नवगीत परिसंवाद-२०१२ में
पढ़ा गया शोध-पत्र
मुंबई के नवगीतकार
-ओमप्रकाश तिवारी
मुंबई
में नवगीत की यात्रा वास्तव में नवगीत के
पुरोधाओं-प्रवर्तकों में से एक वीरेंद्र मिश्र जी से
शुरू होती है।
१९४० में ग्वालियर से एक गीतकार के रूप
में अपने साहित्य का सफर शुरू करनेवाले वीरेंद्र मिश्र
जी को एक प्रखर नवगीतकार की पहचान दिलाने में मुंबई
महानगर की आबोहवा ने बड़ी भूमिका निभाई। इसका पता १९९४
में प्रकाशित उनके गीतों-आँगन के संकलन गीत विविधा
में लिखे उनके आत्मकथ्य से चलता है।
मिश्र जी लिखते हैं
– सागर का सारा आकर्षण तब ध्वस्त हो गया, जब सागर-नगर
में रहना पड़ा।
वस्तुतः मुंबई पहुँचकर मध्यम वर्गीय संघर्षों के
समुद्र से साक्षात्कार करते हुए, मैं एक नए अनुभव
संसार में जा पहुँचा। अर्थपिशाचों की जातीयता,
रूढिवादिता और कृत्रिमता पर तथाकथित आधुनिकता और
प्रतिष्ठा के मुखौटों के आगे, अपनी जीती-जागती
प्रगतिशीलता के अपमान तथा पारिवारिक समस्याओं से
उत्पन्न तनावों के प्रश्नों पर, निरुत्तर समुद्र भी
अर्थहीन एवं गर्जन भरे ठहाके लगाकर रह गया। समुद्र
गीतों के माध्यम से मैं मानव-मन के कितने तनावों और
अभावों से ग्रस्त पक्षों को अभिव्यक्ति दे सका, और
कितना महासागर के व्यापक परिवेश को, और कितना कुछ छूट
गया, यह तो आप मेरे ये गीत पढ़कर ही जान सकेंगे। लेकिन
मैं अपने इस रचना संसार से बहुत संतुष्ट नहीं हूँ।
वीरेंद्र जी लिखते हैं कि मैं अपने
इस रचना संसार से संतुष्ट नहीं हूँ।
लंबी अवधि तक मुंबई
में रहने और उस महानगर को अपने आँगन में जीने के
बावजूद असंतुष्टि का भाव रह जाना स्वाभाविक है।
क्योंकि मुंबई जैसी महानगरी दैनंदिन जीवन में इतने
प्रकार के अनुभव देती है कि उन सारे अनुभवों को
गीत-नवगीत क्या, साहित्य की किसी भी विधा में समेट कर
संतुष्टि का भाव पा लेना संभव ही नहीं है। बशर्ते अपनी
रचनाशीलता जागृत रखी जाए।
आँगन की रचना के लिए मुंबई पर्याप्त खाद-पानी
उपलब्ध कराती है। गगनचुंबी इमारतों के बीच पसरी धारावी
जैसी झोपड़पट्टियाँ हमें विसंगति का बोध कराती हैं।
उद्योग-व्यापार की राजधानी होने के कारण मजदूर संगठनों
की उपस्थिति हमें संघर्ष चेतना एवं जनोन्मुखता का
अहसास कराती है।
पिछले २० वर्षों में एक दर्जन से
ज्यादा छोटे-बड़े आतंकी हमले झेल चुकी मुंबई जब अगले
ही दिन पहले की रफ्तार से चलती दिखाई देती है, और
युवाओं की टोलियाँ हाथ में जलती हुई मोमबत्तियाँ लेकर
गेटवे ऑफ इंडिया पर इकट्ठा होती हैं, तो हम भारतीयता
में निष्ठा के साथ-साथ ज़िंदादिली का अनुभव करते
हैं।
और जब किसी विशेष राजनीतिक मुहिम के तहत
हिंदीभाषियों को निशाने पर लिया जाता है तो अस्मिता की
पहचान जैसे सवाल खड़े होने लगते हैं।
यानी, आँगन के
लिए आवश्यक सभी जरूरी प्रवृत्तियाँ मुंबई में बड़ी
संख्या में मौजूद हैं। आप अपनी रचनाशीलता को कुरेदिए
और अपनी जरूरत के अनुसार इन प्रवृत्तियों का उपयोग
कीजिए। दैनंदिन जीवन में ये प्रवृत्तियाँ किसी को
शून्य से शिखर तक जाने का अवसर प्रदान करती हैं तो कोई
जीवन भर खट कर भी मंजिल की तलाश करता रह जाता है।
ऐसा
ही एक अनुभव वीरेंद्र मिश्र जी के १९७५ में लिखे नवगीत
में सामने आता हैः
डूबने से बच गए तुम टूटने से क्या बचोगे
काल की चट्टान से टकरा गए गुमनाम शीशे
बीच में ही
टूटने का जिक्र क्या करना किसी से
वह न चोरी से बचेगा सृष्टि जो भी तुम रचोगे
वीरेंद्र मिश्र जी का ऐसा ही एक और अनुभव १९८८ में
लिखे उनके नवगीत से सामने आता है, जिसका शीर्षक है
निषाद मनः टूट गए दिशा-यंत्र आज लक्ष्यद्वीपों में भटक
रहे हम अपनी नावों के साथ
पंखों जैसी थीं पतवार प्रखर गीतमयी --
वे हैं संवादहीन
ऊपर हैं गरुण, और नीचे हैं मगरमच्छ सब अपने में प्रवीण
हम कैसे हैं निषाद टुकड़े-टुकड़े विषाद
ढोते हैं पीठों पर
पाँवों के साथ
उम्र में वीरेंद्र जी से सात वर्ष छोटे सच्चिदानंद
सिंह समीर को वीरेंद्र जी के बाद मुंबई में आँगन की
अगली कड़ी माना जा सकता है।समीर जी का पहला नवगीत
संग्रह बिंधा हुआ आदमी १९८३ में प्रकाशित हुआ, जबकि
दूसरा नवगीत संकलन – अर्हता के पाँव १९९२ में सामने
आया। मुंबई महानगर में उपलब्ध आँगन की प्रवृत्तियों
को समीर जी ने भी खूब जिया और उसे आँगन में ढाला।
ऊपर की पंक्तियों में हमने मुंबई में लोगों के शून्य
से शिखर तक पहुँचने का जिक्र किया है। समीर जी के
नवगीत में देखिए इसकी एक झलकः
कैसे तुम
पूरा आकाश
हो गये
जीरो से
सीधे पचास
हो गए
कल तक तुम
कैक्टस थे आज हो गुलाब
कल भी
बबूलों के होंगे हिसाब कैसे तुम
ताड़ से पलाश
हो गए।
वर्तमान सामाजिक परिदृश्य की झलक देते समीर जी के एक
और नवगीत की पंक्तियाँ देखिएः
चोर-घरों के आय-करों का
लेखा-जोखा
सी.ए.रखते
साहब की
ऊँची आमद की मोटी फाइल
पी.ए.रखते
मेहनतकश रोटी को झँखते।
बैठे-बैठे चले तिचारत काले धन से बने इमारत
अभियंता का
भाग कमीशन बेटे-बेटी
साले रखते
नौजवान कामों को लखते।
वीरेंद्र जी एवं समीर जी की इसी धारा को उनके कुछ बाद
की पीढ़ी के कवि आनंद त्रिपाठी अपनी इन पंक्तियों के
जरिए आगे बढ़ाते हैं, जिसका शीर्षक है कुर्सी
जिंदाबादः
मौज उड़ाते हैं दुमछल्ले कुर्सी ज़िंदाबाद
तू भी पीकर
बोल धड़ल्ले कुर्सी ज़िंदाबाद
आँगन में फैली बेकारी भाषण में जनतंत्र
पुरवाई का
झोंका बोला वही पुराना मंत्र
आगजनी बटमारी फैली
हत्याओं का जोर
शानदार जीवन जीता है बैठा रिश्वतखोर
स्वर्ग भोगते बैठ निठल्ले कुर्सी ज़िंदाबाद
वर्ष २०१०
में प्रकाशित आनंत त्रिपाठी के एक संग्रह में शामिल
कुछ
आँगन में से एक और देखिएः
भूख जगी हर ओर से
मन घबराया शोर से
किससे माँगें रोटी कपड़ा किससे कहें मकान दो
किससे कहें देश को मेरे बस सच्चा इंसान दो
बटमारों के महानगर में अपनी एक न चल पाती है
दीप जलाने को उठता हूँ, तो उंगली ही जल जाती है
टपक रहा है लहू न जाने क्यों
आँखों की कोर से
मुंबई में वीरेंद्र मिश्र से लेकर आज तक की पीढ़ी को
समेटनेवाले कवि हृदयेश मयंक के संग्रह – एक महक सोंधी
माटी की – में १३२ नवगीत संकलित हैं। मयंक जी के
आँगन में एक अलग रंग नजर आता है। भोर का सूरज
शीर्षक वाला एक नवगीत देखिएः
धूप की चादर समेटे आ रहा है
भोर का सूरज घरों को भा रहा है
फिर खिली है धूप अपना सेंक लो सिकुड़ा बदन
आँख में अंजन सहेजो चूम लो नभ का नयन
साँझ का डर रोशनी को खा रहा है
एक कंबल का किनारा एक टुकड़ा धूप
बाँध लूँ मैं किस तरह से यह सलोना रूप
दूर कोई ध्वंसवाणी गा रहा है
एक बात और। महानगरों में रहते हुए गाँव भी बहुत याद
आता है। और इसी याद के वशीभूत होकर जब कभी महानगरीय
कवि अपने गाँव जाता है, तो उसे बदलते गांवों की तस्वीर
देखकर और दर्द होता है। मयंक जी के ही समकालीन कवि
सूर्यभानु गुप्त की इन पंक्तियों को देखिएः
सर फूटे, घर टूटे मन धुनिये की रुई
तलवारें खुलीं जहाँ
काम आनी थी सुई।
खण्डहर हो गए गाँव भूतों का वास हुआ
अम्मा-बप्पा-भइया हर नाता घास हुआ
घास बढ़ी यूं,
गर्दन ऊंटों की जा छुई।
तलवारें खुलीं जहाँ काम आनी थी सुई।
गुप्त जी के ही एक और नवगीत की कुछ और पंक्तियाँ
उद्धृत करने का लोभ नहीं संवरण कर पा रहा हूँ –
हो गईं सदियाँ मगर फिर भी है अजूबा,
पेड़ अब भी आदिवासी हैं।
पत्तियाँ अब तक पहनते हैं
मूड हो नंगे भी रहते हैं
पेड़ खालिस पेड़ हैं अब भी
पेड़ मुल्ला हैं, न पंडित हैं, न पासी हैं।
है अजूबा, पेड़ अब भी
आदिवासी है।
काव्य की अन्य विधाओं सहित दूरदर्शन धारावाहिकों में
भी खासी पहचान बना चुके पंडित किरण मिश्र भी वीरेंद्र
मिश्र के समय से ही नवगीत रचते आ रहे हैं। अब तक उनके
दो संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। १९९६ में प्रकाशित
पहले संग्रह - चुंबक है आदमी - के एक नवगीत इमली के
वृक्षों में आमों के बौर की कुछ पंक्तियाँ देखिएः
इमली के वृक्षों में आमों का बौर
लगता है मौसम का चला नया दौर
चक्रवात सी भागा दौड़ी है
बिम्बों की उठापटक हलचल
अपने में ही संशय उत्तर है
कंपित है मन का सारा स्थल
कृत्रिम है सूरज पर अपना सिर मौर
किरण जी के ही दूसरे संग्रह कंपन करती धरती के एक
नवगीत – एक माचिस में – की एक झलक देखिएः
एक माचिस में जितना ध्वंस यहाँ बंद है
हृदय में हमारे उतना ही छुपा द्वंद्व है
मानवता की सतह पर अविवेकी उँगलियाँ
बार-बार रगड़ जातीं स्वारथ की तीलियाँ
देख के अनीति जितनी आँखें बनी अंध हैं
हृदय में हमारे उतना ही छुपा द्वंद्व है
पहले लखनऊ, फिर दिल्ली होते हुए पिछले दो दशक से मुंबई
में रह रहे ओमप्रकाश तिवारी के अधिसंख्य आँगन की
रचनाभूमि भी मुंबई ही रही है।
पेशे से पत्रकार ओमप्रकाश तिवारी
के आँगन में भी वर्तमान घटनाक्रम की छाप उनकी
व्यंग्य विधा की छौंक के साथ देखी जा सकती है। देखें
वसंत ऋतु पर लिखा एक नवगीतः
चेहरा पीला आटा गीला मुँह लटकाए कंत
कैसे भूखे पेट ही गोरी गाए राग वसंत
मंदी का है दौर नौकरी अंतिम साँस गिने
जाने कब तक रहे हाथ में कब बेबात छिने
सुबह दिखें खुश, रूठ न जाएँ शाम तलक श्रीमंत
राजनीतिक परिवेश पर लिखे गए ओमप्रकाश तिवारी के एक और
नवगीत की झलक देखिएः
दिल्ली के दिल में
घर एक बसा गोल
बच्चों से भरा-पुरा लंबा परिवार
आपस में झगड़ें सब मुखिया बेकार
लगता है इस घर की नींव रही डोल
मुंबई के वरिष्ठ साहित्यकार रहे डॉ. राममनोहर त्रिपाठी
वैसे तो गीतकार रहे हैं।लेकिन समाजिक विषयों की
अभिव्यक्ति के लिए उन्होंने भी आँगन को ही माध्यम
बनाया। देखिए एक झलकः
दुनियादारी से समझौते करके
भावुकता ने कब माना अनुशासन
झुलसी खेती सी जरूरतें मेरी
बेबरसे बादल जैसे आश्वासन
मुंबई में नामवर और शैलजा शर्मा जैसे गीतकारों ने भी
आँगन में अच्छे प्रयोग किए हैं। संभव है, कुछ नाम
मुझसे छूट भी रहे हों। लेकिन यह कहने में हमें कोई
हिचक नहीं है कि जिस मुंबई शहर में वीरेंद्र मिश्र और
सच्चिदानंद सिंह समीर जैसे नवगीतकारों ने इस विधा के
प्रवर्तन-पोषण में बड़ी भूमिका निभाई हो, अब उसी शहर
में प्रवृत्तियों, प्रतीकों और बिंबों की प्रचुरता के
बावजूद नवगीतकारों का एक अकाल सा महसूस किया जाने लगा
है। |