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                      माँ-बाप ने बड़े शौक से 
                      विघ्नराज नाम रखा था। उन्हें मालूम था कि बाबू विघ्नराज 
                      तालचर ट्रेन की तरह रुक-रुक कर एक-एक क्लास पार करेंगे। 
                      मैट्रिक पास करते-करते वह बीस वर्ष का हो गया। दूब घास की 
                      तरह चेहरे पर मूँछ-दाढ़ी उग आई। मन तितली की तरह उड़ने लगा। 
                      कॉलेज में तीन वर्ष पार करते न करते पूरा फेमस। सभी जान गए 
                      बाबू विघ्नराज को। परीक्षा हॉल में कलम के साथ-साथ चाकू भी 
                      चलाया, फिर भी लाभ नहीं हुआ।
 एक दिन उसके जिगरी दोस्त 
                      अमरेश ने आकर समझाया, 'भाई, इस पढ़ाई से कोई लाभ नहीं 
                      होनेवाला है। मान लो, कांथ-कूथ कर किसी तरह हमलोगों ने बी.ए. 
                      पास कर लिया, तो भी ज़्यादा से ज़्यादा सब इंस्पेक्टर या 
                      हवालदार ही तो होंगे। रोज़ मंत्री को सौ सलाम ठोंकना होगा। 
                      बात-बात पर डाँट-फटकार और कदम-कदम पर ट्रांसफर की धमकी।  इस 
                      गुलामी से तो अच्छा है चलो राजनीति करेंगे। वह किशोर है न 
                      अरे वही, हमारा नवला, तीन बार बी.ए. में फेल हुआ। आज 
                      एम.एल.ए. है। आगे-पीछे गाड़ी चक्कर काटती फिरती है। लक्ष्मी 
                      रात-दिन घर-आँगन में घुंघरू खनकाती रहती है। बड़े-बड़े ऑफिसर 
                      चारों पहर खुशामद करते रहते हैं।'  
                    ''लेकिन 
                    भाई अमरू, पॉलिटिक्स करना क्या इतना आसान है। आज जो लोग चारों 
                    खुर छूकर जुहार करेंगे वे ही लोग पान से चूना खिसकते मात्र 
                    जूते की माला पहनाने पर उतारू हो जाएँगे। लोगों ने उन्हें जूता 
                    का हार पहनाकर पूरा गाँव घुमाया था। मैंने अपनी आँखों से देखा 
                    था कि किस तरह सरपंच की बोलती बंद हो गई थी। उसी दिन मैंने मन 
                    ही मन कसम खा ली कि कुछ भी करूँगा किन्तु पॉलिटिक्स नहीं 
                    करूँगा''  ''नहीं रे 
                    भाई नहीं, अगर ठीक से राजनीति करने का हुनर सीख लिया तो जूते 
                    का हार क्यों पहनेगा? लोग फूलों की माला लिए बाट जोहेंगे। बस 
                    चार-पाँच वर्ष पावर में रह जाने पर सिनेमा हॉल से लेकर पेट्रोल 
                    पम्प तक बनवा लेगा। उसके बाद सात पुस्त तक आराम से खीर-पूड़ी 
                    उड़ाता रहेगा। तू तैयार हो जा, बाकी इंतजाम मैं करूँगा। मेरी 
                    भाभी के मामू के लड़के के छोटे भाई के मौसिया ससुर का लड़का 
                    अरुण भाई पक्का पॉलिटीशियन है। 
 उससे एकाध साल की ट्रेनिंग लेने पर मंत्री, एम.एल.ए. खुद हमारे 
                    पास दौड़े आएँगे। हमारे हाथ में वोट है और जब हम लोग वोट 
                    जोगाड़ करेंगे तभी तो वे लोग एम.एल.ए. - मंत्री होंगे''
 ''नहीं अमरू, मंत्री की बात मत कर। एक बार गया था मंत्री से 
                    भेंट करने। दो घंटा इंतज़ार करना पड़ा और उसके बाद संतरी ने 
                    आकर गाय-गोरू की तरह खदेड़ दिया''
 ''ओह, तू तो हर जगह गोबर ही माखता है। यदि किसी सही आदमी को 
                    लेकर जाता तो वही संतरी तुझे सलाम बजाता। अरे भाई, मंत्री तो 
                    गुलाब के गाछ हैं। तू अगर फूल तोड़ने के बजाय काँटों में हाथ 
                    लगाएगा तो इसमें गुलाब गाँछ का क्या दोष है?''
 अमरेश के तर्क के आगे 
                    विघ्नराज का कुछ नहीं चला। वह राजी हो गया। दोनों अरुण भाई के 
                    दरबार में पहुँचे। पैकेट से थोड़ा-सा पान पराग निकाल कर मुँह 
                    में डालते हुए अरुण भाई ने कहा,''वह सामने बिजली का खम्भा 
                    दिखलाई पड़ रहा है? जानते हो एक चींटी को उस पर चढ़ने में 
                    कितना समय लगेगा? वह सीधे तो ऊपर नहीं पहुँच सकती। कई बार 
                    गिरेगी, फिर उठेगी तब कहीं ऊपर पहुँच पाएगी। पॉलिटिक्स में भी 
                    उसी तरह उठोगे, गिरोगे और फिर चढ़ने की कोशिश करोगे, तब कहीं 
                    जाकर ऊपर पहुँच पाओगे। इसमें काफी वक्त लगता है। यहा एक रात 
                    में दाढ़ी लम्बी नहीं हो जाती। समय लगता है। राजनीति के सभी 
                    दाँव-पेंच सीखने पड़ते हैं। दक्षता प्राप्त करने के पहले हज़ार 
                    बार धरना, स्ट्राइक, घेराव, लाठी चार्ज के दौर से गुज़रना 
                    पड़ता है। जेल जाना पड़ता है क्या तुम लोग इसके लिए तैयार 
                    हो?''  विघ्नराज सोच में पड़ गया। सब 
                    तो बर्दाश्त कर लेंगे, किन्तु पुलिस के लम्बे डंडे का 
                    ज़बर्दस्त प्रहार ना रे बाबा ना, मुझे नहीं करनी है राजनीति। 
                    अमरेश ने विघ्नराज के चेहरे पर उभरती हुई झिझक की रेखाओं को 
                    परखा। झट से उसका हाथ पकड़कर पीछे की ओर खींच लिया और आगे 
                    बढ़कर बोला,''भाई, आप आग में कूदने के लिए कहेंगे तो हम कूद 
                    जाएँगे। बस, हमें आपका आशीर्वाद चाहिए।''  अरुण बाबू के दल में शामिल 
                    होते ही दोनों को रास्ता रोकने का काम मिल गया। सामन्त टोला 
                    कॉलेज को मिलनेवाला सरकारी अनुदान, बिजली की अबाध आपूर्ति आदि 
                    मामलों को लेकर कॉलेज के लड़कों ने  'रास्ता रोको अभियान ' की 
                    योजना बनाई। अरुण बाबू ने तीन सौ रूपये पकड़ाते हुए उनसे कहा,
                    ''देखो, रास्ता रोको अभियान शुरू करने पर पुलिस, 
                    मजिस्ट्रेट आदि आकर बहुत कुछ कहेंगे, बहुत तरह से समझाएँगे, 
                    धमकाएँगे किन्तु कुछ नहीं सुनना। जब तक मैं न कहूँ रास्ता रोके 
                    रखना। सुबह छह बजे से संध्या छह बजे तक बिल्कुल चक्का जाम। एक 
                    भी गाड़ी आगे नहीं जानी चाहिए। गाड़ी बंद होने पर ही सरकार की 
                    नींद टूटेगी। एक डेगची में चूड़ा और गुड़ रेडी रखना। भूख लगने 
                    पर पहले खुद खाना और माँगने पर दूसरे लड़कों को भी खिलाना 
                    किन्तु एक पल के लिए रास्ता भी छोड़कर कहीं मत जाना।'' 
                     योजना के अनुसार लगभग पचास 
                    लड़के नेशनल हाईवे को रोककर बैठ गए। सबसे सामने विघ्नराज और 
                    अमरेश थे। उन लोगों ने मन ही मन कसम खाई थी कि सिर भले ही उतर 
                    जाए किन्तु पीछे नहीं हटेंगे। देखते ही देखते सैंकड़ो गाड़ियाँ 
                    एक के बाद एक आकर खड़ी हो गई। पुलिस आई। मजिस्ट्रेट आए। उन 
                    लोगों ने बहुत समझाया किन्तु लड़कों के कानों पर जूँ नहीं 
                    रेंगी। सब उसी तरह डँटे रहे।  ड्राइव्हरों के नेता आगे आकर 
                    बोले,''सर आप हम लोगों पर छोड़ दीजिए, हम लोग इन्हें समझ 
                    लेंगे। ताज़िन्दगी याद रखेंगे इस रास्ता रोको अभियान को।'' ''लेकिन कुछ ऐसा-वैसा नहीं होना चाहिए, धीरज से काम लेना।'' 
                    मजिस्ट्रेट साहब ने समझाया।
 तीन-चार घंटे बाद अरुण बाबू 
                    आए। उन्होंने लड़कों को बताया कि सरकार ने हमारी सारी माँगों 
                    पर सहानुभूतिपूर्वक विचार करने का वचन दिया है। लड़कों ने अरुण 
                    बाबू का इशारा पाते ही रास्ता रोको अभियान समाप्त कर दिया। 
                    बाँध के टूटते ही जैसे पानी का रेला हरहरा कर आगे की ओर भागता 
                    है उसी तरह उस राजपथ पर गाड़ियों की लम्बी कतार आगे बढ़ गई।
                      ''अरे वाह, तुम लोग दिन भर 
                    यहाँ धूप-बतास में कूद-फाँद करते रहे और तुम्हारे अरुण भाई 
                    पार्टी वाले से पाँच हज़ार रुपए ऐंठ गए।''  विरोधी पार्टी के 
                    एक छोट भैया ने आकर जब उन लोगों से कहा तो उन लोगों ने अपना 
                    माथा पीट लिया।  विरोधी नेता की बातें सुनकर 
                    विघ्नराज ने अमरेश से कहा,''बात सच लगती है। यदि ऐसा नहीं 
                    होता तो हमें छह बजे सुबह से शाम छह बजे तक रास्ता रोकने के 
                    लिए कहा गया था और खुद तुम्हारे अरुण भाई ने दस बजे दिन में ही 
                    आंदोलन क्यों तोड़ दिया? ' जब दोनों न जाकर अरुण बाबू से इसके बारे में पूछा तो उनके आदमी 
                    ने उन्हें वहाँ से धक्का मार कर बाहर कर दिया।
 'रास्ता रोको अभियान की खबर गाँव तक पहुँच गई और जब विघ्नराज 
                    अपने गाँव पहुँचा तो बाप ने खूब पिटाई की। विघ्नराज रात को ही 
                    गाँव छोड़कर अमरेश के पास शहर लौट गया।
 विघ्नराज ने अमरेश से कहा,''भाई, कोई और रास्ता निकालो। यह 
                    पॉलिटिक्स-वॉलिटिक्स मुझसे नहीं होगी। ऐसा कोई धन्धा बताओ 
                    जिसमें हर्रे लगे न फिटकरी और रंग चोखा आए। बस साल-दो-साल में 
                    किसी तरह हम लोग लखपति बन जाएँ।''
 अमरेश कुछ देर तक सोचता रहा। 
                    हठात उसके दिमाग में कुछ कौंध गया। वह मुस्कुराता हुआ बोला,
                    ''अरे विघ्न, तू ने कभी आइने में अपना चेहरा देखा है? 
                    तुझ जैसा सुन्दर चेहरे वाले कितने लोग हैं? ख़बर मिलते ही 
                    लड़की वाले प्रस्ताव लेकर दौड़ेंगे तेरे पास।'' ''मुझे अभी शादी नहीं करनी है।'' विघ्नराज ने कहा।
 ''शादी करने के लिए तुझे कौन कहता है?''
 ''तो?''
 ''हम लोग विवाह करने का व्यवसाय करेंगे। विवाह होते ही उड़न 
                    छू। फिर कौन खोज पाएगा।''
 ''अगर पकड़े गए?''
 ''कलकत्ता, बम्बई जैसे बड़े महानगरों में कौन किसे पहचानता 
                    है? हम लोग अपना-अपना नाम बदल लेंगे।''
 दोनों इस नए धंधे के लिए एकमत 
                    हो गए। बाहर जाने के लिए खर्च का जोगाड़ अमरेश ने किया। अपने 
                    बाप को ने जाने उसने क्या पाठ पढ़ाया कि उन्होंने ज़मीन का एक 
                    टुकड़ा बेचकर पाँच हज़ार रुपए का जुगाड़ कर दिया।  दोनों मित्र कलकत्ता जा 
                    पहुँचे। वहाँ श्याम बाज़ार में एक किराये का मकान लिया। छह 
                    महीने का एडवांस दे दिया। नाम बदलकर रमेश और महेश रख लिया। 
                    महेश ने रमेश के ब्याह के लिए एक व्यापारी की बेटी से बातचीत 
                    चलाई। व्यापारी अपनी बेटी के विवाह के लिए बहुत चिन्तित था 
                    क्योंकि उसकी लाड़ली बेटी दो बार अलग-अलग लड़कों के साथ घर से 
                    भागकर बदनामी के बाजार में खूब नाम कमा चुकी थी। रमेश के लिए 
                    विवाह प्रस्ताव तो दे दिया गया किन्तु पहला सवाल उठा कि लड़का 
                    का बाप कौन बनेगा और बाराती कहाँ से आएँगे?   ''अरे भाई, सब भाड़े पर मिल 
                    जाते हैं। दैनिक बीस रुपए और पेटभर भोजन पर ढेर सारे लोग मिल 
                    जाएँगे। उनमें से किसी एक को बाप और बाकी लोगों को बाराती बना 
                    देंगे।'भाड़े के बाप और बारात को लेकर विवाह कार्य सम्पन्न हुआ। दहेज 
                    में बहुत से सामानों के साथ दस हज़ार रूपये नकद मिले। उसी दिन 
                    रात को घड़ी, अंगूठी, हार और दस हज़ार नकद लेकर दोनों मित्र 
                    चंपत हो गए। कलकत्ता से बनारस, बनारस से इलाहाबाद, दिल्ली, 
                    बड़ौदा, बम्बई होते हुए जब दो बर्ष बाद वे लोग पुन: कलकत्ता 
                    वापस आए तो उनकी वेशभूषा और चेहरे-मोहरे में काफी बदलाव आ गया 
                    था। दोनों लखपति हो गए थे। बिलकुल साहबी ठाठ-बाट हो गया था। 
                    दोनों सूट-बूट-टाई पहन कर क्लब, होटल, स्वीमिंगपुल का चक्कर 
                    लगाते और कोई नया शिकार तलाशते रहते।
 हठात एक दिन होटल में उनकी 
                    मुलाकात एक अनिंद्य सुन्दरी से हो गई। उसके बड़े भाई कौल साहब 
                    ने अपनी बहन से उन लोगों का परिचय कराया। दोनों भाई-बहन 
                    कलकत्ता, दार्जिलिंग, सिक्किम आदि घूमने के लिए आए थे। माँ-बाप 
                    नहीं थे। करोड़ों के व्यवसाय के मालिक थे कौल साहब। अभी तक कौल 
                    साहब का विवाह नहीं हुआ था। उम्र अधिक नहीं थी। देखने में काफी 
                    सौम्य-सुन्दर। आकर्षक व्यक्तित्व। शादी के लिए ढेर सारे 
                    प्रस्ताव आ रहे थे किन्तु उन्होंने निश्चय कर लिया था कि जब तक 
                    उनकी बहन सुनीता की शादी नहीं होगी वह ब्याह नहीं करेंगे। कौल 
                    साहब चाहते थे कि कोई सुन्दर और सच्चा लड़का मिल जाए तो सुनीता 
                    की शादी कर दें। सुनीता के नाम से जितनी सम्पत्ति है, वही उनके 
                    भावी जीवन को सुखमय बनाने के लिए काफी होगी। 
                    कौल साहब की बातें सुनकर 
                    विघ्नराज ने अमरेश की ओर देखा। अमरेश ने विघ्नराज को आँखें 
                    मारी। दूसरे दिन दोनों भाई-बहन को डिनर के लिए होटल में 
                    आमंत्रित किया गया। बातचीत के दौरान अमरेश ने विघ्नराज की 
                    सम्पत्ति के बारे में बताते हुए कहा, ''जानते हैं कौल साहब, 
                    हमारा कारोबार वैसे कोई बड़ा नहीं है। पाराद्वीप में पंद्रह 
                    ट्रालर, भुवनेश्वर में तीस ट्रक और चिंगुड़ी मछली पालन के लिए 
                    चिलिका में मात्र दो सौ एकड़ जमीन है। दो छोटी-छोटी इण्डस्ट्री 
                    थी। देखभाल करने का समय नहीं मिलता था इसलिए पिछले वर्ष बेच 
                    दी। सोचते हैं दिल्ली अथवा कलकत्ते में कोई नई इण्डस्ट्री 
                    बैठाएँगे। हम लोग आपके समान उतने बड़े बिजनेस मैन तो नहीं हैं 
                    किन्तु हमें अपने परिश्रम पर विश्वास है और जो मेहनत करता है 
                    उसे ईश्वर भी कभी किसी चीज़ की कमी नहीं होने देते। 
                     ''वाह, आपका 
                    विचार कितना अच्छा है। इतना बड़ा कारोबार होने पर भी आपके मन 
                    में थोड़ा-सा भी अहंकार नहीं है। आप तो जानते हैं कि हम लोग 
                    पाकिस्तानी आक्रमण के कारण कश्मीर से भाग कर आए। हम लोग अर्थात 
                    हमारे पिता जी सिर्फ़ ग्यारह रुपए लेकर दिल्ली आए थे। 
                    शुरू-शुरू में वे पुराना डिब्बा खरीदते और बेचते थे और उसी से 
                    अपना गुज़ारा करते थे। इसी तरह धीरे-धीरे बिजनस करते हुए हम 
                    यहाँ तक पहुँचे हैं। पहले माँ और उसके बाद पिता जी हमें छोड़कर 
                    परलोक सिधार गए। हमलोग बिलकुल अनाथ हो गए। सब कुछ रहकर भी अगर 
                    सिर पर माँ-बाप का हाथ न रहे तो बड़ा अकेलापन महसूस होता है।'' 
                    इतना कहते-कहते कौल साहब का गला रूँध गया। उन्होंने रूमाल से 
                    आँसू पोंछते हुए पुन: कहना शुरू किया, ''इतने बड़े कारोबार का 
                    भार अचानक मेरे कंधे पर आ पड़ेगा, मैं नहीं जानता था। मैं 
                    अकेला आदमी, कहाँ-कहाँ मारा फिरूँ, किस-किस को सँभालूँ? इसीलिए 
                    इस तलाश में हूँ कि सुनीता के लिए कोई योग्य लड़का मिल जाए तो 
                    शादी करके आधा कारोबार उसको सौंप दूँ। लेकिन आजकल अच्छे आदमी 
                    कहाँ मिलते हैं। सबकी निगाह दहेज के रूप में मिलने वाली नकदी 
                    पर लगी रहती है। बड़े दुख के साथ कहना पड़ता है कि आज का आदमी 
                    अपनी मेहनत पर विश्वास न करके दूसरे की धन-सम्पत्ति को फोकट 
                    में हड़प लेने की ताक में रहता हैं। अच्छा, आप ही बताएँ यदि 
                    ऐसी मनोवृत्ति लेकर हम चलेंगे तो देश का क्या होगा? क्या कभी 
                    हमारा राष्ट्र जापान और अमेरिका की तरह विकास कर पाएगा?''
                     ''आप बिलकुल 
                    ठीक कहते हैं। अपने देश को उन्नति के शिखर पर ले जाने के लिए 
                    पहले हमें अपने आपको सुधारना होगा।'' विघ्नराज एवं अमरेश दोनों 
                    ने कौल साहब के कथन के प्रति अपनी सहमति जताई। जब उन लोगों की 
                    बातें हो रही थीं सुनीता चुपचाप मुँह झुकाए बैठी थी। शायद 
                    बड़ों के बीच में बोलना उसे पसंद नहीं था। वह बड़ी शर्मीली 
                    लड़की थी सुनीता। होटल से लौटने के बाद विघ्नराज ने अमरेश से पूछा, ''क्या अमरू, 
                    यहाँ दाँव मारने से कैसा रहेगा?''
 ''अरे पूछता 
                    क्या है? यही एक हाथ मारने पर तो हम मालामाल हो जाएँगे। देखते 
                    ही देखते करोड़ों के मालिक बन जाएँगे। सुनीता से शादी कर तू 
                    उसका कारोबार सँभाल लेना और मुझे अपना बिजनस पार्टनर बना 
                    देना।'' ''शादी के बाद हम अपनी सम्पत्ति के बारे में सुनीता को क्या 
                    कहेंगे?'' विघ्नराज ने प्रश्न किया।
 
 ''अरे विवाह होने के बाद यदि उन्हें मालूम भी हो गया कि हम लोग 
                    फोकट में राम गिरधारी हैं तो क्या फ़र्क पड़ेगा? क्या कर लेंगे 
                    वे लोग?'' अमरेश ने ठहाका लगाते हुए कहा।
 ''तब ठीक है। तू जाकर विवाह प्रस्ताव दे आ।'' विघ्नराज ने कहा।
 दूसरे दिन 
                    विघ्नराज के विवाह का प्रस्ताव लेकर अमरेश कौल साहब के पास 
                    पहुँचा। कौल साहब पहले तो हिचकिचाए फिर बोले, ''देखिए, हम लोग 
                    रूढ़िवादी परिवार के हैं। यद्यपि विघ्नराज अच्छा लड़का है फिर 
                    भी हमें उसके माँ-बाप से बातचीत करनी होगी। इसके अलावा सुनीता 
                    से भी इस विषय में पूछना होगा। इसलिए अभी से मैं कुछ नहीं कह 
                    सकता।'''ज़रूर-ज़रूर, मैं विघ्नराज के पिता जी को बुला लाऊँगा। आपकी 
                    ओर से कौन बातचीत करेंगे?' अमरेश ने पूछा।
 ''हमारे मामा। मैं उन्हें खबर कर दूँगा।'' कौल साहब ने भी अपनी 
                    सहमति दी।
 बातचीत के 
                    अनुसार तिथि निश्चित की गई। विघ्नराज की ओर से उसका भाड़े का 
                    बाप आया। कौल साहब के मामू भी समय पर पहुँच गए। कुछ देर बातचीत 
                    चलने के बाद विवाह की तारीख तय हुई। उससे पहले निबन्ध करने की 
                    तिथि निश्चित की गई। सप्ताह भर बाद अमरेश को बुलाकर कौल साहब ने कहा, ''आप तो जानते 
                    हैं, व्यापारी समुदाय का मनोभाव कैसा होता है। इसलिए निर्बन्ध 
                    के समय अगर आपकी ओर से यथेष्ट गहने नहीं दिए गए तो समाज में 
                    चर्चा शुरू हो जाएगी। अब तो सिर्फ़ दो दिन रह गए हैं। मुझे 
                    मालूम हैं कि आप इतना जल्द इतने सारे रुपए जोगाड़ नहीं कर 
                    पाएँगे। मैं तीन लाख रुपए का चैक काट देता हूँ। आप उसी रुपए से 
                    सुनीता को हीरे का एक बढ़िया सेट देंगे। ताकि हमारे 
                    कुटुम्बजनों को बोलने का मौका न मिले।''
 ''वाह कौल 
                    साहब वाह, आप भी अच्छी बात करते हैं। यह सच है कि हम आपकी तरह 
                    बड़े व्यापारी नहीं हैं किन्तु क्या तीन लाख रुपया भी जोगाड़ 
                    नहीं कर सकते?'' इतना कहते हुए अमरेश ने कौल साहब का हाथ थाम 
                    लिया।अमरेश से सारी बातें सुनकर विघ्नराज ने कहा, ''क्यों नहीं ले 
                    आया तीन लाख का चैक? बेकार में शेखी बघार आए।''
 'तेरी मुर्खामी कब जाएगी, पता नहीं। यदि मैं चैक ले लेता तो 
                    कौल साहब को हमारे ऊपर शक नहीं होता?' अमरेश ने विघ्नराज को 
                    समझाया।
 ''तो फिर इतने रुपए कहाँ से आएँगे?''
 ''बैंक में ढ़ाई लाख रुपए हैं। बाकी पैसे तेरे भाडे के बाप से 
                    सैकड़े पचास रुपए की दर से सूद पर ले आएँगे।'
 निर्बन्ध के 
                    दिन बहू को हीरे का एक बेशकीमती सेट दिया गया। तय किया गया कि 
                    विवाह दिल्ली में सम्पन्न होगा। कौल साहब ने जिद्द  की बारात 
                    प्लेन से ही जाएगी। जितने लोग जाएँगे लिस्ट दे दें। तीन-चार 
                    दिन में प्लेन टिकट होटल में आकर ही दे जाएंगे।तीन-चार दिन बीत गए। कोई ख़बर नहीं आई। कौल साहब कहाँ गए क्या 
                    पता?
 
 'हो सकता है दोनों भाई-बहन दार्जिलिंग घूमने चले गए हों।' 
                    विघ्नराज ने कहा।
 'हाँ, हो सकता है। किन्तु ख़बर तो देनी चाहिए।' अमरेश बोला।
 कई दिन बीत 
                    गए, किन्तु कोई-खबर नहीं मिली। दार्जिलिंग जाकर भी कुछ पता 
                    नहीं चला। उन लोगों ने दिल्ली का जो पता दिया था, उस जगह 
                    पहुँचने पर मालूम हुआ कि ऐसा कोई आदमी वहाँ कभी नहीं रहता था।''हम लोगों ने कहीं गलत पता तो नहीं लिख लिया है?'' अमरेश ने 
                    अपनी शंका व्यक्त की।
 ''हो सकता है। चलो कलकत्ता चलकर देखते हैं। वहीं दोनों का पता 
                    लगेगा।' विघ्नराज ने सुझाव दिया।
 कलकत्ता लौट 
                    कर उन्होंने देखा कि डेरे पर एक लिफाफा आया हुआ था। कौल साहब 
                    और सुनीता ने दोनों के नाम से चिठ्ठी लिखी थी।''लाओ लाओ मुझे देखने दो।'' इतना कहते हुए अमरेश ने विघ्नराज 
                    के हाथ से चिठ्ठी छीनकर कहा, ''देखें, क्या लिखा है।''
 विघ्नराज का चेहरा उतर गया। वह एकटक अमरेश की ओर देखता रहा। 
                    चिठ्ठी में केवल एक पंक्ति टाइप की गई थी, ''बंधुगण, इस 
                    व्यवसाय में हमलोग तुम लोगों से सीनियर हैं।''
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