प्रारंभ करें?"
"जी हाँ।"
"सा...प...अ ..."
उनकी गुरू गंभीर और सुस्पष्ट वाणी मंदिर के घंटे की नाद-ध्वनि
के सहज गूँज उठी। सभी स्वर उचित स्थान पर व्यक्त हुए। मैं
स्वभाव से ही बहुत सकुचानेवाली थी उन दिनों। इसलिए जब संगीतज्ञ
गुरुमूर्तिजी मुझे संगीत की शिक्षा देने के लिए आए तो बस उनकी
वाणी सुनती रही। सिर उठाकर उन्हें देखने से डरती रही।
पूरा-पूरा ध्यान उन्हीं की वाणी पर केंद्रित था। अचानक
उन्होंने प्रश्न किया।
"कितने भजन सीखे हैं तुमने?"
"जी, कुल पचास के करीब होंगे।"
"अच्छा, वर्णम?"
"बीस।"
"राग आभोगी का वर्णम जरा गाओ।"
बस, मैं घबरा गई। एक ओर डर! दूसरी
ओर लज्जा, मन व्यग्र हो उठा। 'अकेले कैसे गा सकूँगी! सो भी
अपरिचित व्यक्ति के सामने, कक्षा में हमेशा हम सभी छात्राएँ एक
साथ सामूहिक रूप में ही गाती थीं। फिर भी तब कोई चारा न था।
इसलिए जैसे-तैसे डरते हुए गाने लगी। भय और उलझन के कारण तीन
जगह पर लयताल ठीक नहीं थी। इस पर गुरुमूर्तिजी 'रूद्रमूर्ति'
बन गए। मुझे एकटक घूरने लगे। बस, मैं काँपने लगी। आवाज रुँध
गई।
सच कहूँ तो बात यह कि उन
दिनों संगीत सीखने में मुझे विशेष रुचि या लगन नहीं थी। जब
मद्रास में थी, मैलापुर के एक घर के 'आउट हाउस' में कोई वृद्धा
नारी संगीत पाठशाला चलाती थीं। माँ के आग्रह के कारण मुझे भरती
होना पड़ा था।
दिल्ली आने के बाद 'गुरु परिवर्तन' हो गया।
एक वर्ष के बाद माँ की दौड़धूप के परिणामस्वरूप सभा से
गुरुमूर्तिजी को भेजा गया था।
खैर, ...
"किसने सिखाया, ताल बेताल है।"
" ..."
"ताल मिश्रचाघु बजाओ।"
" ..."
"नहीं मालूम, जाने दो, ताल 'रूपकम्' ही सही"
मेरी आँखें सजल हो गयीं थीं। उन्होंने देख लिया तो गुस्से के
साथ स्वयं जोर से हाथ फर्श पर ताल मारा ...टक, टक ...।
"यह है रूपकम्, समझीं।"
मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। सिर उठाकर उन्हें देखने का भी साहस
नहीं हुआ।
"सुनो, स्थिति ऐसी है कि तुम्हारे लिए अब मुझे प्रारंभ से,
याने सरलि वारिसै से संगीत-पाठ सिखाने पड़ेंगे।"
एकदम चौक पड़ी। कहाँ मेरे राग... और यह सरलि वरिसै। बाप रे,
मुझे रोना आया।
"सर" धीरे-से मुँह खोला ही था कि वे बोल पड़े, "संगीत शास्त्र
के लिए राग, भाव और ताल तीनों ही अपेक्षित हैं। ' रिद्म एँड
बीट' दोनों अभिन्न और अन्योन्याश्रित होने पर ही संगीत की शोभा
बढ़ती है, यह भी नहीं मालूम, बिना सही नींव
रखे पचास संगीत सीखकर हवाई महल
बनवाने का साहस किसने किया?"
गुरुमूर्तिजी चले गए। उनके जाने के बाद घर में तूफान उठा।
"मुझे इस गुरूजी से संगीत सीखना नहीं।" मैंने हठ ठान लिया।
"कौन पुनः अ, आ, इ, ई, से ... 'सरलि वरिसै' से सीखे? नहीं
...मुझसे यह नहीं होगा।"
"उन्होंने यों ही मजाक किया होगा।"
पिताजी, यों ही मजाक किया होगा?"
पिताजी ने गुरूमूर्तिजी का पक्ष लिया। "यही नहीं, तुम्हारे लिए
भी तो अपनी गल्तियों को सुधार लेना अच्छा ही है।"
अब माँ की बारी थी।
"...इस विस्तार में ...इतनी गहराई में जाने की क्या आवश्यकता
है, हमारी बेटी को तो रंगमंच पर संगीत कार्यक्रम थोड़े ही देना
है। कल जब विवाह की बात उठेगी, तो चार गीत गाने होंगे, बस,
इतना ज्ञान काफी है।"
"मुझे यह संगीत कला, अभ्यास, ब्याह कुछ नहीं चाहिए। मुझे चैन
से रहने दें।"
"हाँ-हाँ, सदा सर्वदा हाथ में कहानी की कोई किताब लेकर चुपचाप
बैठी रहो, वही चाहिए।" माँ को अच्छा संदर्भ मिला मुझे
कोसने का।
लेकिन इधर मेरा हठ भी कमजोर नहीं हुआ।
आखिर ...
निर्णय हुआ कि पिताजी सभा के सचिव से फोन पर बात करेंगे। दूसरे
किसी संगीतज्ञ का प्रबंध करने की प्रार्थना भी की जाएगी। सबको
यह स्वीकार्य था।
अगले दिन पिताजी शाम को दफ्तर से सभा गए। जब वापस आए जरा देर
हो चुकी थी। ऐसा समाचार लाये, जिसे सुनकर पहले तो मेरा मन
किल्लोलें करने लगा। परंतु तुरंत अंतर्मन में एक वेदना ...कसक
भी हुई।
पिताजी ने बताया, "पता चला कि गुरूमूर्तिजी का स्वभाव ही कुछ
ऐसा है। जहाँ भी जाते, ऐसे ही शास्त्र, संप्रदाय, रूढ़ि आदि की
बहस करते हैं। अंत में बात बिगाड़कर या खुद रूठकर चले जाते हैं।
यह भी सुना कि इसके पहले भी उनके बारे में अनेक शिकायतें
पहुँची थीं। और इन सबके कारण आज उन्हें सभा से ही निकाल दिया
गया है।"
आत्मग्लानि से मैं अंदर ही अंदर कुढ़ती रही।
'जो लोग कर्तव्यपरायणता
से पूरी निष्ठा और लगन के साथ कार्यरत होते हैं, उन सबकी क्या
यही दुर्गति होगी, सोचा। फिर भी मन जरा शांत हो रहा था यह
सोचकर कि 'मेरी वजह से उन्हें सभा से निकाला नहीं गया।'
कुछ दिनों के बाद ...एक शाम को मैं घर में अकेली थी।
माता-पिता गणेशजी के मंदिर में प्रवचन सुनने के लिए गए हुए थे।
दरवाजे पर घंटी बजी। दरवाजे के पास जाकर उसमें लगे छोटे 'लेंस'
के सहारे उस पार देखा। गुरुमूर्तिजी खड़े थे। मैंने दरवाजा नहीं
खोला। अंदर से ही जोर से कहा, "माँ-पिताजी नहीं हैं।"
"बेटी, जरा दरवाजा खोलो, कुछ बातें करनी हैं।"
दरवाजा खोलकर मैं कुछ दूर जा खड़ी हुई। वे अंदर आए, कुछ झेंपते
रहे।
"बैठिए।"
"थैंक्स" कहते हुए वे बैठ गए।
"देखो बेटी, ..."
"जी, मेरा नाम श्यामला है।"
"उस दिन जब आया था, तुम्हारा नाम तक नहीं पूछा। हूँ ...अगली
ट्यूशन के लिए देर हो जाएगी इसी जल्दबाजी में था। लेकिन,
देखो, कोई भी इस पर गौर नहीं करता कि कितना सच्चा हूँ। कितना
कर्तव्यपरायण हूँ। कर्मठ हूँ, ...हाँ, जमाना बहुत बदल गया है।
आजकल तो सच बोलने के लिए भी दाम चुकाने की नौबत आ गई है। पैसा
लेकर राग 'कल्याणी' हो या राग' काम्वोदी' ...कुछ अंतर देखे
बिना जो आगे बढ़ते हैं, उन संगीत-विद्वानों में मैं नहीं हूँ।
मेरे अपने सिद्धांत है। शुद्ध मन और शुद्ध कार्य का मैं पक्षधर
हूँ। मेरी यही अभिलाषा है कि लोग कह सकें कि "यह अमुक विद्वान
की शिष्या है। इच्छा है कि मेरी एक विशिष्ट रीति हो। रसिक जब
दूसरों से उस रीति को अलग रूप से पहचान सकें और कहें कि 'वह बहुत
बढ़िया है।' एक यही आशा लिए जीता हूँ कि शिष्यों से गुरूजी का
गौरव बढ़े। ...आयी बात समझ में?"
"सुनो श्यामला, उस दिन मैंने जो कुछ कहा था, बुरा मत मानना,
तुम रसोईघर में गाओ या भगवान की मूर्ति के समक्ष दीप जलाकर
भजन-कीर्तन करो, गीत-गायन की परिपाटी का स्तर अच्छा होना
चाहिए। त्यागराज भागवतर ने 'राग तोड़ी' में एक कीर्तन रचा है।
उसका भावार्थ है :
"निद्रा त्यागकर प्रातःकाल उठकर, तंबूरा बड़े प्यार से बजाते
हुए सुस्वर, श्रुतिलय के साथ, पवित्र मन और श्रद्धाभक्ति के
साथ, जो तुम्हारा रामकीर्तन करें, उन पर तुम्हारी अनुकंपा रहती
है।"
आगे उन्होंने उक्त पंक्तियों को भावसहित गाकर सुनाया। कितना
अच्छा गाते थे। जब गीत समाप्त हुआ, उनके नयन आर्द्र हो चले।
उसी समय बाहर कार रुकने की आवाज आई। माता-पिता जीने से ऊपर चढ़
आए।
"वाह, गुरुमूर्तिजी, आइए, आइए।"
"कल्याणी, देखो विद्वान के लिए कॉफी बनाकर ले आओ।"
पिताजी ने उनका स्वागत किया।
अतिथि-सत्कार में उनको कोई पराजित नहीं कर सकता।
"जी नहीं, मैं यह बताने आया हूँ कि उस दिन भले कुछ सख्त कहा
हो, लेकिन मुझे बुरा मत समझें।"
"गुरु महाशय को पूरा
अधिकार है कि शिष्या से गलती होने पर सुधारें। इसमें बुरा
मानने की क्या बात है"
गुरुमूर्तिजी ने बड़ी कृतज्ञता के साथ उन्हें देखा, "कल्याणी,
पत्तल पर खाना परोस दो। ये यहीं खायेंगे।" पिताजी ने माँ
से कहा।
"जी नहीं।" गुरूजी सकुचाते रहे।
"सुनें। मुझे भूख लगी है। दोनों खाते हुए आगे बातचीत करेंगे।
आइए"
दोनों भोजन करने के लिए उठे।
पांच मिनट में माँ ने उनके लिए व्यंजन परोसे। गरमागरम सांबर,
साग-सब्जी, टमाटर का रस्सम ...। गुरुमूर्तिजी शायद बहुत भूखे
थे। जल्दी-जल्दी खाते रहे। भरपेट खाकर संतुष्ट हुए। उठकर हाथ
धोये। "अन्नदाता सुखी भव। आप दीर्घायु हों। अतिथि की भूख का
अनुमान करके प्रेमपूर्वक आपने भोजन कराया, ऐसा करुणभाव आजकल
दिल्ली में देखना बेहद आश्चर्य है।"
पिताजी का अट्टाहास गूँज उठा, "श्यामला के लिए कल से ही आप
ट्यूशन आरंभ कर दीजिए। सप्ताह में दो कक्षाएँ लें, पर्याप्त
होंगी। अपनी फीस बताएँ। जो भी हो, वही दे दूँगा। अपनी
जान-पहचान की दो-चार जगह आपके बारे में बताऊँगा। बात बन जाएगी।
आप कहाँ रहते हैं?"
"मोतीबाग 'सी' दो में एक सर्वेंट रूम में हूँ।"
"आप पता दीजिए, 'वायस ऑडिशन' के लिए आवेदन कीजिए। रेडियो में
आधे घंटे का गीत कार्यक्रम अवश्य मिल जाएगा। मेरा एक मित्र है।
वह इस दिशा में सहायता करेगा।"
नौकरी चली जाने से खाली हाथ जो थे, उन्हें एक ही दिन में
सीढ़ियों के ऊपर चढ़ा देने का प्रयास किया पिताजी ने। ऐसा
लगा कि अत्यधिक प्रसन्नता
के कारण गुरुमूर्तिजी रो पड़ेंगे।
मेरी ट्यूशन शुरू हुई।
उनकी आवाज सुमधुर और गंभीर थी। अनायास सभी स्वर लहरियाँ उचित
स्थान पर सुस्वर गूँजते थे। स्पष्ट था कि ज्ञान और श्रम दोनों
के तालमेल ने उनकी उन्नति में साथ दिया है। संगीत कला के प्रति
तब मुझे कोई विशेष अभिरुचि नहीं थी। लेकिन उनके अधीन
शिक्षाभ्यास प्रारंभ करने के बाद मैं श्रद्धा-भक्ति के साथ वह
कला सीखने लगी। अब विशेष रुचि और निष्ठा भी होने लगी।
कुछ दिनों में रेडियो पर उनका पहला प्रोग्राम आया। उसी दिन शाम
को हमारे घर आते समय वे सूजी हलवा की एक पोटली लाये। पिताजी को
दी, "माँ के हाथ का बनाया हुआ है। आपको देने के लिए अभी कुछ
देर पहले बनाया गया। आप ही के प्रयत्न और प्रोत्साहन से यह
कार्यक्रम संपन्न हुआ। नहीं जानता कि मैं अपनी कृतज्ञता किन
शब्दों में और कैसे प्रकट करूँ।" उनकी वाणी गद्गद् हो उठी।
"ऐसा मत कहें। आपमें क्षमता हैं। परिश्रमी हैं। आपकी विद्वत्ता
के कारण ही यह अवसर मिला है। आपका भविष्य बहुत अच्छा और
उज्ज्वल होगा। मुझे पूरा विश्वास है।"
पिताजी आत्मीयता के साथ विद्वान की प्रशंसा करने लगे। गुरूजी
इससे अधिक प्रभावित और भावुक हो गए। कहा, "आपका आशीर्वाद हो,
वही पर्याप्त है।"
आर्थिक दृष्टि से उनकी स्थिति शोचनीय थी। मुश्किल से घर-बार
चलता था। कभी-कभार ट्यूशन की फीस अग्रिम के रूप
में बहुत संकोच के साथ माँग
लेते। कभी राशन का चावल, शक्कर आदि भी।
उनके घर में उनकी माँ, पत्नी ललिता और तीन वर्ष की बिटिया थी।
नवरात्रि का त्योहार आया। माँ ने उन्हें एक दिन न्योता दिया।
"ललिता को इन दिनों में कभी हल्दी-कुंकुम के लिए साथ लाइए।"
गुरूजी की पत्नी उतने गौर वर्ण की नहीं थी, फिर भी चेहरा
आकर्षक था।
"गीत गा सकती हो?" माँ ने प्रश्न किया।
"विवाह के पहले गाया करती थी। फिर छोड़ दिया। सब भूल चुकी हूँ।"
"समझी नहीं।"
"विवाह के पूर्व जब ये 'लड़की' देखने के लिए आए तो मैंने
मरकतवल्ली का गीत गाया। उस गीत में कहीं गलती हो गई तो क्रोध
में दांत पीसने लगे। विवाह के बाद ससुराल आते समय मायके में ही
स्वर पेटी ऊपर अटाली में छोड़कर चली आयी। संगीत कला का लक्ष्य
आनंदप्राप्ति है। मुझे तब डर हो रहा था कि कहीं मेरे संगीत
ज्ञान के कारण वैवाहिक जीवन में झगड़ा उत्पन्न न हो। और हाँ, ये
तो सिद्ध गायक हैं ही। मुझे गीत गाने की क्या आवश्यकता है"
सहजभाव से हँसते हुए ललिता ने कहा। पिताजी के प्रयत्नों से
गुरुमूर्तिजी के लिए 'अंतर्राष्ट्रीय केन्द्र' में एक
संगीत-कार्यक्रम का आयोजन
किया गया।
जब तक मुहूर्त और सुअवसर न आए, तब तक ही चिंता और व्यग्रता। एक
बार अवसर हाथ आए, फिर एक के बाद एक अवसर आते ही रहेंगे। है न
बात सच, गुरुमूर्तिजी का संगीत कार्यक्रम सुनने के लिए ऋषिकेश
से दक्षिण भारत के एक स्वामीजी आए थे। वे गुरूजी की कला और
विद्वत्ता से इतने प्रभावित हुए कि उनसे संबंध जोड़ लिया। अपने
आश्रम के प्रार्थना गीतों के लिए राग और लय मिलाकर उन्हें
कैसेट में रेकॉर्ड करके सौंप देने की प्रार्थना की। यह
गुरूत्तर दायित्व का कार्य गुरूजी ने अत्यंत श्रद्धा भक्ति से
किया। बस, भाग्य चमकने लगा। फिर एक समारोह में एक जाने-माने
राजनीतिज्ञ के हाथों उस कैसेट का विमोचन किया गया। यश और धन का
मार्ग एक साथ खुल गया।
पहला कैसेट ही हजारों की संख्या में बिक गया। यह अपने आप में
एक ऐतिहासिक घटना थी। शादी के अवसरों पर संगीत-कार्र्यक्रम के
लिए इन्हें निमंत्रण दिये जाने लगे। साथ ही दूरदर्शन से भी
निमंत्रण मिला। इस तरह बहुत छोटी-सी कालावधि में ही वे अत्यंत
प्रसिद्ध हो गए। मेरी परीक्षाएँ निकट आ रही थीं। इसलिए संगीत
अभ्यास अस्थायी रूप से स्थगित किया गया। अपनी शादी का निमंत्रण
देने के लिए मोतीबाग की अपनी एक सहेली के घर मुझे खुद जाना
पड़ा। वापसी पर गुरूजी के घर पर भी गई। देखा, वहाँ एक नये
किरायेदार थे। उनसे पता चला कि गुरुमूर्तिजी मुनिरका में एक
नये घर में चले गए हैं। उन्होंने मुझे पता भी दिया। मैंने बात
वहीं नहीं छोड़ी। पता खोजकर मुनिरका पहुँची।
गुरुमूर्तिजी की पत्नी से
ही मिल पायी। उनके हाथों, गले और कानों पर सोने के आभूषण
जाज्वल्यमान थे लेकिन मुँह की स्वाभाविक कांति और शोभा गायब,
उसकी जगह शोकमुद्रा और रूखापन स्पष्ट था। नयनों में एक तरह की
घबराहट थी। बातचीत में थी वह आत्मीयता या सहजता नहीं थी। सहमते
हुए बाते कीं। गैस, स्टोव, टेबल फैन, टेलीविजन आदि सभी
सुविधाएँ वहाँ पर थीं। घर में नयी रौनक थी। मन की बात जबान पर
आयी। मैंने कहा, "लगता है, गुरूजी की उन्नति बिजली की तेज गति
से हो चुकी है। मैं बहुत खुश हूँ।"
उन्होंने दीर्घ श्वास छोड़ा। थोड़ी देर के बाद कहने लगीं, "साथ
ही कुछ अवांछनीय आदतों के शिकार भी बने हुए हैं। कल शराब के
नशे में घर आए, एकदम हलचल मचा दी। असह्य वेदना हुई। क्या से
क्या हो गए हैं, कैसी दुर्गति, अपनी बेटी से यों मारपीट की कि
कुछ कहते नहीं बनता है। पता नहीं कब और कहाँ जाकर यह सब समाप्त
होगा। मैं बहुत तंग आ गई हूँ।"
"चिंता मत कीजिए। सब ठीक हो जाएगा।"
"खाक ठीक होगा, मुझे अब कोई आशा नहीं। मन किसी पर विश्वास नहीं
करता। श्यामला, तुम्हारे पिताजी को इनके प्रति अत्यंत श्रद्धा
भक्ति है। तभी तुम्हारी शादी के सिलसिले में रिसेप्शन में
इन्हें गायन की प्रार्थना करने के लिए यहाँ तक आए। आज वह जो
कुछ हैं, यश और कीर्ति तुम्हारे पिताजी द्वारा दिखाये गए
मार्ग के कारण ही हैं। उन्हीं के प्रोत्साहन और सिफारिश के
कारण ये इतना नाम कमा सके। धन, मौका सबके पीछे उन्हीं की कृपा
है। उनके प्रति कृतज्ञ होना चाहिए है कि नहीं, लेकिन तुम्हें
सुनकर आश्चर्य होगा कि ये अपने अहं के कारण उन्हें भूल चुके
हैं। उनके मुँह पर ही साफ इन्कार कर दिया। कैसी धूर्तता, मुझे
तो ऐसा हुआ कि धरती फट जाए और मैं वहीं समा जाऊं, छिः ऐसा भी
कोई करता है, वे कितने बड़े व्यक्ति हैं, घर आकर इन्हें बुलाया,
पर इनका यह दुर्व्यवहार, मैं कभी इन्हें क्षमा नहीं करूँगी।
मैं हार गई हूँ। दिल टूट
गया है। इन्हें क्या हो गया, क्यों मुझ पर ऐसा बीत रहा है, "
कहते-कहते वे रो पड़ीं। गला रुँध गया।
पिताजी ने यह बात मुझे नहीं बतायी थी। जिस गुरूजी को महान
संगीतज्ञ और विद्वान समझ रखा था, उन्हीं के हाथों उनकी वह छवि
टूटे यह शायद पिताजी बर्दाश्त न कर सके। उन्हें भारी दुःख हुआ
होगा और यह बात मन ही मन दबाकर चुप हो गए होंगे। मैंने यही
सोचा।
मेरी शादी दिल्ली में ही संपन्न हुई। परंतु गुरुमूर्तिजी के घर
से कोई नहीं आया।
कभी-कभार जान-पहचान के या परिचित लोगों का संबंध वैसे ही बीच
में रुक जाता है जैसे कि रेलगाड़ी में यात्रा के दौरान उत्पन्न
होनेवाला स्नेह-संबंध। यह बात भी वैसे ही भुला दी गई। कभी
फुरसत मिलने पर गाने का मन होता तो गुरूजी की याद आती। गाने
लगती तो उनकी मधुर आवाज स्मरण हो आती। दिल दुखने लगता।
माँ ने एक बार एक चिठ्ठी में उनके बारे में कुछ लिखा था। वे
आजकल बड़े आदमी बन गए हैं। समाज में जाने-माने हो गए तो हमें
पहचानते नहीं। शायद शर्म आती होगी, मधुरगीत के पांच-छह कैसेट,
हिंदी भजन के दो कैसेट उनके निकल चुके हैं। सुनने में आया कि
उनका 'रेट' भी, ट्यूशन के लिए चार सौ रुपये से कम नहीं हैं। एक
बार, अभी हाल ही में, एक शादी के रिसेप्शन में मैं और तुम्हारे
पिताजी दोनों गए। उनका संगीत-कार्यक्रम था। बड़े चाव के साथ
बैठे रहे। रात के सात बज
चुकने पर भी वे मंच पर नहीं आए। बड़ी देर से जब आए, नशे में
लड़खड़ाते रहे। सारा शरीर काँप रहा था। हमें बहुत दुःख हुआ। हमने
घर की राह ली। बाद में मालूम हुआ कि गुरूजी ने विद्वान के हाथ
से वायलन उठा लिया था और घुमाते हुए आक्रोश और अट्टहास के साथ
खलबली मचा दी थी।'
यश अपने आप में एक नशा है। ...उस पर शराब के नशे की क्या जरूरत
है," कहीं पढ़े हुए ये वाक्य मुझे याद आए, "जिंदगी में सफलता से
मैं घबराता हूँ, क्योंकि वह मुझे भी परिवर्तित कर देगी।"
अंग्रेजी के एक-दो साप्ताहिक, मासिक पत्रिकाओं में
गुरुमूर्तिजी की विद्वत्ता की आलोचना पढ़ने को मिली। साथ ही इतर
समाचार भी ....।
दो वर्षों के बाद छुट्टियों के दिन माता-पिता से मिलने पति और
बच्चों के साथ मैं दिल्ली आयी।
कनॉट प्लेस का चक्कर काटे बिना दिल्ली घूम आने का मजा कैसे, हम
सब एक दिन वहाँ गए। खरीद-फरोख्त के चक्कर में इधर-उधर बिखर गए।
पुस्तक की एक दूकान के सामने 'वे' खड़े थे। सर के बाल सफेद,
मुँह पर झुर्रियाँ, आँखें काली और अंदर धँसी हुई और साथ ही
एकदम लाल।
एक क्षण के लिए दुविधा हुई, बोलूँ या नहीं।
तुरंत ... .
"जी, नमस्कार"
"कौन, पहचान न पाया।" खुरमुरी आवाज में प्रश्न किया।
'उनकी वह मधुर आवाज कहाँ चली गई?
"आपकी शिष्या श्यामला।"
"आहा, ला मिनिस्ट्री के श्री रामस्वामीजी की बेटी, माता-पिता
कुशल तो हैं न?"
अप्रत्याशित, यह कुशल-क्षेम का प्रश्न मेरे लिए आश्चर्य की बात
थी।
"हाँ जी, सब सकुशल हैं।"
"तुम कहाँ रहती होय़"
"जयपुर में।"
मेरी नजर उनकी गंदी धोती, कुरते पर टिकी थी।
"जी, क्या आपकी तबीयत खराब है?"
"नहीं, तबीयत तो ठीक हैं। लेकिन मन टूट गया है।" ...हमें आगे
उन्नति करनी है। बढ़ना है। लेकिन अहं को बढ़ने नहीं देना है।'
ललिता ने मुझे यही समझाने के लाख प्रयत्न किये। सब व्यर्थ।
आखिर दम घुटकर रोगग्रस्त होकर वह चल बसी, उसके भी पहले
...प्यारी बेटी थी। एक दुर्घटना के कारण छह मास तक की
खींचातानी रही ...और फिर सब खतम। बस अब साथ में माँजी हैं।
पगली-सी हैं। हमें सुखी रहने के लिए तो यश और धन चाहिए न,
लेकिन जब वे मिल जाते है तब चैन-सुख दूर चले जाते हैं।
सुख-शांति के लिए लालायित होकर मन भटकने लगता है।
लेकिन
...नहीं ...। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आता। जब उस दिन की याद
करता हूँ जब सारे संसार को अपनी मुठ्ठी में समझता रहा, बहुत
ग्लानि होती है। क्या हो गया था मुझे। अहं, लज्जित होता हूँ कि
क्या ऐसा मदोन्मत्त व घमंडी था, बड़ी आत्मीयता और श्रद्धाभक्ति
के साथ कत्तनुवारिकी गीत गाकर प्रसन्न होनेवाला 'गुरुमूर्ति'
कभी का नष्ट हो चुका है। साथ ही और क्या-क्या नष्ट हो गए
यह हिसाब-किताब अभी पूरा न कर पाया हूँ।
"संगीत-साम्राज्य के शासक सप्तस्वर हैं। आरोहण और अवरोहण में
उन स्वरों को निर्दिष्ट स्थान पर ही ध्वनित होना है। अगर
स्थानांतरण हो जाए और आरोहण के ऊपर अवरोहण के स्वर गाए जाएँ तो
असंगति है, अपस्वर हो जाएगा। है कि नहीं, वैसे ही मानव को
चाहिए कि वह उन्नति, अवनति में समरस भाव और एक मन के साथ समाज
में व्यवहार करे। स्थानांतरित स्वर की भाँति अपने जीवन के
अपस्वर का कारण स्वयं मैं ही हूँ। आजकल संगीत कार्यक्रम,
ट्यूशन कुछ नहीं हैं। आखिरी कैसेट जो निकला, उसकी बिक्री भी
संतोषजनक नहीं। अपनी तबाही का कारण मैं ही हूँ, सिर्फ मैं,
उत्तरोत्तर उन्नति करते जाते समय सदा ऊँचाई की ओर ही नहीं,
नीचे भी झुककर देखना है। नहीं तो मेरी तरह पाँव
फिसलकर गर्त
में ...अधोगति की ओर ...। पिताजी से कहना कि एक दिन उनसे मिलने
आऊँगा।" और गुरुमूर्तिजी विदा
लेकर चले गए।
पीछे से तभी मेरे पति इस ओर आ रहे थे। नजदीक आने पर पूछा, "कौन
हैं ये, जो अभी जा रहे हैं?"
"टूटा हुआ एक स्वर है।"
मेरे पति को यह बात समझ में नहीं आयी होगी।
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