नवगीत
पाँचवें दशक से सातवें दशक तक
-उमाशंकर तिवारी
नवगीत का वास्तविक प्रादुर्भाव नयी कविता के युग में
अर्थात सन १९५० के बाद हुआ। तब से लेकर अब तक नवगीत
अपने वस्तु तत्व एवं शिल्प में निरंतर विकास करता हुआ
एक सुनिश्चित काव्य-धारा के रूप में प्रतिष्ठित हो
चुका है। उसकी इस विकास-यात्रा को तीन स्पष्ट चरणों
में विभाजित किया जा सकता है:
१. प्रथम चरण का नवगीत (१९४५ से
१९५५ तक):
इस काल में गीतिकाव्य नवीन रूपाकार में ढलकर
पूर्ववर्ती गीतों से भिन्न रूप में प्रतिष्ठित हुआ। इस
युग के जिन कवियों ने गीत-विधा को अपनाया, उनमें से
अज्ञेय, शम्भुनाथ सिंह एवं त्रिलोचन ने, जो छायावादी
ढंग की कवितायें पर्याप्त लिख चुके थे, गीतिकाव्य को
नयी दिशा में मोड़ने का प्रयत्न किया। इसी तरह शमशेर
बहादुर सिंह, केदारनाथ अग्रवाल और भवानी प्रसाद मिश्र
जैसे कुछ इने-गिने कवियों ने प्रयोगवादी काव्य के दौर
में ही गीतिकाव्य के क्षेत्र में कुछ नवीनता और ताज़गी
लाने का प्रयास किया था। इस तरह नयी कविता के एक
आन्दोलन के रूप में आने के पूर्व अर्थात सन १९४५ से
१९५० तक नवगीत का प्रारम्भिक रूप सामने आ गया था।
अज्ञेय ने सन १९४५ के बाद प्रयोगवादी रचनाओं के साथ
गीतों में भी नये प्रयोग प्रारंभ किये। ऐसे गीत उनके
'इत्यलम्' (१९४६) और 'हरी घास पर क्षण भर' (१९४९) नामक
काव्य-संकलनों में संगृहीत हैं। इन गीतों में कुछ
परंपरागत, सममात्रिक छंदोंवाले तथा टेक युक्त हैं, कुछ
में विभिन्न चरणों की 'टेक' और छंद-योजना अलग-अलग है
और कुछ मुक्त छंदवाले गीत हैं। उनके 'ओ मेरे दिल' और
'शाली' परंपरागत छंद-योजना वाले नवगीत हैं तथा 'जैसे
तुझे स्वीकार हो।' 'हेमन्त बयार, माघ फागुन चैत'
'आषाढ़स्य प्रथम दिवसे' और 'जागरण' आदि गीत मुक्त छंद
से युक्त टेक पद्धति वाले गीत हैं। उन्होंने लोक जीवन
के प्रभावों को गीत-रूप में व्यक्त करने की पद्धति
प्रारंभ से ही अपना ली थी जो 'इत्यलम्' के 'पानी बरसा'
शीर्षक गीत के रूप में दिखलाई पड़ता है। इसी तरह
शंभुनाथ सिंह के काव्य-संकलन 'दिवालोक' (१९५३) में
व्यक्तिवादी स्वच्छन्दतावादी गीति शैली के साथ-साथ ऐसे
गीत भी संगृहीत हैं जो भाषा, बिम्ब-योजना तथा
गेयता-सभी दृष्टियों से नवगीत के प्रारम्भिक रूप
प्रतीत होते हैं। उनमें से 'प्रीति-धारा', 'आज',
'आकाश-बेल', 'एक क्षण', 'क्षणों के फूल', और 'चकाचौंध'
शीर्षक गीत टेकयुक्त काव्य-संकलन प्रकाशित हुआ जिसमें
गीतों में नये-नये प्रयोग किये हैं। फिर उनके तत्कालीन
गीतों का समग्र प्रभाव यही पड़ता है कि कवि के कथ्य में
सूक्ष्मता और गहराई कम है क्योंकि उनके कुछ गीतों में
अति सामान्यता है जिसे सतहीपन भी कहा जा सकता है और
कुछ में निराला का स्पष्ट अनुकरण दिखलाई पड़ता है फिर
भी उपर्युक्त संग्रह के 'नीम में नव फूल आये', 'धूप
सुंदर', 'हरा भरा संसार, 'आज मैं अकेला हूँ', 'स्वस्थ
तन, स्वस्थ मन' आदि गीत 'नवगीत' के निकट दिखलाई पड़ते
हैं।
इसी तरह प्रथम चरण के नवगीतों की विशेषता यह है कि
उनमें छायावादी भाव-भूमि, भाषा और छंद-योजना का
परित्याग कर दिया गया। प्रेम-संबंधों की सीधी
अभिव्यक्ति, संवेदनाओं की अछूती दिशा तथा सर्वथा नवीन
शब्दावली के कारण ही ये गीत 'नवगीत' माने जा सकते हैं।
अज्ञेय में लोक-जीवन के प्रभावों को गीत-रूप में
व्यक्त करने की प्रवृत्ति प्रारंभ से ही वर्तमान थी।
यह प्रवृत्ति अन्य कवियों में विकास के दूसरे चरण में
दिखलाई पड़ती है।
२ द्वितीय चरण का नवगीत (१९५५
से १९६५ तक):
नवगीत को 'नयी कविता' के काल में ही वास्तविक
प्रतिष्ठा प्राप्त हुई क्योंकि इस काल के सप्तकीय तथा
सप्तकेतर कवियों में से कई कवियों ने 'गीत' को नया
रूपाकार देने का प्रयास किया। नवगीत के प्रथम चरण के
कवियों में से अज्ञेय और शंभुनाथ सिंह ने इस
काव्य-प्रवत्ति को दृढ़तापूर्वक अपनाते हुए और भी
अग्रसर किया और साथ ही 'गीत' के लिए एक ऐसा वातावरण
प्रस्तुत किया जिसके परिणामस्वरूप 'नयी कविता' के
उत्साही कवियों ने भी 'नवगीत' का पल्ला नहीं छोड़ा। इस
काल के सप्तकीय कवियों में भवानी प्रसाद मिश्र,
गिरिजाकुमार माथुर, धर्मवीर भारती, नरेश मेहता,
केदारनाथ सिंह, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, मदन
वात्स्यायन तथा सप्तकेतर कवियों में से ठाकुर प्रसाद
सिंह, वीरेन्द्र मिश्र, रामदरश मिश्र, परमानन्द
श्रीवास्तव आदि ने 'नवगीत' को नयी दिशा में मोड़ने का
प्रयास किया। अज्ञेय के 'बावरा अहेरी' का 'जो कहा नहीं
गया', 'अन्धड़' तथा 'यह दीप-अकेला' गीतों में आधुनिक
भाव-बोध को प्रतीकात्मक ढंग से व्यक्त किया गया है।
उन्होंने प्रकृति के लैण्डस्केप और नागरिक जीवन के
क्लान्त-श्रान्त स्वरूप का चित्रण तटस्थ होकर नहीं,
अनुभूत क्षणों के भोक्ता के रूप में किया है। इसी
प्रकार शंभुनाथ सिंह के माध्यम मैं (१९७५) के कुछ गीत
लोकगीतों के जीवंतसंस्पर्श और ग्राम्य जीवन की ताज़गी
से भरे हुए हैं। सप्तकीय कवियों में से नरेश मेहता,
हरिनारायण व्यास, धर्मवीर भारती, विजयदेव नारायण
'साही', केदारनाथ सिंह और कुँवर नारायण के गीतों में
छायावादी कल्पनाशीलता और किशोर रोमानी भावना वर्तमान
है फिर भी उनके गीतों में कुछ नवीनता और ताज़गी अवश्य
है। भारती और केदारनाथ सिंह के कई गीत लोक गीतों की
शैली से प्रभावित हैं और ग्राम्य जीवन की सोंधी गंध से
युक्त होने के कारण 'नवगीत' की श्रेणी में आते हैं।
भारती की 'फागुन की शाम', डोले का गीत, बेला महका,
बोवाई का गीत और केदारनाथ सिंह की दुपहरिया, फागुन का
गीत, पात नये आ गये, 'धानों का गीत' और 'रात' शीर्षक
कविताएँ भी इसी प्रकार की हैं। द्वितीय और तृतीय सप्तक
में संकलित भारती, केदारनाथ सिंह और सर्वेश्वर के गीत
भी लोक धुनों पर ही आधारित हैं।
तीसरा सप्तक के प्रकाशन काल (सन १९५९) तक नवगीत
पूर्णतः प्रतिष्ठित हो गया। इसका प्रमाण यह है जहाँ
तारसप्तक में इने-गिने ही गीत हैं और दूसरे सप्तक में
भी गीतों की संख्या अधिक नहीं है, वहाँ तीसरे सप्तक
में गीतों की संख्या बहुत अधिक है। तीसरे सप्तक में
प्रयाग नारायण त्रिपाठी को छोड़कर शेष सभी कवियों ने
पर्याप्त संख्या में गीतों की रचना की ओर विशेष
उन्मुखता दिखाई जैसे ठाकुर प्रसाद सिंह, वीरेन्द्र
मिश्र, श्रीकान्त वर्मा, रामदरश मिश्र, कुमारी रमा
सिंह आदि। यह नयी कविता के प्रथम दशक (१९५० से १९६०)
का काल था। नयी कविता के विरोधियों की आवाज इस दशक का
अंत होते-होते दब गई और दोनों वर्गों में एक अलिखित
समझौता हो गया, जिसके अनुसार मन ही मन यह मान लिया गया
कि नयी कविता और नवगीत में कोई अंतर नहीं है। मुक्त
छंद में नये ढंग की कविता लिखने वाले कवि भी
'गीतिकाव्य' की रचना कर सकते हैं बशर्ते कि उन गीतों
में किसी न किसी प्रकार की नवीनता और ताज़गी हो, साथ ही
परंपरागत गीत पद्धति की लीक पर चलने वाले कवि भी मुक्त
छंद की नयी कविता तथा नवगीतों की रचना कर सकते हैं। इस
मनोवृत्ति-परिवर्तन के फलस्वरूप केदारनाथ सिंह,
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कीर्ति चौधरी और कुँवर नारायण
जैसे नवगीतकारों का उद्भव हुआ और साथ ही वीरेन्द्र
मिश्र, ठाकुर प्रसाद सिंह, रामदरश मिश्र, रवीन्द्र
भ्रमर जैसे गीतकार कवियों को नयी कविता का संस्कार
मिला जिससे वे सफल और सशक्त नवगीत की रचना कर सके।
तीसरे सप्तक के कवियों में सर्वेश्वर दयाल सक्सेना,
कुँवर नारायण और केदारनाथ सिंह आदि ने सबसे अधिक गीत
लिखे हैं। उनमें वह सूक्ष्म और गहरी अनुभूति तथा सहज
अभिव्यंजना-शक्ति वर्तमान है जो नवगीत के लिए आवश्यक
है। उन्होंने तीन प्रकार के गीत लिखे हैं-
लोकगीत-भावित, परंपरागत सममात्रिक-समतुकान्त गीत और
मुक्त छंद के गीत। लोकगीत-भावित कविता को इन दोनों
कवियों ने चरम परिणति दी है। सर्वेश्वर के सुहागिन के
गीत और बंजारे का गीत, सावन का गीत, झूले का गीत,
चरवाहों का युगलगान, आँधीपानी आया, आदि गीतों में न
केवल लोक गीत जीवन के तत्वों और उपादानों को सही ढंग
से पकड़ा गया है प्रत्युत उनमें नवीन अर्थ भी भरा गया
है।
३ तीसरे चरण का नवगीत:
सातवें दशक में प्रवेश करने के साथ ही परिवर्तित
सामाजिक दबाव के कारण 'नयी कविता' में ह्मसोन्मुख तत्व
जोर मारने लगे और काव्यगत अन्तर्विरोध के फलस्वरूप
अराजकता तथा मूल्यहीनता की प्रवृत्ति बढ़ने लगी थी। इन
दबावों का प्रभाव नवगीत पर भी पड़ा। इस दबाव की नयी
कविता में तथा उसी के समानान्तर 'नवगीत' में अब
लोक-व्यंजना के स्थान पर आधुनिकता जन्य मानवीय संकट,
विविध आवेगों की आशंका, भय, आतंक, अकेलापन, कुंठा,
संत्रास, अजनबीपन और विवशता की भावना का प्राबल्य
दिखलाई पड़ने लगा। मध्यवर्ग में तथा बेरोजगार नयी पीढ़ी
में मूल्यहीनता और असुरक्षा की भावना के कारण तनाव और
उद्वेग जनित बेचैनी बढ़ गई। फलतः उसकी सहज स्वाभाविक
प्रतिक्रिया में नवगीत के रचनाकारों का स्वर भी बदल
गया।
सन १९६० के बाद कथ्य के बदलाव को महसूस करके प्रतिबद्ध
मुद्रा में गीत काव्य की रचना करने वाले कवियों में ओम
प्रभाकर, शलभ श्रीराम सिंह, देवेन्द्र कुमार, नईम,
उमाकान्त मालवीय, माहेश्वर 'शलभ', नरेश सक्सेना,
बालकृष्ण उपाध्याय, रमेश रंजक, रामचन्द्र, चन्द्र
भूषण, श्री कृष्ण तिवारी, गुलाब सिंह, उमाशंकर तिवारी,
अनूप अशेष, कैलाश गौतम, सत्यनारायण आदि ऐसे कवि हैं
जिन्होंने विषयवस्तु, लय और अनुभूति की दिशा में 'नयी
कविता' की संपूर्ण अभिव्यक्ति को अपने में समेट लिया
है। ये सभी कवि युवा-पीढ़ी के कवि हैं और सन ६० के बाद
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से उभरकर सामने आये
हैं। उन्होंने मानव-मन के अंतर्द्वंद्व को सही शक्ल
में पेश कर एक ओर तो पारिवारिक जीवन की सहजता को
प्रस्तावित किया है, प्रकृति को नये उपमानों और
ताजे-टटके बिम्बों के साथ चित्रित किया है दूसरी ओर आज
के लघु मानव के संशय, अनिश्चय, घुटन, घृणा और कातरता
को नयी जुबान दी है।
द्वितीय चरण के नवगीत लिखने वाले कवियों में से केवल
शंभुनाथ सिंह ने नवगीत को आधुनिकता-बोध से जोड़ने की
दिशा में इस युग में भी क्रियाशीलता दिखलाई है।
उन्होंने यथार्थ जीवन की विसंगतियों के साथ-साथ
वैज्ञानिक बोध को भी अपना कथ्य बनाकर नवगीत के एक नये
और अछूते आयाम को उद्घाटित किया है। इन कवियों की
कवितायें पत्र-पत्रिकाओं-विशेषतः लघु पत्रिकाओं और
उनके विशेषांकों में प्रकाशित होती रही हैं, इस प्रकार
विगत ३० वर्षों में नवगीत, नयी कविता की एक सर्वाधिक
सशक्त विधा के रूप में विकसित होकर प्रतिष्ठित हुआ है।
उसकी उपलब्धियाँ भले ही अभी पूर्णतः विश्लेषित और
रेखांकित न की जा सकी हों, किंतु साहित्य का भावी
इतिहासकार इस शताब्दी के साहित्य के इतिहास के
परिप्रेक्ष्य में 'नवगीत' का सही मूल्यांकन कर सकेगा।
अभी उसकी संभावनायें 'नयी कविता' के समान चुकी नहीं
हैं। अतः नया नवगीतकार 'नवगीत' को और भी उत्कर्ष तक ले
जा सकेगा, यह संभावना व्यक्त की जा सकती है। |