नवगीत में लोकतत्व की उपस्थिति
डॉ.
जगदीश व्योम
कविता मनुष्य को और बेहतर मनुष्य बनाने के उद्देष्य से
लिखी जाती है। जो कविता लोक के जितने निकट होगी, वह
उतनी ही लोकप्रिय एवं दीर्घजीवी होगी। क्योंकि
प्रत्येक मनुष्य लोक से किसी न किसी प्रकार से जुड़ा
हुआ है। लोकजीवन से विलग होकर कोई व्यक्ति बहुत दिनों
तक जीवित नहीं रह सकता। उसे किसी न किसी रूप में लोक
पर निर्भर रहना ही पड़ता है। लोक से ही निकल कर हम
आधुनिक और अत्याधुनिक बनते हैं। कभी-कभी हमें लगता है
कि आधुनिकता के शिखर पर खड़े हाने के बाद लोक से हमारा
भला क्या रिष्ता है ? परन्तु यह उसी प्रकार है जैसे
किसी पेड़ की कोई डाली या पत्ती पेड़ के शिखर पर पहुँचते
ही अपने को पेड़ की जड़ से अलग समझने का भ्रम पाल ले।
ठीक इसी प्रकार से साहित्य का सम्बंध लोक और लोक जीवन
से है। वासुदेव शरण अग्रवाल के शब्दों में-
‘‘वही साहित्य
लोक में चिरजीवन पा सकता है, जिसकी जड़ें दूर तक पृथ्वी
में गईं हों। जो साहित्य लोक की भूमि के साथ नहीं
जुड़ा, वह मुरझा कर सूख जाता है।’’
समय के अनुसार कविता की विभिन्न विधाओं में परिवर्तन
होता रहता है। क्योंकि एक ही तरह की कविता को
सुनते-सुनते पाठक ऊबने लगता है और वह कुछ अलग हटकर
पढ़ना व सुनना चाहता है। परिणामस्वरूप समय-समय पर कविता
की विधाओं में परिवर्तन होता रहता है। गीत के बाद
नवगीत इसी परिवर्तन का ही परिणाम कहा जा सकता है।
भाषा बहते हुए नीर की भाँति होती है इसलिए उसमें नए
शब्दों, नई भाव-भंगिमाओं, नए मुहावरों का आगमन होता
रहता है। नवगीतों में अपनी अनुभूति को कुछ नए ढँग से
प्रस्तुत करना ही उसकी पहचान बनी। नवगीत में आम आदमी
की पीड़ा, उसकी विवशताएँ, शोषण आदि को नवगीतकारों ने
सीधे-सीधे प्रस्तुत किया, यही कारण है कि नवगीत आम
आदमी से सीधे जुड़ रहा है, उसके दुख-दर्द को वाणी दे
रहा है। नवगीत में यदि आम आदमी की भाषा व मुहावरों के
विशेष शब्द नहीं
होंगे तो भला वह आम आदमी को व्यक्त कैसे कर सकेगा।
लोक समाज की एक और विशेषता है कि वह जो कुछ माँगता है
लोक से ही माँगता है, किसी और के सामने हाथ फैलाने वह
कभी नहीं जाता है। उसकी आवश्यकताएँ सीमित हैं और उसका
मन बहुत बड़ा है, वह स्वयं अभावों में जीता है परन्तु
किसी से अपेक्षा नहीं रखता। वह भाषा का डिक्टेटर होता
है। शब्दों को स्वयं निर्मित करता है, स्वयं
लोकोक्तियाँ गढ़ता है, अपने मुहावरे स्वयं बनाता है और
समय-समय पर अपने लिए काव्यों और महाकाव्यों को भी रचता
है। परन्तु पढ़े-लिखे (मुनिजन) लोग उसके मौलिक सृजन को
कुछ हेर-फेर करके अपना सृजन कहने लगते हैं।
लोक साहित्य के पुरोधा डा. सत्येन्द्र के शब्दों में-
‘‘जन मानस और
मुनिमानस का संघर्ष आज का नहीं है। मुनि ने सदा यह
दावा किया है कि उनकी रचना में शाष्वत प्रकट होता है,
और उसने जहाँ तक हो सका है जन और उसकी कृति की अवहेलना
की है, उसे हेय बताया है। ..... शताब्दियों पूर्व
वेदों की रचना हुई। उन्हें जिस वर्ग ने निर्माण किया,
उसी वर्ग के अन्य व्यक्तियों उसे अलौकिक और अपौरुषेय
बताया। ऐसा उनका अपना आतंक और प्रभाव जमाने के लिए
किया जाता रहा। यह आधुनिक काल तक न रह सका। लौकिक
काव्य की उद्भावना हुई और आदि कवि बाल्मीकि ने रामायण
रच डाली, वह उनकी रचना मुनि-मानस का प्रतिफलन न था,
नहीं तो उसे लौकिक न कहा जाता। किन्तु मुनि-मानस एक और
धाँधली करता रहा है। जन-मन की सृष्टियों को वह अपनी
बनाता रहा है। बाल्मीकि और उनके वर्ग की रचनाएँ
मुनि-मानस की वस्तुएँ हो गईं। जन का जो सुन्दर था उसे
अपने लिया गया। वह परिमार्जन और संस्कार करना जानता
है। लोक मानस से सामग्री लेकर उन पर केवल कलई
मुनि-मानस कर देता है। मुनि को विद्वान कहा जा सकता
है, तत्तवदर्षी कहा जा सकता है, किन्तु उसके पास जो
कला है वह अपनी नहीं। कला के लिए उर्वर भूमि की
आवश्यकता होती है। स्वतंत्रता
और मुक्ति ही उर्वरता है।’’ - (डा. सत्येन्द्र, लोक
साहित्य विज्ञान, पृ.-३६७-३६८, द्वितीय संस्करण-१९७१)
लोक मानव के पास यही उर्वर भूमि है, यही कारण है कि
जीवन की हर स्थिति को अभिव्यक्त करने के लिए उसके पास
सामग्री है। लोक मानव ने शोषण को स्वयं झेला है इसलिए
शोषित की पीड़ा जिस ढँग से वह व्यक्त कर सकता है वैसी
कोई और नहीं। जब किसी ऐसे प्रसंग के लिए लिखे जा रहे
नवगीत में लोकगीत या लोकभाषा की उपस्थिति होती है तो
उस गीत या नवगीत की संप्रेषणीयता और बढ़ जाती है,
क्योंकि उन संदर्भों का विश्लेषण श्रोता के अन्तस में
बैठे हुए लोकगीत या लोकगाथा या किसी लोक संदर्भ के
सहारे पल भर में सहज हो जाता है और वह उसका भरपूर
आनन्द लेने में सक्षम हो जाता है।
वीरेन्द्र आस्तिक जी के नवगीत की पंक्ति-
‘‘हिरना इस जंगल में / कब पूरी उमर जिए.........।’’
सुनते ही अवधी का वह प्रसिद्ध लोकगीत जो सदियों से
लोकजीवन में व्याप्त है और सामन्तवादी व्यवस्था में आम
आदमी पर होने वाले शोषण का जीवन्त दस्तावेज है, अनायास
याद आ जाता है और सामन्तवादी सोच को पल भर में श्रोता
के समक्ष चित्र की भाँति खोलकर देता है।
परिणामस्वरूप श्रोता या पाठक ऐसे किसी भी नवगीत का
भरपूर आनन्द ले सकता है। नवगीत जब किसी लोकगीत के साथ
भाषा या भाव के स्तर पर तादात्म्य बना लेता है तो उसका
फलक बहुत और बहुत विस्तृत हो जाता है। अवधी भाषा का यह
सुप्रसिद्ध लोकगीत तमाम नवगीतों की रेशमी गाँठों को
सुलझाने में आम श्रोता या पाठक की बहुत मदद करने में
सक्षम है-
(छापक पेड़ छिउलिआ अर्थात ढाक का ऐसा पेड़ जो उँचाई में
कम हो और फैला हुआ हो, खूब पत्ते हों, के नीचे हिरनी
खड़ी हुई है और उसका मन अनमना सा हो रहा है।)
छापक पेड़ छिउलिया त पतवन गहवर हो।
रामा तिहि तर ठाड़ि हरिनियाँ, त मन अति अनमन हो।
(हिरनी को अपने पुराने दिनों की याद आ जाती है, जब
उसके साथ उसका हिरन था। एक दिन अचानक हिरनी को उदास
देखकर वह पूछ बैठा कि वह क्यों उदास है ? क्या उसका
चारागाह सूख गया है अथवा प्यास के कारण उसका मुख
मुरझाया हुआ है?)
चरत हि चरत हरिनवा, त हिरनी से पूछई हो
हिरनी! की तोर चरहा झुरान कि पानी बिनु मुरझइ हो।
(हिरनी अपनी
उदासी का कारण बताते हुए हिरन से कहती है कि न तो मेरा
चारागाह सूख गया है और न ही मुझे प्यास लगी है बल्कि
मेरे उदास होने का कारण ये है कि राजा जी के यहाँ उनके
बेटे की कल छठी है और राजा जी कल तुम्हें मरवा
डालेंगे) -
नाहीं मोर चरहा झुरान, न पानी बिनु मुरझइ हो
हरिना ! काल्हि
है राजा जी के छट्ठी तुहें मारि डरिहइँ हो।
(कालांतर में वही होता है जो हिरनी सोच रही थी, उसका
पति हिरन राजा के शिकारियों द्वारा मार डाला जाता है।
हिरनी अपने हिरन को तो नहीं बचा सकी परन्तु वह हिरन की
स्मृति को सुरक्षित रखने के उद्देष्य से मृत हिरन की
खाल को माँगने के लिए रानी के पास पहुँचती है और रानी
से प्रार्थना करती है कि हे रानी ! आप मेरे प्रिय हिरन
का माँस रसोई में पका लीजिए परन्तु उसकी खाल यदि आप
मुझे दे देतीं तो मैं अपने हिरन की खाल को पेड़ पर टाँग
लेती और अपने मन को समझाती रहती, मैं घूम फिर कर अपने
प्रिय हिरन की खाल को ही देख-देख कर अपने मन को समझा
लिया करूँगी कि मेरा हिरन जिन्दा है और वह मेरे साथ ही
है) -
मचियहि बैठी कोसिला रानी हिरनी अरज करै हो
रानी, मंसुवा त सिझहीं रसोइया खलरिया हमें देतिउ हो।
पेड़वा ते टंगवइ खलरिया त मन समुझाउब हो
रानी, हेरि-फेरि
देखितउं खलरिया जनकु हरिना जियतइ हो।
(हिरनी की इस करुण कातर प्रार्थना पर रानी को थोड़ी भी
दया नहीं आती है और वह हिरनी को दुत्कारते हुए कहती है
कि- हे हिरनी तुम यहाँ से भाग जाओ, मैं तुम्हें हिरन
की खाल नहीं दूँगी, इस खाल से मैं खँजड़ी मढ़वाउँगी
जिससे मेरे प्रिय राम खेला करेंगे) -
जाहु-जाहु हिरनी घर आपन, खलरिया नांहिं देतिउँ हो
हिरनी ! खलरी के खँजड़ी मिढ़उबइं त राम मोर खेलिहइं हो।
(हिरन की खाल से खंजड़ी मढ़वा ली जाती है और बालक राम
उसे बजा-बजा कर खेलते हैं। हिरनी खंजड़ी के बजने की
आवाज सुनती है तो उसे अपने प्रिय हिरन की याद आ जाती
है। जब-जब खंजड़ी बजती है तब-तब खंजड़ी का शब्द सुनकर
हिरनी करुणा से भरकर अहँकती है, और उसी ढाक के पेड़ के
नीचे खड़े होकर अपने प्रिय हिरन को याद करती है)
जब-जब बाजइ खंजड़िया, सबद सुनि अहँकइ हो
हिरनी ठाड़ि
ढकुलिया के नीचे हरिन के बिसूरइ हो।
इस सोहर लोकगीत में करुणा फूटकर बह निकली है। सामंत
कालीन ऐसी व्यवस्था जिसमें आदमी की कोई कीमत नहीं। वह
राजा के परिवार के लिए खाद्य सामग्री भी होता तो भी
ठीक था, वह तो उसके बच्चे के मनोरंजन भर का साधन मात्र
है। हिरन सामान्य जनता का प्रतीक है। आज भी एक मजदूर
या गरीब आम आदमी अपने सामान्य अधिकारों से प्रायः
वंचित रह जाता है। उसके द्वारा किये गए श्रमफल से
पूँजीवादी आज भी खेल रहा है। यही सब तो आखिर एक नवगीत
के सृजन का कारण बनता है। लोकजीवन की इन विसंगितियों
और विद्रूपताओं को गहराई से समझे बिना कविता नहीं
लिखी जा सकती।
लोक को बिना समझे नवगीत लिखना सरासर बेमानी है। इसका
आशय ये कदापि नहीं है कि नवगीत, लोकगीत की तरह से लिखा
जाए, परन्तु यह आवश्यक है कि नवगीत में लोकतत्तव की
उपस्थिति हो। नवगीतों में जब लोकतत्तवों का अभाव होता
है तो उनकी उम्र बहुत कम हो जाती है। जो नवगीत श्रोता
या पाठक के मन पर सीधे प्रभाव डालते हैं, वही कालजयी
नवगीत बन पाते हैं। उन्हीं की चर्चा लम्बे समय तक होती
है। लम्बे समय तक जीवित रहने वाले नवगीतों के लिए
रचनाकार का नाम बहुत महत्तव नहीं रखता, महत्तव रखता है
तो उसकी भाषा की सहजता, लोक से जुड़ाव, उसकी
संप्रेषणीयता और उसकी प्रस्तुति। |