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लोकचेतना के
संवाहक नवगीत
-
डॉ. राम गरीब
विकल
जबसे
सृष्टि की शुरूआत हेाती है, तभी से संगीत की भी शुरूआत
मानी जाती है और जबसे मानव की रागात्मिका वृत्ति का
विकास हुआ, तभी से गीतों की शुरुआत भी कही जा सकती है।
सृष्टि में जितने भी जीव जन्तु हैं, उनमें से मानव को
ही यह वरदान मिला है, कि वह अपनी भावनाओं को भाशा के
माध्यम से व्यक्त कर सकता है। सृष्टि की शुरूआत से ही
उसने प्रकृति के सुर में सुर मिलाने का अभ्यास किया
होगा। विज्ञान की भाशा में इसे ही अनुकूलन कहते हैं।
इसी क्रम में जब उसने भाशा पाई होगी, तो प्रकृति के
सहयोग से अपनी हर्श-विशाद की भावनाओं की अभिव्यक्ति
में लयात्मकता का समावेश किया होगा और इस प्रकार
सृष्टि में गीतों की शुरूआत हुई होगी, ऐसा माना जा
सकता है। इस प्रकार गीत, मनुष्य की रागात्मिका वृत्ति
के परिचायक हैं।
सृष्टि का विकास क्रम अनवरत जारी रहा है। मनुष्य भी
उसी क्रम में विकास करता रहा है। विकास के वर्तमान
सोपान तक आते-आते वह अनेक शहरी-ग्रामीण,
शिक्षित-अशिक्षित, धनी-निर्धन जैसी कितनी ही कोटियों
में बँटा हो, किन्तु एक बात उसके साथ हर हाल में
निर्विवाद रूप से चलती रही है और वह है उसकी संवेदना।
यदि मनोविज्ञान की भाशा में कहा जाय तो मनुष्य अपने
मनोविकारों से कभी मुक्त नहीं हो पाता। यही मनोविकार
मनुष्य में विभिन्न भावनाओं के रूप में मौजूद रहते
हैं। तात्पर्य यह, कि मनुष्य चाहे निपट
गाँंव-देहात-जंगलों में रहे, या शिक्षित-सभ्य-शालीन
रूप में नगरों व महानगरों में निवास करे, वह कभी भी
भावनाओं से रीता नहीं हो सकता। यही भावनाएँ विविध
रूपों में उसके जीवन में, विविध विधि लयात्मकता का
सृजन भी करती हैं और अभिव्यक्ति भी पाती हैं। यही
अभिव्यक्ति गीत है।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है, कि मानव सभ्यता के विकास
के समानान्तर, गीतों की दशा और दिशा का भी निर्धारण
स्वयमेव होता रहा है। आज भी हमारे ग्रामीण जनजीवन में,
विरासत में मिले गीतों की वाचिक परम्परा सतत् प्रवहमान
है और पीढ़ी पर पीढ़ी हस्तान्तरित होती जा रही है। गीतों
की लयात्मकता और इनके माधुर्य ने सदैव ही मानव मन को
मुग्ध किया है। यही कारण है कि मानव सभ्यता के विकास
के साथ-साथ गीतों के स्वरूप में भी परिवर्तन होता गया।
या यों कहें कि गीतों की विकास यात्रा जारी रही और गीत
के कथ्य-शिल्प के साथ साथ तेवर में भी परिवर्तन
रेखांकित करने योग्य होता गया। इस सबके बाबजूद मनुष्य
के जीवन में गीतों की व्यापक पैठ बराबर बनी रही बल्कि
यों कहें कि और मजबूत होती गई। लोक जीवन में जन्म के
समय से लेकर, समस्त सोलह संस्कारों के अतिरिक्त पर्व
गीत, मौसम गीत, ़ऋतुओं के गीत, उत्सव के गीत,
सार्वकालिक गीत आदि रूपों में गीतों की पकड़ इतनी मजबूत
होती गई, कि गीतों से पृथक करके लोकजीवन की बात करना
भी अप्रासंगिक कहा जाएगा।
मनुष्य या लोक की रागात्मिका वृत्ति के संवाहक गीतों
ने, कभी अपनी वैयक्तिक खुशी और पीड़ा का गायन किया, तो
कभी वह परदुख कातर भी हुए। कभी वह खेतों की लहलहाती
फसलों के साथ झूम उठे, फसल के नष्ट होने पर दुखी हुए,
तो कभी हुंकार भरते हुए रणभेरी के स्वर से स्वर भी
मिलाया। कहीं इन्हीं गीतों ने जीवन - जगत का सूक्ष्म
निरीक्षण करते हुए संसार की नश्वरता का गान किया, तो
कहीं अपने आप को सिरजनहार के चरणों में अर्पित भी कर
दिया। कहना न होगा कि लोक चेतना की हर भावना की
अभिव्यक्ति के लिए गीतों ने उसका न केवल साथ दिया,
अपितु जीवन की लयात्मकता को भी बनाये रखा। मानव जीवन
की इसी लयात्मकता और भाव वैविध्य ने बाद में लिखित रूप
में गीतों की एक सुदृढ़ एवं सुदीर्घ परम्परा की नींव
रखी।
कालान्तर में भाशा और साहित्य के विकास के क्रम में
गीतों को साहित्य में एक मधुर विधा के रूप में न केवल
प्रतिष्ठा मिली, अपितु गीत में आवश्यक मूलभूत तत्वों
का निर्धारण भी किया गया। इस सम्बन्ध में जिन बिन्दुओं
पर प्रायः सभी विद्वान एकमत दिखते हैं, वह हैं-
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गीतों में लयात्मकता का होना अनिवार्य है। यही
लयात्मकता इसमें गेयता और माधुर्य की पुष्टि करती है।
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छन्दबद्धता भी गीतों के लिए एक अनिवार्य गुण है। यह
मात्रिक या वार्णिक छन्द कोई भी हो सकते हैं।
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भावों की निरन्तरता गीत का प्राणतत्व है। जिस भाव से
गीत की शुरूआत होती है, उसी का विकास अन्त तक होना
आवश्यक माना जाता है। |
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अविच्छिन्न प्रतीक योजना को भी गीतों के लिए आवश्यक
माना जाता है। ऐसा न हो कि पद परिवर्तन के साथ ही
प्रतीक भी बदल जाएँ। इससे गीत की एकरसता भंग होती है।
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गीतों के भावानुकूल, शब्दगुणों का निर्वाह गीत को
प्रभावी बनाता है। |
गीतों की लैखिक परम्परा ने, हिन्दी साहित्य जगत को गति
तो दी, किन्तु इनका दायरा भी न्यूनाधिक परिमाण में
संकुचित होता गया। इसके पीछे युगीन परिस्थितियों को
बहुत हद तक उत्तरदायी माना जा सकता है। हिन्दी साहित्य
का आदिकाल, वीरगाथा काल के नाम से भी जाना जाता है। वह
एक ऐसा युग था, जहाँ प्रायः हर समय छोटे-बड़े युद्धों
की अनवरत कड़ी चलती थी। छोटे-छोटे राजाओं से लेकर बड़े
सम्राट तक अपने दरबार में कवियों को आश्रय देते थे और
कवि अपने आश्रयदाता की प्रशंसा में काव्य रचना किया
करते थे। इसी परम्परा के चलते बीरगाथा काल का प्रमुख
साहित्य रासो साहित्य ही है। परिणामतः हिन्दी साहित्य
का यह काल चारणकाल बनकर रह गया। वहीं भक्तिकाल
तत्कालीन परिस्थितियों की भेंट चढ़ गया। विदेशी मुगल
शासकों के आतंक से मुक्ति का जब और कोई रास्ता नहीं
दिखा तब लोक और साहित्य दोनों को ईश्वर की शरण ही
श्रेयस्कर लगी। नतीजा यह हुआ कि गीत ही क्यों प्रायः
अधिकांश प्रधान साहित्य की धारा ही ईश्वरोन्मुखी हो
गई। इसी तरह रीतिकाल, श्रंगारिकता और लक्षण ग्रन्थों
की भेंट चढ़ गया। समय-समय पर गीत के तेवर बदलते गये,
कथ्य और शैली को यत्किंचित नवीनता भी मिलती गई, किन्तु
आम आदमी इसके दायरे से बाहर होता गया।
गीतों की इस विकास यात्रा में गीत, लोक से दूर होते
गये और आत्माभिव्यक्ति के माध्यम बनते गये । जबकि
काव्य प्रयोजन का संकेत करते हुए तुलसीदास ने आज से
लगभग छः सौ वर्श पूर्व ही कहा था- ‘‘कीरति भनिति भूति
भलि सोई। सुरसरि सम सब कर हित होई।’’ तुलसी के इस कथन
में लोकहित प्रधान था। किन्तु जब यह ‘सब’ ही काव्य में
संकुचित हो, तो किसी का हित हो भी तो कैसे? ऐसा भी
नहीं है कि सभी गीत आत्मकेन्द्रित ही थे। उस काल के
गीतों में भी लोक को स्थान मिला किन्तु मूल प्रकृति
आत्मकेन्द्रित ही रही। यही कारण रहा कि गीत साहित्य को
लोक विमुख होने के कारण आलोचकों की वक्र दृष्टि का
सामना भी करना पड़ा। जो निश्चय ही चिन्ताजनक कहा जा
सकता है। किन्तु परिवर्तन प्रकृति का नियम है। अन्ततः
इसी चिन्ता ने समस्या का समाधान भी खोजा और एक
क्रान्ति के रूप में जनगीतों और नवगीतों की परम्परा का
अभ्युदय हुआ।
जनगीत के नाम से ही घ्वनित होता है, कि यह ‘जन-जन’ के
गीत हैं। लोक की भावनाओं, उसकी पीड़ा कुण्ठा त्रासदी,
को अभिव्यक्ति देने वाले यह गीत जन को अपने से लगे।
लोक के बीच, लोक की भावनाओं को व्यक्त करते यह गीत,
लोक के बीच बहुत उदारता से स्वीकार व प्रतिष्ठित हुए।
इन गीतों में व्यक्त हो रही कुण्ठा, त्रासदी, और पीड़ा
ने इन गीतों को जो उग्रता प्रदान की उसके चलते यह
प्रगतिशीत विचारधारा के बहुत नजदीक दिखने लगे।
जनगीतों के कथ्य और कहन की शैली के कारण इन्हें उस ओर
शामिल करने के प्रयास भी किये गये। किन्तु जनगीतों में
केवल पीड़ा, कुण्ठा, संत्रास ही नहीं था। इनमें लोक के
बीच में व्याप्त उल्लास, पर्व, उत्सव आदि भी शामिल थे।
ऐसा होना कुछ अचम्भा भी नहीं था, क्योंकि मूलतः
जनगीतों का उत्स लोकगीतों से था। इसी कारण इनमें समूचे
लोकजीवन की झाँकी स्पष्टतः दिखती रही।
यूँ तो मनुष्य स्वभाव से ही उत्सवधर्मी है, किन्तु जब
जीवन ही समस्या के रूप में विकरालताओं की भेंट चढ़ रहा
हो, तो उसकी प्राथमिकताएँ भी बदल जाती हैं। पारम्परिक
गीतों में व्यापकता न हो ऐसा मान लेना भी पूर्णतया
न्यायसंगत नहीं लगता किन्तु उनकी शैली कुछ इस प्रकार
होती गई कि उनकी अमूर्त अभिव्यक्तियाँ लोकग्राही न हो
सकीं और उन्हें आत्मपरक होने का आक्षेप सहना पड़ा। आम
जन चाहकर भी उसे अपना नहीं कह सके। दूसरी ओर जनगीतों
ने या तो लोक के उत्सव-उल्लास का गायन किया और उससे
उबरकर जब समस्याओं की ओर ध्यान गया भी, तो आक्रामक
तेवर अपना लिये। गीतों के मूल गुणधर्म के अनुरूप यह
दोनों ही रूप कहीं न कहीं अड़चन पैदा कर रहे थे। इन्हीं
परिस्थितियों में नवगीत की परम्परा का उदय हुआ। कई
विद्वान नवगीत के जन्म की तारीख भी घोशित करते हैं।
साहित्य के इतिहास में इनकी दखलंदाजी की कोई न कोई
तारीख होनी भी चाहिए किन्तु यह भी ध्यान देने योग्य
बात है कि नवगीत का उदय एक परम्परा के रूप में हुआ था
और परम्पराएँ किसी एक नियत तारीख से शुरू नहीं होतीं
बल्कि यह एक ऐसी प्रक्रिया है, जो धीरे-धीरे अपने आधार
को सुदृढ़ करती है। जब यह अपनी उपस्थिति से दखल देना
शुरू करती है, तब सबका ध्यान उसकी ओर आकर्शित होता है।
नवगीतों की इस परम्परा की प्रतिष्ठा में कई चुनौतियाँ
भी थीं। एक ओर तो इसे पारम्परिक गीतों की आत्मपरक
अमूर्त योजना का सामना करना था, तो दूसरी ओर जनगीतों
की आक्रामकता से गीतों को मुक्त करने की चुनौती भी थी।
इतना सब करते हुए लोक हित की साधना तो प्रमुख लक्ष्य
था ही। इस प्रकार नवगीतों ने सबसे पहले लोक चेतना को
आत्मसात किया। जिस वैयक्तिकता के कारण गीतों से लोक
तिरोहित हो चला था, उसे दरकिनार करते हुए,
निर्वैयक्तिकता के मूलमंत्र को गीतों में प्रतिष्ठित
किया। पारम्परिक गीतों में जो अमूर्त था, उसे एक चेहरा
देकर लोक से उसका परिचय भी कराया। इसे इस प्रकार भी कह
सकते हैं कि छायावादी सुभाव के चलते जहाँ गीतों में
स्थूल के प्रति सूक्ष्म के विद्रोह की अवधारणा बलवती
हुई थी, वहीं नवगीतों ने इसे जमीनी आधार दिया और
सूक्ष्म के प्रति स्थूल का विरोध मुखर हो उठा। लोक की
भावनाओं, उसके सुख-दुख, आम आदमी की जिन्दगी की
आपाधापी, त्रासदी, विसंगतिया आदि से ऊर्जा ग्रहण कर,
नवगीत प्राणवान होने लगे। खेत, खलिहान, कारखाने से हर
मेहनतकश के पसीने की गन्ध और मिट्टी की सोंधी महक से
यह गीत महमहाने लगे। नवगीतों ने करवट बदलते हुए पंगु
होती व्यवस्था के विरुद्ध हुंकार भी भरी। इस प्रकार
लोक चेतना से सरोकार रखते हुए नवगीतों ने जीवन-जगत के
हर कोने की पड़ताल की। आम आदमी को उसकी दशा और दिशा का
बोध कराते हुए नवगीत ने, अपनी एक स्वतन्त्र पहचान कायम
की।
समेकित रूप से देखा जााय, तो साहित्य की किसी भी विधा
को जाँचने - परखने के लिए भाशा, शिल्प और कथ्य या
विशयवस्तु पर विचार करना अनिवार्य होता है। नवगीत के
सन्दर्भ में विचार करने पर हम पाते हैं, कि भाशा और
शिल्प में तो यह गीत के सर्वांग निकट रहा या यों कहें
कि कोई अन्तर नहीं रहा किन्तु विशयवस्तु या कथ्य के
मामले में नवगीत ने अपनी कतिपय विशेषताओं की ओर ध्यान
आकृष्ट अवश्य किया जिन्हें हम संक्षेप में इन बिन्दुओं
के अन्तर्गत रख सकते हैं-
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वैयक्तिकता से निर्वैयक्तिकता की ओर प्रस्थान।
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यथार्थ के धरातल पर लोक चेतना का प्रतिनिधित्व।
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प्रतीक योजना के सहारे शालीनता व माधुर्य की रक्षा
के दायित्व का निर्वाह। |
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अमूर्त भावों को एक चेहरा देकर लोक के बीच उनकी
प्रतिष्ठा। |
न केवल साहित्य जगत में बल्कि वैश्विक परिदृष्य में एक
बात वर्तमान युग में उभर कर सामने आती है और वह है
संवेदना का क्षरण। साहित्य की विधाओं में देखें तो हम
पाते हैं, कि कविता या पद्य साहित्य नितान्त हृदय या
संवेदना का पक्षधर होता है जबकि गद्य हमारे बौद्धिक
व्यायाम का प्रतिफल। निश्चित रूप से हम पहले की तुलना
में अधिक समझदार हो सकते हैं, हमारे जीवन को अधिक
सुखमय बनाने के तमाम साधन जुटाने में हम सक्षम हो गये
हैं या होते जा रहे हैं, किन्तु यहाँ एक दुखद पक्ष भी
सामने आता है और वह है भौतिकता की चकाचैंध में हमारी
संवेदना का क्रमिक क्षरण। आज का युग नितान्त भौतिकता
का युग है, जहाँ हम हमारी सांस्कृतिक विरासत को ही
नहीं उससे पोशित होने वाली हमारी उत्सवधर्मी भावना से
भी विमुख होते जा रहे हैं। यह रोग इस हद व्याप्त हो
चुका है कि हम स्वयं के प्रति भी संवेदनहीन होते जा
रहे हैं। इसका परिणाम साहित्य में पद्य साहित्य की
उपेक्षा और गद्य साहित्य की प्रतिष्ठा के रूप में
स्पष्टतः दिखाई पड़ता है। यह हमारे संवेदनहीन एकांगी
सोच का परिणाम है, जिसकी परिणति हमारी रोजमर्रा की
जिन्दगी में भी दिखती है।
साहित्य और समाज की वर्तमान दिशा और दशा पर विचार करने
पर आज हमारे लिए यथार्थ के खुरदुरे धरातल पर सत्य का
अन्वेशण और असत्य का अनावरण करने की आवश्यकता प्रतीत
होती है, तो सामाजिक समरसता और साहित्य की वांछित
शालीनता बनाये रखने के लिए एक उपयुक्त माध्यम की भी
आवश्यकता है। इस प्रयोजन की पूर्ति के लिए हिन्दी
साहित्य-जगत में, नवगीत एक मुख्य और लोकप्रिय
काव्य-विधा के रूप में अपनी पूरी सामथ्र्य के साथ अपनी
उपस्थिति दर्ज करा रहा है। संसार की हर एक वस्तु के
विकास के क्रम में उसमें नये-नये प्रयोग होते रहे
हैंै। अनेक सिद्धहस्त और समर्पित रचनाधर्मियांें ने
अपनी उर्वरा चिन्तनशक्ति के द्वारा नवगीत विधा में भी
अनेक प्रयोग किये हैं और अभिव्यक्ति के नये आयाम
स्थापित किये हैं। इसी के समानान्तर कतिपय अति उत्साही
प्रयोगधर्मी नवगीत के शिल्प विधान से खिलवाड़ करने और
उसे छन्दमुक्त बनाने को हर पल आतुर रहते हैं, जो नवगीत
की आत्मा को आहत करने के समान है। छन्द, गीत की
लयात्मकता के आधार हैं। यदि लयात्मकता को ही समाप्त कर
दिया जाएगा तो फिर गीत ही कहाँ बचेगा । गीत और नवगीत
के बीच एक बहुत ही महीन सी विभाजन रेखा कही जा सकती
है। इसलिए नवगीतों पर विविध प्रयोग सुखद माने जा सकते
हैं, बशर्ते गीत के मूल तत्वों को उनके प्राणरूप में
संरक्षित रखा जाय। |