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समकालीन
नवगीत में नवीन छंद
रामसनेही लाल शर्मा यायावर
हिन्दी का छन्द शास्त्र इतना विराट है, कि उससे बाहर
किसी नये छन्द की रचना करना संभव नहीं है। इसीलिए
समकालीन गीतिकाव्य में जब छन्द की बात की जाती है तो,
उसका आशय उपादानों और परिवर्तन से होता है, जिसके कारण
गीतों में प्रयुक्त छन्दों में नवीनता का आभास होता
है। गीतकार विविध तरीके अपनाकर छान्दसिक नवीनता का बोध
कराता है जब कि छन्द उसमें वही होते हैं जो छन्द
शास्त्र की सीमा में आते हैं। गीतकारों द्वारा किये
गये ये परिवर्तन समकालीन गीति काव्य को एक नई भूमिका
में प्रस्तुत करते हैं। समकालीन गीतकारों में जो इस
प्रकार के छन्द परिवर्तन को समर्पित नव गीतकार
निम्नलिखित उपदानों और तरीकों को अपनाते देखे जाते
हैं:-
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१. परंपरागत छन्द को चरण के स्तर पर तोड़ना |
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२. यौगिक छन्द बनाना |
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३. चरण संख्या घटाना बढ़ाना
|
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४. चरणों में विसंगति अपनाना |
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५. छन्द हीनता |
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६. बृहत् खंड योजना से छन्दात्मकता लाना |
यहाँ
इनको क्रमवार अलग अलग विश्लेषित करना समीचीन होगा।
परम्परागत छंद को चरण स्तर पर
तोड़ना
अनेक गीतकारों ने परंपरागत छन्द को परिपक्वता के साथ
प्रयुक्त करने के बावजूद उसके एक एक चरण को दो या तीन
तीन टुकड़ों (पंक्तियों) में लिखा है। इससे मूल छंद
टुकड़ों की भीड़ में खोया हुआ दिखाई देता है। परंतु लय
का प्रवाह यह जता देता है कि इस भीड़ में अमुक छंद अपना
रस घोल रहा है। इससे पाठक को परंपरागत छंद का आनंद तो
मिलता ही है, साथ ही टुकड़ों पर आने वाले विशेष बलाघात
से अनुभूति या अर्थ के घनत्व का अतिरिक्त लाभ भी
प्राप्त होता है। दृष्टव्य हैः
तूफानी रातों में
समाधिस्थ पेड़
पूछते हवाओं से कौन रहा छेड़
सपनों के
डेरे में
यह कैसी चाल
लहरों से कहते हैं
जाग रहे ताल
कौन रहा तारों को इस तरह खदेड़‘ १
यह विशुद्ध रूप से २१ मात्राओं का छंद है जिसमें १२ और
९ मात्राओं पर यति है। चान्द्रायण छंद में ११ और १० पर
यति होती है परंतु लय इसी के समान धर्मी होती है। यहां
पहले चरण को दो टुकड़ों में, तीसरे चरण को तीन टुकड़ों
में चौथे चरण को दो टुकड़ों में दूसरे और पांचवें
(अंतिम) चरणों को पूर्ण रूप से लिखा है। चरण क्रमांक २
और ५ छंद की अस्मिता पूरी तरह स्थापित करते हैं। कवि
ने केवल चरणों के विभाजन द्वारा छंद को नवीनता देने का
प्रयास किया है एक अन्य उदाहरण देखें:
मंदिर के पेड़ों की
बंद प्रार्थनाएं हैं
दिन के हैं जोड़ बांट
रातों के/मैल हैं,
सेवा के बीच अभी
बांटते/रखैल हैं
पूजा में तृप्त हुई
अंध आत्माएं हैं २
यदि इस गीत की टेक के प्रथम दोनों चरणों को एक चरण के
रूप में देखें तो यह विशुद्ध सारस छंद है जिसमें १२-१२
पर यति होती है। एक पंक्ति को एक चरण मानें तो यह १२
मात्रा का ’नित‘ छंद है। परंतु नवीनता लाने के लिए या
दिखाने के लिए ’रातों के‘ ’मैल हैं‘ जैसे टुकड़े कर
दिये गये हैं। यह प्रवृत्ति समकालीन गीतों में कई
कविता के प्रभाव से आयी है।
यौगिक छंद बनाना
नवीन छंद के प्रयास से समकालीन गीतकारों ने दो अलग अलग
छंदों के चरण लेकर नये छंद प्रस्तुत किये हैं। इन्हें
यौगिक छंद कहा जा सकता है। दृष्टव्य है:
हेमंती साँझ हुई सूनी
होकर अवधूत विरत
सोई है भस्मावृत धूनी ३
इस छन्द में प्रथम चरण तथा तृतीय चरण (अंतिम) चरण
सोलह-सोलह मात्रा के हैं परंतु दोनों अलग-छन्दों के
हैं। पहला चरण चित्रा छंद के मिजाज का है और तीसरा
पादाकुलक है। बीचका चरण १२ मात्राओं का है तथा यह तोमर
छंद के मिजाज का है। इस प्रकार तीन छंदों के तत्वों को
मिलाकर कवि ने नया छंद बनाने का प्रयास किया है। यदि
इसे नया छंद मान भी लें तो भी यह मूल छंद न होकर यौगिक
ही रहेगा।
चरण संख्या घटाना बढ़ाना
सामान्यता छंद चार चरणों का होता है। कुछ छंद दो
पंक्तियों में लिखे जाते हैं परंतु चरण उनमें चार ही
होते हैं। दोहा और सोरठा छंद इसके प्रमाण हैं। इसका
अर्थ है कि दो चरणों को एक पंक्ति में लिखा जा सकता
है। नवगीतकारों ने कहीं ऐसा कहीं नहीं किया है।
उन्होनें छन्द के लिए निर्धारित चरण संख्या के नियमों
का अतिक्रमण किया है तथा कहीं चार के स्थान पर तीन और
कहीं चार के स्थान पर पांच या छह चरण कर दिये हैं।
यथा:
न रह दीप के मोह में
निकल चाँद की टोह में
बुझे जो नहीं ४
यहाँ यदि छंद को चार चरण मानें तो डेढ़ चरण कम है यदि
दो चरण का छंद मानें तो आधा चरण अधिक है। एक अन्य अंश
देखें:
हर बटोही को टिकोरे टोकते
और टेसू, पथ अगोरे रोकते
कमल खिलते ताल में
बसा कोई ख्याल में
चन्द्रमा, श्रृंगार का ज्यों आरसी
रात, जैसे प्यार के त्योहार सी ५
-उमाकान्त मालवीय
गीत के इस अन्तरा को छंद के रूप में देखने से स्पष्ट
हो जाता है कि इसमें चरण-संख्या अधिक है तथा चरण
क्रमांक ३ व ४ चरणों के समान्तर नहीं हैं अर्थात इसमें
एक से अधिक छंदों के चरणों का समावेश होने से यह यौगिक
छंद है।
चरणों में विसंगति अपनाना
कुछ समकालीन गीतकारों ने एक छंद के चरणों में असमानता
लाकर नयापन दर्शाया है। इसकी विशेषता यह है कि चरण
रचना में अंतर होने पर भी उनमें गेयता बरकरार रहती है
यथा-
कच्चे घर की सीलन
कोने कोने में
आधे-आधे जैसे
हम न हुए
होने में
पानी-पानी बादल
आंगन में
फुग्गों में
कगज की नावें हैं
पिंजरा है
सुग्गों में
बूँद-बूँद घुलते
संबंध
किसी दोने में ६
यहाँ टेक का प्रथम चरण प्रथम पंक्तियों को मिलाकर २२
मात्राओं का है और इस टेक का शेष अंश जो ’कोने में‘ से
तुक मिलाना है, २४ मात्राओं का है। इन दोनों चरणों में
यह विसंगति है, फिर भी संगीत चाहे न हो गेयता इसमें
प्रवाहित है। एक अन्य उदाहरण देखें-
रेत पर
मछली तड़प कर
मर गई
लहर की सूनी हथेली
मोतियों से भर गयी ७
इस अंश में दो चरण हैं- ’रेत पर मछली तड़प कर मर गई‘ और
’लहर की सूनी हथेली‘ मोतियों से भर गई। पहला १९
मात्राओं का है और दूसरा २६ मात्राओं का। यह विसंगति
है परंतु गेयता इसमें फिर भी व्याप्त है। यह विसंगति
छंद का नयापन दर्शाती है।
छंद हीनता
समकालीन गीतकारों के छंद हीनता का समावेश कर छंदों को
नवीन रूप में संयोजित किया है। यह छंदहीनता चरणों में
विकृति उत्पन्न करके दिखाई गई है, जिसमें परंपरागत छंद
के प्रति रूढ़ात्मकता अपदस्थ होती है तथा अवधारणा जन्म
लेती है। यथा-
माँ कहती है
ऐसा कब तक होगा
पूरा एक गाँव पी जाए, बूँद बूँद शीतलता
और कहीं बर्दाश्त रोक दे
तटबंधों से पार उभरती आँखों भरी
सजलता ८
यह अंश गीत की एक इकाई है तथा इसमें ’शीतलता‘ और
’सजलता‘ के तुक निर्वाह ने इसे छंद के समकक्ष बना दिया
है परंतु इससे छंद के अन्य तत्व यति, गति, चरण साम्य
आदि कहीं नहीं है अर्थात इसमें छंद हीनता है जो नये
छंद का आभास देती प्रतीत होती है, एक अन्य उदाहरण
देखें-
बादल-से दिन
पानी-से दिन
छूट गऐ सफर में
कहानी से दिन ९
यहां पहले दो चरणों में मात्रा साम्य है परंतु तीसरे
और चौथे चरणों में परस्पर या प्रथम दो चरणों में कहीं
कोई साम्य नहीं है। इनमें छंद हीनता की स्थिति है
परंतु इनका मुद्रण और चरणबद्ध रचना इन्हे छंद के रूप
में प्रस्तुत करते हैं। नवगीतकारों ने इस प्रकार की
छंद हीनता को अपने गीतों में विशेष महत्व दिया है। वे
भाव को छंद के पीछे नहीं चलाते बल्कि छंद से भाव के
पीछे चलने की आशा करते हैं। इस छंद हीनता को वे नवीन
छंद के रूप में ग्रहण किये हुए हैं।
वृहत् खंड योजना में छंदात्मकता
लाना
मात्रा या वर्ण छान्दसिक रचना की लघु इकाई की भूमिका
में होते हैं। जब कवि एक मात्रा समूह को इकाई मानकर
रचना में उसकी आवृत्ति को आधार बना लेता है तो उसमें
लयात्मकता आ जाती है जो छंद का प्रकार्य करने लगती है।
इससे उत्पन्न लय का लाभ उठा कर समकालीन गीतकारों ने
अनेक गीति रचनाएं प्रस्तुत की हैं। यथा-
दौड़ी हिरना
बन-बन अँगना
बेंतों बनों की चोर मुरलिया
समय संकेत सुनायें
नाम बजाये
सांझ सकारे
कोयल तोतों के संग हारे
ये रतनारे १०
-नरेश मेहता
इस उद्धरण में ’आठ मात्राओं‘ के समुच्चय की आवृत्ति
है। आठ मात्रा के वृहत खंड की आवृति ही एक ऐसा तत्व है
जो इसमें छान्दसिकता का अहसास करता है। इन खंडों को
तिर्यक द्वारा इस प्रकार दिखाया जा सकता है ’दौड़ी
हिरना/बन बन अँगना/बेंत बनों की/चोर मुरलिया/समय संकेत
सु/(नाये/नाम बजाये/सांझ सकारे/कोयल तोतों/के संग
हारे/ये रतनारे‘- यहाँ ’नाय‘ जोकि वाक्य का समापन अंश
है, को छोड़कर शेष अंश आठ-आठ मात्राओं के खंडों से रचा
गया है, इससे इसमें समानान्तरता व्याप्त हो गई है जोकि
छंद रचना का मूल आधार होती है। समकालीन नवगीतकारों ने
इस तत्व को समझकर अपने गीतों में इसका जगह-जगह प्रयोग
किया है तथा इससे नवीन छंद की अपनी अवधारणा को बल
प्रदान किया है।
सम्पूर्ण विवेचन ये यह निष्कर्ष निकलता है कि समकालीन
गीतों में जहाँ भाषा-संरचना में विविध तत्वों का
समावेश उसे एक नये रूप में प्रस्तुत करता है, उसी
प्रकार इन गीतों का छंद विधान, परंपरागत छंदों तथा
नवीन छंदों को अपनाकर छान्दसिकता में नये आयाम जोड़ता
है। छंद के इस विविधता पूर्ण अस्तित्व से समकालीन
गीतों का क्षेत्र बहुत व्यापक हो गया है तथा इसमें अब
नयी-नयी संभावनाएं दिखाई देने लगी है। भाषा संरचना एवं
छंद के अतिरिक्त इन गीतों में शिल्प के अन्य तत्व भी
ऐतिहासिक महत्व रखते हैं।
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सन्दर्भ
१. आहत हैं वन-कुमार रवीन्द्र- पृ-२५ -१९८४ पराग
प्रकाशन दिल्ली
२. हम अपनी खबरों के भीतर-अनूप अशेष- पृ.- ४९, -१९९७
साहित्य संगम प्रकाशन इलाहबाद
३. खुशबुओं के दंश-योगेन्द्र दत्त शर्मा ’अरूण‘ पृ.-
४८ -१९८६ काकली प्रकाशन गाजियाबाद
४. कांपती बांसुरी-डॉ. वीरेन्द्र मिश्र- पृ.-२३ -१९८७
शैवाल प्रकाशन, गोरखपुर
५. पांच जोड़ बाँसुरी-सम्पादक-चन्द्रदेव सिंह- पृ.-
१२४- १९६९ भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, काशी
६. हम अपनी खबरों के भीतर-अनूप अशेष पृ.-२०
७. पहनी हैं चूड़ियाँ नदी नें - देवेन्द्र शर्मा
’इन्द्र‘ पृ. -८३- १९९८ अनुभव प्रकाशन, गाजियाबाद
८. फसल बबूलों की - गुरूदत्त अग्रवाल पृ.-२७ - १९७५
सहयात्रा प्रकाशन, आगरा
९. यात्रा में साथ साथ सम्पादक-देवेन्द्र शर्मा
’इन्द्र‘ पृ. ४३-१९८४ पराग प्रकाशन दिल्ली
१०. पाँच जोड़ बाँसुरी-सम्पादक-चन्द्रदेव सिंह पृ. ५६ |