नवगीत में महिला रचनाकारों का योगदान
- भावना तिवारी
नवगीत इक्कीसवीं सदी का गीत है और नवगीत की रचनाकार
इक्कीसवीं सदी की नवगीतकार। आज इक्कीसवीं सदी में
परिस्थितियाँ, देश, काल, वातावरण सभी कुछ परिवर्तित हो
चुका है और स्त्रियाँ तटबंधों को तोड़ अपनी सम्पूर्ण
त्वरा से बह रहीं हैं, जीवन के द्वंद्वों, विसंगतियों
से संघर्षरत, सामाजिक चेतना से अछूती नहीं हैं-
वरिष्ठ नवगीतकार शान्ति सुमन जी के गीतों में
निम्नमध्यमवर्गीय त्रासदी, दुःख, दर्द के साथ ही आशाओं
का ज्योतिपुंज भी झलकता है। खेतिहर मजदूर, किसानों की
पीड़ा, जमीदारों का आतंक बयान करना, उनके नवगीतों को
अलग पहचान दिलाता रहा है-
----जो खेतों में हरियाली बोते हैं
पहली गीत फसल का वे सुनते हैं,
पोर –पोर में इस मिट्टी के कैसे बस्ती ख़ुशबू
कैसे हुई हवा बावरी, नाचे उसको ही छू,
लहर पहनकर मछुआ खुश होते हैं
गीत धारवाले वे ही गुनते हैं, ,
-----(नागकेसर हवा –पृ. सं. -२२ )
इंदिरा मोहन जिनके तीन गीत –संग्रह, पेड़ छनी परछाइयाँ,
पीछे खड़ी सुहानी भोर और धरती रहती नहीं उदास प्रकाशित
हो चुके हैं, सरकारी परियोजनाओं की सचबयानी करती हुई
लिखती हैं
क़र्ज़ माफ़ के मोहक मेले, बंदर बाँट समझती जनता,
नए -नये घपले -घोटाले, अखबारी सुर्खियाँ सुनाती,
चीख –चीख़कर नारे हारे, भीड़ नहीं है अब जुट पाती
ऊबी-ऊबी प्रजा न चाहे, टोपी-झंडा, ठकुर सुहाती
(धरती रहती नहीं उदास, पृ.सं.- -९५ )
गीत केंद्रित पत्रिका संकल्प -रथ की उपसम्पादिका
निर्मला जोशी(गीत- संग्रह -दर्पण है सरिता)
फूलों की हँसी समझना, तो मुश्किल है
शूलों की चुभन, कहो तो
मैं बतला दूँ,
मैंने देख एक अनोखा खेल हुआ, अँधियारे से उजियारे का
मेल हुआ,
कितने रंग धूप ने बदले पता नहीं, सूरज की जलन, कहो तो
मैं बतला दूँ, ,
(गीत वसुधा, सं. नचिकेता –पृष्ठ सं. -२७२ )
शैल रस्तोगी आमजन मजदूर की पीड़ा और उनके मृत स्वप्नों
की दशा लिखती हैं “सारे नाटक हुए पुराने, राजा रानी
के,
होरी धनिया थके हुए हैं, मजदूरी करते,
कुँए सरीखे पेट हो रहे, कभी नहीं मरते,
सपने टँगे खूँटियों पर, रज़िया-रमजानी के, ”
अंतरजाल के माध्यम से गीत, नवगीत के हितार्थ अथक सतत
सफल प्रयास कर रहीं पूर्णिमा वर्मन कई नवगीत
कवयित्रियों की प्रेरणा स्रोत हैं, प्रत्येक वर्ष
नवगीत महोत्सव में आधी आबादी की भागीदारी उल्लेखनीय
रहती है –
शहरों की भागमभाग, मारा-मारी, दिखावे का आकर्षण, झूठ-
फरेब, और मुखौटे लगाए हुए चेहरों और वहाँ की स्थिति को
बखूबी शब्द देती हुए पूर्णिमा वर्मन लिखती हैं ----
शहरों की मारा –मारी में, सारे मोल गए,
सड़कें –गाड़ी, महल- अटारी, सभी झूठ में फाँसे,
तिकड़म लील गयी सब खुशियाँ, भीतर रहे उदासे,
बेगाने दिल की क्या जानें,,अपनों से भी मन की पीड़ा
टाल- मटोल गए,
(चोंच में आकाश, पृ.सं. २८० )
शैल रस्तोगी लिखती हैं ....
सारे नाटक हुए पुराने, राजा रानी के,
होरी धनिया थके हुए हैं, मजदूरी करते,
कुँए सरीखे पेट हो रहे, कभी नहीं मरते,
सपने टँगे खूँटियों पर, रज़िया-रमजानी के,
राजकुमारी रश्मि की अनूठी सिद्धता देखें धर कर जाल
किनारे बैठा, फिर मछुआरा दिन,
जैसे कोई आतिशबाजी, जलकर सुई हुई,
उसी तरह अमरुद तोड़कर, लड़की फ़ुर्र हुई
लाड चला सूरज की डोली, हँस बंजारा दिन,
..(कृति -पत्र लिखा किसने गुमनाम)
स्त्री महिला गीत कवयित्रियों के लेखन का फलक एक असीम
विस्तार पा चुका है और निरन्तर अपनी परिधि को बढ़ा रहा
है, गीतकार कवयित्रियाँ निजता की अभिव्यक्ति के
साथ-साथ बाह्य जगत को भी अपने गीतों में ढाल रही हैं,
वे एक ओर वर्तमान के प्रति क्षोभ और असंतुष्टि व्यक्त
करती हैं वहीं दूसरी ओर भविष्य के प्रति आशा और
विश्वास के बीज बो कर रही हैं , सौन्दर्य बोध के साथ-
साथ मानवीय संबंधों की भी अभिव्यक्ति भी आकार ले रही
है,
अंजना वर्मा (प्रकाशित गीत-संग्रह - खुरदरे जो दिख रहे
हैं, एक सीप दे दो, पलकों पर निंदिया ) पर्यावरण के
पार्टी चिंतित होती लिखती हैं
यह शहर है सहमा हुआ, हवा में घुल गया है
बारूद का काला धुआँ.,काट लिए हैं हमने जंगल
(गीत वसुधा – पृ.सं. ६९ )
गीत कवयित्रियाँ किसी भी विषय से विलग नहीं. काव्य की
वाचिक परम्पराओं के साथ ही साहित्य में अपना स्थान
सुनिश्चित करने वाली कवयित्री डॉ .कीर्ति काले जब आजकल
के बच्चों पर पाठ्यक्रम के बढ़ते बोझ को भी महसूसती
हैं, अब एक कवयित्री जो एक माँ भी है वह पाठ्यक्रम के
अतिभार से समाप्त होते बालपन की पीड़ा को जिस तरह शब्द
देती है,वह हमें विचारने को विवश करती है ..देखें ...
फूल चले स्कूल |
कन्धों पर गंधों का भारी बस्ता है
जूते का बक्कल पैरों में कस्ता है
पूरी यूनीफार्म चुभोती
पंखुड़ियों में शूल |
अरुणा दुबे जिनके तीन गीत- संग्रह (अंजुरी भर देह, गीत
जिए जाते हैं, बागी हुईं दिशाएँ ) प्रकाशित हो चुके
हैं, बड़े शहरों मिएँ खुली हवा में साँस लेना कठिन है,
एक खुला हवादार घर खोजना कठिन हैं .महानगर में आवासीय
समस्या को बयान करती हैं.
‘हाँ’ यह ठीक मिला, लेकिन आगे लग जाता ‘पर’
महानगर में बूढ़े बाबा, ढूँढ रहे हैं घर
(गीत वसुधा, पृ.सं.- -९२ -९३ )
डॉ .मीना शुक्ला के चार गीत -संग्रह प्रकाशित हो चुके
हैं (धूप के हस्ताक्षर, आवर्त लहरों के, लहर -लहर पाती
नदिया की, समय के साथ )
किसानों की दुर्दशा को उकेरता एक शब्द चित्र देखें –
होरी का खलिहान हूँ मैं, देखो लहू लुहान हूँ मैं,
पेट नहीं है अन्न, साँसों का कंकाल हूँ मैं,
(आवर्त लहरों के, पृ.सं.- -७६ )
यशोधरा राठौर ( संग्रह - उस गली के मोड़ पर )–
रोज बदलने वाली, ऋतुओं से, क्या माँगें हम,
क्रूर सियासत के, हाथों में, बने खिलौने हम
विश्वग्राम में, बेचे जाते, औने –पौने हम
यहाँ अँधेरा ही ज्यादा है, और रोशनी कम,
(धार पर हम – सं.वीरेन्द्र आस्तिक )
सीमा अग्रवाल –(ख़ुशबू सीली गलियों) सरकार की लंगड़ी
होती व्यवस्था आर चालाक शासक द्वारा सदैव छली जाती रही
जनता की नियति पर कटाक्ष, सहज सरल बिम्बों में आज के
यथार्थ की अभिव्यक्ति है,
राजा जी का उड़न खटोला, आसमान से प्रजा निहारे,
तन्त्र सयाना हुआ, किन्तु है, लोक अभी भोला का भोला
प्रगतिवाद के कैनवास पर, खोज रहा रोटी का गोला
अन्तरिक्ष की सड़कों पर भी, खेत और खलिहान विचारे !
(पृ.सं -१८२– गीत सिंदूरी : गन्ध कपूरी सं. योगेन्द्र
दत्त शर्मा )
मालिनी गौतम, विलुप होती मानवीय सम्वेदनाओं, आधुनिकता
की होड़ में रिक्त होते गाँव और शहर की त्रासदी का भोग
जहाँ रिश्तों और मानवीय संबंधों के अवमूल्यन को व्यक्त
करती हैं यह पंक्तियाँ
खोने पाने के हिसाब में जीवन निकल गया
गाँव हुए अब खाली- खाली, मौन हो गये कोयल –कागा
बगल दबाये झोला –टंटा, सारा गाँव शहर को भागा
रिश्ते –नातों को लालच का, अजगर निगल गया
(गीत सिंदूरी : गन्ध कपूरी, सं. योगेन्द्र दत्त शर्मा,
पृ.सं -२७६)
अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, बलात्कार, जीवन के हर
अच्छे-बुरे अनुभव को महिला लेखन में स्थान दिया जा रहा
है, तेजी से घटित होती घटनाओं, युग बोध, सामाजिक
मूल्यों के ह्रास की पीड़ा और चिंतन की भी पर्याप्त
विविधता उपलब्ध है,
गीता पंडित विगत वर्ष नोटबंदी पर गीत देती हैं
देख नोट की ह्त्या ऐसे, सुनो पसीने रोते हैं
द्वारे ड्योढ़ी चुप्पी साधे, पीर हृदय में बोते हैं,
कवयित्री रंजना गुप्ता – पारिवारिक स्थिति में रिश्तों
को आधार देते गीत भी कवयित्रियाँ लिख रहीं हैं,
लोकजीवन और महानगरीय बोध एक साथ दिखाई देने लगे हैं,
मानवता और इंसानियत का ह्रास लिख रही हैं
“हाट और बाज़ार की, ये सँकरी सी वीथियाँ,
जल रही इंसानियत की खेतियाँ ”
“शिष्ट हैं सम्बन्ध सारे, पर न जाने क्यों घुटन है ..
रुष्ट हैं अनुबंध सारे, खुल गयी कोई सियन है ”
शीला पांडे --- नवीन बिम्बों, प्रतीकों और अपनी ही
भाषा से मौलिकता प्रमाणित कर रही हैं, जहाँ शब्दों की
तरलता और बिम्बों की विशिष्टता दिखाई,
“जीवन धागे करतब बाँधे, साज रहीं बेहतर, आज औरतें बीन
रहीं हैं, जीवन का ‘स्वेटर’,
कंधे तने- तने हैं तन में, बाजू सधे-सधे हैं
उँगलियों की पोर-पोर में, जादू नए बँधे हैं,
माथे तक उठ रहीं भुजाएँ, नाप रहीं ‘मैटर’,
(गीत –संग्रह -परों को तोल )”
कवयित्रियाँ एक ओर जहाँ स्वप्नलोक की कल्पना कर रही
हैं, वहीं दूसरी ओर संसार के यथार्थ वाद से भी वे
परिचित हैं, संघर्ष की यात्रा करती हुईं कवयित्रियाँ
जगत के यथार्थ और विद्रूपताओं से विमुख नहीं हैं, उनके
गीतों में संवेदना है, स्त्री की विवशता है, स्त्री
–पुरुष की विषमता –असंतुलन, सामाजिक रूप से हीन भावना
इत्यादि प्रस्तुत हो रही हैं। स्त्रीचेतना की बात करती
हुई कवयित्रियाँ, जहाँ स्त्रियाँ देह –यौन, प्रेम,
अधिकारों की बात करती हुई रचनाएँ कर रही हैं, हिंदी
साहित्य के पुरोधाओं को भी यह स्वीकार कर लेना चाहिए
कि स्त्री और स्त्रियों द्वारा रचित काव्य मात्र भोग
अथवा मनरंजन हेतु नहीं, समाज की पुरुषवादी सत्ता को
देह के निम्न प्रदेश से ऊपर उठकर मस्तिष्क की भी बात
करनी होगी, और उन्हें उनके पूर्ण अधिकार देने होंगे,
जो चूल्हे-चौके, बच्चे – शौहर, घर –परिवार में
पूर्निर्धारित भूमिका के साथ-साथ उनके स्वतंत्र
व्यक्तित्व को भी महत्त्व देने का समय है, क्योंकि यह
युग, नारी-सशक्तीकरण व उसकी वैचारिक स्वतंत्रता का युग
है, स्त्री स्वतंत्रता का स्वर मुखर हो उठा है, जिन
साहित्यिक अधिकारों से वंचिता हैं स्त्रियाँ, उनके
प्रति जागरूक होकर उनकी प्राप्ति हेतु निरंतर
प्रयत्नशील हो उठीं हैं स्त्रियाँ, धार्मिक, सामाजिक
व्यवस्था को ललकारते हुए जिसने सदैव स्त्री को दूसरे
पायदान पर ही रखने में ऊर्जा खर्ची है, उस व्यवस्था पर
तंज़ कसते हुए समर्थ कवयित्री डॉ. प्रभा दीक्षित कहती
हैं
सदियों का रुतबा है, धर्मों का फतवा है
मर्दों से नीची है, औरत की जात,
समय की सिलेटों में, ऐसी परिभाषाएँ, लिखता है कौन ?
शाही दरबारों में, शहर के बाज़ारों में, बिकता है कौन ?
समय भी बदलता है, सूरज भी ढलता है
औरत भी पलट रही, मर्द की बिसात,
स्त्रियों के सार्वकालिक विषय और कथ्य प्रेम, वेदना,
भक्ति के साथ ही बदलते हुए परिवेश की विद्रूपताएँ,
समस्याएँ भी अब स्त्री लेखन के विषय हैं, उन्हें अपनी
क्षमताओं पर अटूट भरोसा है, कवयित्रियों की कविता में
समाज व पुरुष के प्रति विरोध, कवयित्रियों के सृजन को
नकारने का या स्वीकारने का नहीं बल्कि उनके कृतित्व को
संज्ञान में न लिए जाने का है, दिवंगत कवयित्री डॉ
.सुमन राजे का कहना है “महिला लेखन सीता के साथ अँधेरी
गुफा के पास खड़ा है।”
आज की गीत कवयित्रियाँ परिस्थतियों से जूझने हेतु कमर
कस चुकी हैं और इसी भावों के प्रतिबिम्ब उनकी रचनाओं
में भी साफ़ दिखाई देते हैं, नवीनतम विषयों के साथ अधिक
स्त्री लेखन और अधिक संपुष्ट व परिपक्व हुआ है।
महिलाएँ अनुभूति की यथार्थता को सम्प्रेषणीय भाषा,
शिल्प, प्रतीक और बिम्बों की खाद-पानी लेकर, बो रही
हैं भविष्य के साहित्येतिहास हेतु बीज, सिंचित कर रही
हैं विचारों की खुरदुरी भावभूमि, इस उर्वराभूमि में
नवगीत कवयित्रियों की फसल लहलहायेगी, ऐसा विश्वास हम
कर सकते हैं, जिसमें महिला रचनाकारों का भी किया जाएगा
सम्यक मूल्यांकन।
कोई भी विधा साधना माँगती है, समस्या तब उत्पन्न होती
है जब रचनाकार आत्म-मुग्धता से अभिभूत होकर कुछ नया न
सीखना चाहता है, स्वयं की रचनाधर्मिता का आकलन करते
चलें जिससे लेखनी परिष्कृत और पैनी होती रहे, ज्ञान की
धुरी पर सम्वेदनायें बना सकें अपना संतुलन, प्रतिभा को
दिशा व प्रोत्साहन मिलना आवश्यक है, सम्भावना-युक्त
अँखुओं को सूर्य का यथोचित प्रकाश प्राप्त होना आवशयक,
वरिष्ठो से आवश्यक जीवनदायिनी वायु प्राप्त हो जो
उन्हें प्रेरणा देता रहे, उनका पथ-प्रदर्शन करता रहे।
इसी सन्दर्भ में २०१० से २०१८ के मध्य कुछ महत्वपूर्ण
कार्यों का उल्लेख कर रही हूँ, २०१० में वीरेन्द्र
आस्तिक द्वारा सम्पादित, गीत संकलन “धार पर हम”(दो )
में प्रकाशित १६ गीतकार कवियों में आश्चर्य कि एकमात्र
कवयित्री यशोधरा राठौर को स्थान मिला, अशोक अंजुम
द्वारा संपादित पत्रिका “अभिनव प्रयास” का कवयित्री
विशेषांक जिसमें उन्होंने सोलह गीत कवयित्रियों को
स्थान दिया इसी वर्ष २०१० में ही राम अधीर द्वारा
सम्पादित गीत केन्द्रित पत्रिका “संकल्प-रथ” का
कवयित्री विशेषांक प्रकाशित हुआ, वर्ष २०१२ में भवेश
दिलशाद द्वारा सम्पादित, तीन खण्डों में प्रकाशित
गीत-अष्टक –प्रथम में कवयित्री निर्मला जोशी, द्वितीय
में सुभद्रा खुराना और वर्ष २०१४ में प्रकाशित तृतीय
खंड में डॉ. प्रेमलता नीलम और डॉ.मालिनी गौतम शामिल
हैं,
२०१२ में निर्मल शुक्ला द्वारा सम्पादित संग्रह
“शब्दायन –दृष्टिकोण एवं प्रतिनिधि ” के प्रथम संस्करण
में कवयित्रियों अभिवृद्धि की, २०१३ (प्रथम –संस्करण )
में, नचिकेता द्वारा संपादित गीत वसुधा गीत-संकलन में
सोलह कवयित्रियों को प्रकाशित किया, यह आलेख लिखने तक,
“समकालीन गीत कोश” संपादित कर रहे नचिकेता जी से लगभग
चालीस नवगीत कवयित्रियों की सूची प्राप्त हुई, जिसमें
नयी-पुरानी कवयित्रियों के नाम शामिल हैं, वर्ष २०१५
में सतीश गुप्ता के सम्पादन में “गीत –पथ ”नाम से
प्रकाशित गीत-संकलन जिसमें २५ गीतकारों में तीन
कवयित्रियाँ शामिल हैं, योगेन्द्र दत्त शर्मा के
सम्पादन में प्रकाशित “गीत सिंदूरी: गन्ध कपूरी” गीत
संकलन के खण्ड एक में २४ नामचीन नवगीतकारों में
एकमात्र कवयित्री राजकुमारी रश्मि को स्थान मिला, वहीं
२०१६ में प्रकाशित इसके द्वितीय खंड में पाँच
कवयित्रियों को जगह मिली।
शिवानंद सहयोगी के अतिथि सम्पादन में, जनवरी-मार्च
२०१७ “नये क्षितिज” पत्रिका ने भी गीत, नवगीत विशेषांक
में पर्याप्त महिला रचनाकारों को स्थान दिया, वर्ष
२०१७ में प्रकाशित धीरज श्रीवास्तव के सम्पादन में
प्रकाशित संकलन “नेह के महावर ” में सत्रह गीत
कवयित्रियों को प्रकाशित किया, विगत नौ वर्षों से
निरंतर प्रकाशित काव्य-केन्द्रित पत्रिका अनन्तिम का
जुलाई –सितम्बर २०१७ “कवयित्री विशेषांक” गीत कवयित्री
भावना तिवारी के अतिथि -सम्पादन में प्रकाशित हुआ
जिसमें उन्होंने ६२ कवयित्रियों के गीत प्रकाशित किये,
वर्ष २०१८ में सुधाकर पाठक के सम्पादन में “शब्द साधना
” गीत- संग्रह प्रकाशित हुआ जिसमें ७० गीतकारों में २७
कवयित्रियाँ शामिल हैं, डॉ. ओमप्रकाश सिंह के सम्पादन
में वर्ष २०१८ में प्रकाशित “नयी सदी के नवगीत” भाग -४
में तीन और भाग -५ में चार कवयित्रियाँ शामिल हैं,
नवगीतकार जगदीश पंकज की अतिथि सम्पादन में संवदिया का
(जनवरी-मार्च २०१८) नवगीत विशेषांक प्रकाशित हुआ
उल्लेखनीय है कि चौदह कवयित्रियाँ शामिल हैं।
अंतरजाल के माध्यम से पूर्णिमा वर्मन (नवगीत की
पाठशाला, अनुभूति –अभिव्यक्ति ) डॉ. जगदीश व्योम
(नवगीत), डॉ. अवनीश सिंह चौहान (पूर्वाभास), राहुल
शिवाय (कविता कोश ) गीत कवयित्रियों को प्रकाशित कर
रहे हैं, भावना तिवारी, सीमा अग्रवाल, निशा कोठारी के
संयुक्त प्रयासों से वाहट्सऐप पर ‘गीतकार सखियाँ’ समूह
का प्रयोग एक कार्यशाला की भाँति किया गया, जिसमें
विषय और मुखड़ा देकर गीत लिखना था, तीस से चालीस गीत
सखियाँ सक्रिय रहती रही हैं, इस समूह की उपादेयता इसी
समझी जा सकती है की कवयित्री शीला पांडे नवगीत संग्रह
में भी इसका उल्लेख करना नहीं भूलती, रामकिशोर दाहिया
नवगीत के लिए “संवेदनात्मक आलोक” नाम से फेसबुक और
व्हाट्सएप पर समूह में नवगीत कवयित्रियों की समर्थ
भागीदारी सुनिश्चित किये हुए हैं, सुनीता जैन
मैत्रेयी, प्रीति सुराना भी कवयित्रियों के हितार्थ
कार्य में संलग्न हैं उपरोक्त संग्रहों, पत्रिकाओं,
अंतरजाल समूहों के अतिरिक्त भी अनेक गीत,नवगीत संग्रह
भी उपलब्ध होंगे जिसमें महिला रचनाकारों को उचित स्थान
मिला होगा, आलेख लिखने तक जो सामग्री उपलब्ध थीं उनके
आधार पर ही उपरोक्त विवरण दिया गया है, निश्चित ही कुछ
महत्वपूर्ण कार्यों का उल्लेख न किया जा हुआ होगा।
कुछ ऐसे नाम जो इस समय मस्तिष्क में यात्रा कर रहे
..डॉ.शान्ति सुमन, राजकुमारी ‘रश्मि’, इंदिरा मोहन,
पूर्णिमा वर्मन, शैल रस्तोगी, मधु प्रधान, डॉ. यशोधरा
राठौर, अंजना वर्मा, महाश्वेता चतुर्वेदी, डॉ.कीर्ति
काले, ममता बाजपेयी, इन्दिरा गौड़ डॉ.मीना शुक्ला, सीमा
अग्रवाल, रमा सिंह, संध्या सिंह, कल्पना रमानी, डॉ.
मालिनी गौतम, मधु शुक्ला, रजनी मोरवाल, डॉ .प्रभा
दीक्षित, अरुणा दुबे, शशि पाधा, उर्मिला ‘उर्मि’, शीला
पांडे, सुशीला जोशी, मधु प्रसाद, मधु चतुर्वेदी,
प्राची सिंह, चेतना पांडे, रंजना गुप्ता, गीता पंडित,
शशि पुरवार, मानोशी चटर्जी,निशा कोठारी, सुनीता
मैत्रेयी, आशा देशमुख, शशि शुक्ला, मंजू श्रीवास्तव,
रश्मि कुलश्रेष्ट, कल्पना बाजपेयी,शीतल बाजपेयी, अनिता
सिंह, गरिमा सक्सेना इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं।
यह सूची अभी और दीर्घ होगी पर व्यक्तिगत स्मरण शक्ति
की अपनी परिधि है। स्मृति से कई नाम छूटे होंगे जो
इसमें आगामी आलेख में जोड़े जा सकने की सम्भावना सदैव
बनी रहेगी, यह अविच्छिन्न धारा सतत प्रवाहित हो रहेगी
क्योंकि वे अपने अस्तित्व के प्रति विद्रोही स्वर
उठाने लगी हैं, निजता की पीड़ा को समष्टि की पीड़ा में
परिवर्तित कर चुकी हैं. अब स्त्रियाँ गढ़ रहीं हैं
स्वयं का व्यक्तित्व, तोड़ रही हैं वर्जनाएँ, बंधन और
रुढ़िवादी परम्पराओं की अभेद्य प्राचीर। आज की गीतकार
कवयित्रियाँ सँजो रही हैं साहित्येतिहास में दर्ज होने
के स्वप्न वह भी अपनी ही कशेरुका पर ..
संध्या सिंह लिखती हैं ----
तुम भले पतवार तोड़ो, नाव को मझधार मोड़ो
हम भँवर से पार होकर, ढूँढ लेंगे ख़ुद किनारे,
आपकी वैचारिक धारा को आमंत्रित करते हुए समस्त गीत
साधिकाओं की ओर से लेखनी को अल्प विराम देती हूँ कि
मेरे सब पंख कटा दो तुम, साँसों की डोर घटा दो तुम
कितने ही कारागार बुनो, या पहरे लाख बिठा दो तुम
यह पिंजरा सोने का, स्वीकार नहीं मुझको .... |