नवगीत और उसका उद्भव काल - प्रेमशंकर रघुवंशी
- प्रेमशंकर रघुवंशी
नये ढंग के गीतों की रचना कुछ वर्षों से और भी अधिक
होने लगी है और उनका सही मूल्याकंन भी होने लगा है।
नयी कविता, नयी कहानी और नयी आलोचना की तरह ’नवगीत‘ या
नया गीत नाम भी एक विशेष अर्थबोधवाला शब्द बन चुका है।
अतः उस विशेष अर्थ की अभिव्यंजना करने वाली गीत-धारा
के ऐतिहासिक विकास-क्रम का आकलन कर लेना समीचीन है।
यहाँ प्रारंभ में ही एक बात स्पष्ट कर देने की
आवश्यकता है कि ’नवगीत‘ एक सापेक्ष शब्द है। नवगीत की
नवीनता युग सापेक्ष्य होती है। किसी भी युग में नवगीत
की रचना हो सकती है। गीति-रचना की परम्परागत पद्धति और
भावबोध को छोड़कर नवीन पद्धति और विचारों के नवीन
आयामों तथा नवीन भाव-सरणियों को अभिव्यक्त करने वाले
गीत जब भी और जिस युग में भी लिखे जायेंगे, ’नवगीत‘
कहलायेंगे। किंतु एक तत्व ऐसा है जो सभी युगों के
गीतों में अनिवार्यतः पाया जाता है, जो गीत का शाश्वत
लक्षण है। वह तत्व है गेयता। कुछ अति आधुनिकतावादी लोग
यह सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि कविता और गेयता का
कोई मौलिक और अविच्छेद्य संबंध नहीं है। किंतु इस
सिद्धांत में अतिव्याप्ति दोष है। यह तो सही है कि सभी
कविता गेय नहीं होती पर यदि गीत को भी काव्य के
अन्तर्गत सम्मिलित करें तो यह मानना पड़ेगा कि जो काव्य
गीत के रूप में लिखा जाता है, वह अनिर्वायतः गेय होता
है अथवा उसे ऐसा होना चाहिए।
गीत गाना मनुष्य का अनिवार्य धर्म है और आदिम काल से
अब तक मनुष्य काव्य का कुछ अंश गेय रूप में अपनाकर
चलता आया है और भविष्य में भी वह चाहे कितना ही आधुनिक
क्यों न हो जाये, गेय काव्य को सर्वथा त्याग सके,
इसमें पूर्ण संदेह है। वस्तुतः गेयता ही ऐसी कड़ी है जो
आधुनिक मानव को उपरोक्त के सुदूरवर्ती आदिम मानव से
तथा वर्तमान के सामान्य, असभ्य, अर्ध सभ्य एवं
अशिक्षित मानव से जोड़ती है। लोक काव्य का अधिकांश गेय
होता है। जब-जब काव्य आधुनिकता के दबाव के कारण
सामान्य लोक-जीवन से दूर पड़ता जाता है, तब-तब
क्रांति-दर्शी कवि लोक काव्य के अनेक तत्वों को अपनाकर
शिष्ट काव्य को लोक जीवन से जोड़ते हैं। इस प्रक्रिया
में उनके काव्य में गेयता तो आ ही जाती है, साथ ही
परम्परागत गीत पद्धति का बहुत कुछ नवीनीकरण भी हो जाता
है। ऐसे ही गीतों को, चाहे वे किसी युग के हों, हम
’नवगीत‘ की संज्ञा दे सकते हैं।
किंतु नवगीत की रचना का एक मात्र कारण लोक जीवन की ओर
प्रत्यावर्तन ही नहीं है। यदि केवल यही बात हो तो इसे
विकास का लक्षण नहीं माना जा सकता। यह तो सही है कि
लोक काव्य के प्रभाव से शिष्ट काव्य में ताजगी और
परिवर्तन आ जायेगा किंतु काव्य की ऊँचाई और गहराई की
दृष्टि से इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा। जब
गीतिकाव्य किसी परम्परागत रूप-शिल्प और भाव-बोध के
दलदल में फँस जाता है तो उसे उबारने के लिए उसमें नवीन
रक्त भरने की आवश्यकता होती है और यह नवीन रक्त पुरानी
भाषा को बदलकर नवीन भाषागत प्रयोगों, नयी अप्रस्तुत
योजनाओं, नये रूप शिल्प तथा आधुनिक जीवन की उपलब्धियों
को अपनाने से ही आ सकता है। हर युग की आधुनिकता
अलग-अलग होती है और जिस कवि के गीतों में उसकी समकालीन
आधुनिकता पूरी तरह अभिव्यक्त होती है, उसी के गीत,
नवगीत कहे जा सकते हैं। इस तरह गीतिकाव्य की यह नवीनता
कभी तो प्रमुखतः लोक भाषा, लोक छंद और लोक तत्वों के
अपनाने के कारण आती है, कभी नवीन अप्रस्तुत योजना और
प्रतीक-विधान के कारण और कभी मुख्यतः समकालीन
परिवर्तित जीवन-दृष्टि तथा सूक्ष्म और गहरी अनुभूतियों
की सहज अभिव्यक्ति के कारण।
संस्कृत में जयदेव का ’गीत गोविन्द‘, बंगला में
चण्डीदास के गीत, हिंदी में विद्यापति, कबीर और
तुलसीदास के कुछ गीत इसी अर्थ में नवगीत कहे जायेंगे।
आधुनिक युग में रवीन्द्रनाथ ने ’भानुसिहेर पदावली‘ में
’ब्रज बोली‘ को अपनाकर तथा परवर्ती गीतों में
लोकप्रचलित बाउल गीतों की शैली और साधना-दृष्टि को
ग्रहण कर नवगीत का प्रारंभ किया था। हिंदी में
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और प्रेमघन ने लोक-गीतों के ढंग
पर जिस काव्य की रचना की तथा आगे चलकर श्रीधर पाठक ने
लोक प्रचलित गीतों की शैली में देश-प्रेम और प्रकृति
चित्रण संबंधी जो गीत लिखे, उन्हें हिंदी का तत्कालीन
’नवगीत‘ कहा जा सकता है। छायावाद-युग के प्रारंभ में
मुकुटधर पाण्डेय और मैथिलीशरण गुप्त के गीतों में तथा
पंत और निराला की छायावादी कविताओं में जो नवीनता और
ताजगी थी, उसी के कारण छायावाद युग में गीत-पद्धति
इतनी अधिक मँज और निखर गई तथा पंत, प्रसाद, निराला और
महादेवी ने उसे ऐसी ऊँचाई तक पहुँचा दिया कि परवर्ती
कवियों के लिए उस शैली में लिखने के लिए अनुकरण के
सिवा और कोई रास्ता न रह गया।
बीसवीं शताब्दी के तीसरे दशक के उपरान्त नये आने वाले
कवियों को यह पद्धति रूढ़ और घिसी-पिटी प्रतीत होने
लगी। फलस्वरूप बच्चन, नरेन्द्र शर्मा, अंचल और नेपाली
जैसे गीतकारों का उदय हुआ जिन्होंने अपने गीतों की
भाषा को छायावादी भाषा से अलग करके बोलचाल की भाषा के
निकट लाने का प्रयत्न किया। किंतु इस प्रयास में
छायावादी गीतों की ऊँचाई और सूक्ष्मता उनके हाथ से छूट
गई। वस्तुतः इस तरह के छायावादोत्तर कालीन गीत हद से
अधिक रोमानी और कैशोर भावना से ग्रस्त थे और उन्हें
छायावाद का उच्छिष्ट ही कहा जा सकता है। यह प्रवृत्ति
इतनी प्रबल थी कि आज भी यह समकालीन काव्य का अंग बनी
हुई है। छायावाद-युग की समाप्ति के पूर्व स्वयं कुछ
छायावादी कवियों ने तथा कई नये आने वाले युवक कवियों
ने छायावादी गीतों की शैली और भाव-बोध में परिवर्तन
करने का प्रयास किया।
इस प्रकार जिसे आज हम नवगीत कहते हैं, उसका प्रारंभ
आधुनिक युग के प्रारंभ के साथ ही हो गया था।
व्यक्ति-मानव की आत्मप्रतिष्ठा की चेतना का प्रारंभ
आधुनिक युग में ही पूरी स्पष्टता के साथ हुआ। नवगीत
में वही चेतना बंधनों से मुक्ति पाने के लिए छटपटाहट,
व्यक्ति की स्वछन्द सौंदर्य-दृष्टि, प्रकृति और मानव
के संबंधों के पुनस्संयोजन, आधुनिक जीवन-दृष्टि आदि की
अभिव्यंजना के रूप में शुरू से ही दिखाई पड़ने लगी थी।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने काशी के संबंध में कई
कविताएँ लिखीं जिनमें एक ’गंगा वर्णन‘ तो परम्परा
विहित भावनाओं की अभिव्यक्ति करने वाली है, जिससे उसकी
शैली में भी विशेष नवीनता नहीं है, पर अन्य दो कविताएँ
काशी के सामाजिक जीवन तथा वहाँ की गलियों के दृश्य से
संबंधित है। ’देखी तुमरी कासी‘ कविता में काशी के
सामाजिक जीवन का जैसा यथार्थ और व्यंग्यपूर्ण चित्रण
हुआ है, वैसा उस काल के लेखकों के लिए सोचना भी कठिन
था। दूसरी कविता, जो गीत की टेक-पद्धति से रहित होकर
भी विशुद्ध गीत ही है, यह है:
उड़त कपोत कहूँ, काग करें रोर।
चुहू-चुहू चिरियन कीनो अति सोर।
बुझी लालटेन लिए झुकि रहे माथ
पहरू लटकि रहे लंबो किये हाथ।
यह आश्चर्य की ही बात है कि ऐसी स्थिति में भी
छायावादी भावबोध और भाषा शिल्प से पर्याप्त भिन्न थे।
यदि हम अपने प्रति और इतिहास के प्रति ईमानदार हों तो
हमें निस्संकोच रूप से यह स्वीकार करना होगा कि नवगीत
ही नहीं समस्त नयी कविता के प्रथम उन्नायक महाकवि
निराला हैं। यदि परम्परागत भाषा, छंद और भावों के
प्रति विद्रोह तथा सहज भाषा में सांकेतिक और
प्रतीकात्मक पद्धति से सूक्ष्मतम मानवीय अनुभूतियों की
अभिव्यक्ति ही नवगीत है तो नवगीत का प्रारंभ सन्
१९२०-२१ से ही मानना पड़ेगा जब निराला ने ’मातृ वन्दना‘
(१९२०), ’मर देते हो‘ (१९२३) आदि गीत लिखे। निराला का
व्यक्तित्व विभाजित व्यक्तित्व था, इसलिए प्रारंभ से
ही उनमें जीवन के अंतिम काल में ’आराधना‘ और ’गीत
गुंज‘ में आकर शांत और निर्मल भक्ति-भावना के रूप में
बदल गई, दूसरी ओर उनमें विद्रोह भावना यथार्थ जीवन
दृष्टि और नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा का वह प्रखर
स्त्रोत वर्तमान था जो उत्तरोत्तर उग्रतर होता हुआअ
क्रमशः ’कुकुरमुत्ता‘, ’अणिमा‘, ’वेला‘, ’नये पत्ते‘,
’अर्चना‘, ’आराधना‘ और ’गीत-गुंज‘ में जन-जीवन की
सामान्य अनुभूति तथा व्यक्ति-चेतना की अछूती और
अद्वितीय अनुभूतियों के समन्वित रूप में एक महानद के
रूप में बदल गया। इस दूसरी धारा का प्रर्वतक उनका वह
दूसरा व्यक्तित्व ही नवगीत का प्रथम प्रस्तोता कवि है।
प्रारंभ में उनके नवगीतों की भाषा छायावादी गीतों से
अधिक भिन्न नहीं थी किंतु बाद में ऐसे गीतों की भाषा
बोलचाल की भाषा के बिल्कुल निकट आ गई। ’अनामिका‘ का यह
गीत इसका प्रमाण है:
ब्हुत दिनों बाद खुला आसमान,
निकली है धूप हुआ खुश जहान।
लोग गाँव-गाँव को चले,
कोई बाजार कोई बरगद के पेड़ के तले
जाँघिया लंगोटा से सँभले
तगड़े तगड़े सीधे नौजवान
ग्रामीण जन-जीवन का चित्र इसी भाषा में लिखा जा सकता
है जो जनता की ठेठ भाषा है। ’गीतिका‘ में उनके कई गीत
इसी भाषा में लिखे गये हैं जो उद्दाम पौरूष तथा मानवीय
विश्वास की अभिव्यक्ति करने वाले हैं। आधुनिक नवगीत
में भी दिखलाई पड़ती है। ’गीतिका‘ का यह गीत कवि की
तटस्थ जीवन-दृष्टि की पूर्ण अभिव्यक्ति करता है। सहज
भाषा, वाक्य-गठन तथा संक्षिप्तता की दृष्टि से भी यह
गीत, नवगीत का एक सुन्दर उदाहरण है:
रे कुछ न हुआ तो क्या ?
जंग जब धोका तो रो क्या।
सब छाया से छाया
नभ नीला दिखलाया
तू घटा और बढ़ा
और गया और आया
होता क्या, फिर हो क्या
जो धुला उसे धो क्या ?
रे कुछ न हुआ तो क्या ?
’गीतिका‘ और ’अनामिका में इस तरह के कई गीत हैं पर
उनमें एक आध्यात्मिक संस्पर्श है जो कवि की तटस्थ
दृष्टि के साथ लगा लिपटा है। किंतु उनके बाद के
संग्रहों में जो नये ढंग के गीत हैं उनमें शुद्ध भौतिक
मानवीय अनुभूतियों की व्यंजना हुई है। इस तरह के सबसे
अधिक गीत वेला (सन् १९4३) में हैं जिनके गीतों के
संबंध में कवि ने स्वयं भूमिका में लिखा है, ’प्रायः
सभी तरह के गेय गीत इसमें हैं। भाषा सरल तथा
मुहावरेदार है। गद्य करने की आवश्यकता नहीं है।‘ उर्दू
की बह्रों में अधिकांश गीत लिखे गये हैं जिससे उनमें
नयी गति और ताजगी आ गई है किंतु सरलता और सादगी के
भीतर भी कवि ने जिन अनुभूतियों की अभिव्यक्ति की है,
वे अछूती हैं। ’वेला‘ का एक गीत अजनबीपन की भावना की
अभिव्यक्ति करने के कारण आधुनिक अस्तित्ववादी कविता के
बहुत निकट है:
बाहर मैं की दिया गया हूँ।
भीतर पर भर दिया गया हूँ
ऊपर वह बर्फ गली है,
नीचे यह नदी चली है।
सख्त तने के ऊपर नर्म कली है,
इसी तरह हर दिया गया हूँ।
किंतु ’वेला‘ के सभी गीत मायावादी या अस्तित्ववादी
नहीं हैं, कुछ गीतों में सहज और मोहक दृश्यों का
चित्रण किया गया है तो कुछ में सामाजिक अव्यवस्था और
वैषम्य पर गहरा व्यंग्य है। ’आ रे गंगा के किनारे‘
शीर्षक गीत सुंदर ’लैण्डस्केप‘ चित्रण है तो ’भीख
माँगता है वह राह पर‘ शीर्षक गीत गहरा, मनोवैज्ञानिक
चित्र उपस्थित करता है। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद
जन-मानस की उमंगों का अनुचित लाभ उठाने वाले स्वार्थी
नेताओं पर उनका एक गहरा व्यंग्य उल्लेखनीय है:
जल्द जल्द पैर बढ़ाओं, आओ, आओ।
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी पासी चमार तेली
खोलेंगे अँधेरे का ताला
एक पाठ पढ़ेंगे, टाट बिछाओ।
किंतु इस तरह के व्यंग्य-गीतों में निराला का असली
व्यक्तित्व नहीं खुलता, उनमें केवल उनका बाह्य,
विद्रोही व्यक्तित्व ही उभरता है। छिपे हुए को उधारने
वाला व्यक्तित्व ही उनका वास्तविक व्यक्तित्व है।
सहजता में उनके गीतों के बन्द-बन्द कमल की पंखुड़ियों
की तरह खुलते हैं। इस रहस्य को उन्होंने ’वेला‘ के एक
गीत में खोला भी है:
सहज चाल चलो उधर,
छिपा हुआ जाय उधर।
चाँदी की हँसी हँसे जो, अपने आप फँसे
बन्द बन्द खुले गंसे बन्धन से छंद सुधर।
छंदों के बंधन खुलने की बात पर निराला ने बार-बार बल
दिया है। वस्तुतः नवीनता, चाहे वह काव्य की हो या जीवन
की, तभी आ सकती है, जब परम्परा के रूढ़ बंधनों से
मुक्ति मिले। ’गीतिका‘ का प्रथम गीत इसी आन्तरिक
स्वतंत्रता का आवाहन करता है जो काव्य और जीवन दोनों
में ही स्वच्छन्दता और नवीनता ला सकती है:
नव गति, नव लय, ताल, छंद नव
नवल कण्ठ, नव जलद मंद्र रव
नव नभ के नव विहग वृन्द को
नव स्वर, नव पर दे।
’अनामिका‘ में निराला के कई गीत ऐसे हैं जिनको
उन्होंने मुक्त छंद में लिखा है फिर भी उनमें गेयता
है। साथ ही उसमें तथा बाद के संग्रहों में निराला के
ऐसे गीत भी हैं जिनमें टेक और समतुकान्त पद्धति तो है
पर बीच की पंक्तियाँ विषम मात्रावाली और कहीं-कहीं
अतुकान्त भी हैं। एक गीत का एक पद यहाँ उदाहरण के रूप
में रखा जा रहा है:
बादल छाये
थे मेरे अपने सपने
आँखों से निकले, मँडराए।
बूँदें जितनी
चुनी अधखिली कलियाँ उतनी,
बूँदों की लड़ियों के इतने
हार तुम्हें मैंने पहनाये।
इस तरह निराला ने गीतों में छंद संबंधी अनेक प्रकार के
प्रयोग किये हैं। गीतों की परम्परागत सामान्य पद्धति
यही रही है कि एक वाक्य एक पंक्ति में ही समाप्त हो
जाता है पर निराला ने कुछ गीतों में अंग्रेजी के ढंग
पर कई पंक्तियों में एक ही वाक्य को चलाया है और साथ
ही सममात्रिकता और तुकों का भी निर्वाह किया है। उनका
एक बहुत प्रसिद्ध गीत जो अनेक दृष्टियों से पूर्णतः
नवगीत माना जायेगा, इस कथन का प्रमाण है:
स्नेह निर्झर बह गया है।
रेत ज्यों तन रह गया है।
आम की यह डाल, जो सूखी दिखी,
कह रही है, ’अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते, पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ
जीवन रह गया है।‘
छंदों के अतिरिक्त धुनों की पकड़ में भी निराला ने अपने
संगीत-विवके का पूरा परिचय दिया है। ’गीतिका‘ की
भूमिका में संगीत और काव्य के संबंध में उन्होंने
सूक्ष्म विवेचन भी किया है। गीत-रचना में उनका
संगीतज्ञ मन एक कलाकार के समान सदा सजग रहता था, यह
उनके गीतों की संगीतात्मकता से स्पष्ट है। इसीलिए कहीं
तो उन्होंने शास्त्रीय संगीत के ताल-स्वर के अनुसार
गीत-रचना की है, कहीं लोकगीतों की धुनों के आधार पर,
कहीं उर्दू की बह्रों का सहारा लिया है तो कहीं भक्ति
परक भजनों की धुनों का। किंतु इन सबमें उन्होंने
आवश्यकतानुसार परिवर्तन या नया मोड़ लाने का साहस भी
दिखलाया है। उन्होंने ’गीतिका‘, ’वेला‘, ’अर्चना‘ और
’नये पत्ते‘ में होली, कजरी, ख्याल आदि रागों का
अवलम्बन लेकर गीत लिखे हैं। पर केवल लोक-धुन पकड़कर छंद
रचना करने से ही नवगीत नहीं बन सकता। लोकगीतों की
ताजगी और सोंधापन आने से ही ऐसे गीत, नवगीत कहे जा
सकते हैं। निराला के कई गीतों में यह बात मिलती है।
उदाहरण के लिए ’वेला‘ में लोक-धुनों में लिखे उनके कई
गीत हैं जिनमें से ’बात चली सारी रात तुम्हारी‘ और
’आये पलक पर प्राण कि वन्दनवार बने तुम‘ उल्लेखनीय
हैं। प्रदेश में ढोलक मजीरे के साथ गाये जाने वाले
लोकगीतों की धुनों के आधार पर जो गीत लिखे जा रहे हैं
उनका पूर्व रूप ’वेला‘ के इस गीत में देखा जा सकता है:
आये पलक पर प्राण कि वन्दनवार बने तुम।
उमड़े हो कण्ठ के गान गले के हार बने तुम।
दुपहर की घनी छाँह घनी इक मेरे बानिक
हाथ की पकड़ी बाँह सुरों के तार बने तुम।
मेरे जिए के मान हिये के हार बने तुम।
निराला को सबसे अधिक सफलता उन गीतों में मिली हैं
जिनमें बहुत छोटे-छोटे छंदों का प्रयोग हुआ है। इन
गीतों में छोटे छंद, सरल और मुहावरेदार भाषा, लोक जीवन
के संदर्भ और गहरी तथा तीव्र अनुभूतियों के कारण ऐसे
वातावरण की सृष्टि हुई जो पाठक को एक नये अनुभूत
भाव-स्तर पर पहुँचा देता है। अर्चना (सन् १९५०) में
उनके दो गीत इसी प्रकार के हैं, ’बाँधो न नाव इस ठाँव
बन्धु‘ और ’अंट नहीं रही है।‘ इनमें से पहला गीत तो
बहुचर्चित है पर दूसरे गीत की ओर जो प्रकृति के
टटके-सलोने रूप का मादक प्रभाव चित्रित करता है,
अंट नहीं रही है।
आभा फागुन की तन सट नहीं रही है।
कहीं साँस लेते हो, घर-घर भर देते हो,
उड़ने को नभ में तुम पर-पर कर देते हो।
आँख हटाता हूँ तो हट नहीं रही है।
निराला ने लगभग तीन सौ ऐसी कविताएँ लिखी हैं जो
विशुद्ध गीत हैं। उनमें से कम से कम बीस गीत तो ऐसे
अवश्य हैं जो छायावादी भाषा, शैली और भाव-बोध से भिन्न
स्तर के हैं। ऐसे गीतों को हम सहज ही नवगीत की संज्ञा
दे सकते हैं।
छायावाद-युग में निराला के अतिरिक्त माखनलाल चतुर्वेदी
ही एक ऐसे कवि हैं जिनकी कविताओं में नवगीत के बीज
दिखलाई पड़ते हैं। छायावाद-युग के उत्तरार्द्ध में
व्यक्तिवादी स्वच्छन्दतावादी कवियों में से नरेन्द्र
शर्मा, रामविलास शर्मा, कुंवर चन्द्र प्रकाश सिंह और
केदार नाथ अग्रवाल ने आंचलिक वातावरण से संबंधित गीत
लिखे थे। इन गीतों को भी नवगीत का प्रारम्भिक रूप माना
जा सकता है। छायावादोत्तर युग में प्रयोगवादी कवियों
में से रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के कुछ
गीत नवीन भंगिमाओं और जमीन की सोंधी गंध से युक्त होने
के कारण नवगीत की भूमिका के रूप में स्वीकार किये जा
सकते हैं। किंतु अधिकतर प्रयोगवादी कवियों में
गीतात्मकता का पूर्ण अभाव दिखलाई पड़ता है। इस तरह
नवगीत की धारा का सहज विकास निराला की काव्य-परंपरा से
ही मानना उचित है क्योंकि रामविलास शर्मा, कुंवर
चन्द्रप्रकाश सिंह और गिरिजाकुमार माथुर निराला से
प्रभावित कवि थे। |