आखिरकार हितैषी काव्यानुरागियों की
कल्याण कामनाएँ फलवती हो कर रहीं और मेरे अनुगीतों का यह
संग्रह 'हलचल के पंख' फड़फड़ाता हुआ आपके हाथों में पहुँच
गया। 'धर्मयुग' (१८ मई १९७५) में प्रकाशित मेरे एक अनुगीत
के साथ छपे अत्यल्प वक्तव्य ने कुछ भ्रान्ति भी फैला दी।
इसलिए जिज्ञासुओं को यह बताना उचित
प्रतीत होता है कि कविता के परम विशाल फलक पर 'अनुगीत' की
स्थिति क्या हैं?
कविता के स्वरूप पर आचार्यों, कवियों तथा समीक्षकों ने
अपने-अपने ढँग से विचार किया है। लेकिन मेरी दृष्टि में
कविता वस्तुत: लय भाव-बिम्बित मनोरम वाणी है। यों तो आज
दलबद्ध आलोचकों की जोर-ज़बरदस्ती के आधार पर किसी को भी
कवि घोषित कर दिया जाता है, परन्तु यह एक साधारण तथ्य है
कि यदि गद्य और पद्य दो भिन्न विधाएँ हैं तो उनकी
पृथक-पृथक स्थिति सिद्ध करने वाले लक्षण भी होने चाहिए।
गद्य से पद्य भिन्न हैं, इसका ज्ञान होता है लयाधार से।
लयात्मक पद्य का अनिवार्य गुण है। किन्तु हम हर पद्य को
कविता नहीं कह सकते। पद्य और कविता में गुणात्मक
भेद है। कविता में लय के साथ
ही कई विशेषताएँ होनी चाहिए।
शब्द एवं अर्थ का महत्व गद्य तथा कविता दोनों को स्वीकार
है। गद्य में शब्द के अर्थ का मूल्य होता है, परन्तु कविता
शब्दार्थ के साथ शब्द की लय को भी पकड़ती है और उस लय में
छिपे अर्थ को श्रोता के मानस में प्रेषित करती है। शब्द-लय
का यह अर्थ अनेक बिम्बों की सृष्टि करता है। शब्द में
संपुटित अर्थ के अतिरिक्त उसकी लयार्थ -जन्य अन्तर्धारा जो
कविता में रहती है वह गद्य में कहाँ? इसी अन्तर्धारा का
दूसरा नाम है मनोरमता। इस मनोरमता के क्रोड़ में स्थित
पद्य ही कविता संज्ञा से पियूषित होता है।
कविता शब्द-साधना की चरमावस्था है। जिस प्रकार योग की
अन्तिम स्थिति प्राप्त हो जाने पर पुरूष कर्म न करता हुआ
भी कर्म करता है एवं करने पर भी नहीं करता, उसी प्रकार
शब्द-साधना की पराकाष्ठा पर स्थित कवि लिखने पर भी कुछ नही
लिखता और न लिखने पर भी सब कुछ लिखता है। अत: काव्य-सर्जना
को अकर्म दशा मानना चाहिए। परन्तु अधूरी साधना दोष-मुक्त
नहीं हो सकती। हृदय जब तक परिपक्व नहीं होता तब तक रचनाकार
को वाग्वर्चस्वता नहीं मिलती। आकुलता जब कुछ काल तक हृदय
में थाम ली जाती है तब वह सघन बन कर अपने वेग से वाणी को
यथेच्छया लय-विनिसंशित
करने में सफल होती है।
लय एक सर्वजनीत तत्व है। उसे देश कालानुसार अभिव्यक्ति
देने में मनुष्य की वाणी अपना चमत्कार दिखाती है। लय की
उर्मियाँ और आवर्त अनेकाब्धि है। इनके कारण वह अनगिनत रूप
धारण कर सकती है। लेकिन सरल वर्गीकरण के लिहाज़ से लय का
एक रूप वह है पब, उसका स्फूर्त स्त्रोत भवोद्रेक के कारण
स्वत: फूटता है। लोकगीतों को 'सहज लय' कह सकते हैं।
दूसरी लय वह है जिसकी लहरियाँ शास्त्रीय राग-रागनियों में
बाँध दी जाती है। लय का यह रूप भक्तिकालीन गीतों में
देखने को मिलता है। यह संगीतात्मक लय है।
इन दो प्रकारों से पृथक् एक रूप वह है जिसमें लय बहती
नहीं, प्रत्युत कदम रखती हुई चलती है। कवित्त-सवैयों में
इसे देख सकते हैं। यह गतिबद्ध लय है।
सहजता की ओर अधिक झुकी हुई लय जब शास्त्रीयता या गतिमत्ता
का थोड़ा सहारा लेती है तो वह 'सुगम लय' बन जाती है।
अनुगीतों में इसी सुगम लय का प्रयोग हुआ है।
फ़ारसी बहों में लिखे पद्य को अनाड़ी लोग झट से गज़ल नाम
दे डालते हैं। उन्हें नहीं मालुम कि किसी छंद को गज़ल नहीं
कहते। गज़ल फारसी बहों की परम्परा में लिखी एक विशेष भूमि
पर एक विशेष भाव-सम्बन्धी रचना होती है। अनुगीत की
भाव-वस्तु उसकी अपनी है। अनुगीत की सुगम लय में यद्यपि
मात्रिक छंदों, वर्णिक छंदों के साथ फ़ारसी बहों में भी
मिल कर अपना योग दिया है, परन्तु उसमें फ़ारसी बहों का
अंधानुकरण नहीं है। साम्याभास से भ्रमित गज़लाग्रही सज्जन
निम्नांकित उदाहरण में कृपया देखें कि अनुगीत की उर्वरा
भूमि में प्रवाहित हिन्दी-लय फारसी बह को किस प्रकार
अन्तर्मुक्त कर जिसे
गाया जाय अर्थात गान।
गीत शब्द गेयता का सूचक है। लेकिन गीत की गेयता समय-समय पर
बदलती रहती है।
भक्तिकालीन काव्यों के गीत शास्त्रीय राग-रागनियों में
बंधे हुए हैं। विषय या लक्ष्य के अनुसार उन गेय रचनाओं को
कहीं 'पद' संज्ञा दी गयी है, कभी भावनानुसार उन्हें 'गीत'
कहा गया है। इसी तरह आधुनिक काल में भी पूर्वोक्त रचनाएँ
सामान्यतया 'गीत' ही कही गयीं। हाँ, विषयी प्रधान होने से
उन्हें यदा-कदा 'प्रगीत' नाम भी दिया गया।
विद्यापति तथा उनके बाद कबीर, सूर, तुलसी, मीरा एवं अन्य
भक्त कवियों के गीतों का अनुशीलन करने पर गीत की लय एवं
टेक के सम्बन्ध में कई निष्कर्ष निकलते हैं। जहाँ तक लय का
प्रश्न है प्राय: पूरा गीत एक ही लय का सहारा लेता है,
जैसे मीरा का यह पद --
मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई
जाके सिर मोर मुकुट मेरो पते सोई
पूरे का पूरा एक ही लय पे है और टेक की तुक सभी चरणों में
मिलती गयी है। परन्तु किसी-किसी गीत में टेक की लय
शेष चरणों की लय से भिन्न
रहती है, जैसा कि सूर के निम्नांकित पद से स्पष्ट है --
कहना लागे मोहन मैया मैया
नंद पहर सो बाबा बाबा अरू हलधर सों मैया
कुछ गीतों में टेक-लय अधिकतर दो चरणों तक चलती है। वैसे तो
प्राय: सभी चरण सम तुकांत होते हैं, लेकिन कवियों ने
अन्तरा के चरणों में भिन्न भिन्न तुकों की योजना भी की है
--
अब मोहिं नाचिवो न आवें
मोरो मन मंदरिया न बतावें
ऊभर था सो सुभर भरिया त्रिस्ना गागरि फूटी
काम चोलना भया पुराना गया मरम झब छूटी
जे बहुरूप किए वे कीए अब बहुरूप न होई
याकी सींज सीग के बिछारे राम नाम मसि धोई
कबीरदास के इस पद में टेक की लय तथा तुक का निर्वाह दूसरे
चरण में है। उसके बाद दो-दो चरणों के अन्तरा अलग-अलग
तुकों में चलते हैं। टेक की तुक अन्य चरणों में नहीं मिलाई
गयी।
आधुनिक काल में पन्त, प्रसाद, निराला, महादेवी, बच्चन तथा
अन्य कवियों ने टेक प्राय: एक चरण की 'कभी कभी दो चरण की'
रक्खी, लेकिन अन्तरा-विनियोग में अनेक प्रयोग किये। इस तरह
टेक, दो-तीन-चार या अधिक अन्तरा-चरणों के बाद आने लगी। एक
अन्तरा की तुक दूसरे अन्तरा से भिन्न भी रक्खी गयी।
भक्तिकालीन गीतों में तुकों का जमघट रहने से जो नीरसता-सी
आ गई थी वह दूर हुई, परन्तु कई अन्तरा-चरणों के बाद टेक
आने से तुक मिलने में काफी अन्तराल पड़ने लगा।
भक्तिकालीन तथा आधुनिक कालीन गीतों में लय-तुक, टेक-अन्तरा
आदि के अनेक भेद हैं, मगर इनका ज्ञान 'गीत' शब्द से नहीं
हो पाता। कबीर के पद में टेक की लय एवं तुक की आवृत्ति है।
अनुगीत को यह आवृत्ति मान्य हैं, क्योंकि ऐसा करने से टेक
में दृढ़ता एवं आह्लादकता आ जाती है।
यदि अन्तरा एक ही चरण का रहे तो गीत में दो विशेषताएँ
उत्पन्न होती है - - लयानुवर्तन और टेकानुवर्तन। अनुगीत
में एक चरण के अन्तराल के बाद टेक का विधान है।
अनुगीत तुक-निर्वाह का कायल है। तुक यद्यपि कविता का
अनिवार्य परिच्छेद नहीं है, उसकी वजह से अनेक कठिनाइयाँ भी
उत्पन्न होती हैं, कभी-कभी भाव का नाश हो जाता है। कुछ
तुकें तो इतनी निश्चित हैं कि सुन कर सिर दुखने लग जाता
है, 'आंख' है तो 'पंख' जरूर आएगा। सभी तुकें अयलज तो हैं
नहीं, अत: कवि को घिसी-पिटी तुकों से बचने में परिश्रम भी
करना पड़ता है। इस विषय पर मैंने अपनी पुस्तक 'आधुनिक
हिन्दी काव्य शिल्प' में विस्तार से विचार किया है। तुक
में दोष हैं, फिर भी उसमें एक जबरदस्त गुण है। वह अपरोक्ष
रूप से बराबर संकेत
करती रहती है कि तुकबाजी पंक्तियों का एक दूसरे से सम्बन्ध
है यानी वे परस्पर अनुबद्ध हैं।
यह अनुबद्धता भी दो प्रकार की होती है -- एक तो अन्तिम
शब्द की अनुबद्धता अर्थात अन्त्यानुप्रास-सम्बन्ध। इसमें
श्रोता कभी-कभी चकराता भी है जैसे 'अखियाँ हरिदरसन की
भूखी' सुन कर श्रोता आगे को अन्त्यानुप्रास-हेतु उत्कंठा
में पड़ा रहेगा। दूखी, रूखी, सूखी, खूखी आदि अनुमान लगाने
में व्यस्त हो जायेगा, परन्तु जब उसे सुनने को मिलेगा
'दुहि पय पियन पतूखी' तो वह चकरा जायेगा, क्योंकि 'पत्तूख'
से तो वह अनभिज्ञ था। भक्तिकालीन पदों में श्रोता को इस
तरह की चकराहट बहुत
होती है। रीतिकालीन कवियों ने इसीलिए दूसरे प्रकार की
अनुबद्धता अपनायी। उन्होंने अन्तिम शब्द तो वही रक्खा,
लेकिन उससे पहले के शब्द की तुक मिलाई --
तो विनु विहारी मैं निहारी गति ओरई यें
वीरई के वृंदन सनेटत फिरत हैं।
दांडिय के फूलनि में दस दास्यो-दाना भरि
चूमि मधुरसने लपेटत फिर हैं।
खंजन चकोरनि परेवा पिक मोरनि
मराल सुक भरिनि सपेटत फिरत हैं।
कासमीर हारनि कौं सोनजुही-झारनि कौं।
चंपक को डाली कौं भेंटत फिरत हैं
इस प्रकार की तुक को आचार्य भिखारीदास ने लाटिया तुक कहा
है। 'लाटिया तुक' के प्रयोग देवा, शंकर एवं सोमनाथ आदि
कवियों ने खूब किये हैं।
अन्त्यानुप्रास की जगह उपान्त्यानुगत की योजना रीतिकवियों
की अपनी खोज थी या यह दरबारी फ़ारसी-कवि का सम्पर्क-फल था,
इस बहस में न पड़कार मैं इतना ही कहूंगा कि उन कवियों का
यह सुचिंतित प्रयोग बड़ा कारगर सिद्ध हुआ होगा। अन्तिम
शब्द निश्चित रहने से श्रोता को यदि उपान्त्यनुप्रास
नितान्त अननुमानित मिले तो भी वह उसे आगे के पूर्व
निर्धारित शब्द से जोड़ लेगा। श्रोता का ध्यान चूंकि
पूर्वनिर्धारित अंत्य शब्द पर रहता है, इसलिए
उपान्त्यनुप्रास की अकस्मिकता नवीनता बन जाती है। अनुगीतों
में तरिया तुक-प्रयोगों को अधिमान्यता मिली है, परन्तु
उनमें उत्तम-मध्यम
तुकों के अनेकाविध प्रचुर प्रयोग भी उपलब्ध हैं।
इसलिए इस तरह के गीतों को मैंने सब 'अनुगीत' अभिधान दिया
तो 'अनु' उपसर्ग की अर्थव्यति पर मेरी पूरी नज़र थी। 'अनु'
का अर्थ है अनुवर्तन। इसमें लयानुवर्तन के साथ टेकानुवर्तन
और शब्दानुवर्तन भी आ जाता है। 'अनु' में नैरन्तर्य का
संकेत निहित है तथा 'अनु' तुक-भाव-विचार की अनुबद्धता का
अभिप्राय प्रकट करता है। यहीं नहीं, 'अनुगीत' में अनुगेयता
के अतिरिक्त यह
व्यंजन भी है कि गेज के पीछे वस्तुत: जो उद्गाता बैठा हुआ
है उसे सुनिए।
यह बात सच है कि अब हिन्दी भाव के वर्ण उच्चारण में
स्वरान्त नहीं रहे। हम लिखते तो हैं 'चल' लेकिन बोलते है
'चल्'। मध्य स्वर की भी यही दशा है। लिखते है 'जनता' पर
बोलते है 'जन्ता'। इसी तरह लिखा जाता है 'चलते-चलते' और
बोला जाता है 'चल्ते-चल्ते'। स्वरों में रह्स्वता भी आई
है। परन्तु नागरी लिपि में उसे प्रकट करने हेतु कोई संकेत
या मात्रा नहीं है। 'चेहरा' शब्द में चे की मात्रा हृस्व
है, 'होशियार' में 'हो' की ओ की मात्रा भी हृस्व है। 'है'
की ऐ मात्रा और 'तो' में ओ की मात्रा भी प्राय: दबाकर
उच्चारित होती है। इसलिए अनुगीत की लय-व्यवस्था में एक
शब्द दो तरह से भी पढ़ा जा सकता है, उदाहरणार्थ 'वह'
लीजिए। यह उच्चारण में 'वह्' हो जाता है और वह-वो का जो
रूप उपयुक्त जँचा वही लिख दिया गया है। 'यह' और 'ये' के
प्रयोग भी एैसे ही हैं। व्याकरण में यह बहुवचन 'ये' है।
अत: 'ये' का प्रयोग बहुवचन
में
भी हुआ हैं।
भाषा यद्यपि भाव-विचार संपे्रषण का सर्वाधिक सशक्त माध्यम
है, फिर भी उसकी अभिव्यक्ति सर्वथा निर्भ्रान्त नहीं
होती। इसलिए विराम, अर्धविराम, कोलन, डैश आदि अर्थ-बोध
सुगम बनाने-हेतु लगाए जाते हैं। परन्तु मेरा यह अनुभव है
कि ये बोधन-चिन्ह एक सामान्य-स्तर तक ही कारगर रहते हैं।
मैंने अपने अनुगीतों में बोधन-चिन्हों का बहुत कम प्रयोग
किया है, क्योंकि मुझे बराबर आशंका बनी रहती है कि यदि ये
चिन्ह लगा दिए तो भाव की व्यापकता बाधित हो जाएगी। मेरे
'अनुगीत' "हमने हृदय में चोट को अडोल किया है" का एक बन्द
है --
क्या चाहिए शब्दों का चमत्कार देखिए
गोपाल ने मिट्टी भरा मुँह खोल दिया है
इसके प्रथम चरण में बोधन-चिन्ह लगा कर निम्नवत् लिखा जा
सकता है --
क्या! चाहिए? शब्दों का चमत्कार देखिए --
क्या चाहिए? शब्दों का चमत्कार देखिए --
क्या चाहिए शब्दों का चमत्कार? देखिए --
परन्तु इन अर्थों में उलझ कर पाठक मेरे अभिप्राय को नहीं
पकड़ सकते। मेरी दृष्टि में जो भाव उसके हिसाब से
बोधन-चिन्ह यों लगेगा --
'क्या! 'चाहिए' शब्दों का चमत्कार देखिए, अर्थात पूरा
बह्माण्ड में 'क्या' और 'चाहिए' इन्हीं दो शब्दों का
चमत्कार हैं। एक अन्य अनुगीत है "किसकी हिम्मत न पड़े
तुम्हें वहम ने टोका होगा।" उसकी एक पंक्ति है --"दृष्टि
संपूर्ण पड़े यदि, तो पार हो जाए।" अस्तु बोधन-चिन्ह न
लगाकर मैंने पाठकों को कल्पनार्थ विस्तृत मैदान छोड़ दिया
है।
सच पूछिए तो कविता, प्रवर श्रोता की मुखोपेक्षी रहती है।
सजग श्रोता सही अर्थ लगाता है, जबकि व्यंजन तक न पहुँचने
वाले पाठक कुछ का कुछ समझ बैठते हैं। मेरे एक अनुगीत का एक
बन्द सैंकड़ो लोगों की जबान पर चढ़ा हुआ है --
जो बोझ बन के ज़िन्दगी की चाल रोक दे
उसको उतार फेंकिए वह सर ही क्यों न हो!
इसी अनुगीत के अन्तिम चरण यों हैं --
जिसका वजूद सिद्ध हो तर्कों के सहारे
उसको न सर झुकाऊँगा ईश्वर ही क्यों न हो
इन पंक्तियों को लोगों ने अनास्था के उदाहरण-रूप उद्घृत
किया है। मुझे नहीं मालूम अनास्था की गंध उन्हें कैसे मिल
गयी?
भावाभिव्यक्ति जब प्रतीक द्वारा की जाती है तो अधिक जोरदार
हो जाती है, लेकिन प्रतीक से बेखबर पाठक उसे समझ नहीं
पाता। यदि कहा जाय -- "गजमुक्त पड़ा कैथ चकित देख रहे हैं"
तो साधारण श्रोता इसे सूचना मात्र मान कर चुप हो जाएगा।
किन्तु यदि यह मालूम हो जाय कि जब हाथी कपित्थ भक्षण कर
लेता है तब वह कपित्य उसकी लीद में समुचा वैसा का वैसा
निकलता है, लेकिन फोड़ने पर उसके भीतर का गूदा गायब मिलता
है, तो श्रोता परिस्थितियों की व्यंजना अत्यन्त गहराई से
समझेगा।
ये चन्द संकेत मेरे अनुगीतों के प्रति अपका दृष्टिकोण
निर्माण करने में मुमकिन है, सहायक सिद्ध हों।
अब इन अनुगीतों की भाव-सम्पत्ति, भाषा-भंगिता और
शैल-सम्पन्नता के बारे में क्या कहूं? हो सकता है किसी को
इनके तेवर अलग दिखाई पड़ें, कोई अन्य इनमें युग-कराह की
प्रतिध्वनि सुने। यह भी संभव है कि कोई इनके तीखे स्वर की
शिकायत करे और यह भी असंभव नहीं कि इनकी उष्मा किसी श्रोता
की चेतना को बेहद परिचालित कर दे। परन्तु एक बात निश्चित
है कि इन्हें पढ़ कर यदि मनन करेंगे तो हर्ष-शोक,
प्रसन्नता-पीड़ा, आह-वाह तथा सुख-दुख आदि जो कुछ भी
प्राप्त होगा, उसे आप अपने से अलग नहीं कर सकेंगे।
कवि अपनी रचना सुनाने के लिए सहृदय श्रोता की तलाश करता
है। मेरे निकट श्री रमेशचन्द्र द्विवेदी ऐसे ही श्रोता
हैं। अपना हर नया अनुगीत मैं जब तक उन्हें सुना न दूं तब
तक मुझे तुष्टि नही मिलती। डॉ मुश्ताक अली, श्री जटाशंकर
'प्रियदर्शी' एवं श्री सन्तोष दीक्षित भी सक्रियता से ये
अनुगीत पुस्तकरूप पा सके। ये सब लोग मेरे अपने हैं,
इन्हें धन्यवाद क्या दूं? मेरी कामना है कि इनका यह
काव्यानुराग मानवता के कल्याण में निरन्तर संलग्न रहे।
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