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                     कितनी सुंदर है वह? बात 
                      करने का मौका मिल जाए तो मज़ा आ जाए। नरेश घिया ने अपने आप 
                      से कहा। और बात करने के इरादे से उसने अपनी ओर बढ़ती हुई 
                      लड़की की तरफ़ मुसकरा-कर देखा। उसके चेहरे पर भी 
                      मुस्कुराहट थी। वह कह रही थी,''मैं आपके पास आ ही रही थी।''''सचमुच, मुझे बहुत खुशी हुई मिस''
 ''नंदिता मेहता'' उसने वाक्य पूरा किया।
 ''कल की गोष्ठी में मुझे आप 
                      का व्याख्यान बहुत पसंद आया,'' फिर अचानक वह आत्मविभोर हो कर 
                      बोली --''मुझे इतना पसंद आया कि मैंने सोचा अगर मैं खुद आकर 
                      आपका अभिनंदन नहीं करती हूँ, तो अपनी नज़रों में ही गिर 
                      जाऊँगी।'' नरेश ज़रा झुककर बोला,''थैंक्यू थैंक्यू थैंक्यू, मिस।''
 ''नंदिता, नंदिता मेहता नहीं मिस्टर घिया।''
 ''पर आपने गलती की न, मिस नंदिता।''
 ''मैंने गलती की? कौन-सी?
 ''मेरा नाम मिस्टर घिया नहीं, नरेश है।''
 ''ओह, सॉरी, हाँ मैं अपनी खुशी ही आपके सामने व्यक्त करना 
                      चाहती थी।''
 
                      ''मैं गौरवान्वित हुआ। पर 
                      क्या मैं सचमुच इतना अच्छा बोला था, इतना अच्छा कि आपके जैसी 
                      तेजस्वी स्त्री, 'सॉरी,' कन्या को खुद चलकर आना पड़ा मुझे 
                      बधाई देने!''''आप ज़रूर इतना ही अच्छा बोले होंगे, नहीं तो मैं इधर क्यों 
                      आती?'' एक मुसकराहट उसके अधरों पर थी,''आप कैसे आदमी हैं? 
                      जैसे कि आपको पता ही न हो कि आप कितना अच्छा बोले थे।''
 ''सचमुच पता नहीं है मिस नंदिता। बहुत ही भुलक्कड़ हूँ। पर 
                      क्या कहा था मैंने?''
 ''अगर यही मैं बता सकती, तो बधाई स्वीकार कर रही होती, दे न 
                      रही होती। पर वह क्या वाक्य था ---''व्हॉट ग्रैमर इज लैंगुएज 
                      वह क्या क़्या था?''
 ''हाँ हाँ, वह तो वह तो, ''नरेश चुटकी बजाते हुए कह रहा था, 
                      ''वर्ड्स आर टु थॉट व्हॉट, ग्रैमर इज टू लैंगुएज...'' 
                      (विचारों के लिए जो महत्व शब्दों का हैं, वही महत्व भाषा के 
                      लिए व्याकरण का है।) पर नंदिता जी यह उक्ति मेरी नहीं है, 
                      कहीं पढ़ी थी मैंने।''
 ''पढ़ी हुई ही सही, पर आपने इसका प्रयोग बहुत अच्छा किया। 
                      फिर आपकी तो आदत है कि किसी चीज़ का भी यश लेना नहीं चाहते। 
                      पंडया साहब कह रहे थे।''
 ''क्या कह रहे थे पंडया साहब?''
 ''यही कि नरेश बिलकुल 
                      अभिमानी नहीं है। हमारी कक्षा में कल की गोष्ठी के संदर्भ 
                      में बाते करते हुए आज ही उन्होंने कहा कि आपने कोई निबंध 
                      बहुत अच्छा लिखा था, किन्तु उसका भी यश आप लेने को तैयार न 
                      हुए।''''मतलब?''
 ''मतलब आपने कोई बहुत 'ब्रिलियंट' बात लिखी थी। उसकी प्रशंसा 
                      होने पर आपने मुसकरा कर कहा था कि इसके लिए मुझे बहुत 
                      बुद्धिमान मानना गलत होगा, क्यों कि मैंने उसे कहीं पढ़ा था।
 ''मैंने तो केवल उसे उद्घृत कर दिया था और सच भी यही था, मिस 
                      नंदिता''
 ''मिस विस जाने दीजिए नरेश जी, सिर्फ़ नंदिता ही अच्छा लगता 
                      है।''
 नरेश कुछ झुका। फिर मन में गुदगुदी महसूस करते हुए बोला, 
                      ''मैं झूठ नहीं कह रहा हूँ। मुझे मसखरी करने की आदत है। 
                      मैंने इमानदारी से लिखा था कि परीक्षक अगर ऐसा मानेगा कि ऐसा 
                      लिखनेवाला लड़का प्रतिभावान है, तो यह उसकी भूल होगी। अकसर 
                      ऐसा भी होता है कि जो चीज़ परीक्षक ने न पढ़ी हो, उसे 
                      विद्यार्थी पढ़ ले और उसे परीक्षा में लिख दे, तो परीक्षक 
                      उसे होशियार समझने लगता है।''
 ''होशियार है तो लगेगा भी।''
 इस तरह से नरेश तथा नंदिता 
                      की मित्रता गाढ़ी होती गई, जो थोड़े ही दिनों में सारे कॉलेज 
                      की चर्चा का विषय बन गई। कालेज में नई आई नंदिता अपने रूप 
                      तथा लावण्य से सबके आकर्षण का केंद्र थी। नरेश अपनी चपलता और 
                      होशियारी के लिए सब का प्रिय था ही -- पर वह उस रूपवती 
                      सुंदरी का भी प्रिय हो जाए, यह किसी को भी पसन्द नहीं आया 
                      फिर भी सभी समझते थे कि यह स्वाभाविक ही है, क्यों कि नरेश 
                      जैसा प्रतिभाशाली था, वैसा ही धनवान भी था। बात-बात में वह 
                      लजाता हुआ कहता था कि बड़ौदा में उसके पिता की दो मिलें तथा 
                      चार मोटरें हैं। वहाँ तो बड़े राजसी ठाठ तथा लाड़-प्यार से 
                      रखा जाता है, पर उसकी इच्छा बंबई में ही पढ़ने की थी, इसलिए 
                      वह यहाँ चला आया है। मम्मी तो बहुत रोई थीं। पर पापा इरादे 
                      के बड़े पक्के हैं। बेटा अपने आप अपनी ज़िंदगी सँवार सके 
                      इसलिए न तो एक मोटर वहाँ से भेजते हैं और न मुझे यहाँ खरीदने 
                      देते हैं। वैसे चार में से दो तो बेकार पड़ी रहती है। एक का 
                      इस्तेमाल मम्मी करती है, एक पापा की सेवा में रहती है। जब 
                      कभी मैं वहाँ होता हूँ, तब तीसरी मोटर भी मुझे दे दी जाती 
                      है। और मम्मी अक्सर कहती है,''तू अकेला है इसलिए तेरे हिस्से 
                      में दो दो मोटरें हैं।''  नरेश और नंदिता जब भी मिलते 
                      उनकी बातचीत का विषय मुख्यत: विदेश होता। नंदिता कहती 
                      --''मेरे पिता जी काफी वर्ष विलायत में रहें हैं इसलिए मेरा 
                      बचपन करीब-करीब वहीं बीता है। पर मेरे पापा बड़े ही सनकी है। 
                      जब मैं दस साल की हुई, तब उन्होंने अपना वहाँ रहने का इरादा 
                      बदल दिया। तंबू उखाड़कर इधर आए। अब वह माथेपर त्रिपुंड आँकते 
                      हैं और गीता के श्लोक बोलते रहते हैं बड़े सनकी लगते हैं।''इतना कहकर वह ज़ोर से खिलखिला पड़ती। तभी नरेश पूछ 
                      बैठा,''टेम्स नदी को कलकल बहते नहीं सुना है ना?''
 ''कैसे बहेगी बिचारी जब सारा शहर उसे घेरे हुए है।''
 ''तो फिर ऐसे कलकल नाद करते हुए हँसना कहाँ से सीखा, नंदिता? 
                      बचपन तो तुमने उसी के किनारे बिताया है न?''
 ''आप बड़े वैसे हैं!''
 ''पर तुम्हारी तरह नहीं। और मेरे पिता भी तुम्हारे पिता की 
                      तरह नहीं हैं। उनमें सनक तो बिलकुल ही नहीं। व्यापार उनका 
                      प्राण है। विलायत में भी धंधा ही करते रहे। पारंगत हो कर जब 
                      स्वदेश लौटे, तब यहाँ भी व्यापार ही किया और ईश्वर की कृपा 
                      से उन्हें सफलता भी खूब मिली।''
 ''ठीक--ठीक!'' नंदिता हँस पड़ी।
 ''दो मिलें तथा चार मोटर 
                      गाडियों की सफलता कोई खास सफलता नहीं कहलाती नरेश जी''''पाँचवी भी आनेवाली है,'' नरेश ने गंभीरता से कहा, ''आज ही 
                      मम्मी का पत्र आया है। उन्होंने इस बात को गुप्त रखने को कहा 
                      है।''
 ''यह किसे मिलेगी?''
 ''किसे मिलनी चाहिए?''
 ''तुमको,'' नंदिता ताली बजाती उठ खड़ी हुई, ''आपको भी फ़ायदा 
                      हो गया। मुझे भी कभी उसमें लिफ्ट दोगे ना?''
 ''मैं क्या कहूँ,'' नरेश ने असमंजस में पड़ते हुए कहा। उसकी 
                      आवाज़ भी धीमी पड़ गई,''कि उसे किसी को दे सकूँ, इसीलिए 
                      मम्मी का 'स्क्रू' घुमाने की कोशिश कर रहा हूँ।''
 ''सचमुच!''
 सामने रखी एक किताब की ओर 
                      संकेत करते हुए नंदिता ने नरेश से पूछा --''तुम मार्क्स को पूरा कर चुके हो शायद। यह तो कोई दूसरी 
                      किताब लगती है?''
 ''यह फ्रायड की है, देखनी है?''
 ''भाड़ में जाय फ्रायड, मुझे तो उसका नाम भी पसंद नहीं।''
 ''तुम बहुत जल्दी ही ऊब जानेवाली जान पड़ती हो।''
 ''तो लाओ, देख लेती हूँ, इसमें क्या है?''
 ''नहीं, नहीं, रहने दो, मेरा फायड इतना गिरा हुआ नहीं है,'' 
                      नरेश ने हँसते हुए कहा।
 और उस पुस्तक को उसने जरा परे खिसका दिया।
 ''देखूँ, तुम्हारा फ्रायड। 
                      उसमें क्या पढ़ने लायक है?'' कहकर उसने अचानक आगे बढ़कर 
                      पुस्तक उठा ली।''अरे! यह तो लंदन की 'गाइड-बुक' है। फ्रायड कहाँ हैं?''
 ''अरे, यह आ गई? बदल गई होगी। शायद, पटेल है ना, काफी दिनों 
                      से पीछे पड़ा है, लंदन के बारे में जानने के लिए। इसीलिए उसे 
                      देने के लिए लाया हूँ। बेचारा फ्रायड तो मेरे कमरे में ही सो 
                      रहा होगा।''
 ''पर यह भी उन लोगों के लिए है जो लंदन से बिलकुल अनजान 
                      है।''
 ''पटेल तो अनजान ही है ना!''
 ''पर यह पुस्तिका तो एकदम 
                      नई है। क्या उसी के लिए ख़रीदी?''''क्या करूँ मित्र है ना! और फिर क्या उसकी ख़रीदने की औकात 
                      है?''
 ''कितने उदार हो तुम!''
 ''उदार तो तुम हो नंदिता।''
 नरेश की आवाज़ भाव-विभोर हो उठी।''नहीं तो मेरे जैसे को इतने 
                      स्नेह भरी मित्रता कैसे देती!''
 ''तुम्हारे जैसे को?'' नंदिता ने भृकुटी सिकोड़ कर पूछा।
 नरेश ने उसी दिन अपने पिता 
                      को पत्र में लिखा, ''आपकी एक बात हमेशा सच होती रहती है कि मुझे परीक्षा में 
                      अच्छी डिवीजन नहीं मिलती। वैसे, यह बात सभी मानते हैं कि 
                      मेरा सामान्य ज्ञान बहुतों से अच्छा हैं। चूँकि मैं किताबी 
                      कीड़ा नहीं हूँ। शायद, इसीलिए ऐसा है। यहाँ कोई नहीं मानेगा 
                      कि मैं वास्तव में ठूँठ हूँ। इतना ठूँठ कि बंगाली सीखने बैठा 
                      पर लिपि इतनी टेढ़ी-मेढ़ी कि उसी में उलझ कर रह गया और उसे 
                      छोड़ बैठा, फिर भी मेरे मित्र मुझे बंगाली का पंडित मानते 
                      हैं। मुझे हँसी आती है उन पर। माँ कैसी हैं? दुकान कैसी चल 
                      रही है? व्यापार मंदा ही लगता है। पिछले महीने आपने मुझे २५ 
                      रुपए कम भेजे थे। गुज़ारा कर रहा हूँ। पिछले महिने से एक 
                      टयूशन भी मिल गई है। आपकी कैसी तंदुरूस्ती है, उसमें मैं 
                      आपको ज़्यादा मेहनत करने देना नहीं चाहता हूँ।
 अगले वर्ष तक मैं बी.ए. कर 
                      लूँगा। बस, इतनी ही देर है। इसके बाद मैं आपका बोझ हलका 
                      करने।''उसकी आँखें भर आई, हाथ रुक गया। उसे दो मिलों तथा चार मोटरों 
                      की याद हो आई!
 पत्र डाक में डालकर नरेश ने एक अजीब-सी तसल्ली महसूस की। ऐसी 
                      ही जैसी नंदिता के सान्निध्य से होती थी। यह सान्निध्य अब और 
                      ज़्यादा मधुर हो गया था।
 कभी-कभी कोई यह भी कह उठता 
                      था कि दोनों का विवाह हो जाए तो जान छूटे। पर विवाह कैसे हो 
                      सकता था। नरेश तो जैसे कुछ जानता-समझता ही नहीं था। ''सारी 
                      दुनिया समझती है तो फिर यह कैसे नहीं समझता?'' नंदिता सोचती 
                      थी।''कैसा भोला है।''
 ''तुम कुछ समझते क्यों नहीं?''
 ''क्या नहीं समझता?''
 ''जो सारी दुनिया समझती है वह।''
 ''कि...''
 ''यह मुझसे नहीं कहा जाएगा।''
 ''तो किससे कहा जाएगा?''
 ''तुमसे,'' कहकर नंदिता ने अचानक उसका हाथ थाम लिया। जो कुछ 
                      नरेश को अभी तक समझमें नहीं आया था, वह अचानक ही आ गया।
 ''नंदी,'' वह सिर्फ़ इतना बोल सका।
 ''बोलते क्यों नहीं?''
 ''क्या बोलूँ, तू तो बहुत भोली है।''
 ''भोले तो खुद हो। मन की बात कहने का साहस तक नहीं करते!'' 
                      हालात ने नरेश को जैसे सावधान कर दिया हो। उसके मुख पर एक 
                      निर्णय, एक निश्चय की चमक थी, उसने कहा, कहूँगा, एक दिन 
                      ज़रूर कहूँगा।''
 ''कहूँ? पर क्या कहूँ? ऐसी 
                      भोली-भाली, फूल जैसी निर्दोष लड़की से, जो मुझे दो मिलों तथा 
                      चार मोटरों का मालिक और माइकेल मधुसुदन दत्त पर्यंत बंगाली 
                      साहित्य का विद्वान समझती है। ऐसी श्रद्धामयी लड़की से भला 
                      क्या कहूँ?'' एक छोटी-सी कोठरी में करवट बदलते हुए नरेश को 
                      नींद नहीं आ रही थी। अपने सहपाठियों की नज़रों में उसने इस 
                      कोठरी को अपने चाचा का 'नेपियन-सी-रोड' का महल बना रखा था। 
                      किसी-किसी को तो उसने एक अट्टालिका को दूर से दिखाया तक भी 
                      था। पर चाचा का अभिमान तथा चाची की लड़ाकू वृत्ति की 
                      किलेबंदी करके उसने वहाँ सबका प्रवेश रोक रखा था। यह 'महल' 
                      जो हमेशा उसे गहरी नींद में सुला देता था, आज नींद के बजाय 
                      आँसुओं को उपहार दे रहा था। इस उपहार के पीछे उसको मेहनत 
                      करते हुए पिता तथा काया घिसती हुई माँ दिखायी देती है। 
                      नन्हें से गाँव की गंदी गलियाँ उभरती है। उसमें क्या नंदिता रह सकती 
                      है? नामुमकिन, बिलकुल नामुमकिन। मैं नरेश घिया चाहे जितनी 
                      गपोड़ी होऊँ, पर ऐसा अत्याचार कभी नहीं कर सकूँगा। तो कहना 
                      क्या चाहिए? नंदिता से?''''अब तो नंदी,'' उसने कहना चाहा। नंदिता जैसे नींद से जागी 
                      हो। विस्मय उसके चेहरे पर था। वह सोच रही थी नरेश की इस 
                      आवाज़ में इतनी व्यथा क्यों हैं?
 ''तुमने एक दिन मुझसे कहा था कि मैं तुमसे कुछ कहूँ।''
 ''हाँ, हाँ,'' वह उत्साहपूर्वक बोली,
 ''मैं तो इसी का इंतज़ार कर रही थी, हर रोज़, हर घड़ी, हर 
                      पल।''
 ''मुझे तुमसे जो कहना है, वह कहूँगा, पर पहले एक सवाल 
                      पूछूँ?''
 ''पूछो ना, नहीं क्यों?''
 ''तुम मेरी कितनी घनिष्ठ मित्र हो?''
 ''हूँ ही।''
 ''पर फिर भी।'' नरेश अचकचाया, बोला,''क्या मैंने कभी कोई 
                      मर्यादा तोड़ी है? मैंने कभी भी तुम्हारा मित्र के अलावा 
                      किसी और तरीके से स्पर्श किया है? सच कहना।''
 ''नहीं किया। पर तुम ऐसे हो, इसी कारण तो, मैं क्या कहूँ 
                      तुमको,''
 ''कैसी भोली हो,'' उसने कहा --
 ''इतना गहरा संबंध होने पर भी मैंने ऐसा कुछ क्यों नहीं 
                      किया, इसका विचार तक तुमने नहीं किया।''
 ''इसमें विचार क्या करना। तुम इतने अच्छे हो कि...''
 
  ''मनुष्य चाहे जितना अच्छा हो फिर भी वह ऐसा नहीं करेगा, 
                      नंदी।'' ''तो फिर कौन नहीं करेगा?'' नंदी ने छेड़ा।
 ''शादी-शुदा'' जैसे कब्र से नरेश की आवाज़ आई।
 ''नरेश,'' नंदिता चीख-सी पड़ी।
 ''शादी-शुदा'' नरेश ने उतने ही धीमे स्वर में दोबारा कहा। 
                      इसके पहले कि नंदिता उसे रोक कर कुछ पूछ सके, वह चला गया।
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