लोक काव्यों
में सर्वाधिक चर्चित- कहमुकरी
-पीयूष द्विवेदी भारत
कह-मुकरी लोक काव्य की
सबसे अधिक चर्चित विधाओं में से एक है। शायद ही कोई
हिंदी भाषा हो जिसने इनका नाम न सुना हो। अमीर खुसरों
के संदर्भ में बात हो रही हो तो कहमुकरी के बिना कभी
पूरी नहीं होती। बच्चे भी पहेलियों का खेल खेलते समय
कहमुकरी से अनायास परिचित हो जाते हैं।
इस विधा पर अमीर खुसरो द्वारा सर्वाधिक काम किया गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी कह-मुकरियों की काफी रचना
की। लेकिन भारतेंदु युग के बाद जब द्विवेदी युग आया तो
आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के शास्त्रीयता के
प्रति पूर्ण झुकाव के कारण तत्कालीन दौर के तकरीबन सभी
रचनाकार शास्त्रीय छंदों की तरफ एकोन्मुख हो गए और ये
शास्त्रीय एकोन्मुखता ऐसी बढ़ी कि खुसरो की बेटी और
भारतेंदु की प्रेमिका कहलाने वाली ‘कह-मुकरी’ जैसी
रसपूर्ण और मनोरंजक काव्य-विधा के रचनाकार कम होते चले
गए। इसके बाद क्रमशः छायावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद और
आज यानी नई कविता के दौर आए, पर इनमें से किसी भी दौर
के किसी भी रचनाकार द्वारा ‘कह-मुकरी’की तरफ कोई विशेष
ध्यान नहीं दिया गया। आज के इस दौर में जब अतुकांत और
मुक्तछंद कविता अपने चरमोत्कर्ष पर है, ‘कह-मुकरी’
विधा में रचना करने वाले शायद ही कहीं दिखाई देते हैं।
लेकिन जैसा कहा जाता है कि सोशल मीडिया ने तमाम
अवधारणाओं और रुचियों को बदल दिया है, कहमुकरी की
लोकप्रियता के पुराने दिन फेसबुक तथा दूसरे सोशल
मीडिया स्थलों पर दिखाई देने लगे हैं। दरअसल छोटे और
छंदों की लोकप्रियता जैसे जैसे बढ़ी है, कहमुकरी के
चाहने वाले जुड़ने लगे हैं।
आइये एक दृष्टि ‘कह-मुकरी’ के स्वरूप और विधान पर भी
डाली जाए। दरअसल, ‘कह-मुकरी’ का मूल स्वरूप इसके नाम
में ही छिपा ह। ‘कह-मुकरी ’अर्थात कह कर मुकर जाना। ये
दो सखियों के बीच की हास-परिहासपूर्ण वार्ता पर आधारित
होती है। इसमें चार चरण होते हैं। इन चार में से प्रथम
तीन चरणों में एक सखी द्वारा दूसरी सखी से अपने साजन
के कुछ लक्षण बताए जाते हैं और आखिरी चरण में दूसरी
सखी उन लक्षणों के आधार पर पहली सखी से उत्तरविषयक
प्रश्न (ए सखि साजन?) करती है। लेकिन, यहाँ पहली सखी
संकोचवश अपनी बात से मुकरते हुए साजन से अलग और वर्णित
लक्षणों से मिलता-जुलता कोई और उत्तर दे देती है।
उदाहरणार्थ, अमीर खुसरो की एक ‘कह-मुकरी’ पर नज़र डालते
हैं..
वो आवै तो शादी होय
उस बिन दूजा और न कोय
मीठे लागें वा के बोल
ऐ सखि साजन? ना सखि ढोल।
खुसरो की उपर्युक्त मुकरी में स्पष्ट है कि पहले तीन
चरणों में एक सखी द्वारा कुछ लक्षण कहे गए हैं, जो कि
उसके साजन से सम्बंधित प्रतीत होते हैं, लेकिन अंतिम
पंक्ति में जब दूसरी सखी प्रश्न पूछती है तो पहली सखी
अपनी बात से मुकरते हुए साजन की बजाय ‘ढोल’ उत्तर दे
देती है। साफ़ है कि यहाँ छेकापह्नुति अलंकार मौजूद है,
जो प्रस्तुत को अस्वीकार अप्रस्तुत को स्वीकार लेता
है।
इसी क्रम में अब अगर बात ‘कह-मुकरी ’के
मात्रिक-विन्यास की करें तो खुसरो ने संभवतः इसके लिए
किसी निश्चित मात्रा-क्रम का निर्धारण नहीं किया था।
क्योंकि, उनकी मुकरियों में हमें भिन्न-भिन्न
मात्रा-क्रम के दर्शन होते हैं। अब चूँकि, खुसरो भी
काफी हद तक कबीर की ही तरह चलते-फिरते कविता रच देते
थे, अतः संभव है कि उन्होंने अपनी कह-मुकरियाँ भी ऐसे
ही रची हों और इस कारण उनकी मुकरियों में मात्रिक
असंतुलन रह गया हो। हालाँकि, भारतेंदु हरिश्चंद्र की
मुकरियों में हमें मात्रिक संतुलन दिखता है और उन्हीं
के आधार पर ‘कह-मुकरी ’के विषय में मात्रा-क्रम
निश्चित किए गए हैं। भारतेंदु की मुकरियों पर गौर करें
तो उनमे भी चार चरण ही हैं और प्रत्येक चरण में १५-१५
या १६-१६ मात्राओं का क्रम है। आज इसी मात्रा-क्रम को
आधार मानकर ‘कह-मुकरी’ रचना की जा रही है।
फेसबुक पर ‘कह-मुकरी’
का एक समूह यहाँ पर देखा जा सकता है। इसमें ५०० से
अधिक सदस्य इस समूह से जुड़े हुए हैं जिसमें लगभग २५
सक्रियता से कहमुकरी विधा में लेखन कर रहे हैं। तमाम
छोटे-बड़े रचनाकार न सिर्फ उससे जुड़े हैं, नई रचनाएँ
रची जा रही हैं और सदस्य इन्हें रुचि लेकर पढ़ रहे
हैं। धीरे-धीरे आज ‘कह-मुकरी’ सोशल मीडिया के एक छोटे
से हिस्से में ही सही, रचनाकारों को अपनी ओर आकर्षित
करने लगी है। यही नहीं इसमें कुछ रोचक और नवीन
परिवर्तन भी लाए गए हैं। विशेष रूप से ‘कह-मुकरी’ के
कथ्य को सखि-साजन के दायरे से बाहर लाया गया है और
राजनीति, विज्ञान आदि अन्य आधुनिक व समकालीन विषयों तक
इसका विस्तार हुआ है। इस बात का भी ध्यान रखा गया है
कि कहमुकरी का मूल स्वरूप बना रहे और उसके छंद से अधिक
छेड़छाड़ न की जाय।
इन सब परिवर्तनों के लिये काफी विमर्श के साथ आगे बढ़ा
गया। संवाद और परिसंवाद के बाद ‘कह-मुकरी ’की दो
धाराएँ स्थापित करने का रास्ता निकाला गया, जिससे
‘कह-मुकरी ’का मूल स्वरूप भी अक्षुण्ण रहे और उसमें
नवीनता का समावेश भी किया जा सके। पहली धारा को
‘कह-मुकरी’ और दूसरी धारा को ‘‘नव कह-मुकरी’’ नाम दिया
गया। नव ‘कह-मुकरी ’चरणों और मात्राओं के लिहाज से
हुबहू मूल ‘कह-मुकरी’ जैसी ही है, अंतर है तो बस कथ्य
का। ‘‘नव कह-मुकरी’’ का कथ्य, ‘कह-मुकरी’की तरह
सखि-साजन जैसे किसी भी दायरे में नहीं बँधा है।
राजनीति, सिनेमा, खेल, समाज आदि किसी भी क्षेत्र से
सम्बंधित विषय पर ‘‘नव कह-मुकरी’’ रची जा सकती है,
बल्कि रची जा रही है। पर अपने कथ्य की इन विशिष्टताओं
के बावजूद भी ‘नव कह-मुकरी’, मूल ‘कह-मुकरी’ का ही एक
हिस्सा है, इसे कह-मुकरी से अलग नहीं समझा जाना चाहिए।
समूह के साथ इस रास्ते पर चलते हुए ऐसा लगने लगा है कि
कहमुकरी विधा काव्य की प्रमुख धारा से जुड़ सकेगी और
अनेक श्रोताओं व पाठकों को अपनी ओर आकर्षित कर सकेगी। |