दोहे का शिल्प
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राजेन्द्र वर्मा
दोहे
का शाब्दिक अर्थ है- दुहना, अर्थात् शब्दों से भावों
का दुहना। इसे ‘दूहा’ या ‘दोहरा’ भी कहते हैं। छन्द की
दृष्टि से यह विषम मात्रिक छन्द है जो चार चरणों में
विभक्त होता है, पर लिखा प्रायः दो ही पंक्तियों में
जाता है। इसके प्रथम एवं तृतीय चरण में तेरह-तेरह तथा
द्वितीय एवं चतुर्थ चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ
होती हैं। साथ-ही, प्रथम व तृतीय चरणों का अन्त ‘रगण’
(२१२- दीर्घ, लघु, दीर्घ) से होता है, जबकि द्वितीय व
चतुर्थ चरणों का अन्त ‘तगण’ (२२१- दीर्घ, दीर्घ लघु)
अथवा ‘जगण’ या (१२१- लघु, दीर्घ, लघु) से! इसके
अतिरिक्त, दूसरे और चौथे चरण में तुकान्त होता है।
इस संरचना में भावों की प्रतिष्ठा इस प्रकार होती है
कि दोहे के प्रथम व द्वितीय चरण में जिस तथ्य या विचार
को प्रस्तुत किया जाता है, उसे तृतीय व चतुर्थ चरणों
में सोदाहरण (उपमा, उत्प्रेक्षा आदि के साथ) पूर्णता
के बिन्दु पर पहुँचाया जाता है, अथवा उसका विरोधाभास
प्रस्तुत किया जाता है।
दोनों स्थितियों के उदाहरण देखिए-
इक साधे सब साधिया, सब साधे इक जाय।
जैसे सींचे मूल को, फूले-फले अघाय।। -कबीर
xx xx
जहाँ गाँठि, तहँ रस नहीं, यह रहीम जग जोय।
मड़ुये तर की गांठि में, गाँठि-गाँठि रस होय।। -रहीम
दोहे के बारे में स्वयं कवियों ने दोहे कहे हैं। कबीर
ने इसे साखी कहा, जो नवता के आग्रह से जन्मा-
लाया साखि बनाय कर, इत-उत अच्छर काट।
कह कबीर कब तक जियें, जूठी पत्तल चाट।।
तुलसी कहते हैं-
मणिमय दोहा दीप जहँ, उर घट प्रगट प्रकास।
तहँ न मोह तम मय तमी, कलि कज्जली बिलास।।
रहीम के लिहाज से दोहा है-
दीरघ दोहा अरथ को, आखर थोड़े आंहि।
ज्यों रहीम नट कुंडली, सिमटि-कूदि चलि जाँहि।।
आज के दोहाकार, चंद्रसेन विराट ने भी इसे यों परिभाषित
किया है-
ग्यारह सम, तेरह विषम दोहा मात्रा भार।
विषम अन्त में हो रगण, गुरु-लघु सम के पार।।
-चन्द्रसेन विराट
दोहे का मात्रिक अनुशासन
दोहा चूँकि मात्रिक छन्द है, अतः उसमें वार्णिक छन्द
की भांति मात्रा गिराने या बढ़ाने की व्यवस्था नहीं
है, तथापि कुछ दोहाकार ऐसा कर देते हैं। साथ-ही, प्रथम
या तृतीय चरण के अन्त में रगण २१२ के स्थान पर यगण १२२
का प्रयोग कर देते हैं। इससे दोहे का सौन्दर्य तो नष्ट
होता ही है, लय भी भंग होती है। दो उदाहरण देखिए-
विपति भये धन न रहे, रहे जो लाख-करोर।
नभ तारे छिपि जात हैं, ज्यों रहीम भै भोर।। -रहीम
इस दोहे के प्रथम चरण में ‘न’ को दीर्घ तथा द्वितीय
चरण के ‘जो’ को लघु पढ़ने की भी विवशता है।
xx xx
पंखा स्थिर दिखे जब, तेज़ बहुत गति होय।
यों ही चलता काल-रथ, तू जागे या सोय।। -नीरज
इस दोहे के प्रथम चरण में आये शब्द, ‘स्थिर’ में दो के
स्थान पर चार मात्राएँ प्रयुक्त की गयी हैं। ‘स्थिर’
को ‘इसथिर’ पढ़ना पढ़ रहा है। चरणान्त भी ‘यगण’ से हुआ
है।
दोहे की लय-
यों तो दोहे में चार चरण होते हैं, पर दो पंक्तियों
में दो-दो चरण लिखे जाते हैं। पहले और दूसरे चरण की जो
लय होती है, वही प्रायः तीसरे और चौथे चरण की होती है।
कभी-कभी तीसरे और चौथे चरण की मात्रिक व्यवस्था भिन्न
भी होती है।
मात्रिक छंद होने के कारण दोहे की कोई निश्चित वर्ण
व्यवस्था नहीं तय की जा सकती है, तथापि परन्तु दोहे की
लय हेतु यह आवश्यक है कि पहले और तीसरे चरण की समाप्ति
लघु-दीर्घ से तथा दूसरे और चौथे चरण का अंत दीर्घ-लघु
से होना चाहिए। साथ-ही, निम्नलिखित मात्रिक व्यवस्थाएँ
दोहे की लय समझने में सहायक हैं।
१- पहले-तीसरे और दूसरे-चौथे चरणों की एक-सी मात्रिक
व्यवस्था:
२२ २२ २ १२ / २२ २२ २१
गंगा मैली हो गयी/ धोते-धोते मैल।
२२ ११ २२ १२ / २११ २ २ २१
रेती पर प्यासा खड़ा/ शंकरजी का बैल।।
(यहाँ ‘पर’ में दो लघु हैं, जिन्हें एक दीर्घ तथा
‘शंकर’ में २११ के स्थान पर २२ माना गया है)
हिंदी छंद विधान के अनुसार, उपर्युक्त दोहे के प्रथम
चरण में जो गण प्रयुक्त हुए हैं, वे हैं- मगण, तगण व
एक दीर्घ मात्रा तथा दूसरे चरण में ‘मगण व तगण
प्रयुक्त हुए हैं। तीसरे चरण के गण हैं- तगण, यगण व
लघु-दीर्घ, जबकि चौथे चरण के गण हैं- भगण, मगण व
दीर्घ-लघु।
उर्दू अरूज़ के लिहाज से पहले चरण के अरकान हैं-
‘फेलुन-फेलुन-फाइलुन’ और दूसरे के हैं- ‘फेलुन-फेलुन
फात’। उर्दू में चूँकि दो लघु मात्राओं को एक दीर्घ
मानने की परंपरा बहुत पुरानी है, इसलिए तीसरे और चौथे
चरणों के अरकान वही माने जायेंगे, जो पहले और दूसरे
चरणों के हैं।
हिंदी के ‘रगण’ और ‘तगण’ उर्दू के क्रमश- ‘फाइलुन’ और
‘फ़इलात’ हैं।
२- पहले-तीसरे और दूसरे-चौथे चरणों की भिन्न मात्रिक
व्यवस्था-
२ २ २२ २१२, २१ १२ २ २१
जो मैं ऐसा जानती, पीत किये दुख होय।
१२ १२२ २१२ २१ १ २२ २१
नगर ढिंढोरा पीटती, पीत न करियो कोय।।
यहाँ पीत का ‘त’ और किये का ‘कि’ लघु हैं, जिन्हें
मिलाकर दीर्घ माना गया है। (आगे के उदाहरणों में भी दो
लघु को एक दीर्घ माना गया है) इस प्रकार, इस दोहे का
पहला और दूसरा चरण, ’फेलुन-फेलुन-फाइलुन’ और
‘फेलुन-फेलुन फात’ पर आधारित माना जायेगा, जबकि तीसरा
और चौथा चरण, ‘मफ़ाइलातुन फ़ाइलुन/फेलुन फेलुन फ़ात’ पर।
यहाँ यह जान लेना ज़रूरी है कि दोहे के पहले और तीसरे
चरण की शुरुआत ‘जगण’ या ‘मफ़ात’ (१२१) से नहीं होनी
चाहिए। हालाँकि उक्त दोहे के तीसरे चरण की शुरुआत जगण
से होती दिख रही है, किंतु ऐसा है नहीं। जगण तब माना
जाता, जब प्रारम्भिक शब्द जगण पर ही समाप्त हो जाता।
यहाँ ‘नगर’ और ढिंढोरा के ‘ढिं’ से मिलकर ‘जगण’ बन रहा
है। इसलिए यह स्थिति मान्य है।
इससे मिलती-जुलती लय-व्यवस्था का महाकवि तुलसी का एक
दोहा देखिए (रामचरितमानस का पहला दोहा) जिसका पहला और
तीसरा चरण क्रमशः ‘मफ़ाइलातुन फ़ाइलुन, फ़ेलुन मुतफ़इलात’
और ‘फ़ेलुन-फ़ेलुन फ़ाइलुन, पर आधारित हैं, जबकि उसके
दूसरे और चौथे चरण, ‘फ़ेलुन मुतफ़इलात’ पर:
१२ १२२ २१ २ / २२ २१ १२१
जथा सुअंजन अंजि दृग, साधक सिद्ध सुजान।
२२ २२ २१ २ / २२ २१ १२१
कौतुक देखत सैल बन, भूतल भूरि निधान।
उर्दू के मुकाबले हिंदी की गण-व्यवस्था अधिक जटिल है,
इसलिए पाठकों की आसानी के लिए आगे के उदाहरणों में
केवल उर्दू के अरकानों का संकेत किया गया है।
३- निम्नलिखित दोहे का पहला चरण ‘यगण’ (१२२) से समाप्त
हो रहा है जिससे लय भंग हो रही है, यद्यपि बिहारी के
इस दोहे को पढ़-सुन हम सब बड़े हुए हैं और कहा जाता है
कि इस दोहे ने राजा जय सिंह की आँखें खोल दी थीं।
२ १२ १२१२२ २१२१ २२१
(फ़ाइलुन मफ़ाइलातुन / फ़ाइलात फइलात)
नहिं पराग, नहिं मधुर मधु, नहिं विकास यहि काल।
१२ १२ २ २१२ / २२२ १ १२१
(मफ़ाइलातुन फाइलुन फ़इलातुन फइलात)
अली-कली ही सो बन्ध्यो, आगे कौनु हवाल।।
दोहे के प्रथम चरण के अंत में ‘रगण’ या ‘फाइलुन’ लाने
के लिए, इसे यदि ‘मधु मधुर’ को आगे-पीछे कर दिया जाए,
तो लयभंग का दोष तो समाप्त हो जाएगा, पर दोहे का
सौन्दर्य प्रभावित होगा। इस स्थिति को आचार्यों ने
‘काव्य-दोष’ के उपरांत भी उसी प्रकार स्वीकार किया है
जैसे किसी गौर वर्ण सुन्दरी के गाल का तिल स्वीकार्य
होता है।
४- उपर्युक्त दोष प्रायः देखने को मिलता है, जैसे:-
रामराज अभिषेक सुन, हिय हरषे नर-नारि।
लगे सुमंगल सजन सब, बिधि अनुकूल विचारि।। - तुलसी
१२२
जैसी परे सो सहि रहे, कहि रहीम यह देह।
धरती ही पर परत है, सीत घाम औ मेह। - रहीम
१२२
कहने का आशय यह कि दोहे के प्रथम व तृतीय चरणों का
अन्त ‘रगण’ या ‘फाइलुन’ (२१२- दीर्घ, लघु, दीर्घ) से
होना चाहिए और द्वितीय व चतुर्थ चरणों का अन्त ‘तगण’
या ‘फइलात’ (२२१- दीर्घ, दीर्घ लघु) अथवा ‘जगण’ या
‘मफात’ (१२१- लघु, दीर्घ, लघु) से, अन्यथा लयभंग की
स्थिति उत्पन्न हो जाएगी।
५- निम्नलिखित दोहों की शब्द-योजना देखने से ज्ञात हो
जाएगा कि उसकी लय में त्रुटि कहाँ है:
मूल:
धन-दौलत चाहूँ नहीं, नहीं चाहूँ दहेज।
बाबुल तेरा आसरा, यादें ली हैं सहेज॥
संशोधित:
धन दौलत चाहूँ नहीं, चाहूँ नहीं दहेज।
बाबुल तेरा आसरा, यादें रखीं सहेज॥
एक और उदाहरण लेते हैं-
मूल-
धरा का बेटा है दुखी, देख गगन का खेल।
आए दिन ओले गिरें, बारिश रेलमपेल।
संशोधित:
धरती का बेटा दुखी, देख गगन का खेल।
आये दिन ओले गिरें, बारिश रेलमपेल।
मात्रिक अनुशासन-
दोहा प्रारंभ (६९० ई०) से १३-११ मात्राओं का रहा है,
जब दोहे के आदि कवि सरह ने १३-११ में दोहे कहे थे,
परन्तु तुलसीकृत ‘रामचरित मानस’ में १२-११ के चरण वाले
अनेक दोहे देखे जा सकते हैं। मात्रिक अनुशासन भंग होने
के कारण इन दोहों मे लयभंग है, पर भक्ति-भावना के कारण
विद्वान इस विषय में चुप्पी साधे रहते हैं। निम्नलिखित
दो दोहों से मेरा आशय स्पष्ट हो जाता है:
हनूमान तेहि परसा, कर पुनि कीन्ह प्रणाम।
राम काजु किन्हें बिनु, मोहि कहाँ बिश्राम। (सुंदरकांड
का पहला दोहा)
(इस दोहे के पहले चरण में १२ मात्राएँ हैं। परिणामतः
‘परसा’ को अनावश्यक रूप से खींचकर चरण को लयबद्ध करना
पड़ता है। )
* *
कामिहि नारि पियारि जिमि, लोभिह प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर, प्रिय लागहु मोहि राम। (मानस का
अंतिम दोहा)
(इसके तीसरे चरण में १२ मात्राएँ हैं। परिणामतः
‘निरंतर’ को अनावश्यक रूप से खींचना पड़ता है। )
मात्रिक अनुशासन भंग होने की स्थिति के आलावा,
मात्राएँ कम या अधिक करने की भी स्थितियां दिखायी पड़ती
हैं, यथा ये दोहे:
माटी कहे कुम्हार ते, तू क्यों रौंदे मोय।
एक दिन ऐसा आएगा, मैं रौंदूंगी तोय। - कबीर
(इस दोहे के तीसरे चरण के शब्द, ‘एक’ में तीन मात्राएँ
(२१) हैं, जबकि आवश्यकता दो मात्राओं की है। फलतः ‘एक’
को ‘एक्’ पढना पड़ रहा है। इसी प्रकार, आगे प्रयुक्त
‘आयेगा’ (आएगा भी) में छः (२२२) मात्राएँ हैं, जबकि
पाँच (२१२) मात्राओं की आवश्यकता है। अतः इसे ‘आयगा’
पढना पड़ रहा है।
मुखिया मुखु सो चाहिए, खान पान कहुँ एक।
पालै-पोसै सकल अंग तुलसी सहित बिबेक॥ - तुलसी
(यहाँ ‘अंग’ को ‘अँग’ पढना पड़ रहा है, जबकि ‘अँग’ कोई
शब्द नहीं होता। चरणान्त में ‘यगण’ की उपस्थिति से
लयभंग भी हो रहा है। )
रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरो चटकाय।
टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय। - रहीम
(यहाँ एकमात्रिक, ‘न’ को ‘ना‘ कहकर उसे दो मात्राओं
वाला बना दिया गया हैं। यह भी उचित नहीं!)
मात्रिक गणना में लघु-दीर्घ पर
विचार-
-
१- लघु स्वर
लघु स्वर- अ, इ, उ, ऋ; अकारांत, इकारांत, व
उकारांत वाले व्यंजन तथा संयुक्ताक्षर- क्ष, त्र,
श्र, शृ, सभी लघु
होते हैं। जहाँ तक मेरी जानकारी है, ‘ज्ञ’ से केवल
एक शब्द लघु से बनता है- ‘ज्ञपित’, शेष दीर्घ से
ही बनते हैं, जैसे- ज्ञान, ज्ञेय, ज्ञापित आदि।
-
२- दीर्घ स्वर
दीर्घ स्वर- आ, ई, ऊ, ए, ऐ, ओ, औ, अं और अ:
अनिवार्यतः दीर्घ हैं और जब ये स्वर किसी व्यंजन
में जुड़ते
हैं, तो वह दीर्घ हो जाता है, जैसे- आम, ईश, एक,
ऐब, ओम, अंग (सभी २१), क्रमशः (२२) आदि।
-
३- लघु के साथ अर्ध व्यंजन का जुड़ना-
जब किसी लघु स्वर अथवा व्यंजन के साथ कोई अर्ध
व्यंजन जुड़ता है, तो वह दीर्घ हो जाता है। जैसे-
अंश,
अर्थ, अर्घ्य, अस्तु, इंद्र, उष्ट्र, ऋद्धि, कष्ट,
चन्द्र, ठण्ड, तंत्र, तत्व, पम्प, पुष्प, यत्र,
रंग, लट्ठ, वृन्द, दृष्टि, शस्ति, षष्टि, सुस्त,
हस्त, क्षुद्र, (सभी २१), अन्दर, इन्द्रिय, चंचल,
उत्सव, सर्जन (२२) समस्त, समुद्र, उमंग, उत्तुंग
(१२१) आदि।
-
४- दीर्घ के साथ अर्ध व्यंजन का जुड़ना:
जब किसी दीर्घ स्वर अथवा व्यंजन के साथ कोई अर्ध
व्यंजन जुड़ता है, तो उसकी गणना नहीं होती है,
जैसे-
आर्य, ऐक्य, ओष्ठ, कान्त, काश्त, काव्य, ग्रीष्म,
चाँद, ठांव, दोस्त, धैर्य, पांच, भीष्म, वास्तु,
साम्य, सूक्ष्म, (सभी २१) आत्मा, आस्था, ईर्ष्या,
ईश्वर, ऐष्णा, कान्ता, भार्या, सार्थक हार्दिक
(सभी २२), ऐश्वर्य, कौन्तेय, आग्नेय, कौशल्य,
पार्थक्य, पाश्चात्य (२२१), प्रार्थना, सांत्वना
(२१२), सांसारिक, श्रांगारिक, हार्दिकता (२२२),
आर्यावर्त (२२२१) आदि।
-
५- किसी व्यंजन से पहले अर्ध व्यंजन का जुड़ना:
जब किसी लघु या दीर्घ व्यंजन से पूर्व ही कोई अर्ध
व्यंजन जुड़ता है, तो उसकी गणना नहीं होती है,
जैसे-
ज्वर, त्वम्, द्वंद्व, ध्वज, ध्वनि, व्यय, श्लथ,
श्रम, क्रम, ग्रह, गृह, पृथु, भृगु, मृत, मृदु,
स्तर, स्थल, स्वर, स्मृति (सभी २), च्यवन, क्षमा,
क्षुधा, क्षुधित, त्वरा, त्वरित, क्रमिक, ग्रहण,
प्रवर, सृजन, ह्रदय, व्यसन, स्वगत, स्मरण, (१२)
क्लांत, क्लेश, ख्याति, ग्वाल, ज्ञान, द्वार,
द्वेष, ब्याह, म्यान, व्यास, श्लेष, श्याम, स्कूल,
स्पष्ट, स्पर्श, स्वेद, स्यात (२१), प्लावन,
प्लावित, स्वागत, (२२) व्यवसाय, स्वीकार, (२२१)
आदि।
दोहों में मात्रिक दोष-
उपर्युक्त के आलोक में यदि हम निम्नलिखित दोहों को
देखें, तो पाएंगे कि उनमें प्रयुक्त शब्दों- ‘धुंधला’,
‘भार्या’ और ‘मात्रा’ (२२) को क्रमशः ‘धुन्धला’,
‘भारया’ और ‘मातरा’ (२१२) पढना पड़ रहा है। यह न केवल
रस भंग करता है, बल्कि हास्यास्पद भी है:
वक़्त हुआ ज्यों धुंधला, बदले सब हालात।
पर साथी, दिल में रही, तेरी हर इक बात!
**
माता, भार्या अरु सुता, तीनों ही हैं नार।
इन सब का सम्मान कर, हो भव सागर पार।।
**
छप्पय, रोला, गीतिका, दोहा छंद-विधान।
तुक, लय, यति, गति, मात्रा, जाने चतुर सुजान।
भाषा की त्रुटियाँ-
कभी-कभी मात्रिक अनुशासन होने के उपरांत भी, दोहे की
भाषा ऐसी होती है जो काव्य-सौन्दर्य नष्ट कर देती है।
भाषा में कर्ता, सर्वनाम तथा क्रिया- तीनों से
सम्बंधित त्रुटियाँ न केवल दोहे, बल्कि काव्य की अन्य
विधाओं में भी देखी जाती हैं। दोहों में भाषिक
त्रुटियों के कुछ उदाहरण देखिए:
१- उपर्युक्त बीच वाले दोहे में ‘अरु’ का प्रयोग खटकता
है। इसके बदले औ’से काम चलाया जा सकता है,
क्योंकि औ’ खड़ी बोली के अंतर्गत आता है और ‘अरु’ अवधी
है। ‘नारि’ को ‘नार’ कहना-लिखना भी अच्छा नहीं कहा जा
सकता।
२- केवट देखे राम को, दोनों नयन पसार
सबके तारणहार ये, आए मेरे द्वार॥
इस दोहे में नयनों का पसारा जाना स्वाभाविक क्रिया
नहीं है। नयन फैलते-सिकुड़ते हैं, न कि हाथ-पैरों की
भाँति फैलते-सिकुड़ते हैं। अतः भाषा की दृष्टि से दोहा
त्रुटिपूर्ण है।
३- लिखो किसी भी शिल्प में, मोटा लिखो महीन,
कलम चले कुछ इस तरह, पीड़ित करे यकीन।
इस दोहे के पहले और दूसरे चरण में अनुपस्थित कर्ता-
तुम, का प्रयोग किया गया है, जबकि तीसरे चरण में
प्रयुक्त ‘चले कुछ’ कर्मवाची क्रिया है। यह भाषा का
दोष है। इन्हें यदि ‘चलाओ’ कर दिया जाए, तो तीनों
चरणों में (तुमको संबोधित) उद्बोधन की उपस्थिति हो
जाएगी और दोहा दोषमुक्त हो जाएगा।
४- आखर आखर पाँखुरी, मन की भाषा फूल।
तोहफा नूतन वर्ष का ,करिये आप क़ुबूल।।
इस दोहे में पंखुड़ी और फूल की उपमा अक्षर और भाषा से
की गयी है, जो स्वाभाविक रूप से अमान्य है। फूल की
निर्मिति ही पंखुड़ियों से होती है। इसलिए यदि पंखुड़ी
अक्षर है, तो फूल शब्द होगा। तो, दूसरा चरण होना
चाहिए- शब्द-शब्द हैं फूल! तीसरे और चौथे चरण पर विचार
करें, तो पाएँगे कि उनका कथ्य तो ठीक है, पर उनकी भाषा
में घालमेल है। पूरे दोहे की भाषा विशुद्ध तत्सम है,
जबकि ‘तोहफा’ और ‘क़ुबूल’ ठेठ उर्दू है। ऐसी स्थिति
सराहनीय नहीं कही जा सकती।
कथ्य का औचित्य-
कभी-कभी दोहे के विभिन्न चरणों का कथ्य आपस में नहीं
जुड़ता, यद्यपि उसके सभी चरण अच्छे लगते हैं। उदाहरण के
लिए निम्नलिखित दोहों का अवलोकन कीजिए:
५- एक तुम्हारे रूप में, बसते चारों धाम।
तुम्हीं बनारस की सुबह, तुम्हीं अवध की शाम॥
प्रथमदृष्टया यह दोहा अपने आकर्षण में बाँध लेता है,
पर यदि हम ध्यानपूर्वक इस पर विचार करें, तो पाएँगे कि
कवि दोहे के पहले व दूसरे चरणों में प्रेमी या
प्रेमिका के रूप का बखान कर रहा है- वह उसमें चारों
धाम देख रहा है। भारतीय संस्कृति, विशेषतः हिन्दू
धर्म, में चार धाम का विशेष महत्व है। इनके दर्शन की
अभिलाषा पूरी होने पर आस्थावान को जैसे अपने इष्ट से
भेंट हो जाती है और फिर उसे सांसारिकता से कोई लगाव
नहीं रह जाता!। । । । जब किसी को किसी में चारों धाम
बसे हुए दिखायी देते हैं, तो उसकी प्रतिक्रिया कुछ इस
प्रकार की होनी चाहिए कि अब उसे किसी भी ईशस्थल पर
जाने की आवश्यकता नहीं! अलौकिक संसार से बाहर निकल वह
फिर बनारस की सुहानी (आस्थामयी भी) भोर अथवा अवध की
रंगीन शाम की बातें क्यों करेगा?
दोहे के कथ्य का दूसरा पहलू यह भी है कि दोहे के सभी
चरण प्रेमी या प्रेमिका के रूप का ही वर्णन कर रहे
हैं। दोहे का सामान्य नियम है कि पहले और दूसरे चरण
में जो बात उठायी गयी है, अगले चरणों में वह तीव्रता
के साथ समाप्त हो, पर यहाँ अतिरिक्त (सामान्य) उपमा से
कर बात को समाप्त कर दिया गया है। यहाँ कुछ ऐसा कथ्य
आना चहिए था कि, फिर मैं अमुक-अमुक धाम पर क्यों जाऊँ?
इसके अतिरिक्त, यह भी विकल्प हो सकता था कि, अब मुझसे
उन स्थानों से भी क्या काम जो चारों धामों से बढ़कर
हैं- जैसे स्वर्गलोक, परमधाम आदि। इस प्रकार, इस दोहे
में कथ्य के औचित्य का दोष है।
दोहे की तुकांत योजना-
दोहे के दूसरे चरण का अंत जिस शब्द के साथ होता है, उस
शब्द का तुकांत चौथे चरण के अंत में आता है। कभी-कभी
संयुक्ताक्षर अथवा अनुस्वार वाले शब्दों में तुक नहीं
मिलता, जिससे दोहे में तुकांत-दोष उत्पन्न हो जाता है।
निम्नलिखित दोहों से स्थिति स्पष्ट हो जायेगी-
वाणी के सौन्दर्य का, शब्द रूप है काव्य।
किसी व्यक्ति के लिए है, कवि होना सौभाग्य।
यहाँ ‘काव्य’ का तुक ‘सौभाग्य’ से मिलाया गया है जो
ग़लत है। इसका तुकांत ‘संभाव्य’ या अन्य कोई शब्द,
जिसका अंत ‘आव्य’ से होता हो, हो सकता है।
पौधे रोपे थे कभी, बढ बन गये दरख़्त।
अब वे फलते भी नहीं, माली चिन्ताग्रस्त।।
इस दोहे में ‘दरख़्त’ के तुकांत ‘तख़्त, सख्त,’ जैसा कोई
शब्द आना चाहिए था।
जब भी मन की पीर हो, वाणी से आबद्ध,
तभी प्रकट निज भाव हों, कविता हो लयबद्ध।
यहाँ तुकांत ही गायब है। ‘आबद्ध’ के तुकांत ‘लयबद्ध’
कैसे हो सकता है? ‘बद्ध’ (‘आबद्ध’ भी) का अर्थ है-
बाँध हुआ। ‘। । । सा बद्ध’ के अतिरिक्त इसका तुकांत
मुश्किल है। जब ऐसी स्थिति उत्पन्न हो जाए, तो मूल
शब्द ही बदल देना चाहिए।
पिता बराबर जो करे, सोइ कहावे पूत।
कम करे तो कपूत है, अधिका करे सपूत।
यहाँ भी तुकांत गायब है। पूत के तुकांत हैं- अकूत,
मजबूत, सुबूत, प्रसूत, आदि। हाँ, यदि ऊपर ‘कपूत’ होता,
तो ‘सपूत’ तुकांत चल जाता।
अपने मुँह से क्यों करे, अपनी ही तारीफ़।
औरन को ही करन दे, कितना कौन शरीफ़।
इस दोहे में ‘तारीफ़’ का तुकांत ‘शरीफ़’ से भिड़ाया गया
है, जो ग़लत है। इसका तुकांत ऐसे शब्द से होना चाहिए
जिसका प्रारंभ ‘आ’ अथवा किसी दीर्घ व्यंजन के साथ
‘रीफ़’ जुड़े शब्द से होना चाहिए, जैसे- कारीफ, चारीफ,
शारीफ़, पर ऐसा शब्द मिलना असंभव-सा है। इसलिए दोहे का
दूसरा चरणांत ही बदल देना चाहिए।
भरा हवाओं में जहर, पानी बोतलबंद
रक्षा पर्यावरण की, और विकास का द्वंद
इस दोहे में ‘बंद’ का तुकांत ‘द्वन्द’ है। वास्तव में,
‘द्वन्द’ कोई शब्द नहीं होता, शब्द है- द्वंद्व। कवि
को ‘बंद’ के तुकांत- ‘चंद, छंद, मंद, पसंद, में से
किसी शब्द का भावानुरूप प्रयोग करना चाहिए। यह इसलिए
भी श्रेयस्कर है कि दोहे का तीसरा और चौथा चरण मिलकर
भी कोई अच्छा भाव नहीं प्रस्तुत कर पा रहे हैं।
बच्चा रोये तो मिले, आँचल-ममता-दूध।
हुआ न्याय का हनन तो, प्रस्तावित है युद्ध।
यहाँ दूध का तुकांत ‘युद्ध’ किया गया है। यह
त्रुटिपूर्ण है। यहाँ ऐसा शब्द आना चाहिए जिसका
उच्चारण ‘ऊध’ हो। ऐसा शब्द मिलना आसान नहीं, इसलिए
दोहे का दूसरा चरणांत ही बदल देना चाहिए। यहाँ भी
‘प्रस्तावित है युद्ध’ वाक्यांश बहुत अच्छी व्यंजना
नहीं दे रहा है।
भले बुरे सब लोग तो, करते बातें नेक ।
आत्मसात इक ना करे, दुनिया को लो देख।।
‘नेक’ का तुकांत ‘देख’ से करना समझौते वाली स्थिति है।
यह तभी स्वीकार्य होनी चाहिए जब वर्ण विशेष पर समाप्त
होने वाले शब्द का तुकांत न मिले। उस अवस्था में,
सम्बंधित वर्ण के वर्ग के समीपवर्ती व्यंजन पर अंत
होने वाले शब्द का चयन कर लेना चाहिए। ऐसी स्थिति
‘टवर्ग’ के शब्दों से उत्पन्न हो जाती है। पर, यहाँ तो
ऐसी स्थिति नहीं। ‘नेक’ के आसान तुकांत हैं- एक, छेक,
प्रत्येक, हरेक आदि। तनिक परिश्रम से दोहे को दोषमुक्त
किया जा सकता है—‘आत्मसात करता नहीं, दुनिया में हर
एक। ’
काट रहे उस शाख को, जिसपे बैठे आप ।
कन्या को क्यों कोख में, कर देते हैं साफ़?
यहाँ ‘आप’ का तुकांत ‘साफ़’ से भिड़ाया गया है, जबकि
शब्दांत वर्ण बदलने की विवशता भी नहीं है। ‘आप’ के
तुकांत के रूप में, ‘खाप, ताप, संताप, प्रलाप, आलाप
पाप, बाप’ आदि अनेक शब्द विद्यमान हैं।
वहाँ धूप शीतल लगे, अच्छा जहाँ पड़ोस।
नित विवेक कृत कर्म से, मन में हो संतोष।
इस दोहे में ‘पड़ोस’ का तुकांत ‘संतोष’ है। दंती ‘स’ का
उच्चारण तालू से उच्चरित ‘ष’ से एकदम भिन्न है। अतः यह
दोषपूर्ण है। चूँकि दोहे का भाव पक्ष अच्छा है, इसलिए
इसका आसान-सा उपाय यह है कि ‘संतोष’ को ‘संतोस’ लिख
दिया जाए। इससे तुकांत-दोष तो समाप्त हो जायेगा, लेकिन
तत्सम-तद्भव में खिंच जाएगी, तथापि वर्तमान स्थिति से
यह ठीक ही रहेगा। दूसरा मार्ग यह है कि ‘पड़ोस’ का
तुकांत- ओस, ठोस जैसे शब्दों को भाव बदल कर भिड़ाया
जाए।
बिना पात्रता के नहीं, फलता है आशीष।
अमिय-पान के बाद भी, कटा राहु का शीश।
यहाँ ‘आशीष’ और ‘शीश’ में उच्चारण-साम्य नहीं है, अतः
तुकांत दोषपूर्ण है।
गली-गली उड़ने लगा, रंग-अबीर-गुलाल।
ममता का पानी मिला, घुलने लगा मलाल।
इस दोहे में उकारांत शब्द का तुक अकारांत से मिलाया
गया है जो अच्छा नहीं कहा जा सकता। इसका सीधा-सा कारण
है कि तुकांत में तुक तो मिला ही नहीं। एक शब्द ‘अ’ से
शुरू होता है, तो दूसरा- ‘उ’ से। इसी प्रकार,
तुकान्तों में ‘इकारांत’ की त्रुटियाँ भी देखने को
मिलती हैं।
दूध पिलाये हाथ जो, डसे उसे भी साँप।
दुष्ट न त्यागे दुष्टता, कुछ भी कर लें आप।
इस दोहे में ‘साँप’ का तुकांत ‘आप’ से किया गया है जो
ग़लत है। क्योंकि एक में अनुस्वार है और दूसरे में नहीं
है। इस प्रकार के अन्य दोषपूर्ण तुकांत प्रायः देखने
को मिलते हैं, जैसे- नाव/गाँव, साध/बाँध, श्राप/काँप
आदि।
उपर्युक्त कतिपय तुकांत-दोष के उदाहरणों का अतिरिक्त,
कुछ दोहाकार अभी भी देशज शब्दों वाले तुकांत, जैसे-
आय/खाय/पाय/जाय, होय/सोय/खोय/मोय आदि में अटके हुए हैं
और ऐसे तुकांत तत्सम शब्दावली वाले दोहों में लगा रहे
हैं, जबकि भारतेंदु हरिश्चंद (१८५०-१८८५) के यहाँ भी
खडी बोली के दोहे पाये जाते हैं।
दोहे की लोकप्रियता-
दोहे की लोकप्रियता दो कारणों से हैं- एक, इसकी
भाषा-शक्ति, दूसरे इसका वर्ण्य-विषय। जहाँ तक इसकी
भाषा-शक्ति का प्रश्न है, प्रारम्भ में यह सन्त
प्रकृति का था, क्योंकि इसमें व्यक्त भाव अधिकांशतः
आध्यात्मिक, नैतिक और उपदेशात्मक हुआ करते थे और इसकी
भाषा बोल-चाल की हुआ करती थी, परन्तु आज आज दोहे में
उर्दू, फ़ारसी, पुर्तगाली, अंग्रेजी आदि भाषाओं के
शब्द इसकी व्यंजना शक्ति को विस्तार दे रहे हैं।
संक्षिप्तता, स्पष्टता, सरलता, संप्रेषणीयता तथा
गेयता- दोहे के गुण हैं। इन्हीं गुणों के कारण यह
लोकप्रिय तथा उद्धरणीय है। संप्रेषणीयता और उद्धरणीयता
एक-दूसरे से गहरे जुड़ी हैं- क्योंकि कोई बात जब आसानी
से समझ में आ जाती है, तो वह उद्धृत भी की जाती है।
दोहा अथवा कविता के किसी भी फॉर्म के साथ यह बात लागू
होती है, जैसे- ग़ज़ल का कोई शेर!
वर्ण्य विषय की दृष्टि से दोहे का फलक बहुत विस्तृत
है। यह यद्यपि नीति, अध्यात्म, प्रेम, लोक-व्यवहार,
युगबोध- सभी स्फुट विषयों के साथ-साथ कथात्मक
अभिव्यक्ति भी देता आया है, तथापि मुक्तक काव्य के रूप
में ही अधिक प्रचलित और प्रसिद्ध रहा है। अपने छोटे से
कलेवर में यह बड़ी-से-बड़ी बात न केवल समेटता है,
बल्कि उसमें कुछ नीतिगत तत्व भी भरता है। तभी तो इसे
गागर में सागर भरने वाला बताया गया है। |