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रचना प्रसंग

 

समकालीन हिंदी गीत के पचास वर्ष
- नचिकेता


केदारनाथ सिंह की दृष्टि में गीत कविता का एक अत्यंत निजी स्वर है, जिसमें कवि सारे बाह्य अवरोधों और उसकी असंख्य तहों को भेदकर सीधे अपने-आप से बात करता है। यह एक अर्धसत्य है, क्योंकि गीत कविता का एक अत्यंत निजी स्वर ही नहीं है, बल्कि कविता का आद्य रूप है। केदारजी की एक नायाब निष्पत्ति यह भी है कि सब कुछ कह लेने के बाद कवि के मन में जो एक भाषातीत गूँज बच जाती है, गीत की शुरूआत ठीक वहीं से होती है और उसकी सफलता इसीमें है कि उस ‘भाषातीत गूँज’ को भाषा के संपर्क से कम-से-कम विकृत या दूषित किया जाय। अर्थात् गीत भावों का सहज उच्छलन नहीं है और गीत की रचना भाषा के माध्यम से नहीं होती है। यह भाषा के संपर्क से दूषित या विकृत को जाता है। यानी गीत की रचना अर्थपूर्ण शब्दों से नहीं, सिर्फ भाषातीत गूँज,ध्वनियों के द्वारा होती है और इसका जन्म स्वतःस्फूर्त ढंग से भी नहीं होता है, क्योंकि यह तो कविता में सब कुछ कह लेने के बाद अवशिष्ट, जूठन के रूप में बची ‘भाषातीत गूँज’ के गर्भ से उत्पन्न होता है। गीत की यह समझ और व्याख्या अद्भुत है।  

गीत को हेय और कविता को गीत से श्रेष्ठ और आदिम मानने का नतीजा है यह, जो तर्कसंगत और वैज्ञानिक नहीं है। कविता के आदिम स्रोतों की श्रमसाध्य खोज-बीन करते हुए पाश्चात्य विद्वानों, खासकर क्रिस्टोफर काडवेल, जार्ज थामसन, अर्न्स्ट फिशर आदि इस निष्कर्ष पर पहुँचने में कामयाब हुए हैं कि कविता का उद्भव आदिम वर्ग-विभेद-रहित समाज में सामूहिक श्रम-प्रक्रिया के दौरान समूह गीतों के रूप में हुआ है और इन समूह गीतों में समाज के सामूहिक संवेग को ही अभिव्यक्ति मिली है। चूँकि तब तक श्रम का विभाजन नहीं हुआ था, मनुष्य अपना सारा काम समूह में ही किया करता था, इसलिए तब सामूहिक संवेग की ही उत्पत्ति संभव थी और ये समूह गीत नृत्य, संगीत एवं अन्य धार्मिक क्रिया-कलापों से समन्वित होकर आदिम मनुष्यों की बुनियादी वृत्तियों को सामूहिक श्रम के लिए संघटित करते और उसे क्रियाशील करने के निमित्त उत्प्रेरित करते थे। उस काल में गीत-रचना का एक मात्र अभीष्ट श्रम-प्रक्रिया में श्रम-शक्ति के ह्रास से उत्पन्न तनाव या थकान का परिहार करने और सामूहिक श्रम-शक्ति को संगठित करके श्रम करने की नयी ऊर्जा पैदा करने तथा श्रम-शक्ति को अधिक क्रियाशील करने में संनिहित था।

तत्कालीन मनुष्यों के सभी प्रकार के सुख-दुख, हर्ष-उल्लास, आनंद-उत्साह, उमंग आदि की अभिव्यक्ति का एक मात्रा माध्यम ये समूह गीत ही थे। काडवेल कहते हैं कि आदिम जन गोड़ाई, मड़ाई, जुताई,कटाई और ढुलाई जैसे सामूहिक काम एक लयबद्ध गायन के साथ करते हैं। इन गीतों की कलात्मक अंतर्वस्तु कार्य-भार की आवश्यकता से जुड़ी होती है और उस कार्यभार के पीछे छिपे सामूहिक आवेग को व्यक्त करती है। काडवेल आगे कहते हैं कि सामूहिक रूप से जनित आवेग एकांत में भी इस तरह बने रहते हैं कि एक व्यक्ति अकेले कोई गाना, गीत गाते हुए भी यह महसूस करता है कि उसके आवेग सामूहिक बिंबों से प्रेरित हैं। निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि गीत संपूर्ण मानवीय संवेदना के सर्वोत्तम निचोड़ की सार्थक और संगीतात्मक अभिव्यक्ति है।

गीत जब व्यक्तिपरक उद्गार बन जाता है तब भी वह समाज के सामूहिक संवेग का ही प्रतिनिधित्व करता है, इसलिए गीत की पुकार का मर्म वही समझ सकता है जो उसकी आत्मपरकता में अंतर्निहित मानवीयता की आवाज सुन पाता है।, थियोडोर अडोर्नो दुहराने की जरूरत नहीं है कि तब तक निजी पूँजी का उदय और समाज में वर्ग-विभाजन का आरंभ नहीं हुआ था। इसलिए समूह गीतों के रूप में कविता का उदय होना बिलकुल स्वाभाविक घटना थी। इन समूह गीतों या आद्य कविता के अलावा कला-साहित्य के अन्य रूपों का आविष्कार तब तक नहीं हुआ था। अपने स्वाभाविक विकास-क्रम में समाज में निजी पूँजी का उदय तथा श्रम-विभाजन का आरंभ संभव हुआ। फलस्वरूप सामूहिक संवेग भी विभाजित हो गया, जिसकी वजह से आदिम कविता यानी समूह गीतों का सामूहिक स्वरूप भी विभाजित अैर विघटित हो गया।

जैसे-जैसे श्रम-विभाजन की प्रक्रिया तेज और जटिल होती गयी, वर्ग-व्यवस्था कठोर और संश्लिष्ट होती गयी, वैसे-वैसे आदिम कविता या समूह गीत भी गीत और कविता नामक दो प्रभागों में बँट गया और आत्मपरक गीत कविता के व्यापक परिसर का एक अनिवार्य अंग हो गया। कविता कहने का अभिप्राय आज की सामान्य अर्थ वाली विवरणात्मक और विचारधारात्मक कविता और गीत या नवगीत का समन्वित रूप ही था एवं कविता का यही रूप आधुनिक काल में भी प्रगतिवाद के दौर तक कविता का पर्याय था। कविता और गीत दो अलग-अलग विधा के रूप में, आजादी के बाद यानी नयी कविता के दौर में विभाजित हुए।

जैसे-जैसे समाज पर पूँजी का वर्चस्व बढ़ता गया, श्रम-विभाजन और वर्ग-विभाजन की प्रक्रिया तेज और जटिल होती गयी, गीत का सामूहिक स्वर भी वैयक्तिक आत्माभिव्यक्ति के रूप में तब्दील होता गया। मध्य काल से छायावाद काल तक गीत को निजी आत्मानुभूति का अभिव्यक्ति-माध्यम ही माना गया। भगवतशरण उपाध्याय के विचार से गीतकाव्य की साधारण परिभाषा के अनुसार, गीत कविता की वह विधा है जिसमें स्वानुभूतिप्रेरित भावावेश की आर्द्र और कोमल आत्माभिव्यक्ति होती है तथा अमरकोश के अनुसार सुस्वरं सरसं चैव सरागं मधुराक्षरं/ सालंकारं प्रमाणं च षडविधं गीतलक्षणं। महादेवी वर्मा की निगाह में साधारणतः गीत व्यक्तिगत सीमा में तीव्र दुख-सुखात्मक अनुभूति का वह शब्द-रूप है जो अपनी ध्वन्यात्मकता में गेय हो सके। गीत-विषयक इन्हीं संकीर्ण व्याख्याओं और परिभाषाओं की वैचारिक गिरफ्त में आकर नामवर सिंह भी गुमराह हो जाते हैं और मान बैठते हैं कि गीत, लिरिक में आप दुख, दर्द, वियोग की वेदना को और जीवनदर्शन को अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं और मिलनोच्छवास की भावना को भी अच्छी तरह व्यक्त कर सकते हैं। किंतु उसमें गरीबी, उत्पीड़न और आक्रोश की बात की जाती है तो उसकी गेयता नष्ट हो जाती है और तब वह लिरिक के बजाय ‘सांग’ बन जाता है। गोया कि सांग, गाना अगेय रचना होता है। हालाँकि गाना गाने के लिए ही लिखा जाता है और गेय होना सांग की अनिवार्य नियति है। गौरतलब है कि वैदिक काल से छायावाद के दौर तक गीत की वैचारिक अंतर्वस्तु के रूप में ये विचार या तत्व ही सक्रिय दृष्टिगोचर होते हैं। बाद के दिनों में नामवर सिंह के विचार समय-सापेक्ष और समाज-सापेक्ष होकर वस्तुपरक हो गये हैं।

पहली बार समकालीन गीत, नवगीत के उदय के उपरांत नितांत निजी, व्यक्तिनिष्ठ आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति का माध्यम होने के बजाय सामाजिक चेतना की गहन आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति का माध्यम बन गया है और आत्मनिष्ठता वस्तुनिष्ठता में रूपांतरित हो गयी है। आज गीत वायवी कल्पना के सतरंगे आकाश से उतर कर खुरदुरी धरती पर विचरण करने लगा है, जिससे उसके नाजुक तलवे में छाले भी पड़े हैं, पाँव लहूलुहान भी हुए हैं, लेकिन गीत की जीवंतता और सामाजिक सरोकार में दिन-दूनी, रात चौगुनी की रफ्तार से इजाफा हुआ है। छायावाद के बाद हिंदी कविता में जिस लय-छंदविहीन ठस गद्यात्मकता, दुरूहता और बौद्धिक जटिलता का समावेश हुआ, नवगीत उससे मुक्ति का संघर्ष था। इसने परंपरागत गीतों की वैयक्तिक अनुभूतियों के स्थान पर समाज और युग के दुख-दर्द, आस्था-अनास्था, मध्यवर्गीय समाज के आजादी के बाद के मोहभंग, कशमकश और जद्दोजहद को अपनी अभिव्यक्ति का आधार बनाया। इसने उत्तरछायावादी दौर के गीतों की गलदश्रु भावुकता, लिजलिजे रूमानीपन, व्यावसायिक सरलीकरण, वैचारिक अंतर्वस्तु का पोलापन और रूपाकार के अनावश्यक विस्तार से गीत को निजात दिलायी। मध्यवर्गीय जीवन की आस्था-अनास्था, ऊब, घुटन, कुंठा, संत्रास, महानगरीय यांत्रिकता, संबंध-विघटन, अजनबीपन, अस्तित्व-संकट जैसे आधुनिकता वादी-अस्तित्ववादी जीवन-मूल्यों को अपनी अभिव्यक्ति की आधार-भूमि बनाया। आंचलिकता के संस्पर्श एवं लोकगीत और लोकजीवन की लय, छंद और संगीत के माधुर्य तथा लोक जीवन की सादगी और लचीलेपन से अंत:शक्ति अर्जित की। नवगीत की काव्यभाषा सहज, काव्यात्मक और बेहद कसी हुई रही है एवं इसकी आकारगत संक्षिप्तता पुन: वापस लौट आई तथा शब्द-चयन, मुहावरे, कहावतों, बिंब, प्रतीक और संकेतों के चुनाव में प्रयोगधर्मी सतर्कता अनायास ही दीख जाती है। ये सारे तत्व लगभग पचास वर्ष गुजर जाने के बावजूद नवगीत-रचना के केंद्र में आज भी विद्यमान और सक्रिय हैं।

यह एक ऐतिहासिक सचाई है कि अविरल प्रवाहित पारंपरिक गीत-धारा के गर्भ से आधुनिकता के दबाव से नवगीत और जनगीत के दो समानांतर पाटों के बीच से होकर बहने वाली एक नयी गीत-धारा प्रस्फुटित हुई, जिसे वर्ष १९५८ में 'गीतांगिनी` के सम्पादन-क्रम में पहली बार 'नवगीत` संज्ञा से अभिहित कर पहचानने और परखने चेष्टा राजेंद्र प्रसाद सिंह ने की, लेकिन गीत-रचना की इस नयी पहचान और परिवर्तित रचना-दृष्टि का मूल्यांकन, सीमा-निर्धारण और उसकी शक्ति का आकलन करने का ठोस प्रयास ओम प्रभाकर और भगीरथ भार्गव के संपादन में प्रकाशित'कविता’पत्रिका के नवगीत-विशेषांक 'कविता-६४` के जरिए वर्ष १९६४ में हुआ और यही सांप्रतिक गीत के विकास और रचना का काल है। जाहिर है कि वर्ष १९६४ से वर्ष २०१४ के पचास वर्ष के काल-खंड को समकालीन गीत का पचास वर्ष माना जाय तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी। इस काल-खंड का आकलन मुक्तिबोध की पुण्यतिथि की अर्धशती के रूप में भी किया जा सकता है, क्योंकि नयी कविता आंदोलन के बीच मुक्तिबोध अकेले क्रियाशील रचनाकार थे जिन्होंने नवगीत या गीत के अस्तित्व और अस्मिता पर प्रश्नचिह्न नहीं लगाया था, प्रत्युत उसे काव्य की नयी प्रवृत्तियों को समझने में सहायक माना था। सर्वविदित है कि वर्ष १९६४ में सिर्फ मुक्तिबोध का निधन ही पूरी हिंदी कविता की जड़ को हिला देने वाली परिघटना नहीं थी, अपितु इसी वर्ष स्वतंत्र भारत के प्रथम प्रधान मंत्री जवाहर लाल नेहरू का भी निधन हुआ था और इसी साल भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी का सी. पी. आई. और सी. पी. एम. नामक दो अलग-अलग राजनीतिक पार्टियों के रूप में विभाजन भी हुआ था।

इन दोनों परिघटनाओं ने केवल भारतीय कविता ही नहीं, वरन् पूरी सामाजिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक चेतना को जड़ से हिला दिया था। परिणामत: भारतीय जन-मानस में गहरी निराशा व्याप गयी थी और हिंदी कविता अराजक अस्वीकारवाद की गिरफ्त में फँस गयी थी जिसकी परिणति अराजक 'अकविता` के रूप में उभर कर सामने आई थी। इस अराजक माहौल और कठिन समय के असर से हिंदी का गीत-काव्य भी अप्रभावित नहीं रहा। गीत-रचना आधुनिकतावादी-अस्तित्ववादी लघुमानवों के निराशाबोध, यथास्थितिवाद और मध्यवर्गीय ढुलमुलपन की गिरफ्त में आ गयी, लेकिन गीत ने लोकजीवन और लोकभाषा के सान्निध्य एवं संपर्क से अंत:शक्ति अर्जित कर अपनी जीवंतता और सामाजिकता की एक सीमा तक हिफाजत करने में सफल रहा। इसी सफलता के रेखांकित करने का सामूहिक प्रयास 'कविता-६४` के जरिये किया गया, इसलिए हिंदी गीत, नवगीत की विकास-यात्रा में 'कविता-६४` के प्रकाशन का ऐतिहासिक महत्व है।

वर्ष १९६४ में ओम प्रभाकर और भगीरथ भार्गव के संयुक्त संपादन में, अलवर, राजस्थान से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका 'कविता` का नवगीत विशेषांक 'नवगीत का प्रथम समवेत संकलन` के रूप में 'कविता-६४` के नाम से प्रकाशित हुआ। इस पत्रिका में पहली बार गीतों को, आधुनिक-अत्याधुनिक संदर्भों की आधुनिक जीवन-दृष्टि और रचना-दृष्टि के परिप्रेक्ष्य में, पहचानने और परखने की सार्थक चेष्टा हुई। इसी विशेषांक के पश्चात नवगीत की रचना-भूमि और रचना-संसार का विश्लेषण और अनुशीलन-कार्य शुरू हुआ। इस संकलन में शामिल प्राय: सभी गीत गीत के रचना-परिदृश्य पर एक नयी रचना-दृष्टि के उदय का हलफनामा थे। भारतीय इतिहास में बीसवीं शताब्दी का सातवाँ दशक बहुत ही उथल-पुथल-भरा और वैचारिक अराजकता का दौर रहा है। इस दौरान साहित्य में, खासकर कविता के क्षेत्र में किसिम-किसिम के वादों और कविता के किसिम-किसिम के नये नामकरण का चलन प्रचलित हुआ। गीत भला इस हड़भोंग से निरपेक्ष और अछूता कैसे रह सकता था?

फलस्वरूप गीत के क्षेत्र में भी नए नामों की बाढ़-सी आ गई। रंगनाथ मिश्र 'सत्य` ने 'अगीत’का नारा लगाया, तो राजीव सक्सेना ने 'एंटीगीत’का, विद्यानिवास मिश्र को इसे 'नई कविता के गीत’कहना अधिक उचित लगा, तो उदयभानु मिश्र को इसे 'नया गीत’, मोहन अवस्थी को 'अनुगीत’और रवींद्र भ्रमर को 'सहज गीत’कहने में अधिक दम नजर आया। श्रीकृष्ण तिवारी ने नवगीत के विरुद्ध अपनी आवाज बुलंद करते हुए 'खिड़की से झाँकते अगीत’नाम का अगीतों का एक समवेत संकलन भी प्रकाशित किया। विविध नामों के इस घने धुँधलके को चीरकर अन्तत: 'नवगीत’ही स्वातंत्रयोत्तर हिंदी गीत की विकास-यात्रा को रेखांकित करने वाला प्रत्यय बन सका, क्योंकि 'नवगीत’केवल कुछ व्यक्तियों की बौद्धिक खुजलाहट को शांत करने वाला व्यक्तिवादी शगल भर नहीं था, बल्कि नवगीत के साथ एक नयी रचना-दृष्टि, वर्ग-दृष्टि और विश्व-दृष्टि का गीत-रचना की दुनिया में प्रवेश हुआ था, गीत के पारंपरिक रूप का यह पुनर्नवीनीकरण था।

गीत-रचना के व्यापक परिसर में घटित इस ऐतिहासिक घटना को पहचानने, परखने और व्याख्यायित करने में 'कविता-६४` के अलावा 'धर्मयुग’, 'साप्तहिक हिंदुस्तान’, 'आजकल’, 'कादंबिनी’, 'ज्ञानोदय’और 'माध्यम’जैसी स्थापित और बड़ी पत्रिकाओं ने अपना महत्त्वपूर्ण योगदान किया है। साथ ही, इस विकास-प्रक्रिया को अत्यधिक गतिशील करने में कल्पना-हैदराबाद, बासंती-वाराणसी, वातायन-बीकानेर, रश्मि-पटना, 'संबोधन’-काँकरौली, नीरा-जयपुर, शताब्दी-जबलपुर, नई धारा-पटना, राष्ट्रवाणी-पुणे, अंतराल-मुंगेर, पटना और आरा,परिवेश-गाजियाबाद, मिनीयुग-गाजियाबाद, शिक्षक संसार-मथुरा, सम्यक-मथुरा, ऋचा-सतना, अनन्या-अलीगढ़, अन्यथा-मुजफ्फरपुर, आईना-मुजफ्फरपुर, सांध्यमित्रा-मुंबई, गीत-दिल्ली, उत्तरमिरजापुर, समग्र चेतना-दिल्ली, नीरांजना-होशंगाबाद, नवगीत-खंडवा, समांतर-उज्जैन, मध्यांतर-हैदराबाद, सार्थक-मुंबई, गीत नवांतर-मुम्बई, प्रेसमैन-भोपाल, नए-पुराने-राय बरेली, अलाव-दिल्ली, अक्षत-खंडवा, संकल्प-रथ-भोपाल, अपरिहार्य-लखनऊ, उत्तरायण-लखनऊ, साहित्य-भारती-लखनऊ, पुन:-पटना, जनाधार भारती-दिल्ली, सबके दावेदार-आजमगढ़, बराबर-मुंबई, शब्दिता, मऊनाथ भंजन आदि लघु पत्र-पत्रिकाओं की अहं भूमिका रही है। को बड़ छोट कहत अपराधू। सभी पत्रिकाओं ने इस दिशा में अपनी कूबत भर नवगीत के विकास में अहम् भूमिका निभाई है। इसी सिलसिले में शारजाह, अरब-अमीरात से पूर्णिमा वर्मन द्वारा संपादित वेभ पत्रिका 'अनुभूति’के महत्त्वपूर्ण अवदान को भी, नवगीत की विकास-यात्रा को आगे बढ़ाने वाली भूमिका के लिए, नजरअंदाज नहीं किया जाना चाहिए।

इन पचास वर्षों में प्राय: सभी समकालीन गीतकारों के निजी गीत-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनकी तादाद कई सौ तो जरूर है। इन गीत-संग्रहों के अलावा कई महत्त्वपूर्ण समवेत संकलन भी प्रकाशित हुए हैं। इनमें 'पाँच जोड़ बाँसुरी’-संपादक-चंद्रदेव सिंह, महेंद्र शंकर- 'नवगीत दशक-एक, दो और तीन तथा 'नवगीत अद्धर्शती’-संपादक-शंभुनाथ सिंह, ‘सातवें दशक के उभरते नवगीतकार’के तीनों भाग-संपादक-लक्ष्मीकांत सरस, 'नवगीत एकादश’-संपादक-भारतेंदु मिश्र, 'नवगीत सप्तदशक’-संपादक-राजेंद्र प्रसाद सिंह, 'नवगीत सप्तक’-संपादक-शंभुनाथ सिंह, उद्भ्रांत, 'श्रेष्ठ गीत-संचयन’-संपादक-कन्हैयालाल नंदन, 'धार पर हम’के दो खण्ड-संपादक-वीरेंद्र आस्तिक, 'नवगीत और उसका युगबोध’तथा 'नवगीत के नए प्रतिमान’-संपादक-‘राधेश्याम बंधु’तथा 'शब्दपदी’, 'नवगीत: नई दस्तकें’और 'शब्दायन’-संपादक-निर्मल शुक्ल,'गीत-गुंजन’का श्रेष्ठ गीत-अंक-संपादक-राजेंद्र वर्मा, 'बीसवीं शताब्दी के श्रेष्ठ गीत’तथा 'गीत नवांतर’के सभी भाग-संपादक-मधुकर गौड़,सप्तराग-सम्पादक-शिव कुमार अर्चन, हरियर धानरुपहले चावल, संपादक-देवेंद्र शर्मा 'इंद्र’,गीत-वसुधा-संपादक-नचिकेता, अवधेश नारायण मिश्र और यशोधरा राठौर, गीत विहंग बिहार-संपादक-रंजीत पटेल, नवगीत-२०१३, संपादक-जगदीश व्योम आदि प्रमुख हैं।

'पाँच जोड़ बाँसुरी’का प्रकाशन वर्ष १९६९ में हुआ है, जिसमें निराला से लेकर नरेश सक्सेना तक पाँच खंडों में विभाजित कुल ४० गीतकारों के तीन-तीन गीत शामिल हैं, इसलिए इसे आधुनिक गीत का प्रतिनिधि संकलन कुछ सीमाओं के बाद तो माना जा सकता है लेकिन सांप्रतिक गीत का प्रतिनिधि संकलन हरगिज नहीं माना जा सकता। अन्य संकलनों में कुछ चुने हुए गीतकार तो हैं, किंतु उसके जरिए गीत के संपूर्ण रचना-संसार का जायजा नहीं लिया जा सकता। इस लिहाज से वर्ष २०१३ में प्रकाशित 'गीत-वसुधा` को एक मुकम्मल समकालीन गीत-संचयन का दर्जा दिया जा सकता है, क्योंकि इस संकलन में वर्ष १९६० से २०१३ तक के २१५ नवगीतकारों-जनगीतकारों के पाँच-पाँच प्रतिनिधि गीत शामिल हैं, जिसका अंतरंग अनुशीलन करके पिछले पचास वर्षों के गीतों की विकास-यात्रा को जाना-परखा जा सकता है।वर्ष १९६७ से १९७७ तक की कालावधि भारतीय समाज, राजनीति और इतिहास का सबसे उथल-पुथल वाला समय रहा है। असल में, वर्ष १९६७ में नक्सलवादी किसान आंदोलन का उदय तथा कई राज्यों में तत्कालीन काँग्रेसी सरकार का पतन और गैरकाँग्रेसी संविद सरकारों के गठन ने आजादी के मोहभंग से ऊबे भारतीय जन-मानस को एक नया विकल्प दे दिया, जिसका प्रभाव वर्ष १९७० के बाद के संपूर्ण भारतीय साहित्य पर स्पष्ट रूप से अंकित मिलता है। इन परिघटनाओं ने तत्कालीन भारतीय साहित्य की पूरी दिशा ही बदल कर रख दी थी। फिर भला नवगीत कैसे अछूता रहता? नवगीत के बीच से ही कुछ जागरूक और जनपक्षधर रचनाकारों ने 'जनवादी गीत` या 'जनगीत’की नवगीत से अलग धारा चलाई। राजेंद्र प्रसाद सिंह ने इसे 'जनबोधी गीत’कहा, जिसे बाद में लोगों ने अस्वीकार कर दिया, क्योंकि 'जनबोधी गीत’जनवादी गीत या जनगीत के वजन पर दिया गया गीत का नया नाम भर था, उसके साथ किसी नयी रचना-दृष्टि और विश्वदृष्टि के उदय की वैचारिक पृष्ठभूमि नहीं थी। उसका कोई सामाजिक, राजनीतिक और दार्शनिक आधार भी नहीं था।

जन-संघर्षों की अंतर्वस्तु में विकसित होकर, रचनाकार के सामने रचना की जो नई चुनौतियाँ प्रस्तुत हो रही थीं, उसे नवगीत के भीतर के ही कुछ जनपक्षधर नवगीतकारों ने शिद्दत के साथ महसूस किया और नवगीत की नितांत मध्यवर्गीय चेतना, व्यक्तिवादिता, यथास्थितिवाद,कलावादी/ रूपवादी रुझान और अस्पष्ट जीवन-दृष्टि से अपना संबंध-विच्छेद कर संघर्षशील जन-चेतना से अपने को जोड़ा। मैनेजर पांडेय ने आधुनिक गीतों के विवेचन-क्रम में परिलक्षित किया कि नक्सलबाड़ी आंदोलन से जो नई चेतना जगी उसने हिंदी कविता ही नहीं, पूरे भारतीय साहित्य की रचना की दिशा बदल दी। यह संस्कृति और साहित्य के इतिहास के विकास में समाज के इतिहास का निर्णयात्मक हस्तक्षेप था। भारतीय साहित्य के विकास पर नक्सलबाड़ी आंदोलन का प्रभाव तेलंगाना आंदोलन से भी गहरा और व्यापक साबित हुआ। सन् १९७० के बाद की जनोन्मुखी साहित्य-चेतना के सामने प्रयोगवाद, नई कविता और अकविता की व्यक्तिवादी प्रवृत्तियाँ टिक न सकीं। रचना का परिवेश बदला और आलोचना की कसौटी भी बदली। इस नए परिवेश और नई चेतना के कारण जनवादी गीतों की रचना संभव हुई। आधुनिक हिंदी कविता का इतिहास गवाह है कि जब-जब जन आंदोलन तेज हुए हैं और कविता आंदोलनों की ओर मुड़ी है, तब-तब गीत-रचना की गति में तेजी आई है।

जन आंदोलन गीत-रचना की उर्वर भूमि होते हैं और गीतों को लोकप्रिय बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। जन आंदोलन गीतों की लोकप्रियता की कसौटी भी होते हैं। लोकप्रियता की उपेक्षा करके गीत जीवित नहीं रह सकते। नवगीत से अपना संबंध-विच्छेद कर जिन जनपक्षधर गीतकारों ने गीत-रचना की इस नई रचना-दृष्टि और पद्धति का चुनाव किया वह निस्संदेह नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन के प्रभाव से आई सामाजिक/राजनीतिक चेतना के प्रभाव के तहत संपन्न हुई थी। इस दौर के गीतों को 'जनवादी गीत` या 'जनगीत’कहकर जानने, पहचानने और परखने का प्रयास किया गया। इन गीतों की केवल वैचारिक अंतर्वस्तु में ही परिवर्तन नहीं आया, बल्कि पूरी अनुभूति की संरचना, भाषा, शिल्प, छंद-विधान और लय-प्रवाह में भी गुणात्मक तब्दीली आ गई थी। नवगीत के मध्यवर्गीय ढुलमुलपन और यथास्थितिवादी रवैये के खिलाफ जनवादी गीतों में तात्कालिक वस्तुस्थिति और समसामयिक सामाजिक यथार्थ के अमानवीय पक्षों की सही पहचान उभरती है तथा शोषण और उत्पीड़न के विरुद्ध उठ खड़ा होने के साहस और संकल्प को अभिव्यक्ति मिली है। इन जनगीतों में मौजूदा दौर के अर्धसामंती और अर्धऔपनिवेशिक समाज-व्यवस्था तथा दलाल-नौकरशाह पूँजीवाद के खिलाफ जन साधारण की असहमति, असंतोष, आक्रोश और परिवर्तनकामी प्रतिरोध को सार्थक अभिव्यक्ति मिली है। तात्पर्य है कि नवगीत और जनगीत रूपी दो समानान्तर पाटों के बीच अविरल प्रवाहित गीत-धारा ही समकालीन गीत-धारा है। बतौर बानगी कुछ गीतांश को देखा जा सकता है -
धूप में जब भी जले हैं पाँव सीना तन गया है
और आदमकद हमारा जिस्म लोहा बन गया है

तन गयी है रीढ़ जो मजबूर थी गम से
हाथ बागी हो गये चालाक मरहम से
अब न बहकाओ छलावा छलनियों में छन गया है - रमेश रंजक

भात मिले भर-भर थाली
बच्चों की खुशी आकाश लगी
पपड़ाये होंठों पर जैसे विरहा-कजरी की प्यास जगी
अपने मिहनती सिपाही के ये हिस्से कड़ी लड़ाई के
दिन आये फसल कटाई के बड़का की सुघर कमाई के - शांति सुमन,

हम मजदूर-किसान चले मिहनतकश इंसान चले
चीर अँधेरे को हम नया सबेरा लाएँगे
ताकत नई बटोर क्रांति के बीज उगाएँगे
कसने लगीं शिराएँ तनती गई हथेली की
खुलीं ग्रंथियाँ शोषण की गुमनाम पहेली की
सुलग उठे अरमान चले हम बन कर तूफान चले
हँसिए और हथौड़े का अब गीत सुनाएँगे
ताकत नई बटोर क्रांति के बीज उगाएँगे - नचिकेता

अपनी-अपनी डफली छोड़ो, अपना-अपना राग
तभी मिटेगी इस दुनिया से भूख-प्यास की आग
रामनाम की माला लेकर, भटक रहा इंसान
जागो-जागो रे मजदूर, जागो-जागो रे किसान - अश्वघोष

खाऊ फैले-फैले कमाऊ सिमटे कोने में
कुछ नहीं रखा सरकारी जादू-टोने में
ठण्ढे चूल्हे के सीने पर रोज राजसी भोज
गंगू तेली गंगू तेली, भोजराज हैं भोज - रामकुमार कृषक आदि।

नामवर सिंह का खयाल है कि लोक-जीवन ऐसी शक्ति है जो सामाजिक गतिरोध तोड़ने के साथ ही साहित्यिक गतिरोध को भी समाप्त करती है। कविता में कविता को जब नया मार्ग नहीं सूझता, नयी दिशाएँ मेघाछन्न दिखाई पड़ती हैं और पुरानी चहारदीवारी से बाहर निकलने का उपाय नहीं सूझता तो लोक-शक्ति ही मशाल लेकर आगे बढ़ती है.....अंधकार को चीरती है, कुहरे को छाँटती है, मार्ग को प्रशस्त करती है और दम घुटते कवियों की संज्ञा में प्राण-वायु का संचार करती है। व्यापक जन-समुदाय से सीधा संवाद और संपर्क कायम करने की दिशा में आगे बढ़ने के लिए एवं जन-संवेदना में घुल-मिल कर एकरूप हो जाने के लिए इस दौर के कतिपय गीतकारों ने केवल लोक-जीवन और लोकभाषा से अंत:शक्ति ही नहीं अर्जित की, अपितु अपनी-अपनी मातृभाषा, लोकभाषा को ही अपनी गीत-रचना का आधार बना लिया, जिससे ये गीत सीधे-सीधे जन-मानस से जुड़ गये, उनकी जुबान पर चढ ग़ये और जन-आंदोलनों और जन-संघर्षों को उत्प्रेरित और गतिशील करने में (((उत्सेध्क))) साबित हुए-
पहिले-पहिल जब वोट माँगे अइलें त बोले लगलें ना
तोहके खेतवा दिअइबो आमें फसलि उगइबो
बजड़ा के रोटिया देइ-देइ नूनवा
सोचली कि अब त बदली कनूनवा
अब जमींदरवा के पनही न सहबो
अब न अकारथ बहे पाई खूनवा
दूसरे चुनउआ में जब उपरइलें त बोले लगलें ना
तोहके कुइयाँ खोनइबो सब पिअसिया मेटइबो, - गोरख पांडेय,

रउआ हाकिम बानी हमरो सलाम लिहीं जी
जनता भेंड़-बकरी बानी हुनकर चाम लिहीं जी, विजेंद्र अनिल,

अब अँखियन-अँखियन क सपना बेंचे के तइयारी बा
औने-पौने में घर-अँगनाबेंचे के तइयारी बा .....
अबहूँ से तअअँखियन कअअँजोरिया के जोगावअतू
संझवाती के राखल दियना बेंचे के तइयारी बा - कमलेश राय,

खोंथा बइठल फुदी चिरइयाँ तउल रहल हे डइना बूझ रहल हे
भूख के भासा घेंच घुमा के देय दिलासा
फुर सन उड़ गेल ममता मारल खोजे लागी दाना - मिथिलेश आदि।

इस दौर के गीतों में व्यंग्यविदग्ध्ता का भी पर्याप्त समावेश हुआ है। इन व्यंग्य गीतों में अपने समय की सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विसंगतियों और विदू्रपताओं पर करारा प्रहार है, छप्र राजनीति की विभस्त चेहरे और अमानवीय हरकतों को बेवाकी से बेनकाब किया गया है-
प्रभुजी तुम हो बड़े निराले
उजला तन है, काला मन है काली करतूतें हैं
होंठों पर मुस्कान पाँव में चाँदी के जूते हैं
सिर पर टोपी टेढ़ी
चिकने चेहरे भोले-भाले

दीन बंधु! तुम दीनों पर ही अक्सर गाज गिराते
रिश्तेदार उन्हीं के जिनसे मोटा चंदा पाते
जिस थाली में खाओ
उसमें छेद बनाने वाले -नचिकेता,

समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई
समाजवाद उनके धीरे-धीरे आई.....
डालर से आई रूबल से आई
देसवा के बान्हे धराई
समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई
लाठी से आई गोली से आई लेकिन अहिंसा कहायी
समाजवाद बबुआ धीरे-धीरे आई -गोरख पांडेय आदि।

सांप्रतिक गीतों में समयसापेक्ष, समाजसापेक्ष और युगसापेक्ष मानव-जीवन के जितने मार्मिक और अंतरंग पक्षों का उद्घाटन हुआ है, उतना पहले के हजारों वर्षों में भी नहीं हुआ है। इन गीतों ने गीत की पूरी पारंपरिक अवधारणा, जीवन-दृष्टि और रचना-दृष्टि को आमूल बदल दिया, जिससे पारंपरिक गीतों के पाठकों और अध्येताओं को पचाने में काफी दिक्कत हुई, आज लगभग पचास वर्ष बाद भी हो रही है। नवगीत की सकारात्मक उपलब्धियों से भयभीत होकर पहले तो नयी कविता के प्रमुख प्रवक्ता अज्ञेय ने नवगीत का यह कहकर विरोध किया कि ''नयी कविता और नवगीत इस प्रकार के नामों से तो एक कृत्रिम विभाजन ही आगे बढ़ेगा और नयी कविता की विभिन्न प्रवृत्तियों को समझने में बाधा ही होगी। आगे चलकर अज्ञेय ने गीत को कविता मानने से ही इन्कार कर दिया, जिसका विरोध करते हुए मुक्तिबोध ने लिखा कि मनुष्य-जीवन का कोई अंग ऐसा नहीं, जो साहित्याभिव्यक्ति के लिए अनुपयुक्त हो। जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि एक शैली को दूसरी विशेष शैली के विरुद्ध स्थापित करती है। गीत का नई कविता से विरोध नहीं है और न नई कविता को उसके विरुद्ध अपने को स्थापित करना चाहिए। अज्ञेय के गीत-विरोध की हिंदी जगत में काफी तल्ख प्रतिक्रिया हुई। अज्ञेय के तमाम चेले-चाटियों ने नवगीत पर जी-जान से निषेधात्मक आक्रमण शुरू कर दिया और गीत को मुक्तिबोध द्वारा दिया गया सकारात्मक समर्थन नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गयी। बात यहीं तक रहती तो गनीमत थी। अज्ञेय की जमात में शामिल होने के ख्वाहिशमंद गीतकारों ने भी अज्ञेय के सुर में अपना सुर मिलाना शुरू कर दिया, इनमें गिरिजा कुमार माथुर, ठाकुर प्रसाद सिंह, केदारनाथ सिंह, चंद्रदेव सिंह आदि प्रमुख हैं।

जड़ीभूत सौंदर्याभिरुचि वाले आज के कवि राजेश जोशी की निगाह में गीत का अब पुनर्नवा होना संभव नहीं है। जाहिर है कि राजेश जोशी समकालीन गीत की सीमा, शक्ति, सामर्थ्य और उपलब्धियों से पूरी तरह नावाकिफ हैं अथवा समकालीन गीत की उपलब्धियों से आक्रांत या अज्ञेय का अप्रत्यक्ष भोंपू हैं। समकालीन गीत में जीवन-जगत की समस्याओं से साक्षात्कार की प्रवृत्ति, विषय-वस्तु की विविधता, वस्तुपरक अनुभूति की संरचना, भाषा-शिल्प, लय-छंद, लोक-चेतना, जनपक्षधरता आदि में जितना विकास और विविधता पिछले पचास वर्षों के गीतो में परिक्षित होता है उतना पूववर्ती दौर के किसी कालखंड के गीतो में नहीं दिखाई देता भक्तिकाल और छायावादी दौर के गीतों में भी नहीं। वास्तव में इस दौर के गीतों में केवल गीत पुनर्नवा ही नहीं हुआ हुआ है, वह व्यक्तिनिष्ठ भाव-बोध के बनिस्बत वस्तुपरक और सामाजिक भाव-बोध से अधिक जुड़ गया है। गीत का यह कायाकल्प गीत का पुनर्नवा होना नहीं है तो और क्या है?

भाववादी, आधुनिकतावादी आलोचकों ने तो अज्ञेय के शब्दों को अपने मुँह में रखकर गीत का जम कर विरोध किया ही है, मार्क्सवादी आलोचकों ने भी प्रकारांतर से विरोध ही किया है। एक ओर नामवर सिंह को यह मानने में कोई संकोच नहीं है कि समकालीन कविता का मूल्यांकन गीत को बिना शामिल किये अधूरा ही माना जायेगा, क्योंकि गीत और अगीत दोनों ही कविता हैं और मैनेजर पाण्डेय की नजर में भी गीत कविता है, बल्कि मैं यह कहूँगा कि कविता का आरंभ ही गीत से हुआ है, भारत में ही नहीं पूरी दुनिया में। इसलिए कविता की दुनिया से गीत कोबाहर रखना गलत है। इन मार्क्सवादी आलोचकों की कथनी और करनी में कितना विरोधाभास है इसे समझने के लिए इन दोनों के द्वारा समकालीन कविता के मूल्यांकन के साथ साक्षात्कार करके समझा जा सकता है। अपने मूल्यांकन-क्रम में मार्क्सवादी और प्रगतिशील आलोचकों को भी गीत की याद दयाभाव से भी हरगिज नहीं आती। अगर गीत भी कविता या कविता का ही एक शिल्प है तो उसकी ऐसी अमानवीय उपेक्षा और अवमानना क्यों? ऐसी हरकतों को मार्क्स और लेनिन दोगला कार्य मानते हैं।

ऐसी तमाम अवमाननाओं, उपेक्षाओं और आक्रमणों का तीखा दंश झेलते हुए समकालीन गीत की अजड्ड धारा अनवरत प्रवाहित हो रही है और व्यापक जन-मन के साथ अंतरंग संबंध स्थापित कर रही है। ऐसी बात नहीं है कि अनुभूति की संरचना, भाषा-शिल्प, लय-छंद, विषय-वस्तु और संवेदना के धरातल पर गीत-रचना की जमीन और रचना-दृष्टि एक जैसी ही बनी रही, बिलकुल समतल रही। दरअसल गीत-रचना के धरातल पर पिछले पचास वर्षों में अनेक परिवर्तन हुए और इनके विकास में शरीक गीतकारों को चाहें तो चार पीढ़ियों में विभाजित करके देख सकते हैं। इन चार पीढ़ियों के गीतकारों की रचना-दृष्टि और विश्व-दृष्टि में भी भिन्नताएँ रही हैं। नवगीत के आरंभिक दौर में खास कर वर्ष १९५० से १९७० के बीच गीत 'नवगीत’की शक्ल में ढल कर अपना नया आकार ले रहा था यानी इस दरम्यान पारंपरिक गीत का कायाकल्प हो रहा था। इस दौरान समकालीन गीत ने प्रयोगशील नव्यता, आकारगत संक्षिप्तता, आंचलिकता और युगानुरूप आधुनिक भावबोध को अपनी रचना-दृष्टि और विषय-वस्तु में शामिल कर अपना कायाकल्प कर रहा था, अपने पुराने संस्कारों से मुक्त हो रहा था। वर्ष १९६० के बाद के नवगीतों ने आधुनिकतावादी-अस्तित्ववादी जीवन-मूल्यों को अपनाकर मध्यवर्गीय भारतीय समाज में आजादी के बाद के मोहभंग से उत्पन्न निराशा, कुंठा, संत्रास, ऊब, घुटन, महानगरीय यांत्रिकता, अजनबीपन, संबंध-विघटन, अस्तित्व-संकट, मृत्युबोध जैसे नकारात्मक जीवन-मूल्यों को अभिव्यक्त करने में मशगूल रहे। नतीजतन नवगीत शीघ्र ही मध्यवर्गीय ढुलमुलपन, निराशाबोध और यथास्थितिवाद की गिरफ्रत में आ गया, जिसकी प्रेत-छाया, बेताल कमोबेस आज भी नवगीत के सिर पर सवार है। यह पूरा दौर 'नवगीत’के स्वरूप और दिशा के निर्धारण का दौर था। नवगीत नये-नये बिंब और प्रतीकों का अवलंब ग्रहण कर अस्तित्ववादी-आधुनिकतावादी लघुमानवों के जीवन-दर्शन की अभिव्यक्ति करने लगा था-

अबकी सावननहीं गिरे सौंधे जल सौंधे जल नहीं गिरे हवा मानों ज्वरग्रस्त गलियाँ छूती रही शरीर
चिड़िया पड़ी रही नीड़ों में जैसे टूटे तीर
अबकी सावननहीं घिरे स्वर-बादल
स्वर-बादल नहीं घिरे -ओम प्रभाकर
सोच रहा हूँ
दूब-दरख्तों का छा जाना
अपने में कुआँ हो जाना
मुँह पर घिरे अँधेरे को बंदर हाथों
से नोंच रहा हूँ -देवेंद्र कुमार
भला नहीं लगता यह
शहरों का गाँवों से बार-बार पूछना
तनहाई के चेहरे- संबंधों की सिकुड़न- मुस्कानों के पहरे-
भला नहीं लगता यह
खुद को भी शहरों से, गाँवों से,
लोगों से बार-बार पूछना -नईम

वर्तमान से बँधे इस काँचघर को क्या करें
गाल पर छपते उँगलियों के नये चाँटे कर्ज पुश्तैनी सुबह के, शाम के घाटे
वर्जनाओं से घिरे जलते शहर को क्या करें -माहेश्वर तिवारी

सुनो, तथागत एक नया युग आने वाला है
पेड़ मरेंगे और तुम्हारा बोधिवृक्ष भी नहीं रहेगा
अगला युग तो हरियाली की पोथी वाली बात कहेगा
तितली की असली नस्लों का रंग भी काला होगा -कुमार रवींद्र,

बिल्लियाँ ही बिल्लियाँ हैं
कौन बाँधे घंटियाँ इनके गले में
लोग चूहों से डरे सिमटे हुए हैं
आग के भी हो गये चेहरे धुएँ हैं
फब्तियाँ ही फब्तियाँ हैं
है न मरहम, बस नमक ही हैं जले में -यश मालवीय,

डरे-डरे पढ़ रहे ककहरे
सारे गूँगे, अंधे बहरे
अंधकार की भाषा पढ़ते
बिना पाँव छत-सीढ़ी चढ़ते
ये पानी पोखर के ठहरे -यशोधरा राठोर आदि।

समकालीन गीत के विकास का दूसरा दौर वर्ष १९७० से ९० के बीच का दौर माना जा सकता है। इस दरम्यान नवगीत के रूपवादी रुझान, मध्यवर्गीय जीवन-दृष्टि और यथास्थितिवादी रवैये के खिलाफ प्रगतिशील विचार वाले गीतकारों ने नवगीत से अपना संबंध-विच्छेद करके व्यापक जन-मानस में एकत्र असहमति, असंतोष, आक्रोश और प्रतिरोध की हुँकार को सार्थक अभिव्यक्ति दी।

इस दौर के गीतों को बाद में जनगीत के नाम से जाना-पहचाना गया। वस्तुत: ये जनगीत केवल विचार के धरातल पर ही जनपक्षरधर नहीं थे, वरन् व्यापक जन-आंदोलनों में सक्रिय साझेदारी की बदौलत जन-आंदोलनों को गतिशील और उत्प्रेरित करने की दिशा में प्राणपण से जुड़ गये थे। भक्ति काल के बाद पहली बार जनगीत ने ही व्यापक जन-जीवन से सीधा संवाद और सरोकार का इजहार किया था। वर्ष १९९० के बाद यानी सोवियत रूस के विघटन और अमरीकी साम्राज्यवाद के नृशंस विस्तार के कारण जन-आंदोलनों के एक हद तक निष्क्रिय या धीमा हो जाने की वजह से समकालीन गीत एक बार फिर यथास्थितिवाद के चँगुल में फँस-सा गया। जनगीत ने भी जन-आंदोलनों को गतिशील और प्रेरित करने की प्रवृत्ति से लगभग किनाराकशी कर ली। अब आंदोलन ही नहीं थे तो आंदोलनधर्मी गीत की क्या अहमियत थी? इसके बावजूद जनगीतों ने अपनी मूल भावना असहमति, असंतोष, आक्रोश और प्रतिरोध की चेतना को तिलांजलि नहीं दी।

इन्हीं सकारात्मक कारणों से रूपाकार, भाषा-शिल्प, लय-छंद में समानता के उपरांत भी नवगीत और जनगीत में गुणात्मक भिन्नता बरकरार है। वर्ष २००० के बाद नवगीत-रचनाकारों की एक बिलकुल नयी पीढ़ी सामने आयी है। इनके गीतों में भूमंडलीकरण, उदारीकृत विश्व बाजार, उपभोक्तावाद की अमानवीयता, निरंकुश वित्तीय पूँजी के सृजनविरोधी माहौल की त्रासदी, व्यापक प्रचार-तंत्र के छप्र-जाल और तज्जनित संवेदनहीनता को अपनी अभिव्यक्ति के दायरे में समेटा गया है। समकालीन कविता से गायब गाँव, प्रकृति, लोक, श्रम, मजदूर, पसीना आदि गीत-रचना के उपजीव्य बन गये। ऐसा नहीं है कि चीनी और बालू के मिश्रण से जिस तरह बालू और चीनी को सहजता से हिगरा लिया जा सकता है उसी प्रकार गीतकारों की भिन्न पीढ़ियों को छिनगा लिया जा सकता है। दरअसल ये चारों पीढ़ियाँ एक साथ रचनारत हैं और इनमें परस्पर आवाजाही भी है।

बीसवीं शताब्दी के अंतिम दौर में और इक्कीसवीं शताब्दी के आरंभ से ही गीत-रचना की विषय-वस्तु ही नहीं भाषा-शिल्प में भी एक नया बदलाव दिखाई देता है। गाँव के विवाहित युवकों के नौकरी करने या नौकरी की तलाश में गाँव छोड़कर शहर चले जाने की विरहाग्नि में झुलसती विरहणियों की व्यथा-कथा से लोकगीतों का रचना-संसार अँटा-पटा है। इस विषय पर खड़ी बोली हिंदी में भी सैंकड़ों गीत लिखे गये हैं।

अब परिस्थितियाँ और सामाजिक मूल्य भी बदल गये हैं। अब पत्नियाँ अपने पति को, माता-पिता अपनी संतानों को, अविवाहित बेटियों को पराये शहर में तो क्या विदेश में भी पूरे उत्साह से नौकरी करने या शिक्षा-प्राप्ति के लिए भेज देते हैं। इसलिए इस दौर के गीतों में पहले जैसी हाय-तोबा और आँसुओं का सैलाब नहीं होता, एक आश्वस्ति होती है। इस अनुभव की भी समाई समकालीन गीतों में हो गयी है और यह समकालीन गीत-रचना का पुनर्नवीनीकरण ही है। इन गीतों की भाषा में तकनीकी दुनिया, कम्प्यूटर, इंटरनेट, टेलीफोन-मोबाईल आदि के व्यवहार में आनेवाली शब्दावलियों ने अपना स्थान बना लिया है। बिंडो, मेमोरी, चैटिंग, मैचिंग, वायरस, हाईजैकर, स्पेस, मैसेज जैसे तकनीकी शब्द गीत में बड़े ही सहज ढंग से व्यवहार में आने लगे हैं। इन शब्दों के प्रयोग से गीत की रागात्मक कोमलता और संगीतात्मक तरलता की काफी क्षति हुई है, परंतु समसापेक्ष अर्थ-विस्तार बढ़ा है-

तेरी गीत-किताबों को अब तुम सँभाल कर रखना......
मेरे बाबा अनपढ़-से थे पर प्रवचक थे रामायण के
कल के चालक हो सकते हैं हाई जैकर कम्प्यूटर के
एक वायरस के पैदा होने से हो सकता है मेमोरी का मिटना
या
बाजारें हैं रिश्तों की खुशियों का है मृगजल...
बिटिया बता रही है टूट गयी है चैटिंग
संस्कारों की टकराहट में कैसी मैचिंग
पापा के कम्प्यूटर पर भीगा है काजल -वीरेंद्र आस्तिक,
या
दिन भर फोन धरे कानों पर
चिड़िया बैठी क्या बतियाती...
ढीली अंटी कभी न करती
मिसकालों से काम चलाना
कठिन समय है सस्ते में ही
उँगली के बल उसे नचाना
टाइमपास किया करती है
रचकर कल्पित गूढ़ कथाएँ - अवनीश सिंह चौहान आदि

इन गीतों में बढ़ते बाजारवाद और उपभोक्तावादी संस्कृति के औक्टोपसी प्रसार से उत्पन्न अमानवीयता, अवसरवादिता और नितांत निजी और आत्मीय संबंधों में आयी दरार और दिखावे के मिश्रण का मार्मिक चित्रण हुआ। यह संवेदना गीत के लिए बिलकुल नयी संवेदना है जो परंपरा से परे है, बिलकुल आधुनिक-उत्तर आधुनिक।

समकालीन गीत के इस विपुल रचना-संसार को समृद्ध करने और अतीत का सौंदर्य-शास्त्र के निर्माण में जिन गीतकारों का महत्त्वपूर्ण योगदान रहा है, उनमें अंजना वार्मा, अजंता देव, अजय गुप्त, अजय पाठक, अतुल कनक, अनिरुद्ध नीरव, अनिल कुमार, अनिल मिश्र, अनूप अशेष, अमरनाथ श्रीवास्तव, अमित, अरुणा दुबे, अवधिवहारी श्रीवास्तव, अवनीश सिंह चौहान, अशोक अंजुम, अशोक आनन, अशोक गीते, अशोक शर्मा, अश्वघोष, अश्विनी कुमार आलोक, आचार्य भगवत दुबे, आनंद कुमार आशु, आनंद कुमार गौरव, आनंद तिवारी, इंदिरा मोहन, इशाक अश्क, उदयभानु सिंह 'हंस`, उदयशंकर सिंह 'उदय`, उद्भ्रांत, उमाकांत मालवीय, उमाशंकर तिवारी, उर्मिलेश, ऋषिवंश, ओम धीरज, ओम निश्चल, ओमप्रकाश तिवारी, ओमप्रकाश सिंह, ओम प्रभाकर, कमल किशोर 'श्रमिक`, कमलेश राय, कल्पना रामानी, किशोर काबरा, कीसन सरोज, कीर्ति काले, कुँवर बेचैन, कुमार रवींद्र, कुमार शिव, के. बी. लाल 'कुँवर`, कैलाश गौतम, कौशलेंद्र, कृपाशंकर पांडेय, कृपाशंकर शर्मा 'अचूक`, कृष्ण कल्पित, कृष्ण मोहन अम्भोज, कृष्ण बक्षी, कृष्णानंद कृष्ण, कृष्ण शलभ, गणेश गंभीर, गिरिमोहन गिरि, गुलाब सिंह,गोपीबल्लभ सहाय, गोरख पांडेय, गौतम राजरिशी, घमंडीलाल अग्रवाल, चंद्रदेव सिंह, चंद्रदेव सिंह, मुफ्रफरपुर, चंद्रप्रकाश पांडेय, चंद्रप्रकाश माया, चंद्रमौली उपाध्याय, चंद्रसेन विराट, चित्रांश बाघमारे, छविनाथ मिश्र, जगदीश व्योम, जगदीश श्रीवास्तव, जयकृष्ण राय तुषार, जय चक्रवर्ती, जयप्रकाश नायक, जयशंकर शुक्ल, जीवन यदु, जीवन शुक्ल, तारादत्त निर्विरोध, ताराप्रकाश जोशी, ठाकुर प्रसाद सिंह, त्रिलोक सिंह ठकुरेला, दिनेश प्रभात, दिनेश भ्रमर, दिनेश शुक्ल, दिनेश सिंह, दिवाकर वर्मा, देवेंद्र आर्य, देवेंद्र कुमार, देवेंद्र कुमार आर्य, देवेंद्र कुमार पाठक, देवेंद्र शर्मा 'इंद्र`, देवेंद्र सफल, धनंजय सिंह, धीरज श्रीवास्तव, नईम, नरेंद्र प्रसाद द्विवेदी, नचिकेता, नरेश सक्सेना, नारायणलाल परमार, निर्मल मिलिंद, निर्मल शुक्ल, निर्मला जोशी, निशीकांत गीते, नीलम श्रीवास्तव, नेहा वैद, पंकज गौतम, पुरुषोत्तम प्रतीक, पूर्णिमा वर्मन, प्रतीक मिश्र, प्रभा दीक्षित, प्रशांत अग्निहोत्री, प्रेमशंकर, प्रेमशंकर रघुवंशी, बनवारीलाल 'खामोश`, बालस्वरूप राही, बुिद्धनाथ मिश्र, बृजनाथ श्रीवासतव, ब्रजभूषण सिंह गौतम 'अनुराग`, ब्रजमोहन, ब्रजेंद्र नीरज, ब्रजेशचंद्र श्रीवास्तव, ब्रजेंद्र द्विवेदी 'अमन`, ब्रजेश भट्ट, भगवती प्रसाद द्विवेदी, भगवान स्वरूप सरस, भारतेंदु मिश्र, मधुर कमल, मनोज जैन 'मधुर`, मधुकर अष्ठाना, मधुकर गौड़, मधु प्रसाद, मधु भारतीय, मधु शुक्ल, भूपेंद्र कुमार स्नेही, मधुसूदन साहा, म. ना. नरहरि, मयंक श्रीवास्तव, मदन मोहन उपेंद्र, महेंद्र नेह, महेंद्र शंकर, महेश अग्रवाल, महेश अनघ, मरूधर मृदुल, महेश उपाध्याय, महेश्वर,माधव मधुकर, माहेश्वर तिवारी, मिथिलेश, मुकुट सक्सेना, मुकेश अनुरागी, मुनीश मदिर, मृदुल शर्मा, मोहन भारतीय, यतींद्रनाथ राही, यश मालवीय, यशोधरा राठौर, योगेंद्रदत्त शर्मा, योगेंद्र वर्मा 'व्योम`, रंजीत पटेल, रघुनाथ प्रसाद घोष, रजनी मोरवाल, रमाकांत, रमा सिंह, रमेश गौतम, रमेशचंद्र पंत, रमेश प्रसून, रमेश रंजक, रविशंकर मिश्र 'रवि`, रविशंकर पांडेय, रवींद्र उपाध्याय, रवींद्र भ्रमर, राकेश कुमार सिंह 'निशाकर`, राघवेंद्र तिवारी, राघवेंद्र प्रताप सिंह, राजकुमारी 'रश्मि`, राजनारायण चौधरी, राजा अवस्थी, राजेंद्र गौतम, राजेंद्र प्रसाद सिंह, राजेंद्र बहादुर सिंह 'राजन`, राजेंद्र वर्मा, राजेंद्र शुक्ल 'राज`, राधेश्याम बंधु, राधेश्याम शुक्ल, राम अधीर, रामकठिन सिंह, रामकिशोर दाहिया, रामकुमार कृषक, रामचंद्र चंद्रभूषण, रामदरस मिश्र, रामनारायण रमण, रामप्रकाश शुक्ल, रामप्रकाश शुक्ल 'शतदल`, रामबाबू रस्तोगी, रामसनेही लाल शर्मा 'यायावर`, राम सेंगर, रामानुज त्रिापाठी, राणा प्रताप सिंह, रोहित रूसिया, लालसा लाल तरंग, लोकेश शुक्ल, लोलार्क द्विवेदी, वशिष्ठ अनूप, वर्षा 'रश्मि`, वसु मालवीय, विजय किशोर मानव, विजय गुंजन, विजय चक्रवर्ती, विजेंद्र अनिल, विजेंद्र कौशिक, विद्यानंदन राजीव, विनय भदौरया, विनय मिश्र,विनोद निगम, विनोद श्रीवास्तव, विश्वनाथ, विष्णु विराट, वीरेंद्र आस्तिक, वीरेंद्र कुँवर, वीरेंद्र कुमार वसु, वीरेंद्र मिश्र, वेदप्रकाश अमिताभ, शंकर मोहन झा, शंकर सक्सेना, शंभुनाथ प्रसाद श्रीवास्तव, शंभुनाथ सिंह, शरद सिंह, शलभ श्रीराम सिंह, शशि पुरवार, शांति सुमन, शारदा कृष्ण, शिवकुमार अर्चन, शिवकुमार पराग, शिवबहादुर सिंह भदौरिया, शीलेंद्र कुमार सिंह चौहान, शैल रस्तोगी, शैलेंद्र शर्मा, शैलेश पंडित, श्यामनारायण श्रीवास्तव 'श्याम`, श्याम निर्मम, श्यामविहारी श्रीवास्तव, श्यामलाल 'शमी`, श्याम सखा 'श्याम`, श्यामसुंदर घोष, श्यामसुंदर दुबे, श्रीकृष्ण तिवारी, श्रीकृष्ण शर्मा, श्रीराम परिहार, संजय कुमार शण्डिल्य, संजय पंकज, संजय शुक्ल, संध्या सिंह, सतीश कौशिक, सत्यनारायण, सत्येंद्र तिवारी, सत्येंद्र कुमार रघुवंशी, सीमा अग्रवाल, सुधांशु उपाध्याय, सुधीर साहू, सुभाष वसिष्ठ, सुरेंद्र काले, सुरेंद्र वाजपेयी, सुरेंद्र श्लेष, सुरेश, सूर्यदेव पाठक 'पराग`, सूर्यभानु गुप्त, सोम ठाकुर, सौरभ पांडेय, हरिशंकर सक्सेना, हरीश निगम, हरीश भादनी, हीरामणि सिंह 'मीणा’, हृदयेश्वर आदि का नाम उल्लेखनीय है। इनके अलावा निर्मल सिद्धू- टोरांटो, भावना सक्सेना- सूरीनाम, मानोशी- टोरांटो,रचना श्रीवास्तव- यू. एस., रजनी भार्गव- यू. एस. ए., रामकृष्ण द्विवेदी मधुकर- मस्कट, शशि पाधा- यू. एस. ए., शारदा मोंगा- न्यूजीलैंड, हरिहर झा- आस्ट्रेलिया आदि का भी योगदान कम उल्लेखनीय नहीं है। इन्हें खोने के लिए कुछ भी नहीं है और पाने के लिए पूरा संसार है।

जो लोग समकालीन गीत को या तो पढ़ते ही नहीं है अथवा बुरी नीयत से पढ़ते हें उनके लिए स्वतंत्रता के पूर्व की गीत-कविता काफी समृद्ध है। वह कविता है, गीत उसका एक रूप है। आजादी के बाद की सामाजिक परिस्थितियों के अंतर्विरोधों की पकड़ गीतकारों में कमजोर होती गई।

कमला प्रसादके शब्दों में- ''महत्त्वपूर्ण कवियों ने गीत लिखना कम किया। समाज की जटिलताओं को व्यक्त करने की क्षमता गीतों में नहीं दीखी, इसलिए आज कविता के मूल्यांकन का साक्ष्य गीतों में नहीं दीखता।''जबकि वास्तविकता यह है कि आज समकालीन गीतों में ग्राम्य-जीवन, मजदूर, किसान, शोषण, दमन, बाजारवाद, भूमंडलीकरण, आर्थिक उदारीकरण, उपभोक्तावाद, सांप्रदायिकता-विरोध, आतंकवाद-विरोध, दलित चेतना, स्त्री-विमर्ष जैसे आज की तमाम ज्वलंत समस्याओं की जटिल अनुभूतियों की अभिव्यक्ति समकालीन गीतों में सफलतापूर्वक हो रही है।

नामवर सिंह की दृष्टि में ''नवगीत ने गीतकाव्य को सिर्फ भाषा, शिल्प और छंद की नवीनता ही नहीं प्रदान की है बल्कि उसकी अंतर्वस्तु को युगानुरूप सामाजिक चेतना देकर उसको प्रासंगिकता भी प्रदान की है। उसमें युग बोलता है, उसमें वर्तमान समय की धड़कनें सुनाई पड़ती हैं।''

मैनेजर पांडेय की निगाह में ''नवगीत और जनगीतों में समकालीन समस्याओं से साक्षात्कार की चिंता है। इनमें सामाजिक संवेदनशीलता के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति और जन जीवन के भीतर व्यक्ति मन के अंतर्द्वन्द्वों की पहचान की कोशिश भी है। इसलिए उनमें एक सहृदय कवि की सहज बौद्धिकता की चमक भी है जो पाठकों और श्रोताओं को प्रभावित भी करती है।''

और शिव कुमार मिश्र मानते हैं कि ''समकालीन गीत आज किसी भावुक मन की अभिव्यक्ति भर या गाने गुनगुनाने भर की चीज न रहकर समय की विसंगतियों से सीधी आँख मिलाते हुएकविता और आदमीयत को बनाए और बचाए रखने की मुहिम में अपनी गीतात्मक धुरी पर संयत है, और किसी से कमतर नहीं है। जीवन का जो तमाम-कुछ शुभ और सुंदर, समय के क्रूर जबड़े का हिस्सा बन चुका है। वे चाहे जातीय स्मृतियाँ हों, संचित जीवन-मूल्य हों, परंपरित नाते-रिश्ते की उष्मा हो, लोक और लोकजीवन की छवियाँ हों, शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध केबारीक इंद्रिय-संवेदन हों, नवगीत ने उसको बचाए रखने का बीड़ा उठाया है।''

 

२ फरवरी २०१५

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